tag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post8614543124468043015..comments2024-02-27T02:30:50.715-08:00Comments on अभिप्राय: कविता अभी, बिल्कुल अभी...Rahul Devhttp://www.blogger.com/profile/15972309947622573643noreply@blogger.comBlogger12125tag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-41640384342749953932016-08-30T03:34:22.420-07:002016-08-30T03:34:22.420-07:00जरूरी दस्तक है ...........जरूरी दस्तक है ...........Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/08155653121685094778noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-44297721486225586962016-08-14T19:37:35.994-07:002016-08-14T19:37:35.994-07:00राहुल देव जी, सर्वप्रथम विमर्श के इस पहल का मैं तह...राहुल देव जी, सर्वप्रथम विमर्श के इस पहल का मैं तहेदिल से स्वागत करता हूँ। उमाशंकर सिंह परमार और अजीत प्रियदर्शी ने इस विमर्श के मार्फत बहुत जेनुइन सवाल उठाये हैं और नई सदी की कविता के विकास में हमारा ध्यान उन बाधाओं पर केंद्रित किया है जो आज के कविता की विकट चुनौती है। उमा बिलकुल सही कहते हैं कि" समकालीनता एक अस्पष्ट शब्द है।" इसे उन्होंने तर्क और तथ्य से संपुष्ट भी किया है। उनकी इस बात से सहमत होने में कोई गुरेज नहीं कि *"साठ के दशक से कविता में पूँजीवादी तत्वों का जबरदस्त प्रवेश हुआ । बडे अधिकारी, नौकरशाह, बडी बडी अकादमियों के अध्यक्ष, कुलपति, निदेशक और व्यापारी कारपोरेट जगत ने कविता मे सीधे हस्तक्षेप किया और तमाम सीकरी केन्द्रित लेखको कवियों मे खेमेबाजी गुटबाजी का फैशन चल पडा पुरस्कार और विश्वविद्यालय की मास्टरी के लालच ने इस प्रवृत्ति को बढाया इससे आलोचना और कविता दोनो का गलत प्रमाणन चल पडा जितने भी छद्म और अमौलिक लेखक कवि थे या जो जनपद और विचारधारा की ओट मे कलावाद के प्रबल हिमायती थे उन सबको इस अन्दरूनी साहित्यिक राजनीति ने मुख्यधारा कवि का बनाने की कोशिश की । ....<br />यदि इस दशक मे परिवर्तन की बयार चलती रही तो कविता सदियों से उपेक्षित हाशिए की आवाजों को लेकर मर खप रहे किसानों की भयावह स्थितियों को लेकर जरूर सामने आएगी और साहित्य पुनः अपनी मौलिक धारा को प्राप्त कर सकेगा जिसे पिछले कई दशकों से बुर्जुवा सत्तापोषित अभिजात्य लेखकों के समूह ने किडनैप कर रखा था । कविता मे इस साहित्यिक फासीवाद के टूटन का उपेक्षित दबी कुचली अस्मिताएं इतंजार कर रहीं हैं ।"*<br /> अजित प्रियदर्शी जी ने भी नयी सदी की कविताओं को लेकर कई वाज़िब चिंताएं जाहिर की हैं जिस पर सजग पाठक और कवि का ध्यान जाना चाहिए। उनकी बात को आज हर पाठक- कवि शिद्दत से महसूस कर रहा है कि इस सदी की अधिकतर कविताएँ *प्रोज पोएट्री* बनकर रह गयी है जो स्वगत कथन या वक्तव्य तक भर बनकर जाती है। अजीत प्रियदर्शी आगे कहते हैं कि * "लोक के वास्तविक अन्तर्विरोध, प्रतिरोध और जीवन संघर्ष तक पहुँचने के लिए लोकजीवन से जुड़ना आवश्यक है। लेकिन अधिकांश कवि मध्यवर्गीय हैं और शहरों में रहने के कारण लोकजीवन से कटे हुए हैं। आज की हिन्दी कविता आम आदमी से प्रायः कटी हुई है। अधिकांश कवि सुखी हैं और कविता में व्यक्त उनका दुःख व्यापक समाज का दुःख नहीं है। लेकिन आज की हिन्दी