संदर्भ : जाबिर हुसेन की किताब ‘आईना किस काम का’
- शहंशाह
आलम
यह अभिसंधि का समय है।
यह अभिसंधि यानी यह कुचक्र, षड्यंत्र,
धोखा, मिलीभगत किससे? यह प्रश्न अनुसंधान चाहता है। यह अनुसंधान एक कवि ही कर सकता
है। कवि का काम यही तो है, पहले अपने आसपास के समय की छानबीन करना, तब कविता
लिखना। बहुत सारे कवि ऐसा नहीं करते होंगे।उन्हें लगता होगा कि कविता लिखने के लिए
किसी जाँच-पड़ताल की आवश्यकता क्या है? इसकी आवश्यकता है। आप जिस और जैसे समय को
जी रहे हैं, उसकी जाँच नहीं करेंगे, तो अपने समय की कविता लिखेंगे कैसे? यह
शास्त्र-सम्मत कार्य नहीं है। यह कार्य अथवा यह व्यवस्था एक कवि की है। आपकी कविता की लंबी आयु के लिए यह ज़रूरी है कि
आपके भीतर एक अनुसंधानकर्ता भी होना चाहिए। तभी आप अभिसंधि से भरे इस समय का सही-सही
इंवेस्टिगेशन कर पाएँगे।
जाबिर हुसेन की उनके पचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश के ख़ास
मौक़े पर एकदम ख़ास तरीक़े से छपकर आई कविता की किताब ‘आईना किस काम का’ की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे हमेशा यही लगता
है कि पहले वे अपने समय का अनुसंधान करते हैं, फिर कविता लिखते हैं। अनुसंधान की इस
अनिवार्यता को, इस आवाजाही को, इस अवलोकन को मानने से ही तो कविता की जीवंत धारा सदियों
से बहती चली आ रही है। और कविता में यथार्थ का आलोक फैलता रहा है। और यथार्थ है,
तभी आप झूठे इतिहास से मुक्ति चाहते हैं। इन कारणों से भी जाबिर हुसेन की कविता
इतिहास से मुक्ति की कविता है,‘हल्की दस्तक ने / मेरा ध्यान / उपन्यास से हटा
दिया / दरवाज़ा खोलते ही / अँधेरे का हमला हुआ / चेहरा एकदम से अजनबी था / मेरे
पूछे बग़ैर / आने वाले ने कहा / मैं इब्न बतूता हूँ / कई सदी बाद / दोबारा इंडिया
आया हूँ / जामा मस्जिद में / किसी ने आपका / पता बताया / इतनी रात गए / आपको ज़हमत
देने के लिए / माफ़ी चाहता हूँ / दरअसल अगले दो-तीन दिन यहाँ रहकर / मुझे गुजरात
जाना है / सोचा आपसे मिलता चलूँ / तब तक मेरी पत्नी जग गई थी / इब्न बतूता के लिए क़हवा
ले आई थी / क़हवा पीते-पीते इब्न बतूता ने कहा / बहुत बदल गया है इंडिया / पहचान
में ही नहीं आता / समंदर दरिया नदियाँ सब बदल गए हैं / लोगों की पोशाक भाषा भी
पहले जैसी / नहीं रह गई / मैं तो ये तब्दीली देख हैरान हूँ / मैंने शब बख़ैर कहते
हुए / उन्हें मेहमानों के / सोने का कमरा दिखाया (‘उस रात आए थे इब्न बतूता’,
पृष्ठ : 19-20)।’
इब्न बतूता अपने समय के महान यात्री थे और महान लेखक भी और महान खोजक भी। अरब देश से थे। अपनी यात्रा के दौरान भारत आए
थे। उन्होंने अपनी यात्रा के वृत्तांत को लिखते हुए कई मुल्कों के अछूते रहस्यों
को खंगाला और खोला था।
जाबिर हुसेन ने ‘आईना किस काम का’अपने
