ज्ञान चतुर्वेदी : सर्जक और 'सर्जन' का अद्भुत संयोग
अनूप मणि त्रिपाठी
‘कृष्ण चराटे और लतीफ घोंघी हिंदी व्यंग्य
और हास्य के दो महत्वपूर्ण परंतु ‘अनसंग
हीरोज’ को, जो
इतने भोले रहे कि मानते थे कि मात्र बहुत अच्छा हास्य, व्यंग्य लिखकर ही वे हिंदी व्यंग्य में वह स्थान पा लेंगे जिसके वे
हकदार थे, पर ऐसा कहीं होता है भला? बहरहाल, बहुत आदर के साथ समर्पित.’ ये
पंक्तियां ज्ञान चतुर्वेदी के व्यंग्य संग्रह ‘अलग’ में वर्णित हैं. इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद ज्ञान जी के विषय में
कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती. बहरहाल, इन दिनों ज्ञान जी चर्चा में हैं. पहले पद्मश्री और अब यशभारती. और
भी न जाने कितने हाल-फिलहाल में मिले पुरस्कार. ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि जब वे
अपनी रचनाओं की वजह से नहीं बल्कि पुरस्कारों के लिए इतने लंबे समय तक चर्चा में
हों.
सर्जक और सर्जन के अद्भुत संयोग का नाम हैं
ज्ञान चतुर्वेदी. और कमाल यह है कि यह दिल का डॉक्टर कइयों के दिल में ही रहता है.
लखनऊ में हुई उनसे एक मुलाकात के दौरान वे घड़ी-घड़ी अपने फोन पर मरीजों को दवाइयों
के नाम और सुझाव देते नजर आए. उस वक्त मैं सोच में पड़ गया कि इतना व्यस्त रहना
वाला शख्स इतनी प्रचुर मात्रा में कैसे लिख सकता है. प्रचुर मात्रा में चलो लिख भी
लिया, लेकिन इतना स्तरीय कैसे लिखा जा सकता है.
बकौल श्रीलाल शुक्ल, ‘आपकी स्फुट रचनाओं में बड़ी
ताजगी है और दर्जनों तथाकथित व्यंग्यकारों की कृतियों के विपरीत उनकी अपनी
विशिष्टता भी.’
ज्ञान जी के साहित्यिक खाते में अब तक ‘नरकयात्रा’, ‘मरीचिका’, ‘हम न मरब’, ‘बारामासी’ जैसे उपन्यास और ‘प्रेतकथा’, ‘मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं’, ‘बिसात
बिछी है’, ‘दंगे में मुर्गा’, ‘नंगे हमाम में हैं’, ‘अलग’, ‘प्रत्यंचा’, ‘जो घर फूंके’ व्यंग्य संग्रह, फिल्म की स्क्रिप्ट राइटिंग, शरद जोशी की किताब ‘प्रतिदिन’ का अंजनी चौहान के साथ संपादन दर्ज है. अपने परम मित्र अंजनी चौहान
के रंग-बिरंगे व्यक्तित्व पर लंबा उपन्यासनुमा संस्मरण शीघ्र प्रकाशनाधीन. संभव है
कुछ रचनाएं लेखक की अज्ञानता के कारण यहां छूट भी गई होंगी.
पाठकों का असीम प्यार, लोकप्रियता, साथ में महीने में कई कॉलम
लिखने की अनिवार्यता के बीच अपनी समझ, सामर्थ्य
और शिल्प से हिंदी साहित्य को ज्ञान जी ने अनगिनत अलहदा रचनाएं दीं हैं. इंडिया
टुडे, तहलका, राजस्थान
पत्रिका, सहारा समय जैसे समाचार
पत्र-पत्रिकाओं में वर्षों स्तंभ लेखन किया. नया ज्ञानोदय साहित्यिक पत्रिका में
भी वर्षों से लगातार स्तंभ लिख रहे है. ज्ञान जी ने स्तंभ लेखन की शुरुआत भले ही
हिचकते हुए की, मगर जब की तो उसका एक अलग ही
मापदंड स्थापित कर दिया. यहां जानना दिलचस्प होगा कि पिछले कुछ सालों से लगातार और
इतने स्तंभ लिखने वाले ज्ञान जी कभी स्तंभ लेखन के कट्टर विरोधी थे. स्तंभ लेखन को
वे प्रतिभाओं की कब्रें कहते थे. इसका उल्लेख बड़ी ही साफगोई से वे अपने व्यंग्य
संग्रह ‘अलग’ में करते हैं.
