परिचर्चा
संयोजक : शशि पांडेय
प्रश्न 1 : वर्तमान व्यंग्य लेखन में विषयों की जो भीषण पुनरावृत्तियां हो रही हैं,
उससे आप कैसा अनुभव करते हैं!
प्रश्न 2 : यह सच है कि व्यंग्य के विषय नवीन घटनाओं से प्रेरित होते हैं, मगर क्या व्यंग्यकार घटनाओं के मूल तक पहुंच पा रहे हैं!
प्रश्न 3 : वर्तमान व्यंग्य लेखन में कथ्य को अख़बार या संपादक प्रायोजित प्रभावित
कर रहे हैं। वे जनरंजन का तर्क देकर भाषा, विचार, शैली आदि में समझौते कराते हैं। इसका व्यंग्य पर कैसा असर पड़ रहा है?
प्रश्न 4 : क्या लेखक को अपने अनुभव और अनुसंधान के आधार पर कथ्य का निर्धारण करना
चाहिए?
प्रश्न 5 : वर्तमान व्यंग्य लेखन में कथ्य- वैविध्य पर आपके विचार
प्रेम
जन्मेजय
उत्तर
1. विषयों की पुनरावृत्ति हर युग और हर विधा का सत्य है। व्यंग्य साहित्य की विधा
है तो उसने क्या गुनाह किया है कि उसमे विषयों की पुनरावृत्ति न हो। कविता, कहानी या नाटक क्या
पतिव्रता विधाएं हैं? प्रेम' जैसे विषय
पर यदा यदा धर्मस्य ग्लानि भवतिशैली में कितनी ही ग्लानियां हुई हैं। फिल्मों का
तो यह शाश्वत विषय है। यहीं लेखकीय दृष्टि काम आती है। लेखक की विचारधारा, उसकी प्रतिबद्धता, उसके सामाजिक सरोकार शैली आदि ही
उसे भीड़ से अलग करते हैं। उन्हीं विषयों पर परसाई ने लिखा और उनके समकालीनों ने भी
लिखा पर परसाई उनसे अलग क्यों हैं? हमारे आसपास का समाज,
उसकी विसंगतियां वहीं हैं पर आप उसे हास्यकार की दृष्टि से देखते
हैं कि व्यंग्यकार की दृष्टि से। आपकी दृष्टि में सामाजिक सरोकार प्रमुख हैं कि
साहित्यिक लाभ ?केवल अर्जुन होने से काम नहीं चलता, प्रश्न यह भी उठता है कि आप किस चिड़िया की आंख को देख रहे हैं? भारत विभाजन पर यशपाल ने झूठा सच लिखा, कमलेश्वर ने
कितने पकिस्तान लिखा, भीष्म साहनी ने तमस लिखा, मंटो ने टोबा टेकसिंह,सलवार ,मनोहर
श्याम जोशी ने बुनियाद जैसी प्रखर रचनाएं
लिखीं, पर व्यंग्य विधा में ऐसा कुछ प्रखर है क्या? पर इससे व्यंग्य
साहित्य अधूरा नहीं रह जाता। क्योंकि व्यंग्य में बहुत कुछ ऐसा लिखा गया है जो
अन्य विधाओं में नहीं । वैसे तो हर विधा विषयों की दृष्टि से अधूरी और भरी-पूरी
है।
2.
हिंदी व्यंग्य में तात्कालिकता का बहुत कुछ कारण स्तंभ लेखन है। वैसे तो कुछ
तथाकथित व्यंग्यकार स्तंभ लेखन न करते हुए भी उसकी शैली में रचना के नाम पर
टिप्पणियां ही लिख रहे हैं। व्यंग्य के किनारे बैठे उसकी लहरों को गिनते हुए और
किसी एकलहर पर अपना नाम तलाशते क्षितिज तक बिखरे सतह को ही सत्य माने बैठे हैं। जब
तक आप चिंतन की गहराई से रचना को नहीं देखेंगे आप उसकी सतह पर ही विचरण करेंगें। जैसे पयर्टन के समय
अधिकांश पर्यटक किसी संग्रहालय की दीवार छू देखकर या फिर फटाफट शैली में अपनी
प्रदर्शित वस्तुओं पर अपनी दिव्य दृष्टि डाल उसे निबटा अगले प्रदर्शन का चक्षु
दर्शन करने के लिए प्रगतिशील होते हैं,
वैसे ही लेखन के साथ होता है। चिंतन की गहराई से पहले विषय को समझ
और फिर उसे रचनात्मक रूप देनेवाला रचनाकार यदि स्तंभ लेखन भी करेगा तो उसमें चिंतन
का तत्व महत्वपूर्ण होगा।
3.
यह बाजार युग है। इसमें शिक्षा, मानवीय सबंध आदि जब प्रोडेक्ट बन रहे हैं तो साहित्य कैसे अछूता रह सकता
है। बाजार मांग और आवश्यक्ता के आधार पर चलता है। संपादक भी इसी आधार पर आग्रह
करता है। ऐसे में लेखकीय अनुशासन की आवश्यक्ताहोती है। आप वोलिखें जो आप चाहते हैं
न कि वह जो संपादक चाहता है। संपादक ने जो विषय दिया है उसपर विचार और शैली तो
आपकी होगी। यदि संपादक आपको आपकी विचारधारा से समझौता करवाना चाहता है तो आपमे
इतना लेखकीय साहस तो होनाचाहिए कि आप संपादक को मना कर सकें। यह साहस तभी आएगा जब
आप संपादक के लुभावने आकर्षण को त्याग सकेंगें। आप केवल व्यंग्य को लेकर चिंतित न
हों, पत्रकारिता क्षेत्र में तो ऐसे अनेक समझौते किए और कराए
जाते हैं। समझौते तो आपको हरजगह करने पड़ते हैं, निर्भर करता
हे कि वे समझौते आपके आत्मस्वाभिमान को त्याग कर करने पड़ते हैं या फिर त्यागपत्र
पेश कर।
4.
यह कथ्य पर निर्भर करता है कि उसके लिए अनुसंधान की आवश्यक्ता है कि नहीं। कोई रचना बिना अनुभव के आधार पर नहीं
लिखी जा सकती है, निर्भर करता है कि वह तात्कालिक है या फिर संचित। इसके बाद इस आधार पर आप
अपनी कल्पनाशक्ति सेकौन सा भवन निर्माण करते हैं यह आपकी भवन निर्माण कला पर
निर्भर करता है। पौराणिक या ऐतिहासिक विषयों पर अनुसंधान आवश्यक है। पर आवश्यक
नहीं कि एक कातिल के मनोभाव को वर्णन करने के लिए आप कत्ल करने का अनुभव प्राप्त
करें। और कथ्य ही आपकी विधा भी तय करता है।
5.
आजकल तो कथ्य के नए नए विषय सुरसा की तरह मुंह फाड़े हैं। मैंनें तो कहीं कहा है-
व्यंग्य कोई अच्युत ब्रह्म तो नहीं कि परिवर्तनशील न हो। तब के समय में और हमारे
समय में बहुत अंतर है। पूर्ववर्ती समय देश राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि सेजो था वो आज नहीं है।
हमारी राजनीतिक सोच में बहुत परिवर्तन आया है। नेता भैयाजी नहीं रहे। आर्थिक
दृष्टि से सम्पन्नता बड़ी है। उस समय में माॅल, मोबाईल,
मेट्रो, की संस्कृति नहीं थी और न ही फेसबुक
और व्हाट्स एप्प की दुनिया थी। आज के समय की नैतिकमान्यताएं भिन्न हैं। बाजारवाद
के कारण राजनीति,शिक्षा, नैतिकता,
संबंध्, साहित्य आदि प्रोडेक्ट हो गए हैं।
बढ़ती सवांदहीनता और अवसाद बड़ी चुनौती है। यह हमारे युवा को ब्लू व्हेल में फंसा
रहे हैं।
73 साक्षरा अपार्टमेंट्स, ए-3 पश्चिम विहार, नई दिल्ली –
110063 मो. 9811154440
अरविन्द
तिवारी
1.
शशि जी आपने इस व्यंग्य परिचर्चा में जो प्रश्न उठाए हैं उनका सम्बन्ध व्यंग्य के ‘कन्टेन्ट’ से है, जो व्यंग्य का प्रमुख अंग है। व्यंग्य लेखन
में महत्वपूर्ण बात यह है कि आपका विषय सार्थक है या नहीं। कहीं आप पति-पत्नी के
दैनन्दिन नोंक-झौंक पर व्यंग्य तो नहीं लिख रहे? या किसी
व्यक्ति विषेष को ‘टारगेट’ तो नहीं कर
रहे। दरअसल व्यंग्य जीवन, समाज और तंत्र की विसंगतियों पर
लिखा जाता है। हमें यह भी ध्यान रखना होता है केवल विद्रूयता का चित्रण भर व्यंग्य
नहीं है। उसमें आपने व्यंग्य के औजारों से किस प्रकार प्रहार किया है, यह भी महत्वपूर्ण है। विसंगति ऐसी होनी चाहिए जो आम लोगों की पीड़ा व्यक्त
करती हो।
आपका
यह कहना सही है कि विषयों की पुनरावृत्तियाँ हो रही हैं। एक ही विषय पर कई
व्यंग्यकार लिख रहे हैं। यहाँ तक कि एक ही व्यंग्यकार एक ही विषय पर कई बार लिख
रहा है! पिछले दिनों प्याज और टमाटर की बढ़ती-घटती कीमतों पर खूब व्यंग्य लिखे गए। यह
स्वाभाविक भी है, क्योंकि नए व्यंग्यकारों की एक बड़ी खेप व्यंग्य में सक्रिय है। इसका सुखद
पहलू यह है कि इनमें से कई बहुत अच्छा व्यंग्य लिख रहे हैं। हालांकि अभ्यास से
शैली में निखार आता है, लेकिन प्रतिभाशाली व्यंग्यकार अपने
पहले व्यंग्य से ही छाप छोड़ देता है, ऐसा मेरा मानना है।
जाहिर है जब बड़ी संख्या में व्यंग्यकार सक्रिय होंगे तो विषयों की पुनरावृत्ति
होती है। कई व्यंग्यकार एक ही विषय पर व्यंग्य लिखते ज़रूर हैं लेकिन उनके व्यंग्य
की शैली अलग-अलग होने से विषय के साथ कई प्रयोग भी सामने आते हैं। इसे सकारात्मक
दृष्टि से देखा जाना चाहिए। मैं इसमें व्यंग्य की कोई हानि नहीं देखता हूँ। याद
करिए लतीफ घोंघी और ईष्वर शर्मा की जुगलबन्दी को। एक ही विषय पर उन्होंने अलग-अलग
तरीके से व्यंग्य लिखे। यह पुस्तक व्यंग्य साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है। सोषल
मीडिया पर एक ही विषय पर ‘वन लाइनर’ और
व्यंग्य लेखों में कई तरह के प्रयोग हो रहे हैं। इससे व्यंग्य साहित्य सुदृढ़ ही हो
रहा है। सोषल मीडिया का ‘साइड इफेक्ट’ यह
है कि व्यंग्य में व्यक्तिगत खुन्नस भी निकाली जा रही है। ऐसे विषय व्यंग्य को
कमजोर करते हैं।
नवीन
घटनाओं पर व्यंग्य खूब लिखे जा रहे हैं,
ऐसा होना स्वाभाविक ही है। व्यंग्य इतना ज़्यादा लिखा जा रहा है कि
इसके प्रभावहीन हो जाने का ख़तरा उत्पन्न हो सकता है। इसके लिए नए विषयों की ओर
ध्यान दिए जाने की आवष्यकता है। जब आम जीवन और समाज नई-नई समस्याओं से रूबरू हो
रहा हो, तो व्यंग्यकार उनकी अनदेखी कैसे कर सकता है? सियासत और समाज के वर्तमान परिदृष्य ने व्यक्ति को दिषाहीन चौराहे पर लाकर
छोड़ दिया है। व्यक्ति की इस भाव-भंगिमा को व्यंग्य कुछ इस ‘ढब’
से पकड़ता है कि तिलमिलाहट के बीच भी वह आषा को जगाए रखता है। इस आषा
को जगाए रखना ही महत्वपूर्ण है, और व्यंग्य का यह सरोकारी
लक्ष्य भी है। हाँ इतना जरूर है, नई घटनाओं पर लिखे जा रहे
व्यंग्यों में शैलीगत प्रयोग भी होने चाहिए। इस सम्बन्ध में स्थिति बहुत ज्यादा
आषाजनक नहीं है। जहाँ तक व्यंग्यकार के व्यंग्य के जरिए मूल घटना तक पहुँचने का
प्रष्न है, मेरा उत्तर यह है कि घटना को समझकर ही व्यंग्यकार
व्यंग्य लिखता है। इस मामले में घटना का विवरण देना पत्रकारों का काम है, व्यंग्यकार का नहीं। व्यंग्यकार तो घटना के उत्स के कारणों पर प्रहार करता
है। जाहिर है घटना के मूल में जाए बिना, घटना पर प्रखर
व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता।
मैं
नहीं समझता अखबार व्यंग्यकारों को बहुत ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं। हाँ अखबारों
में व्यंग्य के कॉलम छोटे जरूर होते जा रहे हैं। जाहिर है अखबारों की इस प्रवृत्ति
ने व्यंग्य को ‘फास्ट फूड’
में तब्दील कर दिया। परसाई-जोषी के जमाने में कॉलम 1500 शब्दों के
करीब होता था, जो आज 300-400 शब्दों पर आकर टिक गया है।
व्यंग्यकार इस परिवर्तन को स्वीकार कर चुके हैं और शब्दों की सीमा का ध्यान रखते
हैं। आज से बीस साल पूर्व तक अखबारों की विचारधारा हुआ करती थी। अब वे भी दलबदलू
नेता की तरह आचरण कर रहे हैं। ‘नई दुनिया’ जैसे प्रतिबद्ध अखबार को ‘‘दैनिक जागरण’’ समूह ने खरीद लिया। एक जमाने में ‘नई दुनिया’
का स्तर हिन्दी अखबारों में सर्वश्रेष्ठ हुआ करता था। राजेन्द्र
माथुर ने अपने संपादन काल में इस अखबार को जनपक्षघरता का प्रतीक बना दिया था। तब
परसाई इसके कॉलम में कुछ भी लिखने के लिए स्वतंत्र थे। शरदजोषी जब ‘नवभारत टाइम्स’ में ‘प्रतिदिन’
कॉलम लिखते थे, तब पूरा अखबार एक विचारधारा से
संचालित था और शरदजोषी ठीक इसके विपरीत लिखा करता थे। ऐसे उदाहरण अब दुर्लभ हैं।
अब व्यंग्यकार खूब समझदार हो गया है। वह अखबार के स्वभाव के अनुसार ही व्यंग्य
लिखता है। वह जानता है कि अधिकांष अखबार तत्कालिक विषयों को महत्व देते हैं। ‘जनसत्ता’ में व्यंग्यकार अलग तेवर का व्यंग्य लिखता
है, तो दक्षिणीपंथी अखबार में अलग तेवर का। संयोग कहें या
दुर्योग व्यंग्यकारों (जिसमें बड़े नाम भी शामिल हैं।) की अपनी कोई प्रतिबद्धता
नहीं रही! अखबार में ज्यादा से ज्यादा छपना और छपे हुए को तत्काल सोषल मीडिया पर
डाल देना, यही प्रतिबद्धता है! जाहिर है अखबारों को कुछ करने
की ज़रूरत ही नहीं है। शीर्षक बदल देना और मैटर को छोटा कर देना, अखबारों के लिए आम है। इसके खिलाफ कोई सषक्त आवाज भी नहीं उठती। जहाँ तक
भाषा विचार शैली की बात है, तो अखबारों के संपादक न तो
व्यंग्य के विषेषज्ञ है और न उनकी इसमें ज्यादा रुचि है। कई बार तो अखबार लेखक का
हूबहू छाप देता है, जिसमें प्रूफ की गलती भी देखी जा सकती
है। कतिपय संपादक व्यंग्य को ‘फिलर’ की
तरह ट्रीट करते हैं। यह व्यंग्य के लिए अच्छा नहीं है। यह संतोष की बात है कि
व्यंग्य छप रहा है, जबकि अन्य विधाओं का अखबारों से उन्मूलन
हो गया है।
अब
मैं आपके अगले प्रष्न पर आता हूँ जो व्यंग्यकार के विषय निर्धारण से सम्बन्धित है।
इस सम्बन्ध में कहना चाहता हूँ कि व्यंग्य में विषयों का टोटा नहीं है। अतः
व्यंग्यकार को स्थायी महत्व के विषयों पर व्यंग्य लिखने चाहिए। कम से कम पुस्तक
संग्रह के लिए व्यंग्य छांटते समय तात्कालिक विषयों से परहेज करना चाहिए। जो
व्यंग्यकार मासिक/साप्ताहिक पत्रिकाओं में कॉलम लिखते हैं वे प्रायः तात्कालिकता
से बचते हैं। उनके विषय वास्तव में स्थाई महत्व के होते हैं। दैनिक अखबारों की बात
अलग है। वहाँ छपने की समस्या होती है। आपने खूब अनुसंधान करके विषय तय किया मगर
अखबार तात्कालिकता को महत्व देता है। जाहिर है आपकी रचना अस्वीकृत होगी। व्यंग्य
उपन्यास या व्यंग्य संग्रह के विषय पर्याप्त अनुभव और अनुसंधान के आधार पर तय किए
जाने चाहिए।
वर्तमान
व्यंग्य लेखन में कथ्य की बात करें तो कई तरह के प्रयोग सामने आ रहे हैं। कथ्य में
विविधता शैली से जुड़ी हुई है। एक ही विषय पर दो व्यंग्यकार अलग-अलग ढंग से लिख रहे
हैं। विषयों की विविधता भी दृष्टिगोचर हो रही है। ‘विषय के भीतर विषय’ की खोज हो
रही है। संयोग से ऐसे प्रयोग सफल भी हो रहे हैं। कथ्य विविधता का सम्बन्ध
व्यंग्यकारों की समझ और आब्जर्वेषन की क्षमता से है। विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े
लोग व्यंग्य लिख रहे हैं। जाहिर है कथ्य में विविधता देखने को मिलेगी ही।
व्यंग्यकारों की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक समझ भी
व्यंग्य को प्रभावित कर रही है और उसे विविध बना रही है।
रोडवेज वर्कशॉप के पीछे, मेहरा कालोनी, शिकोहाबाद, (फिरोजाबाद)
उ.प्र. 283135 मो. 9457539172
ओम
वर्मा
1. सच है कि कई बार विषयों की पुनरावृत्ति हो जाती है। इसे रोकना
असंभव है। कारण यह है कि ढेर सारे लोग
व्यंग्य लिख रहे हैं। अधिकांश व्यंग्यकार अख़बारों के लिए लिखते हैं या अख़बारों में
छपने की संभावना अधिक होने के कारण वहाँ लिखना पसंद करते हैं। अख़बारों में ज़ाहिर है
कि आम पाठक की रुचि सामयिक विषय से संबंधित व्यंग्य को पढ़ने में ज़्यादा रहती है।
फिर स्तंभ संपादक की रुचि और किसी किसी प्रकाशन समूह में प्रतिबद्धता आदि कारक भी प्रभावित करते हैं।
दूसरी सबसे बड़ी समस्या अख़बारी व्यंग्य में यह रहती है कि संपादक मण्डल जानता है कि
जब पूरे देश में ‘फॉग चल रहा है’ तो वह कोई अन्य ट्रेंड को चलाने की जोखिम आखिर क्यों मोल ले?
