Tuesday 2 August 2016

व्यंग्य में ज्ञान - 5

समीक्षा/ बारामासी

व्यंग्य में गुँथी कविता की महक
- अतुल कनक
                       
ज्ञान चतुर्वेदी इस दौर में हिन्दी गद्य व्यंग्य का सबसे महत्वपूर्ण चेहरा हैं। खासकर हिन्दी में व्यंग्य उपन्यास लिखने की परंपरा जो बहुत विरल थी, ज्ञान चतुर्वेदी ने उसे अपने अवदान से उल्लेखनीय बना दिया। नरकयात्रा से शुरू हुआ यह क्रम बारामासी और मरीचिका से होता हुआ हम न मरबतक पहुँचता है। उपन्यासों की नामावली का क्रमपूर्वक वर्णन करने का एक मकसद यह भी है कि हम प्रसंगवश यदि इन उपन्यासों के उद्धरणों की चर्चा करें तो उनकी चेतना और उनकी सर्जनात्मकता के विकास को भी सलीके से समझा जा सके। लगे हाथ इस बात को भी उल्लेखित कर दिया जाये कि ज्ञान जी पेशे से एक कार्डियक सर्जन रहे हैं। पेशे की दृष्टि से वो जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसके अपने आभिजात्य आग्रह होते हैं। व्यस्तताऐ ंऔर जिम्मेदारियाँ तो अनंत होती ही हैं। शायद उन तक पहुँचने वाले अधिकांश मरीज अपने तंई बहुत गंभीर होते होंगे। ज्ञान चतुर्वेदी ने एक चिकित्सक के तौर पर अपने दायित्वों को निभा लिया यह बात तो समझ में आती है, लेकिन आसपास मौजूद सुविधाजनक माहौल के बावजूद वो अपने को अंग्रेजी में ही लिखने के व्यामोह से कैसे बचा सके- यह बात कुछ आश्चर्यचकित करती है। एक बार टेलीफोन पर उनसे मेरी बात हुई थी। ज्ञान जी ने इस पीड़ा को भी अभिव्यक्त किया था कि आजादी के इतने वर्ष गुज़र जाने के बावजूद आज भी अंग्रेजीदाँ लोगों का वर्चस्व हर जगह बना हुआ है। लेकिन उन्होंने यह भी कहा था कि यदि आपकी कलम में ताकत है, आपके लेखन में नयापन है तो आप को मान्यता के लिये किसी तीसमारखाँ के संरक्षण की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।

