Saturday 23 June 2018

मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूं !


निरंजन श्रोत्रिय के कविताकर्म पर युवा कवि गणेश गनी

उसे कविता लिखने का शौक है और उसकी आत्मा को संगीत का। कविता दोनों काम कर रही है। वाल्टेयर ने कहा है कि कविता आत्मा का संगीत है। तो यह भी सच है कि संगीत आत्मा का भोजन है। वो चाहता है कि आत्मा को बेहतरीन संगीत मिले इसलिए तो वो बेहतरीन कविता लिखना चाहता है। तो कविता की खोज अनवरत रहती है। कविता न तो रियाज़ से बनेगी और न ही पढ़ने से। रियाज़ से नृत्य में निखार आ सकता है, वाद्ययंत्र भी काबू आ सकते हैं और अध्ययन से बौद्धिकता की सीमा को बढ़ाया जा सकता है, लेकिन कविता या तो आएगी या नहीं आएगी। यदि तुम चल सकते हो तो नाच भी सकते हो, तुम बोल सकते हो तो गा भी सकते हो। यहां अभ्यास अपना काम करेगा। परंतु कविता का सम्बन्ध आत्मा से है, यह हृदय का विषय है। 
निरंजन श्रोत्रिय की कविताओं में आकर्षण है, ताज़गी है, सादगी है और पाठक के हृदय तक जाती हैं। कम कवि हैं जो डूबकर लिखते हैं, गहरी बात आसानी से थोड़े शब्दों में कह जाते हैं-

पंछी उड़ा तो 
उड़ा इस बार थोड़ा सा आकाश भी
उड़ी थोड़ी सी धरती भी पैरों से चिपकी
उड़ा और भी बहुत कुछ

पंछी उड़ा तो
इस बार पंखों के नीचे दबाकर ले गया
क्षितिज छूने का संकल्प।

कविता की दुनिया बड़ी रहस्यमयी है। कविता को चोरी किया जा सकता है, कविता लिखने की तकनीक को कैसे चोरी करोगे। एक बार की बात है। एक चिड़िया और एक मधुमक्खी की मित्रता हुई। चिड़िया ने मधुमक्खी से कहा कि तुम इतना परिश्रम करती हो शहद बनाने में और इन्सान आता है, चुपके से तुम्हारा सारा शहद चुराकर ले जाता है। मधुमक्खी ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि भले ही इंसान मेरा बनाया सारा शहद चुरा लेता है, परंतु वो आज तक शहद बनाने की मेरी तकनीक नहीं चुरा पाया।
वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के इस दौर में मौलिकता का भी ह्रास हुआ है। आज भी कुछेक अनछुए गांव बचे हैं जहां मौलिकता को महसूस किया जा सकता है, छुआ जा सकता है। गांव में एक खूबसूरत चीज़ यह भी होती है कि घर की दहलीज़ से ही खेतों की सीमा आरम्भ हो जाती है। ढलानों पर बने सीढ़ीदार खेतों के बीच बीच में बचे हुए हिस्से घास के लिए होते हैं और इन्हीं हिस्सों में अखरोट, सेब, नाशपती तथा कुछ जंगली फलों के पेड़ बसे रहते हैं। बसंत के मौसम में इन्हीं स्थानों पर आकाशवर्णी तथा पीले फूल खिलते तो रंग बिरंगी तितलियाँ और भँवरे फूल दर फूल सैर करते। क्या मजाल कि कोई पंखुड़ी भी टूट जाए। चिड़ियों की अलग दुनिया होती। झींगुर भरी दोपहर तान छेड़े रहते। गांव के सामने वाले पहाड़ पर एक बड़ा सा जलप्रपात बहुत ही सुंदर नज़ारा बनाए रखता और इसका सफेद पानी नीचे उतरकर चनाब में जा मिलता तो लगता कि इस झरने की यात्रा पूरी हो गई। अब बताओ कोई लिखे तो क्या लिखे इन सबके लिए! 
कवि निरंजन श्रोत्रिय सही बात पकड़े हैं। हम वो नहीं देख पा रहे जो देखना चाहिए इन आँखों को। फिर यह भी सत्य है कि अभी वो बात लिखी जानी बाकी है जिसे अब तक सोचा ही नहीं गया-