2. अधिकांश व्यंग्यकार घटनाओं
के मूल तक नहीं पहुँच पा रहे हैं। कारण सिर्फ वही है-छपने की जल्दी। वे टी-20 मैच
के रोमांच की तरह कुछ फुलझड़ियाँ छोड़ सकते हैं लेकिन टेस्ट क्रिकेट की तरह लंबे समय
तक स्मृति में बनी रहने वाली कोई बात नहीं बन पाती है। व्यंग्यकारों की भी शायद यह
मज़बूरी है कि उनके लिखे पर सही मार्गदर्शन हर वक़्त हर कहीं उपलब्ध नहीं है। लेकिन
यह भी सही है कि कुछ अख़बारों ने कुछ वर्ष पूर्व व्यंग्य को सम्मानजनक स्थान देकर
उस दौर के कुछ उदीयमान व्यंग्यकारों को पहचान दिलाई है। आज अधिकांश अख़बारों ने
व्यंग्य कॉलम को लहँगे से मिनी-स्कर्ट में बदल दिया है। ऐसे में तीन –चार सौ
शब्दों के व्यंग्य में ‘घटनाओं के मूल तक पहुँचने’ की चाबी ईज़ाद कर पाना शायद इतना आसान न हो। वर्तमान दौर में ऐसे
व्यंग्यकार बहुत कम हैं जो भले ही किसी नवीन घटना को व्यंग्य का आधार बनाएँ मगर
अपनी कलम में वे इतनी धार ला चुके हैं कि किसी क्षुद्र विषय को भी छोटे केनवास पर ‘मिनिएचर पेंटिंग’ की तरह रच देने की काबिलियत रखते
हैं। अन्यथा अधिकांश लघु व्यंग्यों में ‘ऐसा हुआ’ या ‘ऐसा नहीं हुआ’ वाली बात
तो अच्छे ढंग से उभर जाती है मगर आख़िर ‘ऐसा क्यों हुआ’ या ‘ऐसा नहीं, ऐसा होना था’ वाली बात नहीं आ पाती है। प्रसंगवश यह भी कहना चाहूँगा कि हर सप्ताह व्यंग्य लिखने वाले सभी व्यंग्यकारों
में अपनी अपनी कुछ विशेषताएँ देखी जा सकती हैं मगर मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है
कैलाश मंडलेकर ने।
3. इससे लाभ और हानि दोनों हैं।
लाभ यह है कि किसी उदीयमान व्यंग्यकार को व्यंग्यकारों के स्कूल में प्रवेश तो मिल
ही जाता है। दूसरा लाभ यह है कि अख़बार ने थोड़ी ही सही,
व्यंग्य के लिए जगह तो रख छोड़ी है अन्यथा उस स्थान पर ‘मल मल
कर नहाती’ किसी कन्या का विज्ञापन वाला चित्र छापने पर
दो-चार हज़ार विज्ञापन के भी मिल सकते हैं। लेकिन हानि यह है कि किसी व्यंग्यकार का
कोई सर्वकालिक व्यंग्य अगर किसी अख़बार में स्वीकृत हो भी जाए (आम तौर पर कई अख़बार
वाले निर्णय की सूचना भी नहीं देते) तो संपादक सामयिक घटनाओं पर लिखे ऐसे व्यंग्य
पहले छापता रहता है जो मात्र त्वरित टिप्पणी बनकर रह जाते हैं।
4. निश्चित रूप से यह कार्य लेखक को ही करना होगा। नए नए विषय की खोज में लेखक
को अनुसंधानरत रहना होगा। चिंतन मनन करने वाले लेखक के लिए नए विषय ख़ोज लेना
मुश्किल भी नहीं है। प्रसिद्ध अँगरेजी निबंधकार ए.जी. गार्डिनर ने अपने संग्रह ‘द डिलाइटफ़ुल’ में क्या खूब कहा है कि “ऐसा नहीं है कि (लेखन के) विषय बहुत कम हैं, बल्कि दिक्कत यह है कि विषय बहुत ज़्यादा हैं... ।“ ज़रूरत सिर्फ लेखक को
वहाँ तक अपनी दृष्टि पहुँचाने की है। ज़ाहिर है कि नेताओं के रोजाना सामने आते
हैरतअंगेज़ बयान, धर्म के ठेकेदारों के रोज रोज उजागर होते
पाखंड, नित की जाने वाली लोक लुभावन घोषणाएँ, धर्मरक्षकों के राक्षसी कारनामें, निर्दयता से
कुचला जाता बचपन, मासूमों की पिटाई,
चलती कारों में रोज होता चीरहरण आदि कई ऐसे विषय हैं जो व्यंग्यकार को बेचैन कर
देने के लिए पर्याप्त हैं। विषयों के इस विशाल सरोवर में से एक अच्छे व्यंग्यकार
को हंस की तरह अपने हिस्से का मोती चुग लेने का हुनर आना चाहिए।
5. लेखक को, विशेषकर व्यंग्यकार को तो किसी खेमे, गुट या किसी
एक विचारधारा का पक्षधर कतई नहीं होना चाहिए। शोषित, पीड़ित व
कमजोर के पक्ष में खड़े रहना ही उसका ईमान होना चाहिए। व्यंग्य से यह बात हर हालत
में निकलकर सामने आनी चाहिए कि किसी व्यक्ति विशेष के बजाय किसी प्रवृत्ति, किसी विसंगति, किसी कुत्सित मनोवृत्ति या
सियासतदानों के दोमुँहेपन पर प्रहार किया गया है। यदि किसी परिस्थितिवश कोई
व्यंग्य अख़बार के कॉलम के लिए लिखा भी गया है तो अपने ब्लॉग या संकलन में लगाने के
लिए उसका दूसरा ड्राफ़्ट इस प्रकार तैयार किया जा सकता है या रखा जा सकता है जिसमें
लेखक वह सब कह दे जो शब्द-सीमा बंधन के कारण वह पहले ड्राफ़्ट में नहीं कह पाया हो।
या लेखक बाद में सोशल मीडिया पर अपने उसी दूसरे ड्राफ़्ट को पोस्ट कर सकता है जिससे
उसकी प्रतिबद्धता सामने आ सकती है।
सच तो यह है कि टीवी और बाद में इंटरनेट के
चलन के बाद प्रिंट मीडिया नेपथ्य में चला गया है और पत्रकारिता मिशन से ज़्यादा
व्यवसाय हो गई है। इसलिए पहले अख़बारों में विचार पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाली
सामग्री ‘पब्लिक ओपिनियन’ बनाने का काम
करती थी। अब कहीं पर सत्ता और कहीं पब्लिक अख़बार का रुख तय करने लगी है। इसी सुर
में कई व्यंग्यकार भी सुर मिलाते देखे गए हैं। अख़बार वालों को चाहिए कि दैनिक कॉलम
में भले ही किसी सामयिक घटना पर लिखा गया निर्धारित आकार का कोई व्यंग्य हो, मगर कम से कम सप्ताह में एक दिन वे ऐसा रखें जिस दिन कोई सर्वकालिक विषय
पर लिखा व्यंग्य हो, चाहे बड़ा हो या छोटा! तभी व्यंग्य विधा
अधिक पाठकों तक पहुँच सकेगी और अधिक सम्मान पा सकेगी।
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास
455001 म.प्र.
सुरेश कांत
1. बेशक आज व्यंग्य-लेखन में
विषयों की घोर पुनरावृत्ति देखने में आती है और ज्यादातरव्यंग्यकार—अर्थात जो भी
कोई अपने को व्यंग्यकार कहते-कहलवाते हैं या जिन्हें भी व्यंग्यकार कहा-समझा जाता
है—उन्हीं-उन्हीं विषयों पर लिखते दिखाई देते हैं.
इसका
कारण है उन लेख़कों की अदूरदर्शिता, जल्दबाजी और उथलापन. अध्ययन और चिंतन-मनन के
अभाव में वे बहुत दूर तक नहीं देख पाते, न गहरे ही उतर पाते हैं और बिना चले ही
पहुँच जाने की हड़बड़ी में वे जैसा-तैसा लिख देते हैं. व्यंग्य की लोकप्रियता और
अन्य विधाओं की तुलना में उसके छपने की अधिक संभावनाओं के कारण उन्हें मौके भी मिल
जाते हैं.
लेकिन इस
तरह घटनाओं पर तात्कालिक टिप्पणियाँ तो लिखी जा सकती हैं, व्यंग्य नहीं.
व्यंग्य
साहित्य है और साहित्य निर्माण नहीं, सृजन है. निर्माण भी सृजनात्मक हो सकता है,
पर वह होता निर्माण ही है, सृजन नहीं होता. सृष्टि में जहाँ कहीं भी सृजन है, जो
कि हर कहीं है और उसी के कारण सृष्टि, सृष्टि है, उसे गौर से देखें तो उसकी पूरी
प्रक्रिया समझ में आएगी.
लेकिन
व्यंग्य को कुछ लेखकों ने निर्माण बना छोड़ा है, सृजन नहीं रहने दिया. इसीलिए उसमें
विषयों का ही नहीं, शैली-शिल्प का भी दोहराव नजर आता है. आज नब्बे-पिचानवे प्रतिशत
व्यंग्य राजनीतिक हरकतों पर लिखा जा रहा है. मानो व्यंग्यकारों के पास अन्य विषय
ही न हों. मानो राजनीति से इतर क्षेत्रों में विसंगतियाँ ही न हों, जिन पर व्यंग्य
लिखा जा सकता हो. जबकि अगर गौर से देखा जाए, तो अन्य क्षेत्र की विसंगतियाँ ही
राजनीतिक क्षेत्र को भी विसंगत बनाती हैं.
समाज में
धन और धनियों की इतनी पूछ न हो, जितनी कि है, तो राजनीति में लोग पैसा बनाने के
उद्देश्य से जाएँ ही न. समाज में भ्रष्टाचार की इतनी स्वीकार्यता न हो, तो राजनेता
भ्रष्ट बनें ही न. जिस चीज की पूछ या स्वीकार्यता ही नहीं होगी, उसकी ओर व्यक्ति
लपकेगा ही क्यों? आखिर राजनीति में भी लोग इसी समाज से जाते हैं, कहीं और से नहीं
टपकते. और आम जनता ही उन्हें वहाँ भेजती है.
यह सही
है कि राजनीति समाज को प्रभावित करती है, पर वह बाद की बात है, पहले तो समाज ने ही
राजनीति को प्रभावित किया. हाँ,बाद में दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करने लगे.
धर्म का
क्षेत्र इतना विसंगत है कि उस पर तो व्यंग्यों की भरमार होनी चाहिए, पर उस पर
गंभीर व्यंग्य बहुत कम देखने में आते हैं.ऐसे ही शिक्षा-जगत है, चिकित्सा-जगत है,
पारिवारिक दुनिया है और अन्य अनेक क्षेत्र हैं, जो विसंगतियों से भरे पड़े हैं.
लेकिन उन पर लिखने के लिए श्रम और धैर्य चाहिए.
राजनीति
पर भी अवश्य लिखा जाना चाहिए, क्योंकि वही अब मनुष्य और समाज की दशा और दिशा
निर्धारित करने लगी है. लेकिन उसके लिए बहुत गहरी समझ चाहिए. उथली समझ के साथ यों
तो किसी भी विषय पर व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता, पर राजनीति पर तो बिलकुल ही नहीं
लिखा जा सकता. लेकिन आज लिखा जा रहा है. व्यंग्यकार अपनी-अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि
(जिसे वे अपनी ‘समझ’ समझते हैं) के आधार पर राहुल गाँधी, केजरीवाल या मोदी को गालियाँ
देने को ही व्यंग्य समझ लेते हैं या फिर ऐसे किसी भी नेता को, लेकिन सत्ता और
व्यवस्था में अंतर है, वे नहीं जानते. सत्ताधारी दल की नीतियों की आलोचना करने
वाले नेता और दल सत्ता में आने पर क्यों खुद भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं, क्यों
उन्हीं नीतियों और योजनाओं को आगे बढ़ाने लगते हैं, यह व्यंग्यकारों को समझना होगा.
लेकिन जिसे लिखने की जल्दी पड़ी हो, उसे समझने की क्या पड़ी है?
विषयों
का यह अभाव और उससे उत्पन्न दोहराव क्षोभकारी है. वह व्यंग्य की प्रतिष्ठा और
लोकप्रियता को हानि पहुँचा रहा है. सभी संजीदा व्यंग्यकारों को इस पर ध्यान देना
चाहिए. खाकसार, जो कि व्यंग्य में नए-नए विषयों पर लिखने के लिए ही जाना जाता है
(याद कीजिए ‘ब से बैंक’ और ‘देसी मैनेजमेंट’ जैसी पुस्तकें), इस दिशा में शिद्दत
से लगा है और दफ्तरी जीवन पर एक व्यंग्य-उपन्यास पूरा करने के बाद अब नोटबंदी पर
‘नमामिनोटम्’ और धार्मिक दुराचारों पर ‘बाबाइनकॉरपोरेटेड’ जैसे कुछ बृहत् व्यंग्य
रचने में संलग्न है.
2. व्यंग्य के विषय नवीन घटनाओं
से ही प्रेरित होते हैं, ऐसा वर्तमान में लिखे जा रहे व्यंग्यों को देखकर ही
कहा-समझा जाने लगा है. लेकिन व्यंग्य का वह परिमाण तो वास्तव में व्यंग्य होता ही
नहीं है, क्योंकि जब तक संबंधित व्यंग्यकार उन ‘व्यग्यों’ को पुस्तक-रूप में
संकलित करने की तैयारी करता है, तब तक तो वे लगभग सभी अप्रासंगिक हो चुके होते
हैं.
अगर हम
अपने अग्रज व्यंग्यकारों की रचनाओं को देखें, तो परसाईके कितने व्यंग्य ऐसे हैं या
शरद जोशी के ही कितने हैं? और जो थोड़े-बहुत हैं भी, तो क्या उनकी ख्याति उनकी वजह
से है? दोनों ने कॉलमलिखे, पर उन कॉलमों में व्यंग्य ही लिखा, महज कॉलम नहीं लिखे.
नवीन
घटनाओं पर लिखने के लिए भी व्यंग्यकारको उन घटनाओं के पीछे की मूल घटनाओं या
प्रवृत्तियों के पीछे जाना होता है, क्योंकि नवीन घटनाएँ अकसर उतनी या वैसी ही
नहीं होतीं, जैसी वे दिखती हैं, उनके गहन सामाजिक-ऐतिहासिक-आर्थिक कारण होते हैं,
जिनका वे परिणाम होती हैं. घटनाओं के बहाने उन मूलभूत प्रवृत्तियों पर आघात करना
होता है, तब व्यंग्य-रचनाएँटिक पाती हैं, वरना अगले ही दिन पुरानी पड़ जाती हैं, उस
दिन के अख़बार के साथ ही मर जाती हैं. लेकिन बहुत कम व्यंग्यकार ही घटनाओं के मूल
तक पहुँचने की जहमत उठाते हैं. जो नहीं उठाते, उनके खुद के उठने की नौबत आ जाती
है.