                        एक हृदय रोग विशेषज्ञ के तौर पर उनके जीवनानुभव ने शायद उनकी लेखन में बहुत मदद की है। कम से कम मैं तो ऐसा मानता हूँ। यह मानने के मेरे अपने कारण हैं। किसी भी काॅर्डिएक सर्जन को अपने पेशे में बहुत धैर्य और तत्परता से काम लेना होता है। ज़रा सा चूके नहीं कि आॅपरेशन टेबल पर लेटे व्यक्ति का सब कुछ खत्म। चूँकि सतर्कता आवश्यक है, इसलिये दृष्टि का सचेत रहना भी जरूरी है। छोटी से छोटी बात को नज़रअंदाज करना अफोर्डनहीं किया जा सकता। मुझे लगता है कि यहीं से उन्हें वह दृष्टि मिली जो अपने परिवेश में बिखरी विसंगतियों को बहुत बारीकी से पकड़ती है और चूँकि वो जानते हैं कि मरीज़ के जीवन के लिये सीने में धड़क रहे दिल पर तमाम खतरों के बावजूद कैंची चलानी ही पड़ती है, इसलिये वो विसंगतियों पर प्रभावशाली प्रहार भी करते हैं। मुझे लगता है कि वो सतत व्यंग्य उपन्यास भी इसीलिये लिख पा रहे हैं क्योंकि वो पूरे परिवेश को बहुत धैर्य और बहुत बारीकी के सााि देखते हैं और एक ही प्रकरण के अध्ययन के समय उनके समक्ष समानांतर रूप से कई अन्य समानधर्मा प्रसंग उठ खड़े होते हैं। स्मृतियाँ भी एक बड़े कैनवास पर कथानक को फैलाने में मदद करती है और लोगों से जितना उनके बारे में जाना है- ज्ञान जी की स्मरणशक्ति भी उनका एक बड़ा हथियारहै। आपके पास सृजनबोध है, सतत लिखने का धैर्य है, कथानक को प्रसार देने की कला है, अपनी स्मृति कोष से समानधर्मा प्रसंगों को आप अपनी कृति में निवेश कर सकते हैं और भाषा पर पकड़ है- तो आप एक उपन्यास लिखने की कोशिश कर सकते हैं। हाँ में बारामासी की भूमिका में लिखी गई ज्ञान जी की इस बात से सहमत हूँ कि व्यंग्य उपन्यास लिखना अपेक्षाकृत कठिन है क्योंकि व्यंग्य का सतत निर्वाह सबके बूते की बात नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि आप यदि सहज हैं और चेतना के उस प्रस्थान बिन्दु के प्रति ईमानदार हैं, जिसके चलते किसी कृति का बोध आपके जेहन में जागा था, तो फिर आप अपने संकल्प का निर्वाह ठेठ तक कर सकते हैं। मैनें अपनी किशोरवय में ही हिन्दी कविसम्मेलन पढ़ने शुरू कर दिये थे और शरदजोशी जैसे गद्य व्यंग्यकार से लेकर आधुनिक दौर के लगभग सभी चर्चित व्यंग्य कवियों के साथ काव्यपाठ करने का मौका मुझे मिला है और अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि सहजता व्यंग्य को प्रभावशाली बनाने में बहुत मदद करती है। हो सकता है कि कुछ लोगों को यह बात अटपटी लगे लेकिन ओढ़ा गया व्यंग्य, या केवल व्यंग्य करने के लिये वक्र किया गया वक्तव्य व्यंग्य को कई बार बहुत हास्यास्पद बना देता है। हिन्दी कविसम्मेलनों में तो ऐसे कई कवि हैं जो सस्ती तालियाँ बजवाने के लिये व्यंग्य के नाम पर विद्रूपता पेश करने तक से नहीं हिचकिचाते। उनकी अपनी विवशता है। उनका मंतव्य साहित्य को समृद्ध करना नहीं अपितु अपनी गृहस्थी चलाने के लिये जुगाड़ करना है और मेरा निवेदन है कि साहित्य की संवेदनशील दुनिया को उनसे शिकायत करने के बजाय उनके जीवनयापन के इस जुगाड़ को मान्यता दे दी जानी चाहिये। (!)

                        बत बारामासी की। लेकिन हिन्दी में व्यंग्य उपन्यास की चर्चा हो और श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारीकी बात नहीं की जाये- तो कुछ अटपटा लगेगा। राग दरबारी का पहला संस्करण 1968 में प्रकाशित हुआ जबकि मरीचिकाका 1999 में। दोनों के पहले प्रकाशन के बीच समय की नदी में से होकर बहुत सारा पानी निकल चुका था। इसीलिये जब मरीचिका को पढ़ना शुरू किया तो शुरू में कुछ कोफ्त हुई। यह कहाँ जरूरी है कि हर व्यंग्य उपन्यास की शुरूआत में कोई वाहन शहर से गाँव में पहुँचे और सुबह सुबह सड़क किनारे बैठे लोगों का मज़ाक उड़ाए? जिनके पास साधन और सुविधा नहीं है, वो अपनी नैसर्गिक जरूरतों को पूरा करने के लिये क्या करेंगे? राग दरबारी में रंगनाथ एक ट््रक में बैठकर जब शिवपालगंज पहुँचता है तो श्रीलाल शुक्ल दृश्य का चित्रण करते हुए लिखते हैं - ‘‘थोड़ी देर में ही धुँधलके में सड़क की पटरी पर दोनों ओर कुछ गठरियाँ सी रखी हुई नजर आईं। ये औरते थीं, जो कतार बाँधकर बैठी हुई थी। वे इत्मीनान से बातचीत करती हुई वायु सेवन कर रही थीं और लगे हाथ मल- मूत्र का विसर्जन भी। सड़क के नीचे घूरे पटे पड़े थे और उनकी बदबू के बोझ से शाम की हवा किसी गर्भवती की तरह अलसायी हुई सी चल रही थी।’’ मरीचिका का प्रारंभ इन पंक्तियों से होता है -‘‘ग्राम व तहसील अलीपुरा, जिला झाँसी, उत्तर प्रदेश। बुंदेलखंड के इस गाँव की एक सँकरी गली में सुबह उतर चुकी है, जैसा कि गली में दोनों ओर बजबजाती नालियों के साथ बैठे टट्टी करते बच्चों की लंबी पंक्ति को देखकर ही स्पष्ट है।’’ नित्यकर्म से निवृत्त होना मनुष्य की दैनंदिनी का अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन क्या हर व्यंग्य उपन्यास में सुबह का वर्णन लच्छेदार भाषा में इसके उल्लेख के बिना पूरा नहीं होगा? मरीचिका में सुबह का वर्णन पढ़िये -‘‘सुदर्शन जी न चैंके, न सतर्क हुए, वे दातौन चबाते रहे। वे जान गये कि रत्नेश जी पुन
खाई के किनारे उकड़ूँ बैठकर अपना वह कर्तव्य पूरा कर रहे हैं जिसमें उन्होंने अपना पूरा जीवन ही होम कर दिया। बेचारे उदर के अर्वाचीन रोगी हैं और जल को देखते ही निकट की भूमि पर उकडूँ बैठने की हूक सी उठ जाती है उनके उदर में।खाई मानो उनको पुकारती है।’’

