Saturday 2 June 2018

व्यंग्य में पठनीयता का प्रश्न / भुवनेश्वर उपाध्याय



लेखन में ग्लैमर और पैसे की आशा लेकर जिस तरह आज का पढ़ा-लिखा युवा वर्ग सक्रिय नजर आ रहा है वो भविष्य के लिए उम्मीद जगाने वाली यह एक सुखद अनुभूति है। परंतु ये युवा एक लेखक होने के नैतिक और सामाजिक दायित्व को उठाने को अभी तैयार नहीं दिखता है। वह जिस तरह  सफलता का शार्टकट चाहता है वो लेखन में वैचारिक परिपक्वता आने से पहले ही उसे भ्रमित कर देता है। उसकी नजर में मूल्यों की जगह लोक रुची है और सिद्धांतों की जगह जुगाड़ू मौके। मानवीय कमजोरियों को टारगेट कर महज व्यवसायिक लेखक बनना कहां तक सही है? वह न तो इस प्रश्न को सुनना चाहता है और न इसका जबाब देना जरूरी समझता है। उसकी नजर में नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकारों पर नाम, दाम भारी हैं। जिसके लिये वह जरूरतों का तर्किक विश्लेषण करता है।

इसका मतलब ये नहीं है कि आज की युवा रचनाकार पीढ़ी अयोग्य है। वह पुरानी पीढ़ी से कहीं अधिक सजग है और तेजी से सीखना चाहती है। इसीलिये वह तथाकथित बड़े साहित्यकारों की टरकाऊ प्रणाली और अक्षमताओं को सीधे नकारने की हिम्मत दिखाती है। इसे आज के युवाओं का अधैर्य कह लें या फिर साहित्य का व्यवसायीकरण, कुछ भी कह दें तो गलत नहीं होगा।

स्वांतः सुखाय लेखन वाली लेखन परंपरा इस पीढ़ी के गले नहीं उतरती और न मूल्यों सरोकारों के लिए वह सुविधाओं की कुर्वानी देने को तैयार है।  उसे समय के लिये लिखना भी पसंद नहीं। वह रात को लिखकर सुबह छपकर शोहरत और हो सके तो पारिश्रमिक भी चाहती है। वह मंच पर एक रचना पढ़कर हजारों की कामना करती है, जिसके लिये वो लेखन के अलावा भी बहुत कुछ करने से गुरेज नहीं करती है। ऐसे ही तमाम कारणों ने वरिष्ठों और युवाओं के बीच एक जंग सी छेड़ दी है।

लेखन की जिन विधाओं ने युवाओं को अपनी ओर खींचा है उनमें व्यंग्य भी है। कारण... "व्यंग्य लेखन एक ऐसी रचना प्रक्रिया है जो आक्रोश को ढो लेती है और तमाम अक्षमताओं के बावजूद भी विरोध का शाब्दिक मार्ग प्रशस्त कर देती है।" चूंकि विरोध, शोहरत और चर्चा दोनों का कारण भी बनता है यही बजह है कि व्यंग्य लेखन में युवाओं का आना बदस्तूर जारी है और पुराने भी उसी निरंतरता से सक्रिय हैं । साथ ही अखबारों, पत्रिकाओं में छपने के सहज मौके, बाजारी मांगों से उपलब्ध हैं। तात्कालिक घटनाक्रम पर लिखीं इन व्यंग्य रचनाओं में भले ही वो अनुभूतिक गहराई नहीं है जो रचना में इतनी चमक पैदा कर दे कि पाठक आश्चर्य से भर जाये, और न वो शब्दों के पीछे शिल्प या विचारगत बल है जो लक्ष्य के साथ पाठक के ह्रदय को भी भेद सके, परंतु इन रचनाओं की मांग तो है और अखबारी जरूरत भी, ऐसे में पठनीयता बहुत बड़ी जरूरत बन कर उभरती है।

मांग और टिके रहने की जद्दोजहद लगातार लिखे जा रही है वह भी अधिकतर हालात को महसूस न करके, केवल देख, सुन और पढ़कर। तमाम लेखक अपनी कलम से अधकचरे विचारों की उल्टियां करते लेखक उसी तरह का पाठक वर्ग जो गंदगी पर मक्खियों की तरह खिंचे आते हैं, जुटाने में कभी कभी सफल रहते हैं जिसे वो अपनी सफालता मानकर सुधार की सारी संभावनाओं को तक नकार देते हैं।

आज लेखन की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौती है कि जो लिखा जा रहा है उसे पढ़ने लायक बनाया जाये। क्योंकि पूरा पढ़ा जाना भी एक तरह से लेखक की सफलता ही है। व्यंग्य के स्वरूप और औचित्य को देखते हुये इसकी जरूरत और अधिक बढ़ जाती है। क्योंकि व्यंग्य को साहित्यिक रूप में ढालना असल में उसे व्यापकता देकर मर्यादित करना भी है। और गद्य व्यंग्य लेखकों बढ़ती संख्या के बीच टिके रहने के लिए भी।

जब व्यंग्य को साहित्यिक मानदंडों पर परखा जाता है तो पठनीयता एक महत्वपूर्ण घटक बनकर उभरती है। चूंकि व्यंग्य एक स्पष्ट और कठोर असरदार रचनात्मक प्रतिक्रिया होती है इसीलिए उसे पठनीयता प्रदान करने का मतलब कठोर व्यंग्य की तासीर को सौम्य और रोचकतापूर्ण बना देना है। साथ ही व्यंग्य के कथ्य को व्यापकता देना भी। पठनीयता के लिए भाषा, शब्द चयन, शैली, और मानसिकता महत्वपूर्ण होते हैं।

