अश्लीलता नही शालीनताः ज्ञान की
भाषा
अजय कुमार मिश्र
ज्ञान की भाषा या भाषा ज्ञान की! बुद्धिजीवी इसके
दो अर्थ निकालेंगे।पर मुझे उन दो अर्थो से कोई सरोकार नही। भावना और संवेदनशीलता की कलम-दवात जिसके पास है, यह भी ध्यातव्य है कि संस्कार्वान, विवेकशील, परोपकारी तथा वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्श को मूर्त रूप देने
वाला ही वाणीपुत्र ज्ञान हो सकता है!
एक प्रंसग।बात विगत वर्ष २०१४-१०१५ की है। लखनऊ में एक साहित्यिक
सम्मेलन। जिसमें ज्ञान चतुर्वेदी जी को व्यंग के लिए एक संस्था के सर्वोच्य सम्मान
से सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया गया था।माल एवेन्यू के वी.वी आई.पी गेस्ट
हाऊस में,मेरी उनसे आमने सामने मउलाकात हुई।इसके पहले मैंने
उनको मंचों पर देखा –सुना था ।दूरभाष पर भी बाते हुई थी।साथ मे मेरा
बेटा आर्य भी था।गेस्ट हाऊस पहुंच कर मैंने डोर बेल बजाई,..अन्दर से आवाज आई ,दरवाजा खुला है आ जाओ।मैं थोडा विचलित हुआ,पर पुरे आत्मविश्वास को बटोरकर,अन्दर पुत्र समवेत आ
गया।अन्दर का दृश्यः ज्ञान चतुर्वेदी जी,प्रेम जन्मेजय जी और माणिक
वर्मा जी ,सोफे पे बैठें सुबह की चाय पी रहे हैं।एक साथ तीन
व्यंगकारों और वो भी एक से बढ कर एक।देख कर मन आनन्दित हो गया।आओ बैठों अजय खाली
सोफे की तरफ इसारा करते हुए,कहा ज्ञान जी ने।मैंने अपने बेटे को इसारा किया कि
प्रणाम करे उन लोगो को,और मई प्रणाम करने के पश्यात सोफे पर साक्षात्कार
देने वाले छात्र की तरह मुद्रा में बैठ गया।ओपचारिक बातों के बाद प्रेम जी और
माणीक जी से परिचय उपरान्त ,मैंने उन्हे अपना एक काव्य संग्रह”आप का सच” भेंट किया।सहज भाव में गणमान्यों ने एक चित्र
खिचवाया जिसे मेरे पुत्र ने खिचा।और क्या लिख रहे हो अजय, तुम्हारी किताब मुझे भोपाल में मिली। मैंने देखा,तुम्हारे लिखने में बहुत गुंजाईश है? कुछ सुनाओ…मैंने उत्सुकता वश,एक व्यंग कविता,जो नारी के उतरते कपडों के
बारे में थी शिर्षक था “एयरी ब्लाऊज”,..पढना शुरू कर दिया।तीनो लोग
बडॅ ध्यान से सुनते रहे…मैं बहुत खुश कि कविता लोगो को पसंद आई।तभी ज्ञान
जी ने कहा,अजय तुम इसे व्यंग कहते हो..?कब लिखी थी ..मैंने कहा २००७ में।आज २०१५ है,तुम्हारी सोच यही है..इन आठ सालो में कितनाअ कुछ बदल गया..?तुम यह मान कर कि हम सब व्यंगकार है,ये कविता सुनाए कि हमें
पसन्द आयेगी..?चाहे अश्लीलताअ ही क्यों न हो..?पर तुम गलत हो।भारतीय नारी की बात की अच्छा लगा…पर आगे तुमने दर्जी की दुकान में ब्लाऊज का नाप दिलवाते जिन शब्दों
का इस्तेमाल किया ,क्या वो ठीक है,,और बची –खुची कसर तुमने दर्जी से कहलवाकर कि ६५ रुपये का ब्रा लाईये ,फैशन का फैशन और हवा खाईये।क्या ये एक रचनाकार.व्यंगकार को शोभा
देगा।अच्छा होता तुम अश्लील साहित्य लिख कर ,रेलवे स्टेशनों और बस
स्टेशनों पर सडक किनारे मस्त राम की किताब बेचने वालों को दे देते।क्या लिखा तुमने