                        बहरहाल, बारामासी को आगे पढ़ने पर लगता है कि कथ्य के प्रसार के लिये गाँव का होना और लोगों की सामान्य प्रवृत्ति के उल्लेख के लिये शायद गंदी गलियों के किनारे निवृत्त होने को अभिशप्त महिलाओं का उल्लेख आज भी लेखन की जरूरत है क्योंकि उपन्यास का यह हिस्सा ही लोकतंत्र की उपलब्धियों के बहुत सारे दावों का सच बेनकाब कर देता है। बारामासी का पहला संस्करण 1999 में आया, लेकिन आज भी देश के एक बड़े हिस्से को बुनियादी सुविधाओं के बिना जीना पड़ रहा है और ऐसे में ज्ञान चतुर्वेदी गंदी गलियों के लिये- बजबजाती गलियाँ- विशेषण काम में लेकर एक व्यंग्यकार के मन की चिंता, क्षोभ, खीझ, चिढ़, आक्रोश और वितृष्णा एक साथ अभिव्यक्त कर देते हैं। यहीं आकर ज्ञान चतुर्वेदी के संवेदनशील मन, उनके सरोकार और उनकी भाषाई क्षमता का प्रभावशाली परिचय भी पाठक को मिल जाता है। बारामासी अलीपुरा नामक गाँव में रह रहे एक ऐसे परिवार की कहानी है, जिसका मुखिया मर चुका है और बूढ़ी माँ अपनी जमा पूँजी को बेचकर तथा खेतों से आने वाली फसल के सहारे अपने परिवार को पाल रही है। उसके चार बेटे और एक बेटी हैं और वो उम्मीद करती है कि संतानें जब जिम्मेदार हो जाऐंगी तो उसके संघर्षों के दिन खत्म होंगे। लेकिन दुर्भाग्य से पहली तीन संतानें पढ़ नहीं पातीं और चैथा पुत्र पढ़ लिखकर डाॅक्टर हो जाता है तो परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेता है। इकलौती बेटी ब्याह के सपने देखते देखते ही बुढ़ियाने लगती है और फिर उसका विवाह एक ऐसे अधेड़ के साथ कर दिया जाता है जिसकी एक बीबी पहले ही मर चुकी है। गाँव में बेकार बैठे मनचलों की मौज, एक बूढ़ी माँ की आँखों के सपने, एक अनब्याही बेटी के जीवन के दंश और व्यवस्था के ढकोसलों पर ज्ञान चतुर्वेदी ने पूरे उपन्यास में बहुत ही मारक व्यंग्य किये हैं।