कविता में बड़ी संख्या में स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों की उपस्थिति एक आशाजनक परिदृश्य उपस्थित कर रहा है। इनके कारण कविता में हाशिए का समाज प्रवेश पा रहा है और हाशिए के सवाल कविता में उठाये जा रहे हैं। "*<br /> बाकी विद्वत्जनों की कमी नहीं । अपनी-अपनी राय है। मन है...। अपने अपने तरीके से सोचने को सभी स्वतंत्र हैं पर सोच से हक़ीक़त को तब तक बदला नहीं जा सकता जब तक कि मन को उद्वेलित कर उसके बदलाव की दिशा तय नहीं की जा सके । टिप्पणियों में मुझे गणेश पांडे सर की बातों से बहुत सहमत हूँ। वे काव्यगत रूढ़ियों और आलोचना के बूढ़े प्राचीन भुरभुरे क़िले को तोड़ने के पक्ष में हैं जिसका स्वागत होना चाहिए।Sushil Kumarhttps://www.blogger.com/profile/09252023096933113190noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-8658035492378955092016-08-14T14:40:50.401-07:002016-08-14T14:40:50.401-07:00मोहन जी, आप भी उसी लफ़्फ़ाज़ी पर उतर आए हैं, जो उमाशं...मोहन जी, आप भी उसी लफ़्फ़ाज़ी पर उतर आए हैं, जो उमाशंकर और गणेश जी करते रहे हैं। यहाँ गम्भीर विमर्श हो रहा है, कृपया विमर्श को विमर्श ही रहने दें। पुरस्कारों की वजह से ठहराव नहीं आया था। कविता ही नकली हो गई थी। वह जीवन से दूर हो गई थी। अशोक वाजपेयी की ’कविता की वापसी’ और उनके द्वारा की जाने वाली सरकारी ख़रीद की वजह से कवियों का ध्यान भी किताब और कविता की बिक्री में हो गया था, यह तो एक कारण हुआ। इससे इतर दूसरे क्या कारण थे? उस दौर में वैसी कविता लिखी जाने लगी थी, जो अशोक वाजपेयी और उनके गुट को पसन्द आए। हर कवि अशोक वाजपेयी गुट से जुड़ने और भारत भवन में कविता पढ़ने के लिए उत्सुक हो उठा था। लेकिन इसके अलावा भी कारण तो रहे होंगे।अनिल जनविजयhttps://www.blogger.com/profile/02273530034339823747noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-49686241995020919162016-08-14T14:40:22.036-07:002016-08-14T14:40:22.036-07:00Mohan Kumar Nagar लिखते हैं -- उमा जी ये थके चुके ...Mohan Kumar Nagar लिखते हैं -- उमा जी ये थके चुके डुकरे ये सब करके अपना बुढ़ापा बिगाड़ रहे हैं और अपने जीते जी ही खत्म हो रहे हैं ये भी तो देखिए .. मैं तो सोचता हूँ इनके विरोध में जाना ही छोड़ दूं अब क्योंकि ये जान बूझकर ऐसा कुछ करते हैं जिसके चलते इन पर बात हो .. ये परिदृश्य में रहें .. इन्हें सब पता होता है कि ये जो कर रहे हैं उससे कितना विरोध होगा? कितना बवाल .. तो क्या ? नाम तो होगा .. पर ये भूल रहे हैं कि इसके चलते क्या क्या है जो खो रहे हैं ये और क्या क्या मटियामेट भी कर रहे हैं। इन पर बात करनी बंद कर दें हमम तो ये खुद ही मर जाएंगेअनिल जनविजयhttps://www.blogger.com/profile/02273530034339823747noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-19081945588710660882016-08-14T14:37:41.393-07:002016-08-14T14:37:41.393-07:00आशीष की इस बात से भी पूरी तरह सहमत होना पड़ता है --...