Monday, 4 June 2018

साहित्यकार महाकवि व्याकुलजी / पूरन सरमा


वे साहित्यकार थे और अक्सर बीमार रहते थे। बीमारी और साहित्य का सानिद्ध भारतेंदु काल से चला आ रहा है। हालांकि वे आधुनिक काल के रचनाकार थे, परन्तु उनकी मान्यता और विचारधारा में नये युग की वजह से कोई ज्यादा अंतर नहीं आया था। इसी कारण वे अप्रकाशित रचनाकार थे। इस युग के सम्पादक उनकी रचनाओं को अपने पत्र में स्थान नहीं दे रहे थे। इसलिए उनका ज्यादा साहित्य उनके ही पलंग के नीचे गट्ठर के रूप में वर्षों से सुरक्षित है। चाहे उनकी रचनाओं का प्रकाशन न के बराबर हुआ था, परन्तु वे पैंतीस साल की अपनी साहित्य साधना से अपना कद काफी बढ़ा चुके थे। वे स्वनामधन्य व मूर्घन्य साहित्यकार का स्वरूप ग्रहण कर चुके थे।

रूग्ण साहित्यकार होने से उनका सम्पर्क अस्पतालों से काफी हो गया था। कफ, खांसी और अस्थमा उनका साथ नहीं छोड़ता था। इस बीमारी की हालत में भी वे अस्पताल कर्मियों को यह जानकारी देने से नहीं चूकते थे कि वे बहुत बड़े साहित्यकार हैं।

इस बात से हालांकि इस अव्यवस्थित होती जिन्दगी में अस्पताल कर्मियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। परन्तु उनको तसल्ली यह हो जाती थी कि उनका ट्रीटमैंट साहित्यकारी की वजह से वी.आई.पी. की तरह होता रहा है। वे अस्पताल के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर डॉक्टर तक को यह बताना आवश्यक समझते थे कि वे साहित्यकार हैं।

दरअस्ल वे कवि थे। वर्ष में छपी एकाध रचनाओं को अपने झोले में डाले हर किसी से पूछते कि उन्होंने उनकी अमुक रचना पढ़ी या नहीं ? अस्पताल कर्मियों का साहित्य से दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं होता, वे स्वीकृति में जबरन सिर हिलाकर उनका मन रख लेते।

हर तीसरे-चौथे रोज अस्पताल जाना और अपनी साहित्यकारी के योगदान और उससे जुड़े किस्से अपनी जबान से सुनाना, उन्हें अत्यंत प्रिय था। वे खुद ही घोषणा करते कि वे बड़े साहित्यकार हैं और वे जल्दी ही एक अनियतकालिक पत्रिका निकालने जा रहे हैं। अस्पताल कर्मी अपनी सेवा व्यवस्तताओं के मध्य ही उनकी बात सुनकर अनसुना करके काम में डूब जाते। उनको यानि व्याकुल जी को यही बुरा लगता था।

उनके कंधे पर लटका हुआ झोला, झोला क्या था, हिन्दी साहित्य का सम्पूर्ण इतिहास था। उसमें शहर के दूसरे साहित्यकारों के आलोचनात्मक पेपर और उन्हें नीचा दिखाने की करतूते भरी थीं। व्याकुलजी ने साहित्य को पूरी तरह से ओढ़ लिया था और वे कई बार उसे बिछाकर अस्पताल के आगे लगे पेड़ों की छाया में लेट भी जाते थे।

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सेवानिवृत्ति के बाद उनके पास पर्याप्त समय था। परन्तु वे सामने वाले के समय से बेपरवाह थे। एक बार व्याकुलजी जब अपनी बीमारी के बारे में कम और साहित्य के बारे में अधिक जानकारी दे रहे थे तो डॉक्टर ने कहा-व्याकुलजी आप अपनी बीमारी का हाल-चाल बताओ, यह तो पूरा अस्पताल जानता है कि आप जाने-माने प्रसिद्ध साहित्यकार हैं ? मेरा मतलब खांसी चलती है क्या और चलती है तो उसके साथ बलगम भी निकलता है क्या ?’