पठनीयता असल में पाठक की रुची का प्रतिनिधित्व करती है। मुझे ये कहना इसलिए ज्यादा उपयुक्त लगा, इसमें उसकी योग्यता और समझ निहित होती है। और इसी से वह निर्धारित करता है कि उसे क्या पढ़ना है? और यही लेखक के कौशल का परीक्षण भी है कि वह पाठक को अंत तक कृति से जोड़े रखता है।

उदाहरण स्वरूप देखें तो समय के परे परसाई ने सहज शैली और पठनीयता के दम पर जितने पाठक जुटाये हैं और किसी ने नहीं जुटाये। शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल आदि ने भी व्यंग्य के उद्देश्य और जनकल्याण की भावना को उसी तरह कायम रखा लेकिन शैली और पठनीयता भिन्न रही । यही बात पाठक को रुची के अनुरूप अंतर करने और चुनने की की सहूलियत देती है। और मूल्यांकन में भी।

लेखक या किसी और के द्वारा पाठक की पढ़ने की स्थति बौद्धिक या अन्य आधारों पर तय करना गलत ही नहीं अव्यवहारिक भी है। अखबारों में संपादकीय पृष्ठ के पाठक न के बराबर होते है मगर जो और जितने भी हैं बहुत महत्वपूर्ण हैं। उसी तरह व्यंग्य को पाठक व्यंग्यकार की छवि और शैली के हिसाब से एवं पाठकीय रुचि से मिल ही जाते हैं । जो सही भी है। पाठक स्वतंत्र है और हमेशा रहेगा । ये सिर्फ लेखक का दायित्व और कौशल है कि वह लेखन को सहज पठनीय बनाकर पाठक को कैसे खींचता है?

यहां एक प्रश्न उठता है कि पठनीयता कायम रहते हुए रचना अपने व्यंग्यात्मक होने का भार उठा पा रही है या फिर उद्देश्य से भटक रही है? इस प्रश्न का कारण है कि व्यंग्य का उद्देश्य अन्य रचनात्मक विधाओं से अलग है। व्यंग्य सामाजिक, व्यक्तिगत और व्यवस्थागत विकृतियों, बिडम्बनाओं को उजागर करता है । यहां शिल्प और कथ्य के साथ उद्देश्य का भी संतुलन बहुत आवश्यक है। वरना रचना केवल पठनीयता के चक्कर में व्यंग्य के अतिरिक्त कुछ और होने की संभावना बढ़ जायेगी।

भोगे हुए यथार्थ से उत्पन्न आक्रोश को व्यंग्यात्मक शैली में शाब्दिक आकार देना उस वक्त और कठिन प्रतीत होता जब समस्या सहित्य में बने रहने की हो और व्यंग्य में बने रहने की। कहीं कहीं रचना में मजबूत कलापक्ष दुरूहता लाकर सहज पठनीयता को नष्ट कर देता है। और फिर व्यंग्य तो उसी क्षण समझ में आये तो ठीक वरना वह असर हीन हो जाता है। भाषा की सरलता और प्रचलित शब्दावली का प्रयोग रचना को सहज ग्रहता तो प्रदान करता ही है पठनीयता और रोचकता भी प्रदान कर देता है।

भले ही बाल साहित्य की तरह व्यंग्य को दोयम दर्जे का लेखन माना गया हो परंतु इस प्रकार के लेखन ने अपनी उपयोगिता सिद्ध की है। इसीलिए साहित्य में इनकी उपस्थित से मुंह मोड़ना संभव नहीं है। वक्रता, वाग्वैदग्ध्य आदि तमाम बातें लेखन को साहित्यिक तो बना सकतीं हैं परंतु ये रचना की पठनीयता और व्यंग्य लेखन के उद्देश्य को भी प्रभावित करतीं हैं इसीलिए इनका संतुलन बहुत आवश्यक है। व्यंग्य लेखन में पठनीयता को लेखक की मानसिकता भी बहुत प्रभावित करती है। लेखक का उद्देश्य महज मनोरंजन है तो वह हास्य को प्रधानता देगा और रचना रोचक और पठनीय तो  होगी मगर हास्य प्रधान हो जायेगी। जब लेखक एक आलोचक की तरह व्यवहार करेगा तो हास्य की जगह आलोचना हावी होगी और शब्द स्वतः ही सख्त हो जायेंगें, तब पठनीयता से कहीं अधिक व्यंग्य का उद्देश्य प्रभावी होगा।

गद्य व्यंग्य रचनाओं में दीर्घ विस्तार वाली रचनाओं जैसे उपन्यास की सफलता में सहज व्यंग्य की उपस्थिति और हास्य का संतुलन, पठनीयता को बढ़ा देता है। इसके लिए लेखक के अभ्यास और भाषाई कौशल की महात्वपूर्ण भूमिका रहती है। पठनीयता से लबरेज रचना पाठकों को प्रभावित करती है और इसके बिना वही रचना ऊबाऊ होकर बेकार हो जायेगी । स्वतंत्र लेखन में एक सहूलियत रहती है परंतु अखबारों पत्रिकाओं की शब्द सीमा लेखक के शिल्प और कौशल की कठिन परीक्षा लेती है क्योंकि यहां व्यवसायिक स्तर पर पाठकों को आकर्षित करना पहली शर्त होती है। इसलिए कथ्य, भाषा और शैली लोक रुचि के अनुसार बदलती रहती है ताकि रचना की पठनीयता बनी रहे। और यही वर्तमान समय की सफलता का पैमाना है। जबकि लेखन एक साधन बन कर रह जाये तो...।

डबल गंज सेवढ़ा, जिला- दतिया, मध्यप्रदेश - 475682 मोबाइल- 07509621374

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