इस नए कविता-संग्रह में इब्न बतूता को केंद्र में रखकर कई कविताएँ लिखी हैं –‘वो
जो इब्न बतूता ने नहीं लिखा’, ‘उस रात आए थे इब्न बतूता’, ‘इब्न
बतूता ने अपनी आँखों से देखा और शर्मसार हुए’, ‘एक और मंज़र जो इब्न बतूता
ने देखा’, ‘अभिवादन’, ‘जम्हूरी निज़ाम में’, ‘राजा ने कहा’,
‘सूरज का निकलना’, ‘नज़र रक्खो’, ‘नमक की बोरियाँ’, ‘आख़िरी
ख़ाहिश’, ‘कुछ भूख से मरे’, ‘काँटों से संवाद’, ‘वंशगत’,
‘अमावस’, ‘विसंगति’। इन
कविताओं को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि ये कविताएँ इतिहास के कम यथार्थ
के परिदृश्य ज़्यादा खोलती हैं। कारण यह है कि इब्न बतूता इतिहास हो गए हैं, मगर
जाबिर हुसेन यथार्थ हैं। जाबिर हुसेन की कविता का यह दर्शन यही
वजह है कि जो दर्शन मार्क्स या लेलिन का रहा है। जो दर्शन फ़ैज़ या नाज़िम हिकमत का
रहा है।
जो दर्शन ब्रेख़्त, लोर्काया
नेरूदा का रहा है। जो दर्शन धूमिल या मुक्तिबोध का रहा है। जो दर्शन शमशेर या केदारनाथ अग्रवाल का रहा है। जो दर्शन केदारनाथ सिंह या राजेश
जोशी का रहा है। जो दर्शन चंद्रकांत देवताले या लीलाधर जगूड़ी का रहा है। जो दर्शन राजेश जोशी या वीरेन डंगवाल का रहा है। जो दर्शन आलोकधन्वा या अरुण कमल
का रहा है। या जो दर्शन गुलज़ार और जावेद
अख़्तर का रहा है। कविता का वही विश्वरूप वाला दर्शन जाबिर हुसेन की कविता का भी
है। यह दर्शन है, तभी कविता सार्थक है। जीवन से संधि वाला यह दर्शन आपको आदमी के
जीवन के निकट जो ले जाता है। कविता आदमी के निकट है, तभी आप सिर्फ़ भारत के नहीं,
विश्व के कवि कहलाते हैं।
जाबिर हुसेन की कविता विश्व कविता कोश में शुमार की जाने वाली कविता है। इनकी
कविता ‘आख़िरी ख़ाहिश’(पृष्ठ : 31) में अलबेरूनी आते हैं, तो ‘उस
रात ऐसा कुछ हुआ था’(पृष्ठ : 53)शीर्षक कविता में हुसेन इब्ने सैफ़ आते
हैं।‘सदियों बाद’(पृष्ठ : 60) शीर्षक कविता में सुकरात आते हैं, अरस्तू
आते हैं, अफ़लातून आते हैं, ब्रेख़्त, नाज़िम हिकमत, फ़ैज़,
मार्क्स, लेलिन, गोर्की आते हैं। ‘समंदर’(पृष्ठ : 69)
शीर्षक कविता में मक़बूल फ़िदा हुसेनआते हैं, तो माधुरी दीक्षित भी
आती हैं, ‘घोड़े की तेज़ /हनहनाहट के साथ / मक़बूल फ़िदा हुसेन / का ताँगा / समंदर
के मुहाने पर आकर / ठिठक गया / पानी की लहरों पर उसे / माधुरी दीक्षित के / पैरों
के निशान / दिखाई दिए / हुसेन की मुट्ठियाँ / रेत से भर गईं।’
कविता में जब जीवन की बात की जाती है,
तो एक प्रश्न यह खड़ा क्या जा सकता है कि जीवन मनुष्यों के अलावा दूसरों में भी है,
फिर कविता में किसके जीवन की बात की जाती रही है? स्वीकारता हूँ। जीवन मनुष्यों के
अलावा पशु-पक्षियों में भी है। मैं तो यह भी मानता हूँ कि पेड़ में भी, पानी में