जितनी बार एक नई चिड़िया देखता हूँ
एक नई कविता लिखता हूँ
दुनिया में दस हज़ार किस्म की चिड़ियाँ हैं
लेकिन मेरी कविताएं बहुत ही कम
इसका अर्थ यह कतई नहीं कि
मैं कविताएं नहीं लिख पा रहा
केवल यह कि
मैं चिड़ियाँ नहीं देख पा रहा।

बहुत पुरानी बात है। कहते हैं कि किसी राज्य की एक राजकुमारी के माथे पर जन्म से ही चाँद था। राजा रानी को यह चिंता खाए जा रही थी कि कोई इस चाँद को देख न ले, इसलिए राजकुमारी के माथे पर मिट्टी का लेप लगा दिया करते थे ताकि चाँद को छिपाया जा सके। बहुत सालों बाद एक शाम राजकुमारी ने मिट्टी को अपनी कलाई से पोंछ दिया। दूर एक अन्य राज्य के राजकुमार ने उस रात यह चाँद देखा। 
बचपन में ही चनाब छूटी तो रावी के करीब रहने के दिन आए। इधर रावी के आर पार लोकगीतों में भरी प्रेमकथाएं लुभाती रहीं। बाद में पता चला कि रावी का पानी चनाब के पानी से भी तेज गति से बह गया। अचानक वो समय आया जब रावी के पुल को अंतिम बार पार किया। साथ एक डायरी रही जिसके पन्नों पर वो लिखा जो था नहीं। जो था वो कभी लिखा ही नहीं गया। इस यात्रा में आगे बढ़ा तो एक और नदी रास्ते में आई। ब्यास की अपनी रवानगी है। इसके किस्से भी उसी डायरी के पन्नों पर दर्ज हैं।
वह पहले फूलों, तितलियों, चिड़ियों के लिए लिखता था। फिर बड़ा हुआ तो लड़कियों के लिए लिखा। नदियों की तरह ही दोस्त भी बिछुड़े तो लिखा। फिर इधर से नज़र उधर गई तो देखा कि जो लिखा वो तो व्यर्थ था। कलम तो भूख, दुःख, अन्याय, भ्रष्ट व्यवस्था आदि पर लिखने के लिए बनी है। एक कवि ऐसे अंधकार को भेदना चाहता है-

महल में 
अंधेरा होने पर दीये जलाओ
मशाल नहीं
राजा डरता है मशाल से।

मुल्क में
अंधेरा होने पर
कुछ मत जलाओ
प्रजा अंधेरे की अभ्यस्त है।

दिसम्बर की रात में
जलते अलाव को देखकर
डरें नहीं राजन!
लोग ठंड भगा रहे हैं
अंधेरा नहीं!

कवि
रात के सन्नाटे में
अंधेरे को घूर नहीं रहा
भेद रहा है।

व्यवस्था का काम है आम आदमी को भटकाव में रखना।पर कवि जानता है कि असली मुद्दे तो कुछ और हैं जिनका सरोकार अवाम से है। उसने अपने मन में एक सुंदर समाज की तस्वीर बना ली। अब बेचैनी बढ़ने लगी।
उसको हमेशा इस बात की पीड़ा रहती थी कि जो छवि उसके मन में इस समाज की है वो हकीकत क्यों नहीं बन पा रही। अब उसका क्रोध विद्रोह में बदलने लगा। रातों में नारे लिखना और दोस्तों के साथ मिलकर दीवारों पर चिपकाना, सुबह हड़ताल करना व्यवस्था के ख़िलाफ़। फिर आश्वासन मिलना और केवल वादों में और समझौतों में समस्याओं को हल करने का नाटक खेला जाना। समय बीतता जाता और तस्वीर लगभग वैसी की वैसी ही रहती। उसे डायरी के पन्नों पर अपनी बात लिखने से थोड़ी राहत मिलती। तनाव कम होता। 
हमें रोटी देने वाला हलवाहा किस मानसिक दशा से गुज़र रहा है, कोई जानना नहीं चाहता। कवि निरंजन श्रोत्रिय ने एक कविता में किसान के रोने का ज़िक्र किया। किसानी करने वाला मेहनतकश तब रोता है जब उसकी ज़मीन छीन ली जाती है। वह फ़सल ख़राब होने पर कभी नहीं रोता, बल्कि अगली फ़सल बोने के लिए बीज जुटाता है, बैलों की पीठ थपथपाता है, हल के साथ साथ वह अपनी भी कमर कसता है-