                        ज्ञान चतुर्वेदी ने गाँवों में कितना समय गुज़ारा होगा, मैं नहीं जानता- लेकिन कुछ स्थितियों का वर्णन वो इतने रोचक तरीके से करते हैं कि चेहरे पर मुस्कुराहट आये बिना नहीं रहती । मसलन -‘‘ मात्र पटलेदार चड्ढी पहने, लगभग अलफनंगे लोग अभी भी घर के चबूतरों पर अलसाये से पसरे हैं। कुछ अभी तक खरारी खटिया पर यूँ बेखबर सो रहे हैं कि लंबी परन्तु डीली चड्ढी अथवा यहाँ -वहाँ से निबकी धोती में से जो दिख रहा है, वह शौचरत बालकों के लिये उत्सुकता तथा मजे लेने का विषय बन गया है।’’ अथवा - ‘‘ये ही लच्छन रहे तो तुम्हें मिलेगा ये घंटा- मामाजी ने हाथ से कुछ इशारा करके बताया, जिससे मिलने वाली वस्तु साफ जाहिर होती थी।’’ अथवा ‘‘आदमी एक बार गऊ ीार बन जाए तो इस गऊ पूजक देश में वह जहाँ सींग समाए घुस सकता है। पर यह सही भी है कि ऐसे गऊ आदमी मिलते कहाँ हैं क्योंकि सही बात यह भी है कि यह स्साला गऊपन साधना इतना सरल नहीं है, जितना ऊपर से सरसरी तौर पर देखने में पहली नजर में लगता है। बड़ी हें-हें लगती हैं इसमें। ठट्ठा नहीं है कि हर ऐरा-गैरा गऊ बन सके। गऊ बनने के लिये आदमी को पहले लोमड़ी होना बहुत आवश्यक है। बिना लोमड़ी बने आदमी वैसी गऊ नहीं बन सकता, जैसी ये प्रिंसिपल साहब थे।’’

                        सहजता  के साथ एक बुराई यह है कि वह कई बार उन बातों को भी सहजता से लेती है, जिन पर अतिरिक्त सावधानी रखी जानी चाहिये थी। व्यंग्य की किसी कृति में यदि रचनाकार अपने ही जुमलों को दोहराने लगे तो मन में कुछ खटकता है। बारामासी में काम में लिया गया जुमला लँगोट में हाथ डालना’’ मरीचिका में कई जगह दोहराया गया है। लेकिन यह तो दूसरी कृति का मामला हुआ- बारामासी में ही रिछारिया जी नामक व्यक्ति का परिचय देते हुए लेखक लिखता है -‘‘ रिछारिया जी स्वभाव से गऊ थे, यद्यपि किसी भी साँड को मात करते हुए उन्होंने आठ संतानें पैदा की थीं।’’ तो  स्कूल के प्रिंसिपल का परिचय देते हुए भी उसने लिखा -‘‘आदमी गऊ है, पर बैल की तरह बच्चे पैदा करने में जुटा रहा ।’’ चंदू के बारे में लेखक ने एक जगह लिखा -‘‘ चंदू भाई साहब डेकोरेटिव पीस बन गए थे परिवार के, जिन्हें मेहमानों के समक्ष बड़ी शान से पेश किया जाता था। चूँकि वे विज्ञान के विद्यार्थी थे तथा जीवविज्ञान नामक विषय भी पढ़ते थे, जिसमें वे मेंढकों-केंचुओं तथा तिलचट्टों की चीरफाड़ भी किया करते थे, अत उनका परिचय यह कहकर दिया जाता था कि यह बच्चा डाॅक्टरी लाइन में पढ़ रहा है।उम्मीद यह थी कि मेंडक को चीरते चीरते चंदू भाई साहब एक दिन आदमी भी चीरने लगेंगे।’’ (पृ. 18)। कुछ पृष्ठों बाद उन्हीं चंदू के लिये एक बार फिर दोहराया जाता हे -‘‘ परिवार में ख्ंदू द्वारा विज्ञान विषय लेने के कारण यों ही सनसनी सी थी। बायोलोजी के लिये जब वे मेंढक -केंचुए आदि को चीरने लग गए, तब तो घर में सभी को रोमांच मिश्रित विश्वास हो गया था कि अब वह दिन दूर नहीं जब चंदू डाॅक्टर बनकर, इसी कुशलता से आदमियों को चीरने लगेंगे।’’ (पृ.98) अलीपुरा के लोगों की सामान्य मानसिकता को रेखांकित करते हुए वो एक जगह लिखते हैं -‘‘जिनके बैरी चैन से सोवें उनके जीवन को धिक्कार -आल्हा की यह पंक्ति उनके जीवनदर्शन का महत्वपूर्ण आधार थी और इस जीवनदर्शन में देशी कट्टे का अपना ही स्थान था। ’’(पृ.60) तो जेल में अपने नाती से मिलने आए एक बूढ़े की मानसिकता को रेखांकित करते हुए लेखक ने फिर लिखा -‘‘बूढ़ा जिस गर्व से अपने नाती का जिक्र कर रहा था, वह एक लंबी परंपरा से उपजा गर्व था जिसे आल्हा की ये पंक्तियाँ बयान करती हैं कि जिनके बैरी चैन से जीवेम, उनके जीवन को धिक्कार।’’ (पृ.120)। यह दोाहरव उपन्यास में उस प्रसंग में भी देखने को मिलता है जब गुच्चन नामक एक पात्र अचानक गायब हो जाता है। लेखक ने गुच्चन को लेकर जिन आम मान्यताओं का जिक्र किया है, कमोबेश वो ही बातें वो उस फकीर के बारे में भी लिख चुका है, जो फकीर अलीपुरा के प्लेटफार्म पर रहता है। पढ़ते समय अच्छे अच्छों का गूदा बाहर निकल आना जैसे वाक्यांश भी दोहराव के शिकार हुए हैं।