..व्यंग का मतलब अश्लीलता नही है।व्यंग का मतलब शालीनता।शालीनता में जो बात कही
जाती है,उसके शब्द बात करते है। इसमें तुम्हारा दोष नही
है..आज की पीढी इसी को व्यंग समझती है..? मंचीय कार्यक्रमों मे मिलने
वाली तालियां…प्रतिष्ठित व्यंगकारों को भी आकर्षित करती है…। चाहते हो कुछ अच्छा लिखना तो अध्ययन करो, पढो।जन्मेजय जी और माणीक जी ने मेरे पुत्र के समक्ष
इस तरह देखा कि, मुझे लगा मैं नंगा हो गया हूं।पर उन लोगो ने मेरी
मनःस्थिति को भाप लिया..। आदेशात्मक लहजे में ज्ञान जी ने मुझे अपने पास बुलाया
। डरते-डरते मैं उनके बैठा..बोले डरो मत और अपने तरफ खींचते हुए समझाया- विचार ठीक है पर
शब्दों का चयन सोच-समझ कर किया करो, जो आज कल लिखा जा रहा है
उससे समाज को क्या मिल रहा है? लोग थोडी देर हंसते हैं भूल जाते है। पर जो बात
सलीके से सभ्य तरीके से कही जाती है,उसका असर दिनों–दिन तक रहता है।
इस प्रंसग की चर्चा करने का मात्र उद्देश्य यह है कि,उनके विचारों के साथ–साथ लेख में शब्दों की
अश्लीलता नही मिलती।जहां तक मैंने उन्हे पढा है..मुझे कभी ऐसा महसूस नही
हुआ।अनगिनत रचनाएं है उनकी। एक दो की चर्चा करता हूं,दॄष्ठ्व्य है उनके अंश—“उसे हमेशा ही आदमी से शिकायत रही कि,अपनी शादी के लिए घोडे को
क्यों परेशान करता है.?अरे शादी तेरी है, तू जान।खूब ठाठ से कर शादी।
हमें फालतू में इस पचडे में क्यों “इन्वाल्व करता है”।…मनुष्यों में यह ट्रेड्बना है।वो बारात में आने
वाले हर गधे-घोडे की इज्जत और स्वागत्करते है।दरवाजे पर सजी धजी औरते उनकी आरती
उतारती है,टीका लगाती है।घोडा इतना गधा भी नही कि उसे मजा भी
ना आये।परन्तु घोडे आ आज मन नही हो रहा है,,?
एक और बानगी-..टामी ने टाइगर,टाइगर ने शेरु को और तीनो ने लैला को ऐसा रगोदा कि उनकी समवेत भौ-भौ
से अन्ध्कारमय आकाश भर गया।तभी बडी जोर से बिजली कडकी शेखी बघारते,दौडते रगोदते कुत्ते घबराकर नाली में घुस गये।लैला खूब हंसी।बडे शेर
बन रहे थे बच्चू।बारिस शुरू हो गयी।फिर तो कुत्तों की ऐसी कुता फजीहत हुई कि जैसी
कुत्तों की कभी-कभी ही होत्र्र है।कुत्ते लतिया दिये गये। गीले बदन पर लात पडी तो
लात और कुत्ता दोनों फिसल गये।आदमी गिरते-गिरते बचा।
आप देख सकते है कितनी बड़ी बात ज्ञान जी ने,बस यूँ ही मामूली से लगने वाले शब्दों में कह दी।ऐसे ही बहुत सी
रचनाएं है जो उन्हे व्यंग के सर्वोच्च मुकाम पर स्थापित करती है। बेटी की शादी पर
लिखा गया उनकी रचना…मैं कहता हूं अभूतपूर्व है। क्या नही कहा
आपने..विवशता,प्रेम विछोह..अदि-आदि। सच कहे तो आप का भाषा ज्ञान
ही, ज्ञान की भाषा है..पदमश्री को प्राप्त होती है।
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अजय कुमार मिश्र “अजयश्री”
गीत एवं नाट्य अधिकारी ,परिवार कल्याण,उ.प्र.)
बागीश भवन,424/A-11,
वैशाली एन्कलेव,सेक्ट-9,
इन्दिरा नगर,लखनऊ(उ.प्र.)-226016
मो-09415017598
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