भी, पहाड़ में भी और हवा में भी जीवन है।एक कवि होने के नाते अथवा एक गद्यकार होने
के नाते मुझसे कहिए तो साहित्य में सबके जीवन की रक्षा की बात की जाती है। इस
बहुजन वाली बात में कोई हत्यारा, कोई बलात्कारी, कोई ज़ालिम बादशाह शामिल नहीं है।
ये लोग जनसमूह को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। मेरे विचार से, जाबिर हुसेन की
कविता भी उस व्यापक बहुसंख्यक लोगों के समर्थन की कविता है, जिन लोगों को आज
मुट्ठी भर लोग ख़ूब सता रहे हैं। वर्तमान पर दृष्टि डालिए तो वही मुट्ठी भर लोग,
जो सत्ता में हैं, जो प्रशासन में हैं, जो व्यापार में हैं, सबको परेशान कर रहे
हैं। यह नया गठजोड़ है। आप देखिए न, सत्ता आपको किस तरह कुचलती है। प्रशासन आपको
किस तरह अपराधी घोषित करता है। व्यापारी आपको किस तरह लूटता है।कोई कवि इस गठबंधन
का विरोध करता है, तो किस तरह उस कवि को परिधि से बाहर कर दिया जाता है, ‘जब
रास्ते में / छूट गए / क़ाफ़िले मेरे / किसने मचाई / लूट, बताएँ / आप क्या (‘किसने
मचाई लूट’, पृष्ठ : 197)।’
जाबिर हुसेन की कविता में सबकुछ
क्रमबद्ध है –मूल्य, समाज, व्यक्ति, अवधारणा, बोध,पथ और पाथेय। इन सबमें जाबिर
हुसेन की मनुष्यता शामिल है। मनुष्यता से भरी जाबिर हुसेन की कविता आपके एकांत तक
को आदमी के बोलने की आवाज़ से भर देती है ताकि आप ख़ुद को अपने जीवन के संघर्ष में
अकेला अथवा अलग न समझ लें। अकेले होंगे, तो शिकार कर लिए जाएँगे, ‘बरामदे में
वो कबसे / उदास बैठा है / अमीरे शहर ने उसको / तलब किया है आज (‘अमीरे शहर
का बुलावा’, पृष्ठ : 247)।’और यह भी कि जिस राजनीतिक परिवेश में हम सब जी रहे
हैं, वह इतना धुँधला है, इतना गँदला है, इतना दुर्गंध से भरा है कि आदमी केजीवन के
लिए घातक है।आज की तथाकथित राजनीति बस मार-काटजो चाहती है, बस भेद-भाव जो चाहती
है, बस युद्ध और नरसंहार जो चाहती है, ‘आश्चर्य नहीं / सरकार है तो / मुमकिन है
/ कुछ भी / मुमकिन है (‘मुमकिन है’, पृष्ठ : 300)।’
कविता को कई लोग अकसर कोई ऐसी-वैसी शै
समझकर इससे दूर जाने की कोशिश करते हैं। जाबिर हुसेन की कविता के साथ ऐसा करना नामुमकिनहै।
इनकी कविता आपको अपने जीवन से बाँधकर रखती है। इन कविताओं का जीवन आपके जीवन से
बँधा जो है।जाबिर हुसेन की कविता की संधि यही है, ‘ये क़ाफ़िले / जो मेरे शहर
से / गुज़रते हैं / तुम्हारे नाम की / तस्बीह कैसे / पढ़ते हैं (‘तस्बीह’,
पृष्ठ : 242)।’जाबिर हुसेन का आह्वान यह भी है, ‘किसी दिन / ख़ाब में आओ / मेरी
बस्ती का ये / वीरान खंडहर / देखकर जाओ / कि दीवारों पे इसकी / मौत के जाले / पड़े
हैं / इसके दरवाज़े पे / अँधी शक्ल के / ताले पड़े हैं / यहाँ इंसाफ़ की / गर्दन पड़ी
है / यहाँ गुमनाम कुछ / लाशें गड़ी हैं / मेरी बस्ती के / इस वीरान खंडहर को / न