व्याकुलजी बोले-डॉक्टर सा, आज सुबह जब मैं वसंत पर कविता लिखने बैठा तो हल्का सा जाड़ा लगा और उसके बाद खांसी के साथ बलगम भी आया। कहीं शीतकाल में वसंत के स्मरण मात्र से तो कोई बॉडी ने रिएक्ट तो नहीं किया है ?’

नहीं, ऐसा नहीं है। आप कफ-खांसी के क्रॉनिक पेशेंट हैं। वायरस चल ही रहा है तो बर्फानी हवाओं ने आपके गले को इन्फेक्टेड कर दिया है। तीन दिन एंटीबायोटिक लेवो, आराम मिल जायेगा। यदि आपको मनोवैज्ञानिक रूप से लगता है कि वसंत आपको बेचैन करता है तो आप वसंत को छोड़ दीजिये, वैसे भी वसंत आउटडेटेड हो चुका है। वसंत की प्रासंगिकता अब जीवन में रह क्या गई है।

डॉक्टर ने बताया तो व्याकुलजी को बातों का रस मिल गया, वे बोले-सच कह रहे हैं डॉक्टर साब आप। वसंत को भुला दिया है लोगो ने। नये कवि नई कविता नाम से जो कवितायें लिख रहे हैं, उनका कोई अर्थ नहीं निकलता। कोई छन्द या लय नहीं और कविता लिखी जा रही है। आप कहें तो मैं आपको अपनी एक ताजा गजल सुनाऊं ?’

डॉक्टर के हाथों के तोते उड़ गये, वे बोले-देखिये मरीजों की लाइन लम्बी है। मैं ड्यूटी पर हूँ। कभी फुरसत में सुनूंगा आपकी ग़ज़ल। आप उठिये और ये दवायें लें। पहले आपका स्वास्थ्य जरूरी है। कविता तो आपकी रग-रग में है।यह कहकर डॉक्टर ने नेक्स्ट पेशेंटपुकारा।

निराश भाव में व्याकुलजी उठे और कम्पाउण्डर के पास जाकर बोले-नमस्कार गुप्ताजी, मैं व्याकुल हूँ। साहित्यकार व्याकुल। यह डॉक्टर साब एकदम रसहीन हैं। कविता से बिदक जाते हैं। जब भी कविता सुनाने का प्रस्ताव रखता हूँ, वे बहानेबाजी करके टाल जाते हैं। आपके पास वक्त हो तो एक कविता नोश फरमायें।

कम्पाउण्डर के होश फाख्ता, वह बगले झांकने लगा, फिर साहस बटोरकर बोला-व्याकुलजी इस समय मैं व्यस्त हूँ। आपकी भी तबियत ठीक नहीं है। आप तो पहुंचे हुये साहित्यकार हैं। अस्पताल में कविता सुनाना शोभा नहीं देता, आप तो किसी मंच पर सुनाओ। कविता को मान-सम्मान तभी मिलेगा।व्याकुलजी कविता सुनाने को बेचैन थे, बोले-गुप्ताजी मैं केवल कविता का मुखड़ा सुनाऊंगा, आगे का टुकड़ा जब आप फुरसत में होंगे तब ही गुनगुनाऊंगा।

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गुप्ताजी अकस्मात अपना स्थान छोड़कर कमरे से बाहर निकल गये और सीधे डॉक्टर के पास जाकर बोले-डॉक्टर साहब, मुझे व्याकुलजी से बचाओ। वे मुझे अपनी कोई कविता सुनाने पर अड़े हुये हैं। मेरे पास वक्त नहीं है। पेशेंट्स की लाइन लगी हुई है। उनकी कविता सुनूं या पेशेंट्स को दवा दूं !

डॉक्टर ने हालात को समझने में देर नहीं की और उन्होंने गुप्ताजी को अपने पास बैठाकर, चपरासी को बुलाकर कहा-रामधन, व्याकुलजी को तो जानते हो न ?’

रामधन व्याकुलजी के नाम पर हंसने लगा और बोला-व्याकुलजी को पूरा अस्पताल जानता है सर। आप बताइये उनसे क्या काम है ?’