पूरी दुनिया से अलग होती
दो बीघा खेत की दुनिया

दो बीघा खेत का 
सूरज अलग
हवा अलग
बादल अलग

दो बीघा खेत पर हल जोतता आदमी
दुनिया की भीड़ से अलग होता

एक जोड़ी बैल, हल और
दो बीघा खेत की दुनियादारी में फंसा वह
बेखबर है संसार में जमा हो रहे हथियारों से

अपना वोट पेटी में खोंस
घिर आये बादलों को तकता 
दो बीघा खेत की सल्तनत का बादशाह
मानता है इस भूखंड को
दुनिया की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई

ममत्व से सहलाता
दो बीघा खेत में उग आये
बच्चों के गाल, पीठ और अंगुलियाँ
चूमता उनके जवान होते सुनहले माथे को

फिर अचानक एक दिन
दो बीघा खेत का मालिक
भींचकर अपना अंगूठा मुट्ठी में
कभी रोने तो कभी गरजने लगता है।

एक शाम वो सुखना झील के किनारे बैठा बत्तखों और नावों को तैरते देख रहा था। धीरे धीरे अंधेरा बढ़ने लगा। नाव तो किनारे पर लग गईं, पर बत्तखें कहीं नज़र नहीं आईं। झील के उस पार लाइट हाउस की रोशनी झिलमिला रही थी। उसने लौटने से पहले अपनी आँखों में थोड़ी सी रोशनी भरी। उस रात उसने कुछ नहीं लिखा। बस जो लिखा था उसे नष्ट किया। मन हल्का हुआ तो नींद गहरी आई। इस बीच एक कवि उजाले के उस पार भी अंधेरा देख पा रहा था। निरंजन कहते हैं कि एक कवि ऐसे समय में कविता शुरू ही नहीं कर पा रहा-

कविता जो शुरु करना चाहता था कवि
उमंग, उल्लास, उजास, उम्मीद जैसे कुछ शब्दों से
लेकिन नहीं कर सका
क्योंकि वह देख पा रहा था
इस जगमग रोशनी के पार
पसरा हुआ एक अँधियारा जो ध्ंसा हुआ था
पृथ्वी की आत्मा में
लोग खुश थे- खिलखिला रहे थे
मार रहे थे ठोकर पैरों में लोटते किसी भयावह सच को।

समय बीतता गया। पानी बहता गया। दोस्त बनते रहे और बिछुड़ते गए। व्यवस्था में ज़्यादा बदलाव नहीं हुआ। बस चल रहा है जैसे कैसे। रोटी की व्यवस्था में संघर्ष की दिशा मुड़ गई। बेचैनी बराबर बनी रही। मन उदास भी रहता। संगीत सुनना छूटने लगा। सुंदर चीज़ें भी आकर्षित  करने में असमर्थ होने लगीं। लिखने पढ़ने का अब मन ही नहीं करता। उसे और मुश्किल का सामना करना पड़ता। मन में युद्ध चलता रहता। विचारों को किससे साझा करे? अपनी परेशानी में किसे शामिल किया जाए? 
सत्तासीन लोग अपने आसपास भारी भीड़ जुटाने में समर्थ हैं, एक ऐसी भीड़ जिसके पास दिमाग नहीं होता, बस एक भरोसा होता है कि उनका कुछ न कुछ तो बन ही जाएगा। इन लोगों से सिंहासन के चारों ओर जो घेरा बन जाता है, वो इतना मजबूत हो जाता है कि जनता के दुःख उसे तोड़ नहीं पाते। सत्ता सुख भोगती है। सरकार की अपनी ताकत है। वो जो चाहे वही होता है। कवि कहता है उनकी मंशा उनके शब्दों में उतर जाती है-