घटनाओं
के मूल तक पहुँचने के लिए ‘गहरे पानी पैठने’ की काबिलियत और धैर्य चाहिए, जो आज के
व्यंग्यकार में बहुत ही कम है. यह काबिलियत जीवन-जगत के गहन अध्ययन-अवलोकन और
अग्रज लेखकों के अनवरत अध्ययन से आती है. आज लेखकों के पास इन्हीं दोनों के लिए
समय नहीं है. वे पढ़ना तो बिलकुल ही नहीं चाहते, खुद को पढ़े जाने की अपेक्षा अवश्य
करते हैं. दो वर्ष पहले दिल्ली-स्थित हिंदी भवन में आयोजित व्यंग्य की एक ‘चौपाल’
में एक युवा व्यंग्य-टिप्पणीकार ने निस्संकोच कहा कि वह पढ़ने का समय नहीं निकाल
पाता. फिर दूसरे ही कैसे और क्यों उसे पढ़ने का समय निकालें, इस पर शायद अभी तक
उसका ध्यान नहीं गया होगा.
नहीं,
बिना पढ़े तो आप ढंग का लिख ही नहीं पाएँगे. पढ़ना ही तो लेखक को समझ देता है,
संस्कार देता है, दिशा देता है. सोचने के लिए बाध्य करता है कि ऐसा क्या है
इनलेखकों में, जो ये इतनी प्रतिष्ठा, इतना सम्मान हासिल कर सके. अच्छे-बुरे लेखन
में तमीज करना सिखाता है. बेंचमार्क बन जाता है वह कि ऐसा लिखेंगे, तो ही ऐसी
प्रतिष्ठा हासिल कर पाएँगे. लक्ष्य बनकर आपका आह्वान भी करता है अपने तक
पहुँचनेका, और हौसला भी देता है कि जब मैं पहुँच गया, तो तुम तो पहुँच ही सकते हो,
क्योंकि नई ऊर्जा से भरे हो, नई तकनीकों से लैस हो. दूसरों के लिखे हुए को पढ़ना
उनके अनुभव और ज्ञान तक पहुँचने के लिए लिफ्ट का काम करता है, जिस तक अन्यथा
पहुँचने में बहुत अधिक श्रम और समय लग सकता है और यह भी हो सकता है कि पहुँचना हो
ही न पाए.
3. कोई संपादक, कोई अखबार
व्यंग्यकार को अपने हिसाब से लिखने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. कोई उसे अपने लेखन,
अपने विचारों से समझौता करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. कोई भी उसे, जी हाँ कोई
भी, खराब लिखने के लिए विवश नहीं कर सकता. ऐसा तभी होता है, जब खुद व्यंग्यकार समझौता
करने के लिए तैयार बैठा हो. और जो समझौता कर ले, वह और कुछ भी हो जाए, व्यंग्यकार
नहीं हो सकता. और चूँकि वह व्यंग्यकार नहीं होता, इसलिए वह जो-कुछ लिखता है, वह भी
व्यंग्य कैसे हो सकता है?
इसलिए
मैं इसमें संपादकों-प्रकाशकों आदि का उतना दोष नहीं मानता. वे तो व्यवसायी हैं,
अपने व्यवसाय को बढ़ाने-बचाने के लिए कुछ भी करेंगे. पर क्या व्यंग्यकार भी
व्यवसायी है? अगर है, तो फिर तो वह अवश्य कुछ भी करेगा. हमारे बीच में हैं कुछ ऐसे
व्यंग्यकार, नए ही नहीं, पुराने भी—बल्कि पुरानों को देखकर ही नए वैसे बने
हैं—जिन्होंने व्यंग्य को व्यवसाय बना छोड़ा है. इसके जितने भी नुकसान हो सकते थे,
हुए हैं. व्यंग्य में जो अराजकता आज व्याप्त है, जिसके कारण उसकी पहचान तक संकट
में है, वह इन व्यंग्य-व्यवसायियों के कारण ही है. मैं न केवल ऐसा नहीं हूँ, बल्कि
इसका विरोध भी मैंने खूब किया है और उसका खमियाजा भी खूब भुगता है और लगातार भुगत
रहा हूँ.
नुकसान
के डर से समझदार लोग यह सब चुपचाप देखते रहे, पर मैं ऐसा समझदार नहीं हूँ. इससे
मुझे जो नुकसान हुआ, वही मेरा नफा है; हानि ही लाभ है मेरा इस मामले में. लेकिन जो
चुपचाप देखते रहे, चुप रहकर जिन्होंने इस दुष्प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया, उनका भी
हिसाब समय जल्दी ही कर देगा.
4. बेशक, यह भी कोई पूछने की
बात है? लेखक को कथ्य का निर्धारण करना ही अपने अनुभवऔर ज्ञान के आधार पर चाहिए.
जिस चीज का उसे अनुभव और ज्ञान नहीं होगा, उस पर वह लिख ही कैसे सकता है? हाँ, यह
जरूर है कि लेखक दूसरों के अनुभव को भी अपना अनुभव बनाता है. खासकर उन लोगों के
अनुभव को, जो पीड़ित हैं और खुद को पीड़ा पहुँचाने वालों के खिलाफ आवाज भी नहीं उठा
सकते. लेखक, और खास तौर से व्यंग्यकार, उन पीड़ितों, शोषितों की आवाज बनता है.
लेकिन
व्यंग्य को संपादकों ने ऐसा समझ लिया है कि घटनाओं, तिथियों और तीज-त्योहारों के
अनुसार भी व्यंग्य लिखने का आदेश व्यंग्यकार को दे देते हैं और वह ले भी लेता है.
साहित्यकारों में केवल व्यंग्यकार ही है, जिसे ऐसा आदेश दिया जाता है और दिया
इसलिए जाता है, क्योंकि वह लेने के लिए तत्पर रहता है.
वरना आप
ही सोचिए, क्या किसी कहानीकार को संपादक ऐसा कह सकता है कि फलाँ व्यक्ति या दल या
नीति के खिलाफ या समर्थन में कहानी लिखकरभेजो, फलाँ घटना या पर्व या तिथि के
अनुसार लिखकरभेजो, आदि. लेकिन व्यंग्यकार को कह दिया जाता है और वह मान भी लेता
है. लेकिन इस तरह लिखे जाने वाले व्यंग्य वैसे ही होते हैं, जैसे वे हो सकते हैं, और
उनका हश्र भी वही होता है, जो होना चाहिए.
5. दोहराव से बचने के लिए
व्यंग्यकार को विषयों, कथ्य और शिल्प में वैविध्य लाना ही चाहिए. उसे नए-नए विषय
खोजने चाहिए. मानवता को पीड़ित करने वाले मुद्दे तलाशने चाहिए.
राजनीति
ही अकेला विषय नहीं है व्यंग्य के लिए. समाज भी है, अर्थ भी है, धर्म भी है. दफ्तर
भी है, जहाँ आदमी अपने जीवन का सबसे ज्यादा सचेतन समय बिताता है. बाजार भी है, जो
आज हर क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है. वैश्विक मुद्दे भी हैं, जो पूरी मानवता को
प्रभावित कर रहे हैं. और फिर हर क्षेत्र की अपनी अलग राजनीति होती है, जिसे
व्यंग्यकार को उजागर करना चाहिए. राजनीति पर तो व्यंग्यकारहर हालत में लिखता ही
है. राजनीति पर लिखकर ही वह राजनीति पर नहीं लिखता, अन्य क्षेत्रों पर लिखकर भी
राजनीति पर लिखता है, क्योंकि सब जगह राजनीति घुसी हुई है.
शायर,
सिंह और सपूत के बारे में कहा गया है कि वे लीक छोड़कर चलते हैं. मैं व्यंग्यकार को
भी उनमें शामिल करता हूँ. असल में जो भी अपने लिखेया किए की ओर ध्यान आकर्षित करना
चाहेगा, वही लीक छोड़कर चलेगा, नई लीक अपनाएगा.
मजेदार
बात यह है कि नया विषय नया शिल्प साथ लेकर आता है. इसलिए व्यंग्यकार को मुख्यतः नए
विषय की ही खोज करनी है, भाषा-शिल्प तो उसके साथ ‘एक के साथ एक फ्री’ की तरह मिलता
है.
उदाहरण
के लिए, अगर आप चिकित्सा-जगत पर लिखते हैं, तो आपकी भाषा वैसी ही हो जाएगी, शिल्प
भी वैसा ही हो जाएगा. बिना इसके उस पर लिख ही नहीं पाएँगे आप. धार्मिक दुराचारों
पर लिखेंगे, तो भाषा और शिल्प भी धार्मिक बाना ओढ़ लेंगे. बाजार पर लिखेंगे, तो
भाषा और शिल्प वैसा ही रूप ग्रहण कर लेंगे. हाँ, उस बारे मेंजानना, सीखना, खोजना,
अनुसंधान करना तो पड़ेगा ही. वह तो एक स्थायी अनिवार्यता है लेखन की.
इन्द्रजीत कौर
1. हर रचनाकार अपने काल के भूत,
भविष्य और वर्तमान से प्रभावित होता है । अतः यह सम्भव है कि एक ही विषय कई लेखकों
के दिमाग में घर कर जायं और लेखनी में उसका असर दिखे। ऐसे में इस बात का प्रलाप
करना कि विषयों की पुनरावृत्ति हो रही है तो ठीक नहीं है। विषय पर किसी का एकाधिकार
नहीं है। किसी भी रचना का विषय क्या हो, यह रचनाकार के अधिकार क्षेत्र में आता है
। हाँ, कई बार संपादक भी उनके अधिकार क्षेत्र में अपने विषय फेंक देतें हैं कि लो
ये लिखो, तुम्हारा मन नहीं है तो भी। इससे
पाठकों को कुछ बोरियत अवश्य होने लगती है पर मुख्य मुद्दा तो यह होना चाहिए कि
विषय का विस्तार किस तरह हुआ है? भाषा ,कथ्य और शैली में समानता तो नहीं है। विषय
की कितनी गहराई तक कलम पहुंच पायी है ? विषय के सूक्ष्म से सूक्ष्म अवयवों को कहाँ
तक छुआ गया है? कैनवास कितना बड़ा है? हमने किस कोण से घटना को देखा और समझा है ?
सिर्फ इधर–उधर से इकठ्ठा करके पंचों का संग्रह तो कोई व्यंग्य नहीं बन पाया है?
2. मुझे नहीं लगता कि व्यंग्य से
सम्बंधित सारे विषय नवीन घटनाओं से प्रेरित होते हैं । श्री हरिशंकर परसाई जी,
श्री जोशी जी, श्री रविन्द्र नाथ त्यागी जी जैसे दिग्गजों ने ऐतिहासिक मुद्दों को
भी उठाया और बेहद खूबसूरती के साथ पूरे में उसे निभाया भी। कुछ व्यंग्यकार तो नवीन
विषय से प्रभावित भले होतें हैं पर उसमें छिपी प्रवृत्ति को निकालकर भूत, भविष्य
और वर्तमान के सन्दर्भ में लेखनी चलाकर अपने व्यंग्य को कालजयी बना देतें हैं।
इनकी रचनाओं में व्यंग्य के प्रति गंभीरता और समर्पण दिखता है पर अफ़सोस कि इनकी
संख्या कम है। आजकल ज्यादातर व्यंग्यकार ‘शॉर्टकट’ अपनाकर नित नए व्यंग्य लिख रहें
हैं और धडाधड छप रहें हैं। अखबार सज जाता है इनके नामों से, प्रचलित जुमले और
इधर-उधर के सजावटी बयानों से। ३००-४०० शब्दों के लेख अखबारों में जगह पा जातें
हैं? इतना ही नही ये लोग सोशल मीडिया में परसाई जी और जोशी जी के लेखों का हवाला
देतें नहीं थकते। व्यंग्य के ध्रुवतारों के कन्धों पर ये धनुष रखकर ऐसी तीर चलातें
हैं जो ज्यादा दूर तक जा नहीं पाती। जिन कन्धों पर इनके धनुष पड़ें हैं उनके
कलम-कौशल की बराबरी या छायामात्र भी ले लेने से दूर भागतें हैं। ये अपने में खुश
हैं। अखबार वाले और भी खुश। उन्हें कालजयी रचनाओं से क्या लेना-देना ?
