बारामासी - जैसा
मुझे समझ आया
कमलेश पाण्डेय
‘बारामासी’ जब भी उठा लेता हूँ, प्रसंग दर प्रसंग
बंधने लगता हूँ. बाकी सारे काम धरे रह जाते हैं. पहली दो दफ़ा इसे ज़रा बेफिक्री के
दौर में उन्हीं दिनों वाले जुनून के साथ पढ़ा था जब खाना-पीना भूल कर एक ही रौ में
जासूसी उपन्यास खत्म कर के उठता था. यहाँ भी किस्सागोई के तिलिस्म में फंसते, कथानक के उबड़-खाबड़
रास्तों में भटकते, पात्रों के खुरदुरे चरित्रों के हर ओर मौजूद
साम्यों से चौंकते पर आखिर में उपन्यास की सम्पूर्णता में अंतर्धारा-सी बहती करुणा
में धंसते हुए ये कभी ख़याल नहीं आया कि कभी इस पर प्रतिक्रिया भी लिखनी होगी.
आख्यान के इस अंदाज़ की खूबी ही यही है कि पढ़ते-पढ़ते अपनी संवेदना भी जैसे उसी में
घुल जाती है. कहने को जैसे कुछ नहीं बचता.
मुझे लगता है, बारामासी हमारे दौर
की एक बहुत ‘अंडर- एस्टीमेटेड’ कृति है. शायद
ज्ञानजी खुद भी इसे ऐसे नहीं देखते हों कि वे भारतीय जनमानस का चित्र उकेरते हुए
पूरी बेरहमी से ब्रश चलाते कितने मास्टर-स्ट्रोक लगा गए. यहीं पर इस उपन्यास के
साथ व्यंग्य शब्द चिपकाने के मामले को परख लिया जाय. क्या भारत के कस्बों के
मध्यवर्गी जीवन को पूरे यथार्थ में देखने, समझने, परखने और बखानने को
जो दृष्टि चाहिए वह बिना व्यंग्य के संभव है? परिस्थिति के
विद्रूप में ही जहां की सामान्यता प्रतिध्वनित होती हो क्या उसे सबसे सहज ढंग से
वैसे ही नहीं व्यक्त किया जा सकता जैसा बारामासी में हुआ है? इससे ये बहस बेमानी
नहीं हो जाती कि ये महज उपन्यास कहलाये या व्यंग्य उपन्यास? ये फालतू का पैमाना
अब भी आजमाया जा रहा है तभी इसे “हिंदी के श्रेष्ठतम उपन्यासों में से एक” खुल कर कहने वाले कम
मिलते हैं. आलोचक नहीं होने से मुझे आज़ादी है कि मैं कहूं कि इस उपन्यास का
तन्जनुमा अंदाज़ ही इसे संवेदनशीलता के चरम तक ले जाता है, इसके कथानक का
अनगढ़पन ही इसका सुगठन सुनिश्चित करता है और किसी भी स्थिति को हँसी उडाये जाने की
हद तक बेबाक ढंग से बयान कर पाना ही यथार्थ को पूरे नंगेपन में सामने लाने की
दक्षता प्रदान करता है. बारामासी भारत के सच्चे रूप को उसकी सम्पूर्णता में देखने
की कोशिश करने वाली तमाम क्लासिक कृतियों के शुमार है, क्योंकि उसमें झलक
रहा परिवेश, उसके चरित्र, उसकी भाषा और
आशा-निराशा-राग-द्वेष-आवेग सब कुछ भारत के प्रतिनिधि स्वर हैं.
बारामासी में वही
चिरंतन भारतमाता ग्रामावासिनी है जो आगे ‘मदर इंडिया’ में कायांतरित हुई.
आज़ादी के बाद कस्बों में तब्दील होते गाँवों में से किसी एक में जिनमें शहरों और
गावों की बुराईयों का समवेत अंगीकरण हुआ, अम्मा अपने चार
बेटों के साथ अपनी अनंत जिजीविषा के साथ ज़िन्दगी से दो-दो हाथ करती परत-दर-परत
बिखरती टूटती चली जाती हैं पर अपनी अजेय आशावादी आत्मा को अंत तक बचाए रखती हैं.
भुरभुरे सपनों पर टिके इस संसार को अंततः बिखर जाना है जिसके मलबे से एक मध्यवर्गी
त्रासदी को झांकना तय है. ज्ञान चतुर्वेदी प्रेमचंद के ज़माने से इसी तरह चली आ रही
कहानी के एक सिरे को अपने ही ढंग से पकड़ते हैं, जितने चरित्र हाथ
आते हैं उन पर नज़र भर रखते हुए जी भर कर उछलने कूदने देते हैं और उनके बनैलेपन और
ज़हालत से झांकती मासूमियत को भी उभरने देते हैं. कहानी को उसकी तार्किक परिणति तक
पहुँचने में भी कोई दखल नहीं देते यानि तमाम आशावादिता से खेलते हुए उपन्यास वहीँ
पहुँच कर ख़त्म होता है, जहां ऎसी विद्रूप-जन्य स्थितियां पहुंचने को
अभिशप्त हैं.