आशीष की इस बात से भी पूरी तरह सहमत होना पड़ता है -- 9वें दशक के कवियों में लोक के प्रति एक ख़ास तरह का आग्रह है। परन्तु यह लोक का छायाभास है, एक फिनिश्ड़ माल, जिससे सत्ता या बाज़ार किसी को असुविधा नहीं। यह न तो सामंतवाद का विरोध रच पाता है और न ही बजारवाद पर चोट कर पाता है। यहाँ गाँव अपने सार से रहित एक ‘मार्केट फ्रेंडली’ बिकाऊ माल है। इन्हें गाँव चाहिए, इन्हें लोक चाहिए पर उनके अंतर्विरोध और उनका क्रांतिकारी सार नहीं चाहिए। गहरे अर्थों में यह पिछली शताब्दी के अन्तिम दशकों में जगह बना रहे दलित और स्त्री अस्मिता की प्रतिक्रिया में स्थानीय सत्ता-संरचना का नया उभार है। मुझे ठीक-ठीक पता नहीं, कि इस लोक के प्रति मोह रखने वालों में कितने दलित और कितनी स्त्रियाँ हैं! अगर नहीं हैं तो इसके कारणों का पता लगाना होगा। कविताओं में जो चित्र गाँव या किसानी के आते भी हैं वे बड़े रोमांटिक क़िस्म के हैं। जैसे कोई शहरी मध्यवर्गी दूर से बैठ कर अपने गाँव को देख रह हो या फ़िर बीस-पचास वर्ष पूर्व के, स्मृतियों में बसे, गाँव को रच रहा हो।अनिल जनविजयhttps://www.blogger.com/profile/02273530034339823747noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-41114799696373149292016-08-14T14:36:56.490-07:002016-08-14T14:36:56.490-07:00आशीष मिश्र ने जिस बात की ओर ध्यान दिया है, वह बहुत...आशीष मिश्र ने जिस बात की ओर ध्यान दिया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। मैं भी बड़ी शिद्दत से इसे महसूस करता रहा हूँ। क्या इसका कोई जवाब है हमारे आलोचकों या कवियों के पास? वह बात यह है -- हिन्दी कविता के 20-30 वर्ष का समय करीब-करीब ठहरा हुआ स्थिर काल है। यह कैसे हुआ, क्या समाज स्थिर था, क्या राजनीतिक परिस्थितियाँ इतनी निश्चित और ठहरी हुई थीं? जाहिर सी बात है कि ऐसा नहीं था। इस बीच साहित्य के अन्य विधाओं में कविता की अपेक्षा ज़्यादा गहमा-गहमी रही। परन्तु कविता तक़रीबन स्थिर रही। और अगर कविता की जड़ता को थोड़ा बहुत झटका लगा तो वह दलितों और स्त्रियों से। दलितों और स्त्रियों ने इस ठहराव को तोड़ा। हालाँकि अभी इसका मूल्याँकन होना बाक़ी है। पर जब होगा तो पता चलेगा कि सवर्ण मर्द कितने अनुकूलित थे।अनिल जनविजयhttps://www.blogger.com/profile/02273530034339823747noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-82270613854747950332016-08-14T14:36:10.396-07:002016-08-14T14:36:10.396-07:00आज की कविता को लेकर प्रस्तुत इस विमर्श में दो लेख ...आज की कविता को लेकर प्रस्तुत इस विमर्श में दो लेख बेहद प्रभावशाली हैं। लेकिन विस्तार से आज की कविता पर आशीष मिश्र ने जो बातें कही हैं, उनसे मैं पूरी तरह से सहमत हूँ। अजीत प्रियदर्शी ने अपनी बात विस्तार से नहीं कही, लेकिन वे भी कहीं न कहीं आशीष मिश्र का समर्थन ही कर रहे हैं। उमाशंकर सिंह परमार ने लेख के शुरू में एकदम उचित बात कही कि कविता की प्रवृत्तियों का निर्धारण करते हुए रचनाकारों की पीढ़ी के अन्तर पर ध्यान देना भी ज़रूरी है। लेकिन उसके बाद वे लफ़्फ़ाज़ी पर उतर आए और कवि गणेश पाण्डेय की तरह बस दिल्ली और पुरस्कारों का विरोध कर रहे हैं। जबकि कविता की प्रवृत्तियाँ न तो पुरस्कार तय करते हैं और न दिल्ली। आशीष मिश्र का लेख विस्तार से प्रवृत्तियों की बात कर रहा है। उन्हें साधुवाद।