                        लेकिन आंचलिक भाषा का जो सौंदर्य व्यंग्य को धार देने में मुखर हुआ है, वह अप्रतिम है। चलिये यह मान लें कि ज्ञान चतुर्वेदी स्वयं झाँसी में जन्मे हैं और बुंदेलखण्ड की बोली पर उनका स्वाभाविक अधिकार रहा होगा, लेकिन भाषा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता मरीचिका में अपने चरम पर है। वो पात्रों के चरित्र के अनुसार भाषा का मिजाज गढ़ते हैं और इसीलिये उजड्ड प्रवृत्ति वाले पात्रों के संवाद में मादर चो, भैन चै या चूतिया जैसे शब्दों के इस्तेमाल से भी परहेज नहीं करते। हाँ कहीं कहीं उनका व्यंग्य बोध अश्लीलता के मुहाने तक पहुँच गया है।  मसलन जब वो लिखते हैं ‘‘उनका यह तर्क भी इस संदर्भ में काबिले- गौर था कि यदि सारी ऊर्जा यार की गली के चक्कर मारने में ही खर्च हो जाएगी, तो वास्तविक प्रेम हो जाने पर संपन्न की जाने वाली अंतरंग गतिविधियों के लिये ताकत कहाँ से आएगी, जबकि शिलाजीत इत्यादि के बेचने वाले विद्वानों ने से प्राप्त ज्ञान के अनुसार इन महती कार्यों में घोड़े के बराबर की शक्ति दरकार होती थी।’’ (पृ.30) या ऐसों के घर लड़की कैसे दे दी, खासकर गुच्चन जैसे बैरागी को, जो अपनी सुहागरात के मौके पर मंदिर में घंटी बजाते रह जाऐंगे या जहाँ कुछ और लगाना चाहिये, वहाँ सिंदूर पोत देंगे।’’ (पृ.85)‘‘रज्जन बाबू ने बताया कि वे बेनीबाई के कितने खास हैं तथा इतने पास हैं जितना बेनीबाई के स्थान विशेष पर रहने वाला पिस्सू भी न होता होगा।’’ (पृ.96) हो सकता है कि कुछ लोगों को इन संवादों में छुपा इशारा अश्लील कहने पर इस मान्यता के साध ऐतराज हो कि व्यंग्यकार को व्रिदूपताओं के रेखांकन के समय प्रतिबंध रहित मुखरता की आजादी होनी चाहिये- लेकिन ये वाक्यांश कथानक की आवश्यकता प्रतीत नहीं होते। हिन्दी का आमपाठक अभी भी ऐसे संवादों को पढ़ते समय झिझकता है।