उनसे काम नहीं है, उन्हें पेशेंट्स की लाइन से हटाकर अस्पताल को सुचारू रूप से चलाने को मार्ग प्रशस्त करो। जाओ जल्दी जाओ।रामधन डॉक्टर की आज्ञा शिरोधार्य करके व्याकुलजी के पास पहुंचा और बोला-व्याकुलजी, इधर आइये सामने पेड़ों की छाया में कुछ रसिक श्रोता खड़े हैं, आप चाहें तो अपना प्रयोग उन पर कर सकते हैं। मेरा मतलब उन्हें आप कविता का मर्म भी समझा सकते हैं।

व्याकुलजी रामधन की बातों में आकर लाइन से हट गये और मैदान में आ गये। रामधन ने उन्हें एक पत्थर पर बिठाया और अभी आयाकहकर अस्पताल में गुम हो गया। उधर व्याकुलजी अपने को कविता पाठ के लिए पूरी तरह तैयार कर चुके थे।

जब काफी देर तक रामधन नहीं आया तो व्याकुलजी उठे और फिर जा घुसे अस्पताल में। वही गुप्ताजी के सामने जा डटे। व्याकुलजी को देखकर गुप्ताजी की जान हलक में आ गई।

वे आव देखा न ताव जाकर डॉक्टर से लिपट गये और डरे-डरे से बोले-डॉक्टर साहब, मुझे बचाओ। व्याकुलजी फिर आ गये हैं।

इस बार वे काफी हिंसक नजर आ रहे हैं।यह सुनते ही डॉक्टर सकते में आ गये उन्होंने कहा-पहले कमरे के ंिकंवाड़ बंद करो। वे अब इधर ही आ रहे होंगे।रामधन ने किंवाड़ बंद कर मरीजों को शांत रहने को कहा।

तभी बाहर से दस्तक हुई तो डॉक्टर ने सबको चुप रहने का संकेत दिया। लेकिन बाहर किंवाड़ जोरों से भड़भड़ाये जा रहे थे। बाहर से व्याकुलजी की चीख सुनाई दी-किंवाड़ खोलो, मैं साहित्यकार व्याकुल हूँ। मुझे डॉक्टर, गुप्ता और रामधन की तलाश है। उन लोगोें ने मुझे धोखा दिया है।

मैं प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित साहित्यकार हूँ। इन लोगों ने मुझे ही नहीं साहित्य को ललकारा है। मैं उनको मुंहतोड़ जवाब देना चाहिता हूँ।यह कहने के बाद व्याकुलजी को खांसी उठी और अस्थमा का दौरा पड़ा तो वे वहीं गिर पड़े।

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डॉक्टर ने किंवाड़ खुलवाकर देखा तो उनके होश उड़ गये, व्याकुलजी घायलावस्था में वहाँ पड़े थे।

डॉक्टर ने व्याकुलजी को हिलाकर कहा-अस्पताल बाद में चला लेंगे व्याकुलजी, पहले आप अपनी कविता सुना दीजिये।व्याकुलजी की चेतना में हरकत हुई और वे कराहकर बोले-रामधन तुमने ठीक नहीं किया। मैं प्रसिद्ध साहित्यकार व्याकुल हूँ।गुप्ताजी बोले-व्याकुलजी, मुझे माफ करें। मैं आपकी कविता सुनने को तैयार हूँ।व्याकुलजी उठकर बैठ गये और झोले में से डायरी निकालकर कविता पाठ करने लगे। मरीज कराह रहे थे और अस्पताल रेलवे स्टेशन में तब्दील हो गया। डॉक्टर, गुप्ता और रामधन लाचार थे। वे प्रसिद्ध साहित्यकार की अनदेखी कर कोई जोखिम भी नहीं लेना चाहते थे। व्याकुलजी विभोर और मस्ती में डूबे हुये थे। उनकी दवा यही थी।


124/61-62, अग्रवाल फार्म, मानसरोवर, जयपुर- 302020, (राजस्थान) मोबाइल-9828024500

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