बारामासी के चरित्र हिंदी
उपन्यास साहित्य के सबसे जीवंत चरित्रों में से हैं. छुट्टन और गुच्चन की परस्पर
विरोधी प्रवृत्तियाँ कहानी के साथ-साथ विस्तार पाती हैं आपसी संवादों में खूब उभर
कर आती हैं. गुच्चन को चाहें तो भाग्यवादी, काहिल और
परम्परा-पोषण कह के आगे बढ़ते कदमों पर रोक लगाकर खड़ी व्यवस्था का प्रतीक ढूंढ लें
और छुट्टन में आदिम उत्साह से भरी, आगे बढ़ने की ललक के
साथ कतारबद्ध खड़ी बाधाओं को फलांगने की कोशिश में लहुलुहान होती युवा पीढी का. उधर
चंदू में सारे संसाधनों को खुद लीलकर अपना भविष्य संवारते स्वार्थी साधना-सपन्न
लोगों का अख्श साफ़ दीखता है. भैयन मामा, लल्ला, रम्मू, फिरंगी जैसे ज़िंदा
चरित्रों के साथ थाना, अमराई, कुत्ते और सूअर भी
आज़ाद भारत के उपेक्षित कोणों पर जीवन-व्यापार के वीभत्स कोलाज़ को प्रतीकात्मक
रंगों से भरते नज़र आते हैं. विकास के नाम पर इस अर्ध-ग्रामीण, अर्ध-शहरी परिवेश के
कैनवास पर एक भ्रामक-से आशावादी रंगों के छींटे छिड़के जाते हैं जो अंततः हताशा के
सियाह चकत्तों के रूप में उभरते हैं. बारामासी इस समूचे भ्रमजाल को हँसी-हँसी में
उधेड़ कर रख देता है. अलीपुरा का पूरा नक्शा इस देश के नक़्शे के आकार में उभर आता
है जिसपर बुना गया कथानक महाकाव्यात्मक उंचाईयों को छूता हर मानवीय संवेदना का
उदघाटन करता चलता है. अंतिम उत्पाद करुणा ही है, चाहे कहन का जो भी
माध्यम चुना गया हो. पात्रों के उच्छृंखल और अतिरेकी व्यवहार और मिटटी - कीचड़ से
सनी उज्जड-सी ज़बान में एक सतत दर्द बहता रहता है. उस पर लेखक पृष्ठभूमि में आशावाद
का मधुर गीत दर्द के सुर में बजाते रहे हैं. व्यंग्य ही इस स्थिति की सहजता है और
हास्य इस किस्सागोई की लय. बारामासी की दुर्दम्य पठनीयता मानवीय प्रवृत्तियों का
सूक्ष्मतम पर्यवेक्षण से उपजी गज़ब की कहन-शैली का कमाल है जिसमें सम्वादों के साथ
पात्रों की हरक़तें आँखों के सामने घटती महसूस हों. मैं बुन्देलखण्ड से नहीं हूँ, पर बारामासी
पढ़ते-पढ़ते उसके रंग में रंगने लगता हूँ. वज़ह बिहार में भी कुछ इसी अंदाज़ के
फक्कड़पन में सामन्तवादी अकड़ भी मज़े में बैठी रहती और बात-बात में मुखर हो उठती है.
ज़रा-सी अलग ज़ुबान, मुहावरे और हाव-भाव पिरो दो तो ये परिवेश आज़ाद
भारत के हर क्षेत्र की कहानी बन जाय क्योंकि लेखक ने चरित्रों के भीतर के आदमी को
उभारा है, वही आदमजाद जो एक ही साथ, चालाक भी है, भोला भी, स्वार्थी भी है और
मलंग भी. व्यंग्य यहाँ इसलिए भी अभीष्ट हो जाता है कि आदमी की जिजीविषा को मारने
में लगी स्थितियों से जब जीवन-शक्ति को पोषित करने वाली सहज वृत्तियाँ टकराती हैं.
उपन्यास के सभी घटक, यानि पात्रों का
चरित्रांकन, संवाद, स्थितियों का चित्रण
और इन सब को प्रसंगों में पिरोता चलता लेखक का बयान सब तारतम्य में हैं. कई जगह
जहां परिवेश का खाका खींचते हुए या किसी घटना विशेष का वर्णन करते हुए व्यंग्य का
रंग गाढा होने लगता है, लेखक का नज़रिया ये भ्रम पैदा करता है कि ये गंवई
स्थिति पर एलीट मानसिकता की टिप्पणी (या टोंट) तो नहीं. किसी भी हालात का भदेसपन
स्थान-सापेक्ष होता है. शहर की बारात का भव्य स्वरूप हमारे मन में कोई ऐसा मानक रच
दे सकता है जिसके बरअख्स हम गाँव-कसबे के हिसाब से ठीक-ठाक सी किसी बारात को भी
देखें तो वैसी व्यंग्यात्मक प्रतिक्रियाएं उभर सकती हैं जैसी कुछ प्रसंगों में
बारामासी में आती हैं. अशिक्षा से जन्मी मूर्खता हमारे समाज में खिल्ली उड़ाने की
चीज़ है. उधर अभावों और हौसलों में जंग से उपजे हालात भी मज़ाक बनते रहे हैं.