                        सगाई घल जाए, शादी सही-साट फिट करनी है, चूतियाटिक चेहरा, बिन्नू हिल्ले से लग जाती, काया यूँ ही बम खटाखट थीबातें कौन झकलट कर रहा है, गरमी की दारी ऐसी हचक पड़ रही है, फींच के धर देंगे, फटाकदेनी से वापस वहीं घुस लिए, सुलताना डाकू की नांई सनाका खींच देंगे - जैसे वाक्यांशों में पात्रों का बुंदेलखण्ड से रिश्ता चीख चीख कर बोलता है। हालाँकि सारी कृति एक महत्वपूर्ण उपन्यास है, लेकिन कहीं कहीं ज्ञान चतुर्वेदी कृति और समय की सीमा का भी अक्रिमण करने वाले जुमले देते हैं। मसलन - ‘‘कहानी शिक्षाप्रद है, और बताती है कि बुंदेलखंड में हर कदम सोच समझ कर उठाना चाहिए और दूसरे को अपने से कम सयाना, चालाक या कमीना मानकर नहीं चलना चाहिए।’’ (पृ.16) ‘‘शादी होने की प्रतीक्षा में बिन्नू जैसी हजारों लड़कियाँ इधर बी.ए. कर रही थीं।’’ (पृृ.41) ‘‘अभी ऐसा भी कलजुग नहीं आया है कि (रिटायर्ड) रेलवे वालों को भी टिकिट लेकर रेल में चढ़ना पड़े।’ (पृ.52) ‘आदमी यदि जूते खाने आदि से घबराने लगे तो हिन्दुस्तान में उसका कोई भविष्य नहीं है।’’ (पृ.54)‘‘ज़माना ऐसा आ गया है कि नेताजी से बिगाड़कर भी पुलिस चल नहीं सकती और रिश्वत  के लिये भी पुलिस को  आजकल इतनी झिकझिक करनी पड़ रही है कि अब तो पुलिस की नौकरी छोड़ देने को मन करता है।’’ (पृ.88) ‘‘यह उनकी घरेलू-नौकरानी-टाइप शिक्षा पद्धति का अपमान था।’’ (पृ.90)‘‘इस देश में ईमानदार आदमी चिड़चिड़ाने के अलावा और कर भी क्या सकता है?’’ (पृ.93)‘‘लोगों के पास बला की फुर्सत होती है और वो पराई बहू-बेटियों पर या बुरी निगाह रखते हैं या कड़ी निगाह रखते हैं।’’ (पृ.98)‘‘लौंडे कम उम्र के अवश्य थे, परन्तु जेनरेशन गेप का प्रभाव उन पर भी था। वे अपनों से बड़ों को उल्लू का पट्ठा मानते थे।’’ (पृ.107) ‘लुगाई को मारने के लिये भी कारण चाहिये क्या?’’ (पृ.109) ‘‘यदि पिटने से ही डरना है तो भैया मास्टर क्यों बने? ’’ (पृ.122) ‘‘पेशाबघर दूर कोने में है लेकिन स्कूल के किसी भी कोने में आप हों- आपको अपने होने की खबर दे रहा है।’’ (पृ.198) ‘‘फालतूू बातें करने में फायदा यह रहता है कि समय का पता ही नहीं चलता।’’ (पृ.210) ‘वे डाॅक्टर नहीं थे, लेकिन मात्र डाॅक्टर नहीं होने के कारण ही कोई आदमी डाॅक्टरी की दूकान नहीं कर सकता- इस तरह के दकियानूसी सोच के वे सख्त खिलाफ थे।’’ (पृ.220) ‘‘दाढ़ी की साइज के हिसाब से धार्मिकता नापी जाती थी’’ (पृ.227) जैसे जुमले ज्ञान चतुर्वेदी की व्यंग्य साधना की साख भरते हैं।