कितना ही अच्छा होता कि घटनाओं की जड़ों पर जाकर चोट किया जाता, उसे हर
कोणों से देखा जाता, छान-बीन की जाती, ऐतिहासिक सन्दर्भ देखे जाते और भविष्य पर
पड़ने वाले प्रभाव देखे जाते। ‘जिन खोजां तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ’ पर अमल किया
जाता। पर नही, ऐसा वो क्यों करेंगे ? उन्हें हवा में उड़ना ज्यादा अच्छा लगता है।
इससे समय की बचत होती है और लोकप्रिय व्यंग्यकारों की लिस्ट में नीचे वाले पायदान
पर लुढ़कने का खतरा कम रहता है।
3. बिल्कुल सही मुद्दा उठाया गया
है। प्रायः एक अच्छे स्तर का व्यंग्य लोकप्रियता के चक्कर में संपादक द्वारा कमजोर
कर दिया जाता है। जनरंजन का तर्क देकर कथ्य, भाषा ,विचार व शैली को स्तरहीन कर दिया
जाता है। फलतः एक साहित्यिक रचना को फुटपाथिया बनने में देर नहीं लगती। कुमार
गन्धर्व कब हनी सिंह बन जाते हैं, पता ही नही चलता।
मेरे साथ इस तरह के कई अनुभव हैं कि संपादकों ने अपने सभी दूर-दराज तक के
पाठकों के दिमाग की पहुँच तक पहुँचने के लिए व्यंग्य में बिना अनुमति के बदलाव
किये हैं। प्रश्न यह उठता है कि पाठकों के अनुसार व्यंग्य होना चाहिए या व्यंग्य
को अपने पाठक तैयार करने चाहिए? व्यंग्य के मापकों को ध्यान में रखा जाय या
लोकप्रियता को आधार माना जाय? इतनी हिम्मत क्यूँ नहीं पैदा हो रही है कि पाठकों को
बताया जा सके कि व्यंग्य ऐसा ही होता है। जिस मनोवैज्ञानिक धरातल पर व्यंग्य लिखा
गया है, पाठकों को वहां तक पहुचाना आवश्यक है। पाठकों को ध्यान में रखकर मुक्तिबोध
जी की रचनाएँ सरल से सरलतम हो जाती तो वो आज ‘मुक्तिबोध’ नहीं रहते।
4. मुझे नहीं लगता कि कथ्य
निर्धारण के सिर्फ अनुभव और अनुसंधान ही दो आधार होने चाहिए। हाँ, ये दोनों आधार
कथ्य की विश्वसनीयता और पठनीयता को अवश्य बढ़ाते हैं। पाठक अपने आपको रचना से जुड़ा
हुआ महसूस करतें हैं। इसमें निहित पात्रों में खुद को खड़ा पातें हैं। इससे रचना और
रचनाकार के प्रति विश्वास पैदा होता है। ऐसी बात भी नहीं कि कोई व्यक्ति चाँद पर
नहीं गया हो तो उसे चाँद पर नहीं लिखना चाहिए। औरों के अनुसंधान और अनुभव को भी
आधार माना जा सकता है। वैसे भी काल्पनिक रचनाओं में सिर्फ कल्पना होती है, फिर भी
कुछ रचनाएं ज्यादा पठनीय और कालातीत बन जातीं हैं। जैसे ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘मातादीन चाँद पर’
5. एक उच्चाधिकारी और फूटपाथ पर
बैठे व्यक्ति के पात्रों के संवाद एक से नहीं हो सकते। पात्र एक हो तो घटना आधारित
कथ्य भी अलग-अलग हो सकतें हैं। जो व्यक्ति विद्यालय में शिक्षण कार्य करा रहा हो
वह घर में गुस्से में अलग तरीके से बोलेगा। रचना में जीवन्तता चाहिए तो कथ्यों में
विविधता आवश्यक है। पात्र, काल व घटना के आधार पर कथ्यों में विभिन्नता नहीं आएगी
तो रोचकता तो ख़त्म होगी ही साथ में पठनीयता पर भी असर पड़ सकता है। अंततः रचना और
रचनाकार के प्रति विश्वसनीयता पर पाठक को संदेह होने में देर नहीं लगती है।
ई-।।।/915, सेक्टर– आई, अलीगंज,
लखनऊ – 226024
राजेश सेन
1. व्यंग्य एक विविध आयामी विधा
है | इसका केनवास साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में बेहद वृहद् है | दूसरा यह
कि, व्यंग्य साहित्य की एक विद्रोही विधा है | अतः इसे किसी नियत व्याकरण के
तटबंधों में बाँधा जाना, इसके नैसर्गिक बहाव के साथ अन्याय जैसा है | इस लिहाज से
यदि व्यंग्य लेखन में विषयों की पुनरावृत्ति हो भी रही है तो यह कोई विशेष चिंता
का सबब नहीं है | क्योंकि हरेक व्यंग्यकार के व्यंग्य लेखन में आपको औचक रूप से
विविधता के दर्शन होंगे | और पाठक के लिए भी पढने का यह नवाचार होगा कि एक ही विषय
पर जुदा-जुदा शिल्प में कैसे लिखा या गढ़ा जा सकता है | हाँ, यह चिंता की बात हो
सकती है कि पुनरावृत्ति के आधिक्य के चलते कोई व्यंग्यकार नए विषयों के चयन का
खतरा ही उठाना बंद कर दे | वस्तुतः यह तो व्यंग्य के केनवास को अधूरा छोड़ने जैसा
उपक्रम होगा कि जिस विधा में प्रयोग और कथ्य के बहुतेरे अवसर मौजूद हों, वहाँ कोई
व्यंग्यकार केवल गिने-चुने विषयों पर ही महदूद होकर रह जाए | और फिर यह तो
व्यंग्याकारिता के साथ-साथ एक व्यंग्यकार की भी तो निजी क्षति मानी जायेगी कि वह
एक उन्मुक्त और तटहीन विधा में रहकर स्वयं को किन्हीं तट विशेषों में सीमित होकर
व्यंग्य लेखन करने लग जाए |
2. घटनाएँ नई हो या पुरानी इससे
कोई विशेष फ़र्क इसलिए नहीं पड़ता | क्योंकि व्यंग्य हमेशा घटनाओं पर नहीं बल्कि
घटनाओं के नेपथ्य में छुपी आक्रांत विसंगतियों पर काढ़ा जाता है | सवाल यह है कि
किसी भी नई या पुरानी घटना का नेपथ्य अपने गहरे भीतर कैसी और कितनी गहन किस्म की
विसंगतियां समेटे बैठा है | और इस बात की तफ्तीश एक व्यंग्यकार अपनी सूक्ष्म
दृष्टि के बूते ही कर सकता है | और फिर विसंगतियों को पहचानने के बाद एक
व्यंग्यकार कैसे उन पर प्रहारक होता है, यह ज्यादा महत्वपूर्व इल्म होता है | वैसे
विसंगतियों को पहचानना और फिर उन पर अपने अलहदा अंदाज़ में प्रहार करना, ये दो
अलग-अलग विषय हैं | और ये दोनों ही खूबियाँ एक व्यंग्यकार की निजी समझ से
पुष्पित-पल्लवित होती हैं | इन्हें कोई गुरू कभी सिखा-पढ़ा नहीं सकता | इस इल्म को
साधने के लिए कोई किसी को कभी तालीम भी नहीं दे सकता | इस इल्म को साधने में एक
व्यंग्यकार स्वयं ही अपना गुरु होता है | साफ़ है कि नए विषयों पर लिखते हुए कोई
व्यंग्यकार घटनाओं के मूल में छुपी विसंगतियों तक पहुँच भी पाता है | और कोई नहीं
भी पहुँच पाता है | फिर घटनायें चाहें नई हो या पुरानी, वास्तविक इल्मकारी तो
व्यंग्यकार के शिल्प-वैविध्य में होती है |
3. इस बात से मैं निजी तौर पर
सहमत नहीं हूँ कि अखबार या संपादक किसी व्यंग्यकार के कथ्य को उसकी आत्मा तक
प्रभावित कर सकते हैं | हाँ, यह जरूर हो सकता है कि एक अखबार या संपादक की व्यंग्य
के कंटेंट को लेकर कुछ निजी पसंदगी या नापसंदगी हो सकती है | जिसके हिसाब से कई
बार एक व्यंग्यकार छपने की गरज से अपने-आप को फाइन-ट्यून करता चलता है | मगर फिर
भी कथ्य और शिल्प तो व्यंग्यकार का अपना निजी ही विषय होता है | और फिर हमें यह
क्यों भूलना चाहिए कि एक अखबार और संपादक का यह पूर्वाधिकार हो सकता है कि वह अपने
अखबार में क्या छापे और क्या ना छापे ! मगर इसकी वजह से व्यंग्य का विषय भले ही
प्रभावित हो सकता है, मगर व्यंग्य की भाषा, विचार और शैली तो एक व्यंग्यकार की
अपनी निजी ही होती है | और कोई इसे अखबार या संपादक कभी डिक्टेट कर भी नहीं सकता
है |
4. बेशक करना चाहिए, अलबत्ता
अनुभव और अनुसंधान ही तो एक लेखक की थाती होता है | किसी विसंगति या विद्रूपता पर
एक लेखक के नज़रिए में उसका अनुभव और अनुसंधान मिलकर ही तो किसी पठनीय कथ्य का
शिल्प रचते हैं | और बगैर अनुभव और अनुसंधान के रचा गया कथ्य विषय के मूल तक अपनी
पैठ जमाने में कभी कामयाब नहीं हो सकता |
5. साहित्य की किसी भी
विधा में कथ्य-वैविध्य का बड़ा ही महत्त्व होता है | फिर भले ही वह कहानी हो, काव्य
हो या फिर व्यंग्य लेखन हो | और यही कथ्य-वैविध्य एक लेखक को अपने समकालीन लेखकों
में एकदम जुदा खड़ा भी करता है | या कहें कि अनेकों लेखकों की भीड़ में अलग दिखाई देने
वाले लेखक अपने कथ्य-वैविध्य के बूते ही अपनी अलग पहचान बना पाने में सक्षम होते
हैं | और यही बात व्यंग्य लेखन में भी पुरे हल्ले के साथ लागू होती है | बेहद ख़ुशी
की बात है कि आज हमारा ‘समकालीन व्यंग्य परिदृश्य’ एक से बढ़कर एक नवोदित
व्यंग्यकारों की आमद से समृद्ध हो रहा है | जिनका बात कहने का अपना ही लहजा है
अपना ही शऊर है | और जो दमदारी से अपने वैविध्यपूर्ण कथ्य के साथ अपना सृजन भी कर
रहे हैं | गौरतलब बात तो यह है कि नए व्यंग्यकारों का आंकलन हरिशंकर परसाई, शरद
जोशी, श्रीलाल शुक्ल जैसे दिग्गजों के कथ्य-शिल्प के आलोक में करना समकालीन
व्यंग्य की एक बहुत बड़ी विद्रूपता है | क्योंकि व्यंग्य का कोई स्थायी शिल्प नहीं
हो सकता | जबकि व्यंग्य खुद अपने आप में एक निरपेक्ष शिल्प होता है | अतः समकालीन
व्यंग्यकारों को पुराने या हालिया वरिष्ठ व्यंग्यकारों से तुलनात्मक दृष्टी से
तोल-मोल करना व्यंग्य के कथ्य-वैविध्य के अवसरों का खुला अपमान करना है | और यह
उचित भी नहीं जान पड़ता ! पुराने व्यंग्यकारों में अपनी बात अपने अंदाज़ में कही और
बाद की पीढ़ी के व्यंगकारों के लिए कहन के सुलभ रास्ते बनाए | बाद में मंझले
व्यंग्यकारों ने उनके बनाए रास्तों पर चलकर अपने अंदाज़ विकसित किए | और अब नई पीढ़ी
के व्यंग्यकार नए प्रयोगों के साथ अपनी बात कहकर अपने प्रतिमान गढ़ रहे हैं | इसमें
ग़लत क्या है ? हर पीढ़ी के जिम्मेदार लेखन को व्यंग्य का धागा बड़ी साफ़गोई से समय के
साक्षी में बांध ही रहा है |
75, अम्बिकापुरी
एक्सटेंशन, एरोड्रम रोड, इंदौर (म.प्र.) मो. 99933-10309
डॉ. नीरज सुधांशु
1.
विषयों की
पुनरावृत्तियां होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। समाज की विसंगतियों, विडंबनाओं, कुरीतियों के कचोटने से ही व्यंग्य उभरता है अतः एक ही विषय पर अनेक
व्यंग्यकारों का लिखना प्रायः देखा जाता है। व्यंग्य भले ही एक विषय पर हो किंतु
शैली व ट्रीट्मेंट प्रायः जुदा होते हैं। प्रत्येक का परिस्थिति को आकलन करने का
पैमाना व व्यक्त करने का तरीका भी अलग होता है। मुझे हर किसी के विचार जानने में
रुचि रहती है अतः मैं अलग-अलग लेखकों के एक ही विषय को लेकर
विचार पढ़ना पसंद करती हूं। हां, एक ही विषय पर बार बार अनेक
द्वारा लिखे जाने पर पाठकों की रुचि अवश्य प्रभावित होती है। कुछ नया पढ़ने की
तमन्ना पाठक के मन में हमेशा रहती है।
2. अक्सर
अधिकांश व्यंग्य समसामयिक घटनाओं से प्रेरित होते हैं जो व्यंग्य कॉलमों खासकर
अखबारों के लिये लिखे जाते हैं। अखबारों में ज्वलंत विषयों को ही प्राथमिकता दी
जाती है, ऐसा प्रतीत होता है।
घटनाओं को देखने का अपना – अपना नज़रिया होता है। घटना की
गंभीरता व उससे जुड़े मुद्दे किस कोण से दृष्टिगत हैं यह प्रश्न उस पर टिका है।
घटना के मूल तक पहुंचने के लिये घटना की पूर्ण रूप से हर पहलू की जानकारी होना
अतिआवश्यक है, जिसका तात्कालिक रूप से अभाव रहता है, अनेक जानकारियां धीरे-धीरे समय बीतने पर सामने आती
हैं। व्यंग्य परोसने की शीघ्रता से ग्रसित आलेखों में घटना के मूल को स्पर्श करने
का अभाव रहता है, जबकि व्यंग्य को हांडी में पकाने के बाद
परोसा जाए तो मूल का वर्णन बखूबी किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त यदि हाल की घटना
जो हरियाणा में हुई उसके संदर्भ को उदाहरण के तौर पर देखें, तो
अनेक व्यंग्यकारों ने बाबा के व्यक्तित्व को लेकर लिखा, तो
किसी ने भक्तों से छल को मुद्दा बनाया, किसी ने प्रेमकहानी
को तो किसी ने बाबाओं की लूट-खसोट को वहीं किसी ने अंधभक्ति
और दंगों को मुद्दा बनाया। अब देखा जाये तो धटना के मूल में ये सभी मुद्दे
समाविष्ट हैं, हर मुद्दे को एक आलेख में समाविष्ट नहीं किया
जा सकता अतः ऐसी व्यापक घटनाओं में कोई एक मूल न होने से किसी भी एक तथ्य को आधार
बनाकर लिखा जा सकता है।
3. अखबारों
का ध्येय समाचारों के प्रकाशन के साथ व्यवसायिकता भी है। कॉलम के प्रकाशन में तो
खासतौर पर समसामयिक विषय व मसालेदार लेखन पाठकों की रुचि को ध्यान में रखकर दिये
जाते हैं। कई बार मूल भाषा में परिवर्तन या वाक्यों में ही बदलाव कर दिया जाता है
जो पाठक की समझ या रुचि के नाम पर होता है,
इससे आलेख की मूल भावना तक परिवर्तित हो जाती है। अधिकतर रचनाएं मनोरंजन को मद्देनज़र रखकर शामिल
की जाती हैं। ऐसी प्रवृत्ति व्यंग्य विधा का नुकसान ही कर रही है। अखबारी कॉलमों
की शब्दसीमा भी व्यंग्यकार के हाथ बांध देती है। वहीं प्रायः यह भी देखने में आता
है कि सत्ता द्वारा पोषित पत्र-पत्रिकाओं द्वारा सत्तारूढ़
दल या सरकार के खिलाफ तल्ख भाषा में लिखी गई रचनाओं को शामिल करने से कतराना भी उनकी नीयत पर प्रश्न चिह्न
लगाता है। व्यंग्यविधा के लिए यह शुभ संकेत नहीं है।
4. क्यों
नहीं!! अवश्य करना चाहिये
किंतु उसमें वास्तविकता होना भी आवश्यक है। समाज को दिशा दिखाना भी लेखक का
दायित्व है अतः सामाजिक सौहार्द को ध्यान में रखकर ही ऐसे तथ्यों को कथ्य में
शामिल कर सामने लाना चाहिये। अन्यथा किसी संवेदनशील मुद्दे पर असंयत होकर लिखने से
समाज में अराजकता का माहौल, वैमनस्य या उन्माद भी उत्पन्न हो
सकता है। कथ्य का निर्धारण बहुत सोच-समझकर करना अतिआवश्यक है
और यदि किसी संवेदनशील मुद्दे पर लिखना ही हो तो भाषा पर नियंत्रण अतिआवश्यक है।
5. वर्तमान
समय में विसंगतियों की भरमार है। वैश्वीकरण के युग में अपने आस-पास ही नहीं बल्कि
दुनिया के हर कोने में घटने वाली घटनाओं की जानकारी पल में प्राप्त हो जाती है
जिसे व्यंग्यकार कथ्य बनाता है। सामाजिक विषय, अंधविश्वास,
आधुनिकता, सांप्रदायिकता, नंगापन, चरित्र हनन, पर्यावरण,
परमाणु खतरे, युद्ध, व्यवसाय,
देशों के बीच संबंध,इतिहास,वाणिज्य, विग्यान, राजनीति,
शिक्षा, बलात्कार, लिंगभेद,
समलैंगिकता जैसे सैंकड़ों विषय हैं जिन्हें कथ्य बनाने को
व्यंग्यकार की लेखनी आतुर रहती है।
आर्य नगर,
नई बस्ती, बिजनौर-246701 मो. 09412713640
डॉ हरि जोशी
1. यह
सही है व्यंग्य लेखन में विषयों की पुनरावृत्ति हो रही है, किन्तु यदि पुराने विषय
पर भी नए दृष्टिकोण से, बिलकुल अछूती बात कही जाये तो वह भी स्वीकार्य होगी | एक
ही विषय पर दो या दो से अधिक विचार रखे जा सकते हैं, रखे भी जा रहे हैं | विषय की
पुनरावृत्ति तो हो सकती है किन्तु उसमें निहित विचारों की ,सामग्री की, प्रस्तुति अथवा
कथ्य की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए | अनेक छोटी रचनाएँ ही नहीं दो भिन्न भिन्न पुस्तकें
तक एक ही विषय पर लिखी गई हैं |
2. घटनाओं
के मूल तक जाकर तो अदालत में चल रहे प्रकरणों पर भी निर्णय नहीं होता ?वैसे भी
व्यंग्यकार को कोई निर्णायक फैसला तो सुनाना नहीं होता,जिसके बल पर दोषी को दंड
मिल जायेगा | वह तो जो कुछ भी हेयहै ,अवांछित है उसपरअपनी शैली में प्रकाश डालता
है |अब यह पाठक पर निर्भर करता है कि उसकी बात को उसके तर्क के आधार पर स्वीकार
करे या न करे ?असहिष्णुता पर ही कितना बावेला मचा किन्तु कितने लोग उस बात से सहमत
हुए ?भले ही न्यायसंगत न हो ,विचारधारा के आधार पर लोग अपने विचारों पर दृढ़ रहने
को स्वतंत्र हैं |सामान्यतःलेखक नए नए विषय उठाते हैं औरव्यंग्य के विषय भीनवीन
घटनाओं से प्रेरित होतेहैं |हाँ एक ही घटना को दो लेखक अपने अपने ढंग से लिखेंगे |
3. इसे
मैं सही नहीं मानता | किसी भी संपादक के पास किसी भी रचना को आमूलचूल परिवर्तित
करने का समय नहीं है |पुराने समय में रचना पर बहुत विचार मंथन ,
परिवर्तन,,पुनर्लेखन तक होता था |आजकल किसीसंपादक के पास समय नहीं है |समाचार पत्र
की दृष्टिया झुकाव के दायरे में यदि रचना आती है तो उसे प्रकाशित कर देगा अन्यथा
उसे वापिस कर देगा |यह अवश्य है कि कईलेखकसंपादक की रूचि अरूचि के अनुरूप हीलिखते
हैं | जनरंजन के तर्क का जहाँ तक प्रश्न है, वह ठीक है कि पाठककोवह रुचिकर लगे
|विचारों को पढ़कर मुस्कराए ,हँसे,किन्तु यदि बात एकदम नवीन , कोईनईपरत उघाड़ने वाली
और प्रभावी है तो संपादक उसेअवश्यस्थान देता है |यदिरचना को एक जगह स्थान नहीं
मिलता तो दूसरी जगह मिल जायेगा ,शर्त इतनी ही है कि रचना ठीक से लिखी जाये ?
