व्यंग्य में ज्ञान : आपको
धन्यवाद
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अप्रतिम व्यंग्य शिल्पी ज्ञान चतुर्वेदी पर केंद्रित ई-पत्रिका
स्पर्श और व्यंग्य लेखक समिति का आयोजन। 2 -3 अगस्त। आपको धन्यवाद कि हमारी कोशिश को
पसंद किया,पढ़ा,टिप्पणी की,फोन किया। जिन लेखकों ने अपने लेख हमें दिए उनका
आभार। वैसे लगता है गूगल को भी
हमारा आयोजन बहुत पसंद आया है। गूगल सर्च में व्यंग्य में ज्ञान लिखकर सर्च करने
पर स्पर्श के उपर्युक्त सारे लिंक्स आपको वरीयता में मिलेंगे। युवा कवि गद्यकार आलोचक प्रिय राहुल देव
ने यह ज़िम्मेदारी ली और निभाई। वे
अपनी रचनाशीलता से ऐसे ही अच्छे काम करते रहें। फेसबुक का यह भी एक उपयोग है,इसे
राहुल ने रेखांकित किया।व्यंग्य रचना और आलोचना में राहुल से बहुत आशाएं हैं।साथ
ही,वलेस के सभी साथियों को धन्यवाद। वे हैं तो वलेस है। हम जो शब्द संसार के नागरिक हैं,अपने
महान रचनाकारों को इस तरह भी बधाई दें।वलेस ग्रुप वैसे भी औपचारिक बधाई में भरोसा
नहीं करता।हमने ज्ञान जी के जन्मदिन पर इस तरह बधाई दी। ज्ञान जी ने वलेस पर एक पत्र पोस्ट किया है,वह यहां दे रहे हैं। वे
शतायु हों।वे सचमुच वरिष्ठ हुए हैं। केवल
साठ पार नहीं हुए।हम उनके साथ लिख पढ़ रहे हैं यह हमारा सौभाग्य। हम ज्ञान युग के बाशिंदे हैं।
बहुत
आभार।
.....सुशील
सिद्धार्थ
अध्यक्ष, वलेस(व्यंग्य लेखक समिति), 4.8.2016
डॉ ज्ञान चतुर्वेदी
जन्म: August 2, 1952
मऊरानीपुर (झाँसी) उत्तर प्रदेश
में 2 अगस्त, 1952 को जन्मे डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी की मध्य प्रदेश में
ख्यात हृदयरोग विशेषज्ञ की तरह विशिष्ट पहचान। चिकित्सा शिक्षा के दौरान सभी
विषयों में स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले छात्र का गौरव हासिल किया। भारत सरकार के
एक संस्थान (बी.एच.ई.एल.) के चिकित्सालय में कोई तीन दशक से ऊपर सेवाएँ देने के
पश्चात् हाल ही में शीर्षपद से सेवा-निवृत्ति।
लेखन की शुरुआत सत्तर के दशक से
'धर्मयुग’ से। प्रथम उपन्यास 'नरक-यात्रा’ अत्यन्त चर्चित रहा, जो भारतीय चिकित्सा-शिक्षा और व्यवस्था पर था। इसके
पश्चात् 'बारामासी’ तथा 'मरीचिका’ जैसे उपन्यास आए और 'हम न मरब’ उनकी ताजा औपन्यासिक कृति।
दस वर्षों से 'इंडिया टुडे’ तथा 'नया ज्ञानोदय’ में नियमित स्तम्भ। इसके अतिरिक्त राजस्थान पत्रिका और
'लोकमत समाचार’ दैनिकों में भी व्यंग्य स्तम्भ।
अभी तक तकरीबन हजार व्यंग्य
रचनाओं का प्रकाश। 'प्रेत कथा’, 'दंगे में मुर्गा’, 'मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ’, 'बिसात बिछी हैं’, 'खामोश! नंगे हमाम में हैं’, 'प्रत्यंचा’ ओर 'बाराखड़ी’ व्यंग्य-संग्रह।
शरद जोशी के 'प्रतिदिन’ के प्रथम खंड का अंजनी चौहान के साथ सम्पादन।
तृतीय सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'पद्म श्री' | 'राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान’ म.प्र. सरकार। दिल्ली अकादमी का व्यंग्य लेखन के लिए
दिया जाने वाला प्रतिष्ठित दिल्ली 'अकादमी सम्मान’। अन्तर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा-सम्मान (लन्दन) तथा 'चकल्लस पुरस्कार’ के अलावा कई विशिष्ट सम्मान।
पुत्री नेहा डॉक्टर हैं तथा
बेटा दुष्यन्त इंजीनियर। पत्नी शशि चतुर्वेदी भारत सरकार के चिकित्सा-संस्थान में
स्त्रीरोग विशेषज्ञ।
सम्पर्क
: ए-40, अलकापुरी, भोपाल : 402-024 दूरभाष : 0755-2450408