जाने क्यों / कोई आईना कहता है / कोई क़ानून कहता है (‘आईना’, पृष्ठ : 212)।’
‘आईना किस काम का’ में लगभग तीन सौ कविताएँ जाबिर हुसेन ने शामिल
की हैं। सभी ताज़ा कविताएँ हैं। पुस्तक को पढ़ते हुए इन कविताओं से आप अपना अनुबंध
तोड़ नहीं सकते।इसलिए कि जाबिर हुसेन की कविता के साथ कविता के पाठकों का वर्षों
पुरानानाता है। और यह नाता ऐसा है कि जिसमें आम आदमी के लिए अपनापा भरा हुआ है। कविता
का यह सिवान आपको तभी इधर-उधर जाने नहीं देता, बाँधे रखता है, कविता की भूमि से।‘आईना
किस काम का’ की कविता का तर्ज़े-बयाँ समकालीन हिंदी कविता को एक अलग, अनूठा, दुर्लभ
आस्वाद देता है। शमशेरके पास भाषा का यह जादू था। या भाषा के जादू का ऐसा
असर गुलज़ार की नज़्मों में आप पाएँगे। नेरूदा को भी यह जादूगरी आती
थी,लेकिन भाषा का यह जादू-डालना जाबिर हुसेन का अपना है।
जाबिर हुसेन की ये कविताएँ एहतिजाज की कविताएँ हैं। बग़ावत और राजद्रोह की कविताएँ हैं। यहएहतिजाज
किससे, सीधे राजा से। राजा की राजाज्ञा ऐसी है कि एहतिजाज ज़रूरी है। एहतिजाज यानी
प्रतिकार करने का ऐसा तरीक़ा न नेरूदा के पास मिलता है, न शमशेर के
पास और न गुलज़ार के पास। और समकालीन कविता के कुछेक कवियों को छोड़ दीजिए,
तो राजा के विरुद्ध खड़े होने का यह सलीका या जिसको हुनरमंदी हम कहते हैं या जिसको
शऊर हम कहते हैं, सिर्फ़ और सिर्फ़ जाबिर हुसेन के पास है। आप इनकी इब्न
बतूता-सीरिज़ की कविताएँ देख लीजिए या फिर आप ‘आईना किस काम का’के
चारों खंडों की अधिकतर कविताओं के असल मर्म तक पहुँचकर देख लीजिए, यहाँ कही गई
बातें सिद्ध हो जाएँगीं। कवि का ख़्याल यही है कि जीवन है, तभी आदमी की संधि कविता
के साथ है। अब जब आदमी ही नहीं रहेगा, तो कविता किसके लिए रची जाएगी, सो ये
कविताएँ आदमी को बचाए रखने की कविताएँ हैं। तभी येकविताएँआदमी को एहतिजाज करना सीखाती हैं, ‘दश्त की / जानिब
कोई / क्योंकर / चले शहर अपना / दश्त से कुछ / कम है क्या (‘शहर अपना’,
पृष्ठ : 103)।’
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आईना किस काम का (कविता-संग्रह) / कवि : जाबिर
हुसेन / प्रकाशक : दोआबा प्रकाशन, 347 एम आई जी, लोहियानगर, पटना –800
020 / मूल्य : ₹499 / मोबाइल संपर्क : 09431602575
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शहंशाह आलम
प्रकाशन विभाग
बिहार विधान परिषद्
पटना – 800015 (बिहार)
मोबाइल : 09835417537
स्पर्श-परिवार का �� दिल से आभार।
ReplyDeleteबहुत ही शानदार समीक्षा ।जाबिर साहब से मिलने की इक्षा तीब्र हो उठी।
ReplyDeleteभाई का शुक्रिया।
Deleteबहुत सुंदर सम्यक समीक्षा।
ReplyDeleteआभार।
Deleteसुंदर समीक्षा, बधाई आप दोनों को
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