अनिल जनविजयhttps://www.blogger.com/profile/02273530034339823747noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-60457431262592710142016-08-13T19:47:30.720-07:002016-08-13T19:47:30.720-07:00बहुत अच्छा विषय रखा है। और व्यापकता से बात कही गई ...बहुत अच्छा विषय रखा है। और व्यापकता से बात कही गई है। यह अवश्य है कि सभी को पढ़कर एक तस्वीर बनाई जा सकती है, किंतु यह भी मजेदार है कि इन मतों में भी विरोधी तत्व कम नहीं है। मजा तो तब आता जब सभी विचारक अपनी बात के साथ कवियों को भी उद्धृत करते, फिर यहाँ भी कुछ खेमे देखे जा सकते...asmurarihttps://www.blogger.com/profile/16869905021434835844noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-78707944150947602792016-08-13T10:13:38.091-07:002016-08-13T10:13:38.091-07:00अपनी टिप्पणी को थोड़ा विस्तार देते हुए यह प्रसन्नता...अपनी टिप्पणी को थोड़ा विस्तार देते हुए यह प्रसन्नता जाहिर करना कर्तव्य समझता हूँ कि इस प्रथम चरण मेंं जिन कवि-आलोचकों का चुनाव किया गया है, वे सभी आज साहित्य को नए सिरे से परिभाषित करने कोतत्पर हैं।इन सभी में कविता को गहरे औऱ व्यापक अर्थों मेंं देखने का सशक्त विवेक है।बधाई देता हूँ सभी युवा तेवरों को, उनकी साहसिक औऱ व्यापक दृष्टि के लिए।Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-74131233607393293942016-08-13T10:12:40.723-07:002016-08-13T10:12:40.723-07:00अपनी टिप्पणी को थोड़ा विस्तार देते हुए यह प्रसन्नता...अपनी टिप्पणी को थोड़ा विस्तार देते हुए यह प्रसन्नता जाहिर करना कर्तव्य समझता हूँ कि इस प्रथम चरण मेंं जिन कवि-आलोचकों का चुनाव किया गया है, वे सभी आज साहित्य को नए सिरे से परिभाषित करने कोतत्पर हैं।इन सभी में कविता को गहरे औऱ व्यापक अर्थों मेंं देखने का सशक्त विवेक है।बधाई देता हूँ सभी युवा तेवरों को, उनकी साहसिक औऱ व्यापक दृष्टि के लिए।Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-16564805536068072762016-08-13T09:37:08.149-07:002016-08-13T09:37:08.149-07:00बहुत जरूरी उद्देश्य हासिल करने का पहला कदम।परन्तु ...बहुत जरूरी उद्देश्य हासिल करने का पहला कदम।परन्तु तस्वीर तभी आइने की तरह साफ होगी जब सच को दरसत्य की तरह पेश करने वाले निरपेक्ष विवेक से लबरेज परम साहसी आलोचकों को चुना जाय, वरना 50 वर्षों से गोल मोल तुतलाने वाले सैकड़ोंं आलोचक आए और..... परन्तु हिंदी कविता के आकाश से संकट के बादल छंटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।फिर भी बहुत आशा जगाने वाली है यह नवचेतनावादी पहल।Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447093874982861178.post-36845389368417698102016-08-13T09:36:26.045-07:002016-08-13T09:36:26.045-07:00बहुत जरूरी उद्देश्य हासिल करने का पहला कदम।परन्तु ...बहुत जरूरी उद्देश्य हासिल करने का पहला कदम।परन्तु तस्वीर तभी आइने की तरह साफ होगी जब सच को दरसत्य की तरह पेश करने वाले निरपेक्ष विवेक से लबरेज परम साहसी आलोचकों को चुना जाय, वरना 50 वर्षों से गोल मोल तुतलाने वाले सैकड़ोंं आलोचक आए और..... परन्तु हिंदी कविता के आकाश से संकट के बादल छंटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।फिर भी बहुत आशा जगाने वाली है यह नवचेतनावादी पहल।Anonymousnoreply@blogger.com