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प्रमुख पुस्तकें -
नरक-यात्रा ज्ञान चतुर्वेदी का यह उपन्यास नरक-यात्रा महान रूसी उपन्यासों की परंपरा में है, जो कहानी और इसके चरित्रों के हर संभव पक्ष तथा तनावों को अपने में समेटकर बढ़ा है। यह उपन्यास भारत के किसी भी बड़े सरकारी अस्पताल के किसी एक दिन मात्र की कथा कहता है, अस्पताल, जो नरक से कम नहीं, विशेषतौर पर गरीब आम आदमी के लिए। लेखक हमें अस्पताल के इसी नरक की सतत यात्रा पर ले जाता है, जो अस्पताल के हर कोने में तो व्याप्त है ही, साथ ही इसमें कार्यरत लोगों की आत्मा से भी फैल गया है। ऑपरेशन थिएटर से अस्पताल के रसोईघर तक, वार्ड बॉय से सर्जन तक - हर चरित्र और स्थिति के कर्म-कुकर्म को लेखक ने निर्ममता से उजागर किया है। उसकी मीठी छुरी-सी पैनी जुबान और उछालकर मजा लेने की प्रवृत्ति इस निर्मम लेखन कर्म को और भी महत्त्वपूर्ण बनाती है। किसी सुधारक अथवा क्रांतिकारी लेखक का लबादा ओढ़े बगैर ज्ञान चतुर्वेदी ने निर्मम, गलीज यथार्थ पर सर्जनात्मक टिप्पणी की है और खूब की है। यह उपन्यास अद्भुत जीवन तथा उतने ही अद्भुत जीवन-चरित्रों की कथा को ऐसी भाषा में बयान करता है जो आम आदमी के मुहावरों और बोली से संपन्न है, जिसमें मज़े लेकर बोली जानेवाली अदा और बाँध लेने की शक्ति है। - स्वदेश दीपक
मरीचिका ज्ञान चतुर्वेदी का तीसरा उपन्यास है। उनके पिछले दो उपन्यासों-‘नरक यात्रा’ और ‘बारामासी’-का हिन्दी पाठक जगत् ने तो अप्रतिम स्वागत किया ही, साथ ही विभिन्न आलोचकों तथा समीक्षकों ने इन्हें हिन्दी व्यंग्य तथा उपन्यास के क्षेत्र की उल्लेखनीय घटना के रूप में दर्ज किया है। ‘बारामासी’ तो हिन्दी उपन्यासों की उज्ज्वल परम्परा में एक आदरणीय स्थान बना चुका है और इधर के वर्षों में हिन्दी की गिनी-चुनी बहुचर्चित कृतियों में से एक रहा है। ‘मरीचिका’ हमें नितांत नए ज्ञान चतुर्वेदी से परिचित कराता है। इस पौराणिक फैंटेसी में वे भाषा, शैली, कथन तथा कहन के स्तर पर एकदम निराली तथा नई जमीन पर खड़े दीखते हैं। यहाँ वे व्यंग्य को एक सार्वभौमिक चिंता में तब्दील करते हुए ‘पादुकाराज’ के मेटाफर के माध्यम से समकालीन भारतीय आमजन और दरिद्र समाज की व्यथा-कथा को अपने बेजोड़ व्यंग्यात्मक लहजे में कुछ इस प्रकार कहते हैं कि पाठक के समक्ष निरंकुश सत्ता का भ्रष्ट तथा जनविरोधी तंत्र, राजकवि तथा राज्याश्रयी आश्रमों के रूप में सत्ता से जुड़े भोगवादी बुद्धिजीवी और पादुकामंत्री, सेनापति-पादुका राजसभा आदि के जरिए आसपास तथाकथित श्रेष्ठिजनों के बीच जारी सत्ता-संघर्ष का मायावी परंतु भयानक सत्य-सब कुछ अपनी संपूर्ण नग्नता में निरावृत हो जाता है। ‘पादुकाराज’, ‘अयोध्या’ तथा ‘रामराज’ के बहाने ज्ञान चतुर्वेदी मात्र सत्ता के खेल और उसके चालक कारकों का ही व्यंग्यात्मक विश्लेषण नहीं करते हैं, वे मूलतः इस क्रूर खेल में फँसे भारतीय दरिद्र प्रजा के मन में रचे-बसे उस यूटोपिया की भी बेहद निर्मम पड़ताल करते हैं, जो उस ‘रामराज’ के स्थापित होने के भ्रम में ‘पादुका-राज’ को सहन करती रहती है, जो सदैव ही मरीचिका बनकर उसके सपनों को छलता रहा है। स्वर्ग तथा देवता की एक समांतर कथा भी उपन्यास में चलती रहती है, जो भारत के आला अफ़सरों की समांतर परन्तु मानो धरती से अलग ही बसी दुनिया पर बेजोड़ टिप्पणी बन गई है। जब अयोध्या ब्रह्मांड तक जल रहीर हो, तब भी देवता की दुनिया में उसकी आँच तक नहीं पहुँचती। आधुनिक भारत के इन ‘देवताओं’ का यह स्वर्ग ज्ञान के चुस्त