1. एक जलता हुआ दृश्य
वह एक जलता
हुआ दृश्य था
वह मध्य-काल
था या 1947
1984 था या
1992
या वह 2002 था
यह ठीक से पता
नहीं चलता था
शायद वह
प्रागैतिहासिक काल से
अब तक के सभी
जलते हुए
दृश्यों का निचोड़ था
उस दृश्य के
भीतर
हर भाषा में
निरीह लोगों की चीख़ें थीं
हर बोली में
अभागे बच्चों का रुदन था
हर लिपि में
बिलखती स्त्रियों की
असहाय
प्रार्थनाएँ थीं
कुल मिला कर
वहाँ
किसी नाज़ी
यातना-शिविर की
यंत्रणा में
ऐंठता हुआ
सहस्राब्दियों
लम्बा हाहाकार था
उस जलते हुए
दृश्य के बाहर
प्रगति के
विराट् भ्रम का
चौंधिया देने
वाला उजाला था
जहाँ
गगनचुम्बी इमारतें थीं , वायु-यान थे
मेट्रो
रेल-गाड़ियाँ थीं , शॉपिंग-माल्स थे
और सेंसेक्स
की भारी उछाल थी
किंतु जलते
हुए दृश्य के भीतर
शोषितों के
जले हुए डैने थे
वंचितों के
झुलसे हुए सपने थे
गुर्राते हुए
जबड़ों में हड्डियाँ थीं
डर कर भागते
हुए मसीहा थे
हर युग में
टूटते हुए सितारों ने
अपने रुआँसे
उजाले में
उस जलते हुए
दृश्य को देखा था
असल में वह
कोई जलता हुआ दृश्य नहीं था
असल में वह
मानव-सभ्यता का
घुप्प अंधकार
था
2. 'जो काल्पनिक नहीं है' की कथा
किंतु यह किसी
काल्पनिक कहानी की कथा नहीं थी
कथा में
मेमनों की खाल में भेड़िये थे
उपदेशकों के
चोलों में अपराधी थे
दिखाई देने के
पीछे छिपी
उनकी काली
मुस्कराहटें थीं
सुनाई देने से
दूर
उनकी बदबूदार
गुर्राहटें थीं
इसके बाद जो
कथा थी , वह असल में केवल व्यथा थी
इस में
दुर्दांत हत्यारे थे , मुखौटे थे
छल-कपट था और
पीड़ित बेचारे थे
जालसाज़ियाँ
थीं , मक्कारियाँ
थीं
दोगलापन था , अत्याचार था
और अपराध करके
साफ़
बच निकलने का
सफल जुगाड़ था
इसके बाद कुछ
निंदा-प्रस्ताव थे ,
मानव-श्रृंखलाएँ
थीं , मौन-व्रत था
और
मोमबत्तियाँ जला कर
किए गए
विरोध-प्रदर्शन थे
लेकिन यह सब
बेहद श्लथ था
कहानी के
कथानक से
मूल्य और
आदर्श ग़ायब थे
कहीं-कहीं
विस्मय-बोधक चिह्न
और बाक़ी
जगहों पर
अनगिनत
प्रश्न-वाचक चिह्न थे
पात्र थे
जिनके चेहरे ग़ायब थे
पोशाकें थीं
जो असलियत को छिपाती थीं
यह जो ' काल्पनिक कहानी नहीं
थी '
इसके अंत में
सब कुछ ठीक हो
जाने का
एक विराट्
भ्रम था
यही इस समूची
कथा को
वह निरर्थक
अर्थ देता था
जो इस युग का
अपार श्रम था
कथा में एक
भ्रष्ट से समय की
भयावह गूँज थी
जो इसे
समकालीन बनाती थी
जो भी इस
डरावनी गूँज को सुनकर
अपने कान बंद
करने की कोशिश करता था
वही पत्थर बन
जाता था ...
3. माँ
इस धरती पर
अपने शहर में
मैं
एक उपेक्षित
उपन्यास के बीच में
एक छोटे-से
शब्द-सा आया
वह उपन्यास
एक ऊँचा पहाड़
था
मैं जिसकी
तलहटी में बसा
एक छोटा-सा
गाँव था
वह उपन्यास
एक लम्बी नदी
था
मैं जिसके बीच
में स्थित
एक सिमटा हुआ
द्वीप था
वह उपन्यास
पूजा के समय
बजता हुआ
एक ओजस्वी शंख
था
मैं जिसकी
गूँजती ध्वनि-तरंग का
हज़ारवाँ
हिस्सा था
वह उपन्यास
एक रोशन
सितारा था
मैं जिसकी
कक्षा में घूमता हुआ
एक नन्हा-सा
ग्रह था
हालाँकि वह
उपन्यास
विधाता की
लेखनी से उपजी
एक सशक्त रचना
थी
आलोचकों ने
उसे
कभी नहीं
सराहा
जीवन के
इतिहास में
उसका उल्लेख
तक नहीं हुआ
आख़िर क्या
वजह है कि
हम और आप
जिन उपन्यासों
के
शब्द बन कर
इस धरती पर आए
उन उपन्यासों
को
कभी कोई
पुरस्कार नहीं मिला ?
4. थोड़ा साथ, थोड़ा हट कर
ओ प्रिये
अपनी निजता
में भी
मैं होता हूँ
तुम्हारे
थोड़ा साथ
और थोड़ा
तुमसे हट कर
जैसे ढलते
सूरज की इस वेला में
खड़ी है मेरी
परछाईं
थोड़ी मेरे
साथ
और थोड़ी
मुझसे हट कर
जैसे अपनी
आकाशगंगा में
है हमारी
पृथ्वी
थोड़ी अपने
सूर्य के साथ
और थोड़ी उससे
हट कर
हाँ प्रिये
कभी-कभी
मैं होता हूँ
तुम्हारे थोड़ा साथ
और थोड़ा
तुमसे हट कर
जैसे स्वर्ग
से निष्कासन
के बाद आदम था
थोड़ा हव्वा
के साथ
और थोड़ा उससे
हट कर
5. स्टिल-बॉर्न बेबी
वह जैसे
रात के आईने
में
हल्का-सा चमक
कर
हमेशा के लिए
बुझ गया
एक जुगनू थी
वह जैसे
सूरज के चेहरे
से
लिपटी हुई
धुँध थी
वह जैसे
उँगलियों के
बीच में से
फिसल कर झरती
हुई रेत थी
वह जैसे
सितारों को
थामने वाली
आकाश-गंगा थी
वह जैसे
ख़ज़ाने से
लदा हुआ
एक डूब गया
समुद्री-जहाज़
थी
जिसकी चाहत
में
समुद्री-डाकू
पागल हो जाते
थे
वह जैसे
कीचड़ में
मुरझा गया
अधखिला नीला
कमल थी ...
--
सुशांत सुप्रिय, A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद - 201014
मो : 8512070086
ईमेल : sushant1968@gmail.com
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