                        लेकिन इस कृति का एक और प्रभावशाली पक्ष है, जो शायद ज्ञान चतुर्वेदी के व्यंग्यकार की चमक के कारण अचर्चित रह जाए। यह तो तय है ही कि संवेदनाओं के बिना व्यंग्यकार मुखर नहीं होता। पीड़ा जब चेतना के साथ सर्जना का आह्वान करती है तो एक सार्थक व्यंग्यकृति का प्रणयन होता है लेकिन यही संयोग व्यक्ति के सृजन को कविता की ओर भी उन्मुख करता है। बारामासी जैसे व्यंग्य उपन्यास में भी ज्ञान चतुर्वेदी कविता की भाव भंगिमा उकेरते हुए पाये जा सकते हैं। ‘‘अम्मा के सपनों को भँभोड़ देने वाले दाँत उग आए थे, दूध के दाँत झड़ जाने पर बच्चों में ।’’ (पृ.27) निपट अँधेरा है, कमरे में भी और अम्माँ के मन में भी। एक कोने में भभकती लालटेन के काले हो चुके काँच में कैद रोशनी तड़प् तड़प कर बाहर आ रही है।’’ (वही) ‘‘एक सजे- धजे घोड़े पर सवार, घोड़े से भी अधिक सजा- धजा राजकुमार घोड़े से उतरकर बिन्नू के पास आया, जो घोड़े तथा राजकुमार से भी ज्यादा सजी-धजी थी।’’ (पृ.29)हवा बंद थी। गर्म आसमान की देग खदबद कर रही थी। (पृ.47) ‘छत पर अँधेरा था और थी अनंत आकाश में कैद घुटन ’’ (पृ.50)बिन्नू ने ऐसे हर मौके पर अपने घिसते जा रहे दर्पण के सामने खड़े होकर स्वयं को भरपूर निहारा है और सोचा है कि वे ऐसी काली क्यों हैं या वैसी क्यों नहीं हैं कोई लड़का उन्हें देखते ही पसंद कर ले। (पृ.51)‘‘वे (अम्मा) जीती रहीं। चक्की के दो पाटों को वे चलाती भी रहीं और उनके बीच खुद ही पिसती भी रहीं। (पृ.77-78) ‘चेहरे पर भांय भांय करता सन्नाटा है (पृ.79) ‘‘अम्मा की आँखों में मोतियाबिंद उतर आया। इन्हीं आँखों में कितने स्वप्न भी रहते थे, जो अब पैर सिंकोड़कर बैठ गए ताकि मोतिया को जगह मिले।...मध्यमवर्गीय आँखों के स्वप्न ऐसे ही हालात में जीते मरते हैं। एक दूसरे को ठेलते, दौड़ते-च़ते-उतरते स्वप्न। कितने सपने हैं तो दूसरे सपनों के नीचे दबकर दम तोड़ देते हैं। कितने स्वप्न हैं जो सपनों की भीड़ में गुम हो जाते हैं।’’ (पृ.104) जो सपने नहीं देखता, वह कैसे तथा क्यों जीता है, इस बात का उत्तर कठिन है। (पृ.105) जैसे वाक्य या वाक्यांश एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार के अंतस में बहुत मजबूती के साथ पैठे कवि के दर्शन करवाते हैं।

                        भारतीय वांग्मय में ऋषियों के लिये भी कवि संज्ञा का प्रयोग किया गया है। वह व्यक्ति जो भविष्य की पर्तों को चीरकर देख कर अभिव्यक्त कर सके। शब्द अपनी शक्ति से किस तरह भविष्य की दीवार में सैंधमारी करता है, इस उपन्यास का वह हिस्सा इस बात को बताता है, जिस हिस्से में  उपन्यास का एक पात्र गुच्चन भैया अच्छे दिनों की अपनी परिकल्पना अभिव्यक्त करता है। भारतीय राजनीति में इन दिनों अच्छे दिनों के नारे की चर्चा जोरों पर है लेकिन ज्ञान चतुर्वेदी ने 1999 में पहली बार छपे इस उपन्यास में ही एक आम आदमी की नजर से अच्छे दिनों की परिकल्पना को कुछ यों अभिव्यक्त किया था -‘‘ अच्छे दिन जब हम सुबह उठें और घर में कोई चिकचिक न हो। अच्छे दिन , जब अम्माँ हँसती दिखें, अच्छे दिन , जब घर के आँगन में ही नल हो और रिजल्ट निकले तो सभी पास हो जाऐं, कितनी छोटी छोटी बातों में छुपे थे उनके अच्छे दिन?’’

                        उपन्यास का पात्र इन अच्छे दिनों को पाने के लिये पूजा पाठ का सहारा लेता है और वरदान की आशा में देवी माँ की ओर ताकता है। हिन्दी का पाठक अपने अच्छे दिनों के सुखों की अभिव्यक्ति के लिये बारामासीजैसे उपन्यासों की ओर हसरत भरी निगाह से देखता है और पढ़ कर पाता भी है कि उसका मंतव्य पूरा हो गया। सबके अच्छे दिनों की साध को सँजोये इस उपन्यास को लिखने वाले व्यंग्यकार को मुझ सा अकिंचल लेखक केवल प्रणाम ही निवेदन कर सकता है। सो प्रणाम- ज्ञान सर!






- अतुल कनक
330, महावीर नगर-विस्तार, कोटा-324009 (राज.)

फोन- 09414308291

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