फिकरों, अद्भुत विट और निर्मल हास्य के प्रसंगों के जरिए पाठकों के समक्ष ऐसा अवतरित होता है कि वह एक साथ ही वितृष्णा भी उत्पन्न करता है और करुणा भी। और शायद क्रोध भी। पौराणिक कथा के बहाने आधुनिक भारत की चिन्ताओं की ऐसी रोचक व्यंग्य कथा बुन पाना ही पुनः ज्ञान चतुर्वेदी को हिन्दी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गद्यकार के रूप में रेखांकित करता है। हिन्दी में फैंटेसी गिनी-चुनी ही है। विशेष तौर पर हिन्दी व्यंग्य में पौराणिक फैंटेसी जो लिखी भी गई है, वे प्रायः फूहड़ तथा सतही निर्वाह में भटक गई हैं। इस लिहाज से भी ‘मरीचिका’ एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है!
ज्ञान चतुर्वेदी का उपन्यास ‘बारामासी’ भाषा और शैली की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है जिसमें अद्भुत वाक्य-विन्यास और शब्दों के बहुआयामी अर्थबोधकता की ऐसी लयकारी है जिसकी दूसरी मिसाल मिल पाना मुश्किल है। यह उपन्यास बुंदेलखंड के एक छोटे-से कस्बे के एक छोटे-से आँगन में पल रहे छोटे-छोटे कस्बे के छोटे-छोटे स्वप्नों की कथा है - वे स्वप्न ऐसे हैं जो टूटने के लिए देखे जाते हैं...और टूटने के बावजूद देखे जाते हैं। स्वप्न देखने की अजीब उत्कंठा तथा उन्हें साकार करने के प्रति धुँधली सोच और फिर-फिर उन्हीं स्वप्नों को देखते जाने का हठ...कथा न केवल इनके आस-पास घूमती है बल्कि मानवीय सम्बन्धों, पारस्परिक शादी-ब्याह की रस्मों, सड़क छाप क़स्बाई प्यार, भारतीय क़स्बों की शिक्षा-पद्धति, बेरोज़गारी, माँ-बच्चों के बीच के स्नेहिल पल तथा भारतीय मध्यवर्गीय परिवार के जीवन-व्यापार को उसके सम्पूर्ण कलेवर में उसकी समस्त विडम्बनाओं-विसंगतियों के साथ न केवल पकड़ती है बल्कि बुंदेलखंडी परिवेश के श्वास-श्वास में स्पन्दित होते हुए सहज हास्य-व्यंग्य को भी समेटती है। इस उपन्यास में बुंदेलखंड की माटी से बने गुच्चन, छुट्टन, छदामी, फिरंगी, लल्ला और चन्द्र जैसे पात्र और भारतीय नारी के अदम्य संघर्ष और भारतीय माँ का अतुलनीय स्नेह की प्रतिध्वनि अम्माँ जैसा चरित्र और सब कुछ सह जाने को तत्पर बिन्नू जैसी बहन, पाठकों को एक अनोखे संसार में ले जाने में सक्षम हैं।
हर बड़ा लेखक, अपने 'सृजनात्मक जीवन' में, जिन तीन सच्चाईयों से अनिवार्यतः भिडंत लेता है, वे हैं- 'ईश्वर', 'काल' तथा 'मृत्यु' ! अलबत्ता, कहा जाना चाहिए कि इनमे भिड़े बगैर कोई लेखक बड़ा भी हो सकता है, इस बात में संदेह है ! कहने की जरूरत नहीं कि ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने रचनात्मक जीवन के तीस वर्षों में, 'उत्कृष्टता की निरंतरता' को जिस तरह अपने लेखन में एकमात्र अभीष्ट बनाकर रखा, कदाचित इसी प्रतिज्ञा ने उन्हें, हमारे समय के बड़े लेखकों की श्रेणी में स्थापित कर दिया है ! हम न मरब में उन्होंने 'मृत्यु' को रचना के 'प्रतिपाद्य' के रूप में रखकर, उससे भिडंत ली है ! 'नश्वर' और 'अनश्वर' के द्वैत ने दर्शन और अध्यात्म में, अपने ढंग से चुनोतियों का सामना किया; लेकिन 'रचनात्मक साहित्य' में इससे जूझने की प्राविधि नितांत भिन्न होती है और वही लेखक के सृजन-सामर्थ्य का प्रमाणीकरण भी बनती है ! ज्ञान चतुर्वेदी के सन्दर्भ में, यह इसलिए भी महत्तपूर्ण है कि वे अपने गल्प-युक्ति से 'मृत्युबोध' के 'केआस' को जिस आत्म-सजग शिल्प-दक्षता के साथ 'एस्थेटिक' में बदलते हैं, यही विशिष्टता उन्हें हमारे समय के अत्यन्तं लेखकों के बीच ले जाकर खड़ा कर देती है !
परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी और श्रीलाल शुक्ल की पीढ़ी के बाद, यदि हिंदी-विश्व को कोई एक व्यंग्यकार सर्वाधिक आश्वस्त करता है तो वह ज्ञान चतुर्वेदी हैं ! वे क्या 'नया लिख रहे हैं'-इसको लेकर जितनी उत्सुकता उनके पाठकों को रहती है, उतनी ही आलोचकों को भी ! विशेष तौर पर, राजकमल द्वारा ही प्रकाशित अपने दो उपन्यासों नरक यात्रा और बारामासी के बाद तो ज्ञान चतुर्वेदी इस पीढ़ी के व्यंग्यकारों के बीच सर्वाधिक पठनीय, प्रतिभावान, लीक तोड़नेवाले और हिंदी-व्यंग्य को वहां से नई ऊँचाइयों पर ले जानेवाले माने जा रहे हैं, जहाँ परसाई ने उसे पहुँचाया था ! ज्ञान चतुर्वेदी में परसाई जैसा प्रखर चिंतन, शरद जोशी जैसा विट, त्यागी जैसी हास्य-क्षमता तथा श्रीलाल शुक्ल जैसी विलक्षण भाषा का अदभुत मेल है, जो उन्हें हिंदी-व्यंग्य के इतिहास में अलग ही खड़ा करता है ! ज्ञान को आप जितना पढ़ते हैं, उतना ही उनके लेखन के विषय-वैविध्य, शैली की प्रयोगधर्मिता और भाषा की धुप-छाँव से चमत्कृत होते हैं ! वे जितने सहज कौशल से छोटी-छोटी व्यंग्य-तेवर देखते ही बनते हैं ! ज्ञान चतुर्वेदी विशुद्ध व्यंग्य लिखने में उतने ही सिद्धहस्त हैं, जितना 'निर्मल हास्य' रचने माँ ! वास्तव में ज्ञान की रचनाओं में हास्य और व्यंग्य का ऐसा नापा-तुला तालमेल मिलता है, जहाँ 'दोनों ही' एक-दुसरे की ताकत बन जाते हैं ! और तब हिंदी की यह 'बहस' ज्ञान को पढ़ते हुए बड़ी बेमानी मालूम होने लगती है कि हास्य के (तथाकथित) घालमेल से व्यंग्य का पैनापन कितना कम हो जाता है ? सही मायनों में तो ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन से गुजरना एक 'सम्पूर्ण व्यंग्य-रचना' के तेवरों से परिचय पाने के अद्धितीय अनुभव से गुजरना है ! 'खामोश नंगें हमाम में हैं' लेखक का एक बेहद पठनीय व्यंग्य संग्रह है |
अलग सामयिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, विसंगतियों और विडम्बनाओं पर तीखा प्रहार करते हुए व्यंग्य परम्परा को एक नई भाषा और शिल्प प्रदान करनेवाला विशिष्ट संकलन। लेखक यहाँ हमारे दैनिक जीवन और रोजमर्रा की विडम्बनापूर्ण घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण कर न सिर्फ हमें झकझोरता है, बल्कि उन कारणों को भी परत-दर-परत खोलता है जो इनके मूल में हैं। इस संकलन का हर आलेख हास-परिहास करते हुए संवेदना के स्तर पर पाठकों से रिश्ता बनाकर उनके दुख, बेचैनी के साथ जुड़ता है और उन्हें आश्वस्त कर सोच का एक नया स्तर भी प्रदान करता है। पुस्तक में राजनीति के विभिन्न रंगों, सत्तालोलुपता और भ्रष्टाचार को बेनकाब किया गया है और आन्तरिक स्थितियों पर दृष्टिपात करते हुए चीजों को देखने की एक नई दृष्टि की ओर भी संकेत किया गया है। अपने व्यंग्य-उपन्यासों से हिन्दी व्यंग्य को एक नई ऊँचाई देनेवाले ज्ञान चतुर्वेदी की इन रचनाओं से हँसी उतनी नहीं आती, जितनी अपने आसापास की विडम्बनाएँ हमें कोंचती हैं। शायद यही व्यंग्यकार की सफलता भी है।
*उपर्युक्त पुस्तक परिचयों में दिए गये पुस्तक के शीर्षक पर क्लिक करके पुस्तक क्रय लिंक तक पहुँचा जा सकता है |
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हिंदी साहित्य की नज़र में ज्ञान.....