उन्होंने कहा फूल 
मुरझा गए
उन्होंने कहा नदी 
सूख गई
उन्होंने कहा आग
बुझ गई
उन्होंने कहा मनुष्य
मर गए
उनकी मंशा अंततः 
उनके शब्दों में उतर चुकी थी।

एक दिन चलते चलते उसका हाथ एक दोस्त ने धीमे से मगर एक मजबूत पकड़ और अद्भुत गर्माहट के साथ पकड़ा और कहा मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूं। उसने महसूस किया कि यह साथ कभी न छूटने वाला है। आंखों में तैरते सपने एक जैसे ही थे। अचानक आसपास तितलियों का उड़ना और फूलों का खिलना इस बात की पुष्टि कर रहा था कि कठिन समय आसान होने जा रहा है। उसने रात में एक कविता लिखी। सुबह संगीत सुना। दिन में सूरज की रोशनी में छिपे सात रंग देखे। तब से वो अपनी अनुभूतियों को लिख रहा है। उसके विषय अब फिर लौट आए हैं। वो फूलों के लिए लिख रहा है, तितलियों के लिए लिख रहा है, हवा के लिए लिख रहा है, मिट्टी के लिए लिख रहा है, एक दोस्त के लिए लिख रहा है। 
वो इसलिए लिखता है कि बहुत सी अनुभूतियों को व्यक्त नहीं कर पाता, बहुत सी बातों को संकोचवश कह नहीं पाता, छोटी छोटी बातों की शिकायत नहीं करता। वो अपनी सम्वेदनाओं को प्रकट नहीं कर पाता, इसलिए लिखता है। लिखना उसके लिए सम्वाद जैसा है। जाने अनजाने में की गई गलतियों की माफ़ी के लिए लिखता है, जो कुछ अनैतिक है तो उसके विरोध में लिखता है वो। व्यवस्था के खिलाफ लिखता है और सच्चाई के पक्ष में भी डटकर लिखता है। वो इसलिए लिखता है ताकि सच ज़िन्दा रह सके। दरअसल वो जीना चाहता है। अपनी यादों को संजोए रखना चाहता है। कठिन समय में मनोबल ऊंचा बनाए रखना चाहता है। अंतिम बात यह कि फिर सभी कवि क्यों नहीं बन जाते। इसका सीधा उत्तर है कि सभी प्रेम भी तो नहीं करते। प्लेटो ने ठीक ही कहा है कि प्रेम के स्पर्श से सभी कवि बन जाते हैं। कवि निरंजन श्रोत्रिय ने प्रेम पर अपनी बात कुछ यूं कही है-

इस नपी तुली दुनिया में
पहले प्यार की कोई शर्त नहीं होती
वह हो जाता है यूं ही
कभी भी, किसी से भी, कहीं भी

लेकिन फिर भी गुलाब अपना इकलौता रंग
सौंपता है उसी क्षण
आगामी इंद्रधनुष को।

                          - गणेश गनी, 23.06.18

7 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 08 मई 2021 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
    !

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  2. वाह!वाह!! एक कवि का भावपूर्ण परिचय! हार्दिक शुभकामनाएं!!

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  3. अप्रतिम समीक्षा। कवि निरंजन श्रोत्रिय जी के कविताकर्म का परिचय देता हुआ उत्कृष्ट आलेख।

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  4. बहुत आभार।
    -गणेश गनी

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