4. बहुधा
लेखक अपने अनुभव और अनुसंधान के आधार पर
ही कथा का निर्धारण करता है |दूसरों के अनुभव को भी जब तक वह अपने सांचे में नईं
ढालता अपनी,रचना प्रस्तुत नहीं करता |कई बार बिना लेखक का नाम जाने बिना,रचना को
पढ़ते ही समझ में आ जाता है कि किसने उसे लिखा है |
5. सभी
के कथ्य और शैली अलग अलगहोते हैं, होने भी चाहिए | कथ्य वैविध्य तो होगा ही |कई
बार लेखक स्वयं अपने कथ्य में विविधता लाने में सफल होता है |कोई प्रथम पुरुष में
अपनी बात कहता है तो कोई तृतीय पुरुष में कोई एनी किसी शैली में | बीच बीच में
संवादों के माध्यम से कोई झकझोरने वाली या
सार्वकालिक बातलिख दे तो पाठक लम्बे समय तक उसे याद रखता है |
3/32 छत्रसालनगर, फेज़–2, जे.के. रोड, भोपाल (म.प्र)
– 462022 मो. 09826426232
वीना सिंह
1. किसी भी विधा में
यदि एक ही विषय की मिलती जुलती रचनाएं बार - बार सामने आती हैं तो उसे पढ़कर बोरियत
या उकताहट होने लगती है ए एक जैसे विषय पर व्यंग्य लेखन भी निःसंदेह उबाऊ और नीरस
लगते हैं। जन सामान्य व्यंग्य लेखों में रोचकता व नवीनता की तलाश करता है । परन्तु
बहुत से व्यंग्य विषय में श्रेष्ठ वरिष्ठ रचनाकारों का भी हाल में छपा व्यंग्य
पढ़कर लगता है कि उनका व्यंग्य लेखन थक चुका है
उसमें नयापन दिखाई नहीं देता है बल्कि पुराने व्यंग्य नया कलेवर पहने से
लगते हैं। आजकल राजनीतिक विषयों पर व्यंग्य लेखन अधिक होता प्रतीत हो रहा है ।
किसी बड़े नेता या नेत्री के द्वारा कही गयी विवादास्पद बातें आज कल व्यंग्य लेखकों
के विषय बनते हैं । मेरा मानना है कि व्यंग्य लेखक को खोजी प्रवृत्ति का होना
चाहिए समाज की विसंगतियों और सरकारी नीतियों धर्मान्ता असमानता जैसे विषयों को
आधार बनाकर मजेदार व शिक्षाप्रद व्यंग्य लेख लिखे जाने चाहिए । जिसे पढ़कर पाठकों
का मनोरंजन ए ज्ञानवर्धन व समाज व स्वयं को सुधारने की प्रेरणा मिले ।
2. व्यंग्य के विषय
नवीन घटनाओं से प्रेरित होते हैं ए यह बात बिल्कुल सही है। व्यंग्य लेखक के आगे
सबसे बड़ी समस्या होती है विषय चुनाव की । किसी भी नवीन विषय पर लिखने के लिए उस
विषय के परिवेष को समझना पड़ता है ए गहराई में जाना पड़ता है । पूरे परिदृश्य को
समझना पड़ता है लेकिन जब बजाय मझधार में जाये किनारे पर ही छप - छप करने लगते हैं ए
तारतारिक विषयों पर अपनी लेखनी चलाने लगते हैं तब हमारा लेखन सतही होकर रह जाता है
और हम किसी कथ्य को स्पर्श तक नहीं कर पाते हैं। व्यंग्य लेखन में जो हम नया लिख
रहें हैं उसमें भी मिथकों की भरमार है । हमारे पास इतना समय ही नहीं होता कि किसी
विषय की गहराई में जाकर उसके मूल को पकड़ कर अवगाहन कर सकें । अधिकतर व्यंग्य
रचनाकार समाचार पत्रों को पढ़कर कुछ ऐसे विषय जो उसको प्रभावित करते हैं ए उस पर
व्यंग्य लिखते हैं । आजकल समाचार पत्रों में व्यावसायिकता के कारण व्यंग्य लेख
लिखने के लिए कम से कम स्पेश होता है उसे महज 150 से 350 शब्दों में ही अपनी बात
कहनी होती है जिसकी वजह से व्यंग्य लेखक विषय के साथ न्याय नहीं कर पाते । जब तक
विषय रोचक बनना शुरू हो पाता है तब तक छपने हेतु स्थानाभाव आड़े आ जाता है इस कारण
व्यंग्यकार घटनाओं के मूल तक नहीं पहंुच पा रहे
हैं और व्यंग्य लेख रोचक या मजेदार नहीं हो पा रहे हैं। अच्छे उद्देश्यपूर्ण
व मूल तक पहुंचने के लिए व्यंग्य लेखक को समाचार पत्र या पत्रिकाओं में लिमिटेड
कालॅम बहुत बड़ी बाधा बन रही है । सुदर्शन के हास्य व्यंग्य लेख ए साइकिल की सवारी
या हरिशंकर परसाई ए शरद जोशी के व्यंग्य 150 या 350 शब्दों में बांधे नहीं जा सकते
हैं । अन्य कारणों के साथ शब्द सीमा घटनाओं के मूल तक पहंुचने में एक बाधा बन कर
उभरती है । हो सकता है कि कुछ लोग कम शब्दों में भी अपनी बात कहने में माहिर हों
पर अक्सर मेरे व्यंग्य बड़े होने के कारण अखबार में छपने से बंचित रह जाते हैं । एक
अच्छी व घटनाओं के मूल तक पहुंचने के लिए ए व्यंग्य लेख लिखने के लिए लेखक का अपने
काम में सिद्ध हस्त होना अनिवार्य है । मैं बिना संकोच के कहना चाह रही हंू कि आज
100 में से 90 व्यंग्य लेखक रोचक व्यंग्य
न लिखकर उबाऊ व घटिया लिखते हैं जिसके कारण पाठक एक दो लाइनें पढ़ने के बाद ऊब जाता
है और बगैर पढ़े ही रख देता है या अन्य लेख या समाचार पढ़ने लगता है । ऐसा हमारे
घटनाओं के मूल तक न पहंुच पाने के कारण ही होता है ।
3. व्यंग्य लेखन के लिए
अखबार या संपादक अगर कोई विषय तय करते हैं कि इस विषय पर व्यंग्य लेख लिखें तो
इसमें कोई बुराई नहीं है । एक अच्छा व्यंग्य लेखक निःसंदेह अपनी प्रतिभा से अच्छी
व्यंग्य रचना दे सकता है । मेरा यह भी मानना है कि सौ व्यंग्य लेखकों में से पांच
या छः लेखक ही ऐसे होते हैं जो व्यंग्य लेखन में निपुण हों और पाठक उनका
नाम पढ़कर पूरी व्यंग्य रचना पढ़ने के लिए उतावले हों जायें । वैसे अखबार की उम्र
कुछ घंण्टों की होती है और उसमें छपे हमारे व्यंग्य की उम्र कुछ मिनटों की । यदि
हम किसी से पूंछते हैं कि आज के व्यंग्य में आपको क्या अच्छा लगा तो वह सोच में पड़
जाता है कि क्या कहें । इसका मतलब है कि न कोई कथ्य आकर्षित करता है न शीर्षक और न
कोई व्यंग्य शब्द । ऐसे में अखबार का कालॅम एक लतीफे से भी कमजोर हो जाता है
सच्चाई तो यह है कि हम कुम्हार की तरह एक ही तरह के कुल्लढ़ प्यालियां पाथते जा रहे
हैं और उम्मीद करते हैं कि दुनियां हमें कलाकार माने । सच यह है कि प्रतिभाशाली व
घटनाओं के मूल में व्यंग्य लेखन के लिए व्यंग्य लेखक को बेहद प्रतिभावान होना
आवश्यक है । व्यंग्य लेखकों को अपनी विशिष्ट शैली ईजाद करनी चाहिए व जिस विषय पर
वह व्यंग्य लिख रहे हैं उसकी पूरी जानकारी होनी चाहिए ।
जनरंजन का तर्क देकर अखबार या संपादक व्यंग्य
लेखकों का भाषा विचार शैली आदि में समझौते कराते हैं मेरी राय में यह गलत है ।
अखबार या संपादक विषय सुझाए तो एक कुशल व्यंग्यकार अच्छा व्यंग्य लिखने में समर्थ
होगा । भाषा या विचार शैली बताना व्यंग्य लेखक की प्रतिभा पर प्रश्न चिन्ह पैदा
करता है इससे साफ जाहिर होता है कि अखबार या संपादक को वर्तमान लेखकों की प्रतिभा
पर शक है । इससे तो व्यंग्य लेखक सीमित दायरे में बंधकर रह जायेगा उसकी रोचक व
उद्देश्य पूर्ण व्यंग्य लेखन शैली पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा ।
4. बिल्कुल ए व्यंग्य
लिखने से पहले विषय के मर्म को जानना ए उसकी गहराई में झांकना बहुत जरूरी है और यह
तब संभव है जब लेखक दूरदर्शी और खोजी प्रवृत्ति का हो । एक अच्छा रोचक व घटना के
मूल में जाकर व्यंग्य लेख तभी लिखा जा सकता है जब व्यंग्य लेखक को उस विषय की
पर्याप्त जानकारी हो । उत्कृष्ट व्यंग्य लेखक को सिद्ध हस्त व्यंग्य लेखकों के
अधिकाधिक लेख पढ़ने चाहिए तथा उसे गुण ग्राही होना चाहिए । उसे अपनी प्रतिभा ए लगन
व मेहनत के बल पर व्यंग्य हेतु एक विशेष शैली का आविष्कार करना चाहिए तथा अपने
अनुभव व अनुसंधान के आधार पर ही कथ्य का निर्धारण करना चाहिए । मुझे लगता है कथ्य
से कहीं ज्यादा समझ का संकट है ं
5. वर्तमान में व्यंग्य
लेखन में कथ्य वैविध्यता का अभाव प्रतीत होता है। ज्यादातर व्यंग्य लेखकों की अपनी
विशिष्ट व रोचक भाषा शैली का अभाव दिखता है । विषयों के चयन में भी गहन अध्ययन
नहीं प्रतीत होता है । फास्ट फूड की तरह हल्की - फुल्की प्रभावहीन व्यंग्य लेखों
की बढ़ोत्तरी दिखाई पड़ती है । व्यंग्य लेखक चटपट व जल्दबाजी में व्यंग्य लेख लिखता
सा दिखाई देता है जिसमें विषय की पकड़ व पाठकों को या जनसामान्य को पढ़ने के लिए
बांधे रखने की क्षमता का अभाव नजर आता है । आज ऐसे व्यंग्य लेखों की बहुत कमी हो
गई है कि कोई पाठक बड़े चाव से पूरा व्यंग्य पढ़े । नीरस व उबाऊ लेखन महज खानापूर्ति
बनकर रह गया हैं। व्यंग्य लेखक शोहरत और दौलत तो कमाना चाहते हैं पर अच्छी व्यंग्य
रचना देने की कुव्वत की बड़ी कमी है। हमारे व्यंग्यकारों का कोई चेहरा व्यंग्य के
इतिहास के चौखटे में फिट होते दिखाई नहीं दे रहा है क्योंकि वे तात्कालिक लाभ जोड़
- तोड़ व जुगाड़ से उबर नहीं पा रहे हैं । पुरस्कारों की लालसा ए सरकारी कमेंटियों
में अपनी पैठ बनाने और सैर सपाटों की चाह से अपने को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं।
शायद यही कारण है कि हमारे व्यंग्य के इतिहास का चेहरा अधूरा है जो कुल मिलाकर चार
- पांच दशक का ही आंकलन करता है जबकि सैकड़ों साल पहले ही व्यंग्य कविता अधिक
प्रभावी रही है । हमने सूरदास के व्यंग्य तुलसी के रत्नावली को नहीं समझा । राम
दादू कबीर को तो छोड़ ही दीजिए नार्गाजुन को भी हमारा व्यंग्य इतिहास स्पर्श नहीं
करता । हम व्यंग्य गद्य के कुएं को ही व्यंग्य का आसमान समझ रहे हैं पर ऐसा नहीं
है ।
वर्तमान समय में कथ्य की वैविध्यता न होकर घिसे
- पिटे बेतुके प्रभावहीन व्यंग्य लेखों की भरमार है । उत्कृष्ट व्यंग्य लेखन के
लिए लेखकों को स्वयं में एक सैंसर लाइन बनानी चाहिए । व्यंग्य लेखक खुद अपनी रचना
को बार - बार पढ़े यदि वह स्वयं व्यंग्य लेख में कमी पाते हैं तो उसे छपने न भेजें
। अच्छे व्यंग्य लेखक में विविध विषयों पर
अच्छे से अच्छे लेख लिखने की भूख होनी चाहिए ।
38 महाराजा अग्रसेन नगर
सामने - एल डोरेड़ो मांटेसरी स्कूल, सीतापुर रोड़ लखनऊ 226021
मो. 8005419950
अनिल अयान
1. वर्तमान व्यंग्य लेखन में
विषयों की जो भीषण पुनरावृत्तियाँ हो रही है, उससे
यह महसूस होता है कि वर्तमान परिस्थियों में कथ्य का अकाल हो चुका है या फिर
व्यंग्यकार को विषय चयन में परेशानी महसूस हो रही है। विषयों की पुनरावृत्तियाँ
होना जितना कष्टकारी है उससे कहीं ज्यादा कष्ट तब होता है जब विषय के साथ साथ
व्यंग्य की पृष्ठभूमि में भी कब्जा जमाया जा रहा हो। इसके पीछे मुख्य वजह बढ रहे
अखबारों में व्यंग्य कालमों की संख्या जिसमें प्रकाशित होने के लिये विषय खोजने
में मसक्कत नहीं की जा रही है। संपादकों का भी यह मानना है कि आम लोगों के लिए
विषय और उसका स्तर और ज्यादा हल्का हो जाता है। सभी के साथ ऐसा नहीं होता परन्तु
अधिकांश यह देखा जाता है कि यदि व्यंग्यकार चार समाचार पत्रों में अपना व्यंग्य
भेज रहा है तो वह एक व्यंग्य के हर कोने को मुख्य रूप देकर कई बार अलग अलग हेडिंग्स
में प्रकाशित होने के लिए भेज देते हैं। हम यह नहीं सोचते कि हमारा नियमित पाठक एक
ही विषयवस्तु को प्रकाशित होने पर कैसा महसूस करेगा। वह हमारी लेखनी से निराश होगा
और यह भी हो सकता है कि वो हमें अपना प्रिय लेखक होने के दर्जे से बर्खास्त कर दे।
यह हर लेखक के लिये चिंता का विषय होता है क्योंकि हम सब अपने पाठकों के लिए ही
लिखते हैं।
2. यह सच है कि व्यंग्य लेखक अपने
लेखन के लिए नवीन घटनाओं को खोजने की कोशिश में हर पल लगे रहते हैं। परन्तु ये
घटनाएं एक जैसी ही होती हैं। इनके रूप अलग अलग होते हैं। जैसे किसान आंदोलन या
आत्म हत्या जिसमें स्थान अलग अलग हो सकते हैं। परीक्षा में व्यंग्य लिखना किंतु
परीक्षाओं के प्रकार बहुत से हो सकते हैं। परन्तु इन घटनाओं के गर्भ में जाकर
तीखापन या चुटीला तेवर खोजने का गुण अधिक्तर गुम हो जाता है। क्योंकि इस प्रकार के
व्यंग्य में व्यंग्यकार या तो शब्द सीमा
में बंधकर मजबूर हो जाता है या फिर संपादक और उसके अखबारी प्रबंधन की शर्तों से
बंध जाते हैं। साहितयिक पत्रिकाओं या संकलन तक पहुंचने में आम तौर में ऐसे व्यंग्य
लेखक असफल हो जाते हैं। अखबारों में प्रकाशित होने वाले व्यंग्य अधिक्तर हास्य रस में