‘‘आप इस बात को भले न जानें और अच्छा है कि इससे एक हद तक बिरत रहें कि
आज व्यंग्य रचना के अद्वितीय पूर्वजों के बाद आपके ऊपर हिन्दी के विवेकी पाठकों का
ध्यान सबसे ज्यादा है।..मेरी कामना है कि हिन्दी की परम्परा में आप एक ध्रुवतारा
की तरह चमकें।’’
ज्ञान
रंजन
‘‘वर्षों से मेरी यह दृढ़ धारणा रही है कि हिन्दी व्यंग्य के इलाके में
शरद जोशी के बाद शैली की श्रेष्ठतम ऊँचाई का नाम ज्ञान चतुर्वेदी ही है। अपनी
डी.लिट्. के लिए सम्पन्न शोधकार्य में मैंने जो कुछ लिखा है, उसका
यही सारांश है।’’
बालेन्दु
शेखर तिवारी
व्यंग्य को हल्के-फुल्के विनोद से अलगाकर एक गम्भीर रचनाकर्म के रूप
में स्वीकार करने वाले नये व्यंग्यकारों में ज्ञान चतुर्वेदी का उल्लेखनीय स्थान
है।.....उन्होंने चालू नुस्खों की बजाय भारतीय कथा की समृद्ध परम्परा से अपने
व्यंग्य की रचनाविधि को संयुक्त किया है।...बेतालकथा की तरह रूपक, दृष्टान्त
और फैण्टेसी के माध्यम से उन्होंने समकालीन विसंगतियों के यथार्थ को अपेक्षाकृत
अधिक व्यापक और प्रभावशील ढंग से प्रतिबिम्बित किया है।
डॉ.धनंजय
वर्मा
‘‘आपकी स्फुट रचनाओं में बड़ी ताजगी है और दर्जनों तथाकथित
व्यंग्यकारों की कृतियों के विपरीत उनकी अपनी विशिष्टता भी।’’
श्रीलाल
शुक्ल
‘‘काश, हिन्दी में कुछ और ‘ज्ञान’ होते।
एक अकेला चना...। लेकिन मैं उसे चना भी नहीं कहूँगी। यह तो नश्तर-सा चुभता है, बारूद-सा
फटता है। कलम इतनी पैनी, इतनी धारदार, सटीक, ‘गलत’ को एकदम लथेड़ देती हुई। तल्खी कहाँ तक जा सकती है ! उतनी ही मारक और
बेधक भी।.....’’
सूर्यबाला
ज्ञान चतुर्वेदी ने परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी और श्रीलाल शुक्ला की व्यंग्य-परम्परा को न
केवल आगे बढ़ाया है, वरन कई
अर्थों में उसे और समृद्ध किया है। विषय-वैभिन्न्य तथा भाषा और शैलीगत प्रयोगों के
लिए वे हिन्दी व्यंग्य में विख्यात हैं। लकीर पीटने के सख़्त खिलाफ हैं; चाहे वह स्वयं उनकी खींची लकीर ही क्यों न हो।
कैफ़ी आज़मी
ज्ञान जी हस्तलिखित उनकी पाण्डुलिपि का एक पृष्ठ
और अंत में...
ज्ञान जी का पत्र हमारे नाम
अद्भुत आयोजन और संयोजन.
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