ज्ञान जी ने जहां व्यंग्य लेखन की परिपाटी
में नई जमीन बनाई है, वहीं व्यंग्य उपन्यास ‘रागदरबारी’ के बाद हिंदी साहित्य को एक
महत्वपूर्ण उपन्यास ‘बारामासी दिया है. यूं तो अभी
आया उनका उपन्यास ‘हम न मरब’ चर्चा में है. जिसकी विषयवस्तु ने आलोचकों का ध्यान अपनी ओर खींचा
है. लेकिन उनकी साहित्यक यात्रा में बारामासी का महत्व सबसे अलग है. बारामासी से
पहले निम्न मध्यवर्गीय पारिवारिक घटनाओं से जुड़े मानसिक द्वंद पर हिंदी व्यंग्य
में कभी इस तरह से बात नहीं की गई थी. इस उपन्यास के विषय में प्रख्यात आलोचक
निर्मला जैन लिखती हैं, ‘यूं तो औपन्यासिक विधान में
व्यंग्य शैली का सफल प्रयोग श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी में किया है, पर वह वस्तुतः कुछ ग्रामीण कथाओं की औपन्यासिक श्रृंखला है. सफल
उपन्यास के रूप में फिलहाल ज्ञान चतुर्वेदी का बारहमासी याद आता है.’
ज्ञान जी ने जब भी लिखा, पूरी गंभीरता से और जिम्मेदारी से लिखा. वे अपने समकालीन लेखकों से
इस मायने में भी अलग हैं कि व्यंग्य लेख, व्यंग्य
विधा के प्रचलित ढांचे तथा स्वरूप को वे तोड़ते हैं, वह भी
निरंतर. इसकी बानगी देखनी है तो उनके व्यंग्य संग्रह ‘प्रत्यंचा’ को देखा जा सकता है. या फिर
तहलका में उनके स्वास्थ्य पर लिखे व्यंग्य कथाओं जैसे लेखों को पढ़ा जा सकता है.
एक सजग और जिम्मेदार लेखक न केवल प्रत्यक्ष यथार्थ को देखता है, बल्कि उसके छुपे हुए रूपकों-मिथकों को भी पकड़ता है. देश की
अर्थव्यवस्था का उदार होना एक महत्वपूर्ण घटना है. उसके बाद देश के आर्थिक और
सामाजिक ढांचे में कई परिवर्तन आए. एक पल के लिए यदि व्यंग्य को उपेक्षित विधा मान
भी लिया जाए, तो भी ज्ञान जी ने एक लेखक के
रूप में बाजारवाद, उपभोक्तावाद को विषय बनाते हुए
दर्जनों महत्वपूर्ण, उत्कृष्ट व्यंग्य लेख लिखे.
इतने कि शायद ही किसी तथाकथित मुख्यधारा के लेखक ने इन विषयों पर इतनी कलम चलाई
होगी.
तो क्या पद्मश्री, यशभारती सम्मान मिलना व्यंग्य को साहित्य की मुख्यधारा में आने की
मुनादी के तौर पर देखा जा सकता है! हालांकि इनसे पहले शरद जोशी, केपी सक्सेना को भी पद्मश्री से नवाजा जा चुका है और परसाई जी को
साहित्य अकादमी से. लेकिन आज भी साहित्य के हलकों में कई लोग व्यंग्य लिखने को
निचले दर्जे का साहित्य कर्म ही मानते हैं. ज्ञान जी के लेखन ने इस बात को
पुनर्रेखांकित किया है कि व्यंग्यकार चाहे तो व्यंग्यलेखन और व्यंग्य को लेकर लाख
वर्जनाओं और पूर्वग्रहों के बाद भी अपना सही ओहदा पा सकता है.
अभी तक हिंदी व्यंग्य में दो धाराओं की बात
होती रही है एक परसाई पाठशाला और दूसरी शरद जोशी स्कूल. आने वाले समय में व्यंग्य
का तीसरा मदरसा यदि खुला तो निश्चित रूप से ज्ञान मदरसा कहलाएगा. जिसमें
प्रयोगशीलता, भाषाप्रवाह, पठनीयता, व्यंग्य विचार के साथ स्वयं को
हर क्षण सीखने के लिए ऊर्जावान रखने की एक मासूम निश्छल जिद्द भी होगी.
*लेखक युवा व्यंग्यकार हैं | लखनऊ में रहते हैं |
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