जाते जाते दम टोड़ देते हैं। घटनाओं का सही रूप में सही दिशा में और सही दृष्टि से
विद्वरूपताओं में चोंट करने का गुण सैकड़ों में से कुछ एक के पास ही होता है और वो
विशेष सदाबहार लेखक के रूप में लिखते जाते हैं। बिना यह चिंता करे कि एक संपादक
अगर निरस्त कर देगा तो रचना का क्या होगा। ऐसे व्यंग्यकार सामान्यतः वलेस में पढने
को मिल जाते हैं।
3. यह बिंदु वाकयै व्यंग्य ही बस
नहीं वरन अन्य आलेखों के साथ भी ऐसा ही होता है। आज के समय में देश की जिस तरह की
परिस्थितियाँ है उसमें अखबार अब स्तंभ नहीं रह गए। वो पत्रकार रूपी क्लर्कों का
समूह होते जा रहे हैं। अखबार के मालिक ही संपादक की कुर्सी को सुशॊभित करते हुए
खुश होते हैं। और तो और कलम से सिपाहियों के क्लर्क की तरह व्यवहार करते हैं।
अखबार भी उद्योगपतियों या राजनीतिज्ञों के द्वारा संचालित हो रहे हैं। वो अपने
विरोध में किसी तरह की रिपोर्टिंग और रचनाएं अखबारों में नहीं प्रकाशित करना
चाहतेहैं। अब अगर लेखक और संपादक के बीच में व्यावसायिक वायदे हो गए हैं तो इन
वायदों को पूरा करने के लिए। लेखक अपनी सीमाओं को मजबूरियों का वास्ता देकर अखबार
का गुलाम हो जाता है। वर्तमान में यह अधिक्तर व्यंग्यकारों के साथ देखने को मिलता
है। छपासरोग से ग्रसित व्यंगकार जो तथाकथित व्यंग्य लिखकर स्वयंभू बने हुए हैं
उनके साथ इस तरह के घटनाक्रम घटते रहते हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं का हाल यह है कि
आज के समय में वामपंथ और दक्षिण पंथ में बंट चुकी हैं। जो शासकीय विज्ञापनों को
प्रकाशित करके अपनी साहित्यिक प्रतिबद्धता को भूल जाते हैं। अर्थ को ज्यादा महत्व
देने से रचनाओं की दृष्टि पर भी प्रभाव पड़ता है क्योंकि शासन के पास जाने वाली
पत्रिकाओं में उसका विरोध भला कैसे कर सकते हैं। विचार और मतैक्य ना होने की वजह
से भाषा विचार और भाषा शैली में वही फूहड़ता आने लगती है जो कागज काले करने के लिए
जरूरी होती हैं। व्यंग्य इसकी वजह से अपना मूल रूप खोकर संकरित हो रहे हैं क्योंकि
व्यंग्य लेखक भी तो संकरित होकर हर विधा को अपनी प्रसिद्धि का माध्यम बनाने की
चेष्टा कर रहे हैं।
4. लेखक को अपने अनुभव और खोज के
आधार पर अपना लेखन करना चाहिए। अनुभव तो जीवन के साथ-साथ अधिक्तर पढने से आता है।
यह जरूरी नहीं है कि हम सिर्फ अपने प्रिय लेखक और उसकी रचनाओं को पढे अगर हमें
वर्सटाइल बनना है तो हमें इस समाज और साहित्य से संबंधित हर प्रकार के साहित्य को
पढना चाहिए। जिसके आप साहित्य के हर पडाव और हर काल के बारे में जान सकें। किसी
विषय या कथ्य के बारे में अपनी विधा में लिखने से पहले अपनी शैली के साथ साथ उसके
बारे में अच्छी तरह से खोज खबर और उसके
पीछे छिपे सत्य को जानना भी जरूरी है सतही लेखन से हम सब कहीं ना कहीं विमर्श अथवा
संवाद में मौन हो सकते हैं। हम एक दूसरे को देखकर अगर लेखन कर रहे हैं तो यह एक
अंधी दौड में दौड़ना है। क्योंकि हमारी मौलिक प्रतिबद्धता और रचनात्मक दृष्टि तो
कुछ होती ही नहीं हैं। इसलिए हर रचनाकार को अपनी मौलिकता का दामन पकड़ कर स्तरीय लिखने
के लिए अनुभव और खोजबीन करने की प्रक्रिया को अनवरत कार्यरत होना चाहिए। हमारा
अनुभव ही हमारी रचना की आत्मा होती है। आत्मा के बिना रचना मृतप्राय हो जाती है।
5. जैसा की पहले प्रश्न में यह
स्पष्ट है कि कथ्य और विषय के केंद्र तो एक ही तरीके के होते हैं परन्तु उनके रूप
रंग बदल कर रचनाएं आजकल हो रही हैं। विविधता को घोट कर पी लिया गया है। कुछ
मूर्धन्य लेखकों के लिए आम विषयों में भी चिकोटी और नुकीलापन बखूबी खोज लेते हैं।
औसतन व्यंग्यकार और उनकी रचनाएं भी औसतन एक ही केंद्रीय बिंदु पर एक ही लहजे और एक
ही संरचना लिए होती हैं। इसके पीछे भागमभाग प्रकाशन की दौड़ में सबसे आगे होने की
कोशिश करना है। हम पढने की बजाय सुनने और देखने और लिखने की परंपरा को निर्वहन कर
रहे हैं जो कालजयी नहीं है। विविधता के लिए सूक्ष्म अवलोकन और पठन पाठन की आवश्यता
हर लेखक को होती है। कोई उसकी महत्ता को जानकर साहित्यिक तपस्या करता है। अध्ययन
करता है और अनुभवों की तपन के बाद जो रचना निकलती है वह पाठकों से सीधे बात करती
है। विषय में विविधता और विषय वस्तु की व्यंग्य में प्रस्तुति अपने आप निखर जाती
है और कोई इस रीति को हवा में उड़ा कर लेखन बस करता रहता है वह धीरे धीरे खाली हो
जाता है क्योंकि अगर नियमित आपूर्ति नहीं होगी तो उच्च कोटि का उत्पादन कहाँ से
साहित्य में आएगा और उत्पादन के लिए अच्छी तकनीकि और अच्छे कच्छे पदार्थ की आवश्यकता तो हमेशा ही
रहेगी।
पीजीटी बायोलाजी, दिल्ली पब्लिक स्कूल, सोनौरा
रोड, मैहर बाईपास, सतना, म.प्र. मो. 09479411407
अनूप शुक्ल
1. मेरी समझ में विषयों की
पुनरावृत्ति से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। समस्या तब होती है जब लेखन में दोहराव होते
हैं। एक ही तरह से लिखे लेख पढ़ना बोरियत टाइप लगता होगा।
2. आमतौर पर व्यंग्य के विषय अपने
आसपास से ही लिए जाते हैं। कभी घटनाओं पर और कभी कल्पना पर आधारित। आज व्यंग्य
लेखन बहुतायत में हो रहा है इसलिए लगता होगा कि व्यंग्यकार घटनाओं के मूल तक
नहीं पहुँच पा रहे। लेकिन कुछ लोग तो अवश्य अपने अनुभव, अध्ययन
के आधार पर गहराई तक उतरकर लिखते होंगे।
3. किसी के लेखन को कोई प्रभावित
नहीं कर सकता। सूचनाओं पर आधारित व्यंग्य लेखन पर तात्कालिकता का दबाव होता होगा।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि टीवी व्यंग्य लेखकों को स्कूल के बच्चों की तरह होमवर्क
देता है। सबसे ताजी सनसनी पर लेखक स्कूल के 'राजा बेटा'
बच्चों की तरह कापी भरकर (लेख लिखकर) अखबारों में जमा कर देते हैं।
अख़बार के सम्पादक , जो कोई लेख पसन्द आ गया, समय पर आ गया, अपने मनपसंद लेखक का आ गया आदि के
हिसाब से लेख को अच्छे नम्बर देकर पास कर देते हैं। लेकिन तात्कालिक घटनाओं पर भी
उम्दा लेखन किया जा सकता है। यह लेखक की सामर्थ्य, समझ,
अनुभव और घटनाओं को देखने की तथा उनको विश्लेषित करने की क्षमता पर
निर्भर करता है। भाषा और शैली का भी लेखन पर असर तो होता ही है। अधिक से अधिक
लोगों तक पहुंच के लिए भाषा और शैली का चुनाव करते ही हैं लेखक।
4. कोई भी लेखक अपने अनुभव और समझ
के आधार पर ही लिखता है। जैसी समझ और अनुभव तथा अध्ययन होगा उसी हिसाब से लेखन
होगा। हर लेखक को अपना लेखन अपने अनुभव और अनुसंधान के आधार पर ही करना चाहिए।
5. व्यंग्य लेखन में कथ्य वैविध्य
के लिए अनुभव, अध्ययन में विविधता जरूरी है। जितना विविधता पूर्ण
अध्ययन होगा, जितना ज्यादा अनुभव होगा उतना ही कथ्य वैविध्य
होने की संभवाना होगी। खूब पढ़ना, खूब
घूमना, खूब लोगों से मिलना, खूब देखना,
विश्लेषण करना और अच्छे मन से लिखना। इससे अच्छा लिखा जाने में
सहायता मिलेगी।
पल्लवी त्रिवेदी
1. यह सही है कि व्यंग्य लेखन में
विषयों की पुनरावृत्ति हो रही है ! विषयों की पुनरावृत्ति सदा से होती आयी
है जो काफी हद तक स्वाभाविक भी है क्योंकि हर व्यंग्यकार अपने आसपास के
परिदृश्य और घटने वाली घटनाओं पर पैनी नज़र रखता है और समकालीन मुद्दों को ही
व्यंग्य का विषय बनाता है ! विषयों की पुनराव्रत्ति में मुझे बुराई नज़र नहीं आती
लेकिन एक ही विषय पर लिखे गए अनेक व्यंग्यों में से केवल चुनिन्दा ही अपनी छाप छोड़
पाते हैं ! अंततः अच्छा लेखन ही प्रभावी सिद्ध होता है ! आप किस तरह बार बार
दोहराए गए विषय को ट्रीट करते हैं ,इस पर निर्भर करता
है ! एक अच्छा व्यंग्यकार एक घिसेपिटे विषय को भी अपने मौलिक शैली और ट्रीटमेंट से
बहुत रोचक और पठनीय बना सकता है और यही बात उसे एक सफल लेखक बनाती है ! हांलाकि
बार बार एक ही विषय पर व्यंग्य उबाऊ होते हैं लेकिन एक तरह से अच्छा भी है कि एक
ही विषय पर कई लोगों का विज़न मालूम पड़ता है ! किसे पढ़ना और क्या पढ़ना, पाठक को मालूम है, इसलिए बहुत फर्क नहीं पड़ता इस
बात से कि विषयों की पुनरावृत्ति हो रही है !
2. शायद नहीं ... नवीन और समकालीन
घटनाओं पर लिखे जा रहे ज्यादातर व्यंग्य मुझे उथले और सतही मालूम पड़ते हैं ! मुझे
लगता है कि कोई घटना होते ही या कोई नया मुद्दा मिलते ही झटपट उस पर व्यंग्य लिख
देने की हडबडी व्यंग्य के साथ न्याय नहीं कर पाती ! यही कारण है कि ज्यादातर
व्यंग्य घटना के न तो घटना के मूल तक पहुँच पा रहे हैं और न ही विसंगति पर प्रहार
ही कर पा रहे हैं ! मुद्दे को ठीक से जाने,समझे बगैर लिखकर
छपने भेज देना आख़िरकार व्यंग्य और व्यंग्यकार दोनों का नुकसान करता है !ऐसे में या
तो वह व्यंग्य सपाटबयानी का शिकार हो जाता है या बेकार की हंसी ठिठोली का !हाँ
..कुछ व्यंग्यकार ज़रूर हैं जो हर मुद्दे पर बेहद प्रभावी और विश्लेष्णात्मक दृष्टि
के साथ लिखते हैं ! पर ज्यादातर निराश करते हैं !
3. अखबार के व्यंग्य कॉलम की अपनी
शब्द सीमा होती है ! यह संपादकों की बाध्यता है कि वे उससे ज्यादा बड़ा व्यंग्य
नहीं नहीं छाप सकते ! उसमें कोई बुराई नहीं कि सम्पादक अपनी शब्द सीमा बताकर
लेखकों से व्यंग्य मांगते हैं ! छोटे व्यंग्य भी बहुत
मारक होते हैं और कई लेखकों को कम शब्दों में प्रभावी व्यंग्य लिखने की कला बहुत
अच्छे से आती है ! लेकिन लेखक को अगर यह बताया जाए कि वह भाषा कैसी लिखे ,उसकी शैली कैसी हो ,उसमें किस तरह के विचारों
को समावेशित किया जाए जिससे वह अखबार के पाठकों को रुचिकर लगे तो ये बेहद
आपत्तिजनक बात है ! हर लेखक की अपनी भाषा, शैली व
विचार प्रक्रिया है ! मेरे विचार से किसी भी लेखक को किसी भी दबाव में अपनी
मौलिकता नहीं छोडनी चाहिए ! अगर अच्छा लिखेंगे तो खुद-ब-खुद पत्र पत्रिकाओं में
स्थान मिलेगा ! जो लोग इन दबावों में अपनी भाषा और शैली के साथ छेडछाड कर रहे हैं, वे अखबारों में अवश्य छप रहे होंगे मगर वे साहित्य में कोई मुकाम बना
पायेंगे ,इसमें मुझे घोर संशय है ! दूसरी बात कि पाठकों
के मनोरंजन के लिए हलके व्यंग्य लिखवाकर उनकी रूचि परिष्कृत करने के स्थान पर
अखबार उन्हें जो परोस रहे हैं, वे कभी न जान पायेंगे कि
एक अच्छा व्यंग्य क्या होता है !
4. बिलकुल ... और शायद अधिकतर लेखक
ऐसा करते भी हैं ! जो देखा या भोगा है ,उस पर जितना
बेहतर व्यंग्य लिखा जा सकता है वो अन्यथा संभव नहीं ! इसीलिए हम अपने परिवेश से ही
व्यंग्य के विषय उठाते हैं ! अनजाने विषयों को उठाकर हम कैसे उसके साथ न्याय कर
पायेंगे ! उसमे मौजूद विसंगतियों को पकड़ने के लिए तो उसमें गहरे उतरना ही होगा !
समकालीन राजनैतिक या किसी सामाजिक घटना पर भी अगर लिख रहे हों तब भी उसका
पूरी जानकारी ,विश्लेष्ण करना बेहद ज़रूरी है वरना उथले
और बेकार व्यंग्यों के ढेर में एक और इज़ाफा करने के अतिरिक्त हिंदी साहित्य में हम
कोई योगदान न दे सकेंगे !
5. मुझे लगता है कि वर्तमान में
अलग अलग विषयों पर बहुत विविध तरीके से लिखा जा रहा है ! एक ही विषय पर भी लेखक
अलग अलग तरीकों से अपने विचार रख रहे हैं ! बड़ा अच्छा लगता है जब एक ही विषय पर एक
बहुत चुटीला व्यंग्य पढने को मिलता है और एक बेहद गंभीर व्यंग्य भी ! एक विषय पर
ऐसा वैविध्य कि रचना अपनी बात भी प्रेषित कर दे ,नीरसता
से भी बची रहे और व्यंग्य तत्व भी बरकरार रहे ,बड़ी
खूबसूरत बात है ! कई लोग दूसरों की नक़ल भी करते देखे जाते हैं लेकिन वही बात है कि
जब मूल खुद मौजूद है तो नक़ल को कौन पूछता है ! कुल मिलाकर मैं वर्तमान में बेहद
अच्छे व्यंग्यकारों को पढ़ रही हूँ उनके अपने अनोखे कथ्य के साथ ! ये राहत देने
वाली बात है !