बारामासी में ये चुनौती गहरी है कि व्यंग्य अपनी रौ में उस ओर न चला जाय जहां वह
जिस विडंबना को इंगित करने के लिए प्रवृत हुआ है उसी विडम्बना पर फब्ती-सा बन जाय.
बारामासी इस संतुलन को बनाए रखने में प्रसंग-दर-प्रसंग सफल रहा है. लेखक जब भी इस
परिवेश में छुपी किसी विडम्बना को पकड़ कर उसकी ‘सुताई’ करता है, एक तटस्थ कोण
अख्तियार कर लेता है. मज़ा ये कि ऐसा करते हुए वो इनसाइडर का भ्रम पैदा करता है और
पूरे विवरण में एक सूक्ष्म या लाउड व्यंग्य के साथ एक संवेदनशील स्पर्श भी आता है.
इस उपन्यास के रचनात्मक प्रभाव के बार में ये मेरी समझ है, बाक़ी इसकी कमाल की
प्रभावोत्पादकता को ठीक-ठीक समझकर विश्लेषित कर पाना आसान नहीं है.
बारामासी एक
सम्पूर्ण उपन्यास है. इसमें वर्णित परिवेश, इसके पात्र, घटना-क्रम प्रतीक
रूप में आज़ादी के बाद ‘लाये’ गए गणतंत्र में आगे
बढ़ने की कोशिश में लदबदा कर गिरते-उठते देश के विशाल पिछड़े क्षेत्र का नब्ज़ टटोलने
की एक ईमानदार कोशिश हैं. डॉक्टर होने के नाते एक लाजिमी सी डायग्नोसिस करने के
बाद ज्ञान संभावित इलाजों की ओर भी इशारा करते हैं. युवा-शक्ति की ऊर्जा को माकूल
दिशा देने, शिक्षा द्वारा ही जहालत के अंत संभव होना जैसे
चर्चित नारे बारामासी के कथानक में अंतर्नाद की भांति गूंजते हैं. पर सबसे बढ़कर
बारामासी अनंत विडंबनाओं के बीच भारतीय स्त्री की अक्षत आशाओं और हिम्मत का
मार्मिक उद्घाटन है, वहां अम्माँ हों या बिन ब्याही बिन्नू, मूर्ख बिब्बो हों या
शातिर गुच्चन-बहू, सभी एक परिस्थिति-जन्य ब्लैक-होल में अपने अपने
अंधेरों से जूझती हैं. बिब्बो के अलावा किसी और स्त्री- के प्रसंग रचते हुए ज्ञान
अपने सहज व्यंग्यात्मक लहजे से भी बचे हैं. बिन्नू की शादी तो कथा के केंद्र में
ही है. ‘दुहाजू’ चुनने के बाद भी
दहेज़ के दबाव से न बच पाना पारंपरिक जकड़न की इंतिहा दिखा जाता है. बारामासी आजादी
के बाद भी ज़ारी सामन्तवादी मानसिकता और उसके कारणों की गहरी पड़ताल करता है. चीथड़ों
में बेख़ौफ़ और अहमन्य बच्चों को दरी के फटे टुकड़ों के साथ कोहराम मचाते हुए दौड़ना
हो या घोड़ेवाले या रिक्शेवाले को बिना पैसा दिए भगाने से पहले खूब मारना-पीटना
जैसी घटनाएं इसी प्रतीकात्मक अर्थ के साथ मौजूद हैं. भारतीय प्रजातंत्र में
संभ्रांत ही नहीं वंचित भी और अधिक वंचितों को लूटते चल रहे हैं- अलीपुरा का
सामाजिक परिवेश अपने पूरे नंगेपन में प्रजातंत्र की इस क्रूर विडम्बना को दिखाता
है.
बारामासी की तुलना
राग-दरबारी या स्वयम ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यासों (नरक-यात्रा, मरीचिका आदि) से
करने बेमानी है. ये सब रचनाएं अपने-अपने मुकाम पर ऊंचे बैठी हैं. बारामासी की एक
ख़ास, एकदम मुख्तलिफ गंध है जो शायद यथार्थ की ओरगेनिक (जैविक) सब्जियों में
व्यंग्य का तीखा तड़का लगाने से आई है. अपने देश के हालातों पर अगर लिखने बैठें तो
सच्ची, पैनी और सार्थक अभिव्यक्ति कैसी होगी, इसका आईना देखने के
लिए ये व्यंग्य-उपन्यासों के एक मानक जैसा है. किसी पाठक के लिए तो ये ‘डबल-बोनान्ज़ा’ सदृश है, कि उसे एक
मर्म-स्पर्शी कहानी में ही भरपूर मनोरंजन के साथ अपने देश की सामाजिक तस्वीर का एक
देखा-अनदेखा, पर सौ फीसदी प्रामाणिक पहलू भी देखने मिल जाता
है.
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*लेखक व्यंग्यकार हैं | सम्प्रति भारतीय आर्थिक सेवा में अधिकारी | दिल्ली में रहनवारी |
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