मलय जैन
1. वर्तमान
में व्यंग्य के नाम पर देखा जाए तो विद्रूपताओं और विसंगतियों को लेकर कम, विषयों को लेकर अवश्य एक भेड़िया धसान सा मचा पड़ा है लेखकों के बीच ।
यानी आप को हर अख़बार में किसी ठीक-ठाक जगह पर व्यंग्य नाम से बत्तीसी चमकाता एक
कॉलम तो मिलेगा , मगर जब आप उस कथित व्यंग्य की पहली लाइन को
उत्साह से पढ़ना शुरू करेंगे तो पाएंगे कि चमक तो यहीं से फीकी पड़ गई । दूसरे,
यदि आप व्यंग्य के व्याकरण से थोड़े भी परिचित हैं तो आपके मुंह से
यही निकलेगा, "ऐंवै ...कुछ भी" और आप फिर कृषि,
अर्थव्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय समझौते जैसे
किसी भी नीरस विषय पर लम्बे चौड़े आलेख भले जैसे तैसे पढ़ जाएं, व्यंग्य के नाम पर उस "कुछ भी" की ओर झांकेंगे भी नहीं ।
एक बड़ा खूता यह भी है कि आप दस अखबार उठायेंगे तो पायेंगे, विषय
कमोबेश एक ही है । थोड़े उन्नीस बीस शब्दों को छोड़ो तो कहन एक ही है । मतलब,
हिंदी दिवस है तो अचानक सभी के लिए हिंदी बूढ़ी और उपेक्षित वृद्ध
आश्रम में पड़ी मां सी हो जाएगी और अंग्रेजी गोरी मेम की तरह ऐश काटती हुई । महिला
दिवस है या बाल दिवस, वैलेंटाइन डे है या फ्रेंडशिप डे,
जो भी ताज़ा कुछ ऐसा है जिस पर फेसबुक पर हर तीसरा बंदा लाल हरी बैकग्राउंड
पर कोई कमेंट कर रहा है, वही व्यंग्य के नाम पर इन अखबारों
में देख लीजिए । राष्ट्रीय स्तर पर कोई एक घटना होती है, लेखकों
में भगदड़ मच जाती है इस पर "कुछ तो भी" सा कुछ भी लिख देने के
लिए । कई बार तो आपके सामने केवल विषय ही होता है और सामग्री के नाम पर तमाम
चैनलों पर सुनी सुनाई ढेर सारी अपुष्ट बातें । हमने तो विषय का गधा पकड़ा ,
उस पर सुनीसुनाई बातों का ढेर सारा माल लादा और हाँक दिया अनजान
दिशा की ओर । न रोकने का कोई उपचार है हमारे पास न दिशा देने का । इंस्टेंट कंटेंट
लो, लैपटॉप या मोबाइल उठाओ, अटरम सटरम
टाइप कर संझा ढलते ही सेंड का बटन दब जाए, बस टंटा खत्म हो ।
लोचा यहीं से शुरू होता है और यहीं से व्यंग्य खत्म भी । घटना के मूल तक तो लेखक
तब पहुंचे जब उसके पास धैर्य हो, अध्ययनशीलता हो और क्या
लिखना है, किस पर लिखना है इसका कोई ठीकठाक ढांचा हो मन में
। बिना चेसिस की गाड़ी केवल उपरी चमक के बूते चार कदम पर ही टें बोल जाएगी ।
अब प्रश्न यह है कि
क्या सारे कारतूस लेखक पर ही खाली कर दें, संपादक कुछ नहीं ? संपादक के
साथ दिक्कत यह है कि वह भी 'आज' और 'अभी' क्या चल रहा है इस पर ही 'कुछ' चाहता है । जब उसके पास ढेर सारे 'कुछ भी ' पहुंच जाते हैं तो वह उन्हीं में से जो 'कुछ ठीक' लगे, उसे छापने पर
विवश होता है । हालांकि बहुत से अखबार अपवाद भी हैं । कई बार हो सकता है आपसे
अखबार कहे, इसमें थोड़ा ह्यूमर कम है और आप ह्यूमर के लिए
हाथ धोकर रचना के पीछे पड़ जाओ । चार सौ शब्दों की बैलगाड़ी पर आपको विषय भी लादना
है, विसंगति भी लादनी है, ह्यूमर लादना
ही है वरना व्यंग्य के चके घूमेंगे ही नहीं । अब कहन को कहाँ लादो ! वजन
ज्यादा हुआ तो फिर भाषा के गट्ठे हटाने होंगे । शैली के गट्ठे उतारने होंगे ।
मुहावरों और अलंकारों से जो थोड़ा ठीक ठाक सा माल बन पड़ा था, उसे भी मज़बूरन परे रखना होगा । नतीज़ा यह होगा कि जो जरूरी था तो उतर गया
और बाकी 400 शब्दों का बोझा ले गाड़ी चल पड़ी । बताइए भला,
गाड़ी कैसे पहुचे पाठकों के मन तक ।
यह तो तय है कि
व्यंग्य विसंगतियों से ही उपजता है । जब इसमें लेखक के अनुभवों का समावेश हो जाता
है तो निश्चित तौर पर मन की बात शब्दों में कागज पर उभरकर आती है और वही लेखक से
पाठक को जोड़ पाती है । वातानुकूलित डब्बे में बैठकर आप जनरल डब्बे की बातें नही
लिख सकते । आपको भी उसमें चढ़ने, पिसने और ख़ुद को साबुत रखने
का संघर्ष झेलना होगा तभी आप आम पाठक से जुड़ पाएंगे । कल्पनाओं के घोड़े पर बैठकर
आप कविता लिख सकते हो व्यंग्य नहीं । फैंटेसी भी रचनी हो तो उसके मूल में
अनुभव ही होंगे क्योंकि व्यंग्य के लिये अपना बीता ही अलग बात पैदा करता है ।
यदि पाठक के मुंह से निकले, वाह, यही सब तो मेरे साथ हुआ तो निश्चित मानिये, आप लिखने
में सफल हुए हैं । शर्त इस बात की है, यह ध्यान रखा जाए आप
व्यंग्य लिख रहे हैं, सपाटशैली में कोई संस्मरण नहीं और जब
व्यंग्य लिख रहे हैं तो उसमें उन शर्तों को तो पूरा करना ही है जिनके बिना व्यंग्य
को व्यंग्य नहीं कहा जा सकता ।
जहां तक इस बात का
प्रश्न है कि व्यंग्य लेखन के पूर्व लेखक का अपना अनुसंधान होना चाहिए अथवा नहीं , यह
निश्चित तौर पर आवश्यक है कि लेखक जो भी लिखना चाह रहा है उस पर उसका पर्याप्त
अध्ययन भी हो और अनुसंधान भी । तभी वह तय कर सकेगा कि उसे लिखना क्या है और कैसे ।
वरिष्ठ व्यंग्यकारों द्वारा हमेशा इस बात पर जोर दिया गया है कि पहले पढ़ो फिर
लिखो , बल्कि यहां तक कहा गया है कि जब सौ पेज पढ़ो ,
तब एक पेज लिखो । इसलिए अध्ययन का न तो कोई विकल्प है और न ही
कोई शॉर्टकट । इसके बग़ैर भी लिख तो जाएगा , मगर वो बात नहीं
आ पायेगी । नए लेखकों को अपने कथ्य और विषय वैविध्य पर परिश्रम तो करना ही होगा ।
रवींद्रनाथ त्यागी जी के व्यंग्य उठा कर देखिये, क्या
गहन अध्ययन और कहन में क्या अद्भुत प्रभाव । परसाई जी और शरद जी को देखिये,
कहाँ कहाँ से विषय और उन पर क्या ग़ज़ब लेखन । मगर हां , व्यंग्य का वर्तमान भी इतना निराशजनक नही है । आज के समय में जबकि व्यंग्य
बहुत लिखा जा रहा है, ऐसा नहीं है कि सब कुछ बिना पढ़े ही
लिखा जा रहा है । हम व्यंग्य के जिस वर्तमान में जी रहे हैं, वह निश्चित तौर पर अत्यंत समृद्ध है । इससे अच्छा योग और नहीं हो
सकता जब व्यंग्यकारों के ही सोशल मीडिया पर बने अनेक समूहों में नए लेखकों को
वरिष्ठ व्यंग्यकारों का सतत और निष्पक्ष मार्गदर्शन मिल रहा है । हमारे बीच ही
व्यंग्यकार ऐसा उम्दा लिख रहे हैं कि हम दो पंक्तियां पढ़कर ही चहककर कह उठते हैं,
अरे ये फलाँ का लिखा है । भले आज ये कहा जा रहा है कि व्यंग्य
लेखकों को भीड़ इकट्ठा हो गयी है, मगर मैं मानता हूं, समय इतना भी ख़राब नहीं, इस भेड़ियाधसान के बीच भी एक
खूबसूरत जहान है जो व्यंग्य को नित नई समृद्धि की ओर बढ़ा रहा है।
कमलेश पाण्डेय
1. वर्तमान में विषयों को
चुनना एक चुनौती है भी और नहीं भी. है इसलिए कि आज के परिदृश्य में हर क्षेत्र में
विसंगतियां नज़र आती हैं, वे बहुतायत में हैं, लगभग व्यवहार-सम्मत हो चली हैं, छद्म रूप धरे
होती हैं और विषय के तौर पर प्रहार के लिए चुन लिए जाने पर रंग भी बदलती हैं. रंग
बदलने को ऐसे समझें कि संचार क्रान्ति में अभिव्यक्ति के ढेरों फॉर्म सामने होने
पर किसी विसंगति पर इतनी ढेर सारी त्वरित टिप्पणियाँ सामने आती हैं कि उनका सुर ही
बेढब हो जाता है. अक्सर वहां किसी एक नज़रिए के पीछे भेडचाल का भाव होता है और
व्यंग्यकार के लिए वह विषय उठा कर अलग कोण से बरतना मुश्किल हो जाता है. इससे
विचारों में दोहराव की गुंजाईश भी बढती है. बहरहाल चुनौती न होने की स्थिति भी इसी
विसंगति-बहुलता में है. जिधर नज़र उठाओ, विषय ही विषय
हैं. व्यंग्य में आम तौर पर प्रचलित विषयों का ज़िक्र करें तो पारंपरिक विषयों का
ख्याल आता है, जैसे, पत्नी, पड़ोसी या परिचितों के बहाने मानवीय प्रवृत्तियों पर चुटकियाँ, राजनीतिक उठापटक या सामाजिक व्यवहारों की विसंगति. हर काल-खंड में इन पर
व्यंग्य लिखा गया है, आज भी लिखा जा रहा है क्योंकि
वक़्त के साथ परिदृश्य बदलते हैं तो प्रवृत्तियों में नए आयाम जुड़ते चले जाते हैं.
मेरा मानना है कि पुनरावृत्ति विषयों की नहीं बल्कि उन्हें बरतने के अंदाज़ की होती
है. किसी विषय पर पहले लिखा गया हो और अपने पढ़ा हो तो कहीं न कहीं उस आलेख में
इस्तेमाल नज़रिए का आभास आपके चिंतन-पटल पर रहता है. आप अगर उस मुद्दे पर कोई अलग
कोण अख्तियार नहीं करते तो उन्हीं जुमलों, मुहावरों को
ज़रा अलग शब्द देकर अपना व्यंग्य रचते हैं. ये विशुद्ध पुनरावृत्ति है. समान नज़रिए
से एक ही विषय पर कई लोगों द्वारा लिखना सामान्य पुनरावृत्ति है, जिसमें किसी का आलेख अच्छा तो किसी का बुरा हो सकता है. इसी स्थिति में
अगर दो लेखकों का दृष्टिकोण एकदम अलग हो, चाहे निष्कर्ष
सामान ही निकले तो भी ये पुनरावृत्ति नहीं है. उपसंहार तो व्यंग्य में मानवीय
सरोकारों से प्रेरित होने से ही निकलेंगे. ज़ाहिर है, व्यंग्य
एक अर्थ में विषय से निरपेक्ष होता है. उसका अंतिम लक्ष्य विसंगतियों की खोज, खुलासा और उन पर प्रहार है। उसमें विषय की परतें खोली जाती हैं. इन
परतों में भी परतें होती हैं. महीनी का काम है. समर्थ व्यंग्यकार पहले किसी के
द्वारा खोली गई किसी परत की भी अगली परत उधेड़ता है, उसे
नये सन्दर्भों से जोड़ता और नये आयाम देता है. वह विषय एकदम नया होकर उभरता है.
वहां पुनरावृत्ति नहीं होती, एकदम नया शाहकार पैदा होता
है.
इस स्थिति के
बावजूद आदर्श स्थिति तो ये है कि विषय भी नए खोजे जाएँ. नए के साथ वे बरते गए
विषयों में से निकले विषय भी। हर काल-खंड में प्रवृत्तियों में एक विपर्यय होता है, जिसका
अनुसंधान व्यंग्यकार का अभीष्ट है. इस युग का प्रचलित विषय बाज़ार है, जिसके सैकड़ों आयाम हैं. बाज़ार पर लिखना हर बार नया है, अगर उसके किसी अनचीन्हे, अनछुए पहलू को उठाया
जाए. बाज़ार-युग में पत्नियों की बदली प्रवृत्तियों पर लिखना पत्नी या बाज़ार पर
लिखना नहीं है, बल्कि एक नई प्रवृत्ति की ओर इंगित करना
है. बस शर्त वही और आखिरी है कि कहन मौलिक हो और अपने विषय से न्याय करता हो.
2. घटना के मूल तक नहीं
पहुँच पाना व्यंग्यकार की शिकस्त है. सतह पर ही परख कर व्यंग्य तो नहीं लिखा जा
सकता,टिप्पणी भर की जा सकती है, जैसा
इन दिनों बहुसंख्यक व्यंग्य कहलाने वाली रचनाओं में हो रहा है. घटना के मूल तक
पहुँचने का निहितार्थ उस घटना में छुपी उस प्रवृत्ति को पकड़ना है जो तर्कसंगत
स्थिति से विपर्यय की ओर मोड़ती हो. उदाहरण के लिए ‘चुटिया’ कटने की घटना का मूल अफवाह है जो आँखों देखी पर ही विश्वास करने की
तार्किक संगति का विपर्यय है. व्यंग्य के लिए मूल ज़रा और गहराई में होता है. घटना
पर हुई त्वरित सामान्य प्रतिक्रियाओं से इतर उसके कारणों, संदर्भों और प्रभावों की विसंगति की पड़ताल करना व्यंग्य के लिए घटना के
मूल तक पहुंचना है.
व्यंग्यकार कहलाने की
लालसा और जल्दबाजी में इन दिनों घटना के घटते और चर्चा में आते ही विभिन्न
प्रचार-प्रसार माध्यमों में अपने जैसे ही बहुत से लेखक-पाठकों के बीच अपनी
व्यंग्यात्मक टिप्पणी डाल देने की प्रवृत्ति दिख रही है. उधर कुछ अखबारी कालम भी ‘खाली
स्थान की पूर्ति’ के भाव से एक सीमित से खांचे में
तुरंत-फुरंत ऎसी टिप्पणियों को जगह देने को तत्पर मिल रहे हैं. इस कालम को ‘व्यंग्य-कालम’ कहा जाता है, सो छपते ही वह टिप्पणी व्यंग्य कहलाने की अर्हता प्राप्त कर लेती है. इसी
कारण ये सवाल यहाँ उठा है कि क्या व्यंग्यकार घटना के मूल तक पहुंच पा रहे हैं, अन्यथा न तो इन रचनाओं को व्यंग्य कहलाने का अधिकार है न इन लेखकों को व्यंग्यकार.
कई प्रतिभावान युवा लेखक इस भेडचाल का शिकार हो रहे हैं. सामयिक घटनाओं पर तुरंत
व्यंग्य आना अपेक्षित तो है, पर ऐसे लेखन के लिए
विस्तृत अध्ययन, समय की चाल समझने की बुद्धि, नैसर्गिक विट-क्षमता और कहन का समुचित अभ्यास चाहिए. इतनी तैयारी करने का
वक़्त शायद किसी के पास नहीं. शायद सम्वेदना के गहन स्तर का भी अभाव है और
चिन्तन-जनित नीर-क्षीर विवेक और सरोकार का भी. हम अन्ततः एक मूल्य-क्षरण के दौर से
गुजर रहे हैं। लेखक भी इसी समाज में जीता है. लेखक अपने परसेप्शन से ही किसी घटना
को परखता है जो उसे पारिवारिक और सामजिक संस्कारों से ही मिली होती है. अध्यययन और
चिंतन-मनन को इसलिए विशेष तौर पर रेखांकित किया गया है.
ऊपर कहे गए का ये अर्थ
कतई नहीं है कि व्यंग्य में घटना के मूल तक पहुंचने की क्षमता केवल लम्बे
अनुभव-सम्पन्न अर्थात लम्बी उम्र वालों में ही सम्भव है. बल्कि इसका उल्टा भी हो
सकता है. अनुभव से अर्थ अध्ययन, संवेदनशील होने और आँखें खुली रखने से भी है.
संक्रमण कालों में किसी घटना का उद्गम आम तौर पर नए बदलावों के तौर पर होता है, जिसे पीढ़ियों के आर-पार महसूस किया जा सकता है. दो दशक आगे-पीछे जीने और
उसे अभिव्यक्त करने की क्षमता रखने वाली पीढी के लिए बदलाव को महसूस करना आसान है.
ये प्रवृत्तियों की विसंगति को गहराई तक समझ पाते हैं. बाज़ार के सामाजिक
हस्तक्षेपों को युवा मष्तिष्क आसानी से समझ सकते हैं, बशर्ते
वे परम्परा से भी जुड़े रहे हों. लेखक अपने संस्कारों से भी चालित होता है और घटना
के कारकों में छुपी विसंगति को खोजने और उस पर प्रहार करने का नजरिया उसका नितांत
अपना हो सकता है। रचना के प्रभाव में जो मानवीय सरोकार उभर कर आते हैं वे ही
निर्णायक तौर पर बता सकते हैं कि लेखक घटना के मूल तक पहुँच पाया या नहीं.
3. बाज़ार की प्रधानता के इस
दौर में हर क्षेत्र में जो बिकता है, उसी की मांग है.
व्यंग्य अपनी प्रकृति में ही व्यवस्था-विरोधी होता है. व्यवस्था में अन्तर्निहित
हर छोटी-बड़ी विसंगति उसके प्रहार के दायरे में होती है. पर आम-नज़रिए से भी आलोचित
किसी घटना या प्रवृत्ति को एक नए कोण से देखना-परखना व्यंग्यकार का ध्येय है.
बिकने वाली अभिव्यक्तियाँ आमतौर पर तात्कालिक स्थितियों की सतही विवेचना करने, उत्तेजना पैदा करने या महज़ मनोरंजन के लिहाज से रोचक बनाई गई होती हैं.
विज्ञापनों के जुटाए गए धन से कारपोरेट तौर पर चलाने वाले कई अखबार-पत्रिकाएं व्
प्रकाशन संस्थान और बाज़ार-दर्शन के प्रचार-प्रसार के द्वारा लाभ-अर्जन करने के
उद्देश्य से लिखे गए आलेखों के साथ इन रचनाओं को छापते हैं. ये पूरा तंत्र व्यंग्य
के आदर्शों के विपरीत है. इन दिनों अखबार-पत्रिकाओं में छपने वाली अधिकतर सामग्री, चाहे किसी भी विधा या स्वरूप में हो, बाज़ार के
किसी तत्व का विज्ञापन करती नज़र आ सकती है. मसलन कोई यात्रा वृत्तांत अब एक सहज
जीवनोपयोगी शगल के वर्णन की बजाये किसी पर्यटन-स्थल के होटलों और टुअर-संचालकों
द्वारा प्रायोजित विवरण जैसा हो सकता है. मौलिक रचनाओं की जगह साज-श्रृंगार और
आधुनिक सुख-सुविधाओं के सामान का महिमा-मंडन करते लेखों को प्राथिमकता मिल
रही है. ये सारा लेखन प्रायोजित होता है तो उनके बीच फंसा व्यंग्य-कालम भी कैसे
अपवाद हो सकता है. संभवत सम्पादक पर भी दबाव होता है कि व्यंग्य के नाम पर दी गई
चीज़ भी बाक़ी सामग्री की संगती में हो, यानी
चिन्तन-प्रधान,बाज़ार-दर्शन के विरुद्ध और उसे संचालित करने
वाली व्यवस्था पर प्रहार न हो. ज़ाहिर है व्यंग्यकार से अपेक्षा रखी जा रही है कि
वह हलकी-फुलकी, मजेदार, लगभग
चुटकुलों के समकक्ष कुछ ऐसा लिख कर दे जो पाठक को आनंद दे न कि सोचने पर मज़बूर
करे. इस प्रायोजित लेखन में व्यंग्य कहीं दूर-दूर तक न हो तो भी उसे व्यंग्य कह
देने का षड्यंत्र भी चल रहा है. इस प्रायोजित धारणा से, कि जो छपा है, पढ़ा भी जा रहा है, बल्कि, पाठक यही और ऐसा ही पढ़ना पसंद करता है, इस भ्रान्ति को बल मिला है कि व्यंग्य लोकरंजन की विधा है और नतीजे में ये
क्रमशः जनरंजन की सबसे बड़ी विधा चुटकुलों के निकट आता जा रहा है. कालमों की
दिनोंदिन घटती शब्द-सीमा, वन-लाइनर और सोशल मीडिया पर
टनों प्रसारित होती हंसाने वाली टिप्पणियों ने व्यंग्य की परिभाषा को ही धुंधला कर
दिया है.
स्वाभाविक है कि जनरंजन
के इरादे से मांग पर लिखे जा रहे इस प्रायोजित लेखन में भाषा, विचार
और शैली के स्तर पर गंभीर समझौते हो रहे हैं. पहले तो कोई भी इस आसान लेखन के लिए
प्रवृत्त हो जाता है, क्योंकि बस एक मजेदार टिप्पणी भर
ही तो लिखनी है. घटना पर समाचार से उठाये तथ्यों पर ताज़ा चुटकुलों, चन्द विट-संपन्न जुमलों का मुलम्मा चढ़ा कर दो-चार सौ शब्दों का लेख, मांग पर तुरंत उपलब्ध करा देना कोई मुश्किल तो नहीं. यहाँ विचार और शैली
में मौलिकता की दरकार भी नहीं, क्योंकि इनकी ज़ुरूरत ही
नहीं. प्रायोजित दिशा-निर्देशों के अनुरूप ही लिखना है. भाषाई स्तर पर इन रचनाओं
में आम-बोलचाल की भाषा के नाम पर लगभग अराजकता की स्थिति पाई जाती है. यहाँ
प्रभावोत्पादकता के लिए शब्द-चयन की ज़हमत में नहीं पड़ना, जो शब्द सूझे लिख देना, मसलन हिंगलिश या खिचडी
भाषा में सामग्री परोसनी है. भाषिक संरचना, शैलीगत खूबियों
और अन्तर्निहित विचारधारा के नज़रिए से इन्हें व्यंग्य कहना सही नहीं है. ये रचनाएं
पाठकों-आलोचकों की प्रतिक्रया से भी तटस्थ होती हैं, क्योंकि
अखबार में डालने के बाद उसकी कटिंग फेसबुक पर साझा कर चंद‘लाइक्स’ बटोरना ही उनका लक्ष्य है. इस तथाकथित व्यंग्य का अच्छा या बुरा कोई भी
प्रभाव समाज पर पड़ रहा है, ये चिन्तन का विषय है. ये
समूचा प्रकरण –‘हम व्यंग्य क्यों लिख रहे हैं- इस मूल
प्रश्न से बच निकलने जैसा है. वर्तमान व्यंग्य लेखन के इन हिस्सों को महज़ भाषा
शैली के विचलन या समझौते या ये कह कर कि बुरा लेखन एक रोज़ खुद ही हाशिये पर चला
जाएगा- उन्हें नज़र-अंदाज़ करने की बजाये इन्हें व्यंग्य साहित्य से बेदखल करने की
पहल जुरुरी है. मुझे लगता है व्यंग्य के अलावा किसी और साहित्यिक अभिव्यक्ति में
बाज़ार का ये संक्रमण इतने व्यापक स्तर पर नहीं फैला कि वह अपना मूल स्वरूप ही खोने
लगे. ये गनीमत है कि व्यंग्य की सार्थक धारा भी समानांतर ही सहज बह रही है. बहुत
अच्छे व्यंग्य लिखे जा रहे हैं, पर कहीं न कहीं बाज़ार
से कोई कलुषित धारा इस स्वच्छ धारा में आकर मिलती और इस प्रदूषित करती है. व्यंग्य
का पाठक भ्रमित रहता है और अच्छे व्यंग्य को पीने पाठक लिखने वालों के बीच ही
ढूँढने पड़ते हैं. तथाकथित लोकप्रियता पर काफी हद तक प्रायोजित लेखन का ही कब्जा
है. व्यंग्य आलोचना का कोई व्यवस्थित स्वरूप न होने से भ्रांतियां ही सच मानी जाने
लगी हैं.
4. कथ्य का निर्धारण विषय के
चुनाव के बाद की स्थिति है, जिसमें अनुभव और अनुसंधान
अनिवार्य तत्व हैं. पर कई बार विषय के चुनाव के समय भी अनुभव-जन्य कहन की रूपरेखा
रचनाकार के जेहन में रहती है. किस विषय पर लेखन में अब तक के अनुभव, नज़रिए और तथ्यों की जानकारी से रचना का आरंभिक खाका तैयार हो सकता है- ये
विषय चुनने में कारक होता है. फिर ज़ुरूरत भर अनुसंधान से कथ्य को पूरा करने की
स्थिति आ जाती है. व्यंग्य में कथन में सम्पूर्णता अपेक्षित है. अधूरे, ढीले-ढाले कथन से काम नहीं चलता. अच्छा व्यंग्य कटाक्ष करते समय प्रहार के
लक्ष्य के तमाम आयामों को अपनी तिर्यक दृष्टि की ज़द में रखता है, तभी उसके कथन में अपेक्षित प्रभाव आता है. अनुभव और परसेप्शन उसकी दृष्टि
को संचालित करते हैं, क्योंकि ये उसके निजी संसाधन हैं.
स्पष्ट है कि किसी व्यंग्योक्ति को किसी स्थापित विचारधारा, पहले से अभिव्यक्त किसी नजरिये या कहें कि, सुनी-सुनाई
बातों पर आधारित नहीं होना चाहिये. व्यंग्यकार तथ्य और विचार कहीं से भी ले, बरतना उसे अपनी ही दृष्टि से ही पड़ता है. जब वह किसी ख़ास कोण से तथ्यों को
देखता है तो उसके अनुभवों से निकले संदर्भ स्वतः कथ्य में उभरते चले जाते हैं.
अपने कथन को प्रामाणिक और मज़बूत बनाने के लिए कभी कहीं दिखे तो,वह संदर्भित तथ्य भी ढूंढता है. नितांत निजी और मौलिक अभिव्यक्ति के लिए,
जो अन्य विधाओं की तरह व्यंग्य की भी आधारभूत शर्त है, व्यंग्यकार को अपने अनुभवों और अनुसंधानों पर ही भरोसा करना चाहिए. इसका
कोई विकल्प नहीं है.
5. कथ्य वैविध्य की पड़ताल
पहले प्रश्न ‘विषयों की पुनरावृत्ति’ का ही एक विशेष पहलू है. रचना के कथ्य का निर्धारण विषय ही करता है. नए
विषय उठाये जाएँ तो कथ्य की विविधता दृश्य होगी. व्यंग्य-लेखन अपने मूल में ही कुछ
नई, अलग और वर्तमान प्रवृत्तियों के अनछुए पहलुओं की
पड़ताल करने वाला लेखन है. बदलते परिवेश में बहुत कुछ पर्यवेक्षण से अछूता रह जाता
है, देखने का एक तिर्यक कोण ही जिसका खुलासा कर पाता
है. उन्हें ढूंढना, चिन्हित करना, विश्लेषित और व्यक्त करना, वो भी एक ऐसे अंदाज़
में कि पठनीय हो और समझ में भी आये- व्यंग्यकार की जिम्मेदारियों में शामिल है.
ज़ाहिर है ये नयापन हर बार कहन में एक विविधता लाता है. व्यंग्य-लेखन की ये
अनिवार्य शर्त है कि कहन में नयापन हो चाहे विषय पहले कई बार चुना गया हो.
आज के विपुल व्यंग्य
साहित्य में विविधता होना स्वाभाविक है. हम चाहे एक बड़े हिस्से को पुनरावृत्ति, साधारण
या अल्पकालिक प्रभाव वाला कह कर छोड़ दें तो भी बचे हुए में कथ्य वैविध्य की दृष्टि
से बहुत कुछ ख़ास और संग्रहनीय मिलेगा. विविधा को यहाँ गुणवत्ता से जोड़ लें अर्थात
वे रचनाएं जो विसंगति को ऐसे बरतती हैं कि सर्वथा एक नये विषय का विवेचन प्रतीत
होती हैं. इस बरतने की विधि में ही व्यंग्योक्ति की विशिष्टता छुपी है, जिसका समुच्चय यहाँ विविधता कहला रहा है. वर्तमान संदर्भ में भी
व्यंग्यकारों का एक बड़ा समूह अपने-अपने व्यंग्य-रचनाओं से विसंगत स्थितियों की
पड़ताल कर एक अलहदा नज़रिए से उसके नये पहलुओं को छूते हुए, उनपर संदर्भित तथ्यों, रूपकों, प्रतीकों और मुहावरों की मदद से ऐसा कथ्य रच रहे हैं जो हमारे समय को
व्यक्त करने की ईमानदार कोशिश हैं. राजनीति में मूल्य-ह्रास की निचाईयाँ, बाज़ार की चालबाजियां, नई तकनीकों का इस्तेमाल
करते मानव का मनोविज्ञान, युवावर्ग की ज़द्दोजहद, पत्नी-परिवार-मोहल्ला-समाज में बदलते सामाजिक मूल्यों के स्नैप-शॉट, निजीकरण की नीतियों और नौकरी संस्कृति के बदलाव, व्यक्तिकरण और निजी स्वार्थ जैसे ज्वलंत विषय हिंदी व्यंग्य की
विविधापूर्ण वर्तमान परिदृश्य के कथ्य निर्धारित कर रहे हैं. परम्परागत विषयों को
बरतने,अग्रजों की कालजयी रचनाओं को नए संदर्भ से जोड़ कर
पुनर्लेखन और भाषा शैली के नये-नये प्रयोगों के जरिये भी पर्याप्त विविधता लाई जा
रही है.
पर कहीं न कहीं ये
विविधता उस अपेक्षित मात्रा से कम है जो आज के संक्रमण से गुजरते समय में विविध
माध्यमों पर दिख रहे विशाल व्यंग्य साहित्य में होना चाहिये. फेसबुक, ब्लोगों, अखबार, इन्टरनेट जैसे विविध फॉर्म पर तकरीबन हर
सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधि पर सूचना व् टिप्पणी उपलब्ध हो जाती है. इन पर चौकस
दृष्टि रखने वाले व्यंग्यकार के पास न विषयों का अकाल है न तथ्यों की कमी. अपेक्षित
इतना भर है कि वह अपना हर नया व्यंग्य एक नई, मौलिक सोच
से प्रेरित करे,उसे समुचित तथ्यों से गढ़े गए, एक उदात्त विचार से सिंचित करे और एक सुपाठ्य, सहज
शैली से संप्रेषणीय बनाये. त्वरित प्रतिक्रियाओं को भी रचना में लाते हुए भी लिखने
से पहले एक ड्रिल, होमवर्क हो, न कि तुरंत मांग पर किसी चालू मुद्दे पर चलताऊ टिप्पणी लिखकर छपवा लेने का
उतावलापन. व्यंग्यकार समाज के हर कोने की छान-बीन करे,
अछूते विषयों को ढूंढें और अपने रचना-क्षेत्र में लाये. विविधा
व्यंग्य में अनिवार्यता है, क्योंकि विसंगति और विपर्यय
व्यंग्य के जरिये ही व्यापक तौर पर समय रहते और प्रभावी ढंग से व्यक्त किये जा
सकते हैं.
और अंत में- व्यंग्य
लेखन के चन्द आधारभूत और जुरुरी पहलुओं पर बहस उठाते ये प्रश्न हम व्यंग्यकार होने
का दावा करने वालों को आईना दिखाते हैं. व्यंग्य लिखकर छपवा लेने या सोशल-मीडिया
में परोस देने की जल्दबाजी के इस दौर में ये बेहद प्रासंगिक सवाल हैं, कि ये
प्रश्न हमें व्यंग्य को अभिव्यक्ति बनाने वालों को एक मौलिक, नई, गहरी और सार्थक सोच से प्रेरित लेखन करने की तरफ
इशारा करते हैं और एक चेतावनी-सी भी देते हैं कि यदि ये सब करना आपका अभिप्राय
नहीं है तो व्यंग्य-लेखन से दूर रहना ही उचित है.
मो. 9868380502
डॉ जयश्री सिंह
1. सामान्यतः हमारे समाज में घटित
घटनाएँ - दुर्घटनाएँ रचनाओं की मूल प्रेरणा स्रोत रही हैं। वैसे तो रचना संवेदना
का विषय है। अतः कई बार यही घटनाएँ रचनाकार को उद्वेलित करती हैं और वह लिखने पर
विवश हो जाता है। दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो प्रसिद्धि पाने की चाहत में
संवाददाताओं की तरह घटनाओं पर ताक लगा कर बैठे होते हैं। घटना घटी नहीं कि उस पर
लिख कर हाथ साफ कर लेते हैं। ऐसी दशा में विषयों की पुनरावृत्तियाँ होती जरूर हैं
लेकिन सराही वही जाती हैं जिनमें कुछ गहराई हो।
2. हाँ कई बार। किन्तु यह उनकी
विद्वत्ता पर निर्भर करता है। कई गंभीर विचारक गंभीर मुद्दे को व्यंग्यात्मक लहजे
में भी बड़ी आसानी से कह ले जाते हैं। यह केवल एक गंभीर विधा ही नहीं बल्कि एक कला
भी है। व्यंग्य लिख पाना हर किसी के वश की बात नहीं। जो रचनाएँ गहन सोच और चिंतन
की उपज होती हैं उनमें उनके मूल तक पहुँचने की क्षमता भी होती है। इसके विपरीत जो
रचनाएँ जल्दबाजी में या देखा-देखी रची जाती हैं उनमें निःसंदेह कुछ कमी रह जाती
है।
3. जो भी चीज बिकाऊ हुई है उस पर
लेखक का प्रभाव ही कहाँ रह जाता है? वो तो केवल परोसने और
अच्छा कमाने की वस्तु बन कर रह जाती है। ऐसे में सबसे अधिक नुकसान यदि किसी का
होता है तो उसकी भाषा का। भाषा की शालीनता लुप्त होने लगती है उसमें एक अजीब किस्म
का लचीलापन आने लगता है। शैली भी भाषा के अनुरूप मजेदार होने को ही अपना लक्ष्य
मान कर चलने लगती है। उनमें विचारों की गहराई वही तक सीमित हो जाती है जहाँ तक
खरीदने और बेचनेवाले को पसंद आये। कुलमिलाकर ऐसी रचना निश्चय ही अपने मूल उद्देश्य
से कोसों दूर चली जाती है अथवा भटक जाती है और कई बार अपनी गंभीरता को खो कर केवल
हास्य व्यंग्य की हल्की वस्तु बन कर रह जाती है। साथ ही उसकी उम्र भी घटती चली
जाती है। किसी भी विधा का इससे बड़ा नुकसान और क्या हो सकता है कि लोग उन रचनाओं
में विचार के बदले मजा ढूंढने लगें।
4. बिलकुल। अनुभव और अनुसंधान की
पुख्ता जमीन पर उपजाई गयी रचना ही कालजयी हो सकती है। सामान्य आदमी भी अनुभव से
सीखता है और अनुसंधान से तथ्य को विश्वसनीय बनाता है। जो रचना पाठकों का विश्वास
जीत सके, उन्हें उनकी अपनी लगने लगे और लंबे समय तक उनके
मानस में बसी रहे वही रचना सफल रचना कही जा सकती है।
5. हमारा देश विविधताओं का देश
है। यहाँ रचनाकार के लिए विविधताओं के रास्ते हमेशा ही खुले हैं। इनके अलावा
राजनीति, भ्रष्टाचार, सत्ता और
व्यवस्था हमारे यहाँ सर्वकालिक तथा सार्वभौमिक विषय हैं। जो जिस क्षेत्र में पंडित
है वो उसी की डोर पकड़कर आगे बढ़ता है। बाकी अभिव्यक्ति की आजादी सबकी अपनी है। उसपर
कोई और कह ही क्या सकता है।
सार्थक परिचर्चा।
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण परिचर्चा।
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