मेरी चिट्ठी पप्पा के नाम
नेहा शरद
प्यारे पप्पा,
जब भी ऊपर नीला आसमान
मुस्कुराता हुआ दिखता है, मुझे लगता है आपने ख़ुदा को
अपना लिखा हुआ कोई नया लेख पढ़ कर सुना दिया है ! आपके जाने के कुछ समय पहले आपके
खास दोस्त, सम्पादक राजेंद्र माथुर भी चल बसे। सबने कहा
ऊपरवाला कोई नया अख़बार शुरू कर रहा है और उसे आपकी ज़रुरत है !
वहां भी आम आदमी और देश को
लेके आपकी चिंताएं कम नहीं हुई होंगी । आपके ४५०० लेखों को हमने बहुत सम्भाल कर
रखा है । प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा आज से ३५ साल पहले लिखा हुआ लेख भी ऐसा लगता
है जैसे हाल ही में लिखा हुआ लेख है । आजकल एक जी का जंजाल व्हाट्स अप है ,जहाँ आपके इस लेख ने धूम मचा दी
है । समस्याएं, चाहे आपके लिखे राजनेता पर हों या राजनीति, दलदल बढ़ता ही
जा रहा है । बदलाव आएं है,पर सिर्फ समीकरण बदले हैं और कुछ भी नहीं !
व्यंग्यकारों की एक नयी पौध
आ गयी है, जो आश्वस्त तो करती है, पर वो प्रतिबद्धता नहीं है
जो आपकी लेखनी में थी । सरोकार की भी कमी है । क्या व्यंग्य विधा है, ये बहस अभी भी जारी है जो प्रश्न आपसे किया जाता था । बहरहाल एक डॉक्टर ने आपको इंजेक्शन लगाए थे
उससे उनका साहस बहुत बढ़ गया और वे व्यंगकार भी आले दर्जे के बन गए हैं, आज हम आपके नाम से उन्हें पुरुस्कृत कर रहे हैं ।
मुंबई में भी व्यंग्य समृद्ध
हो यही कामना है ।
आज भी वहां आपको रोज़ २०-२५
लोग/आत्माएं घेर कर बैठती होंगी, नए-नए विषयों पर बात
करने के लिए, क्या मम्मी उन्हें भी दिन भर चाय पिलाती हैं ?
माँ की महिमा का बखान तो सभी
करते हैं पर पिता का जाना एक दरख़्त के गिरने जैसा होता है जिसमें आवाज़ नहीं होती
पर उसका जाना भी जीवन भर सालता रहता है । आपके समकालीन आपकी तुलना कबीर और मार्क
ट्वेन से करते थे, अब धीरे -धीरे उसका अर्थ समझ
में आ रहा है । कुछ लोगों ने मुझ से कहा कि तुम बहुत बढ़िया काम काम कर रही हो अपने
पिता के लिए, मैं मुस्कुरा दी क्योंकि मैं जानती हूँ,
आपसे जुड़े रहने से हमारी अपनी ग्रोथ होती है, सोल
सर्चिंग वाला मसला है । जो भी आपके कार्यक्रम में आते हैं अवश्य कुछ पाकर ही
जाएंगे।
आपके जाने के बाद लगातार १७
साल तक हमने 'शरद संध्या' में और
देश, विदेश में आपकी रचनाओं का पाठ किया है । प्रभाष जोशी, ज्योति महेश्वरी, शशि और सुभाष मिश्रा, सुरेन्द्र जी, विश्वनाथ जी, सुभाष
जी, वि पी सिंह जैसे
कई नाम आपकी लेखनी की वजह से जुड़े हैं । राजन नटराजन, सुदर्शन
जी, प्रमिला जी जैसे कई जाने अनजाने चहरे पिछले १७ वर्षों से
हमसे जुड़े हुए हैं ।
कई बार लगता है आप हमें किसी
वेटिंग रूम में छोड़ कर चले गए है, ऐसे समय में तुरंत आपकी
पुस्तक उठा कर पढ़ने लगती हूँ ।
पिछले 7-8 वर्षों में देश
में, राजनीति में कई नए नाम उभरे हैं, सोचती हूँ आप होते
तो उनपर क्या लिखते ।
व्यंग्यकारों और
व्यंग्यप्रेमियों को यूँ ही अपना प्रेम देते रहें,
आपकी
लाड़ली
................................................................
*शरद जी की सुपुत्री नेहा जी फिल्म लेखिका हैं | मुंबई में रहती हैं |
व्यंग्यकार शरद जोशी
: एक स्मरण
शरद जोशी ने लिखा था,
‘‘लिखना मेरे लिए जीने की तरकीब है․ इतना लिख
लेने के बाद अपने लिखे को देख मैं सिर्फ यही कह पाता हूँ कि चलो, इतने बरस जी लिया․ यह न होता तो इसका क्या विकल्प होता,
अब सोचना कठिन है․ लिखना मेरा निजी उदे्श्य
है․'
21 मई 1931 को जन्मे शरद जोशी ने 25 साल तक कविता के मंच से गद्य पाठ किया․ वह देश के पहले व्यंग्यकार थे जिन्होंने पहली बार मुंबई में ‘चकल्लस' के मंच पर 1968 में गद्य पढ़ा और किसी कवि से अधिक लोकप्रिय हुए․ बिहारी के दोहे की तरह शरद जोशी अपने व्यंग्य का विस्तार पाठक पर छोड़ देते है
आज के दौर में लोग व्यंग्य से दूर हो रहे है क्योंकि सामाजिक परिस्थितियाँ इतनी खराब होती जा रही है कि लोग व्यंग्य के शब्दों में छिपी बेदना को अभिव्यक्त करने वाले को स्वीकार करने में हिचकने लगे है, इस अमानवीय समय में मनुष्यता और रिश्तों को बचाना जरूरी है․ जब पूरी दुनिया एक बाजार में तब्दील हो चुकी है, जहाँ सब कुछ विकाउ हो जाने की संभावनाएँ मौजूद है, ऐसे मे शरद जोशी का व्यंग्य की प्रासंगिकता बढ़ जाती है․ शरदजोशी आजकल के व्यंग्यकारों की तरह बाजार को देखकर नहीं लिखते थे․ उनके व्यंग्य परिस्थितिजन्य होने के साथ उनमें सामाजिक सरोकार होते थे जबकि आजकल के व्यंग्यकारों में सपाटबयानी अधिक होती है․ वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले ने ठीक कहा है कि ‘‘वैश्वीकरण और भ्रष्टाचार जैसी चुनौतियों के बीच कोई ऐसा व्यंग्यकार नही है जो हमें विनोद की बजाय चुटकी लेकर जगाए․''
व्यंग्यकार शरद जोशी अपने समय के अनूठे व्यंग्यकार थे․जहां एक तरफ पारसाई के व्यंग्य में कडवाहट अधिक है वहीं शरद जोशी के व्यंग्य में कडवाहट के साथ हास्य, मनोविनोद और चुटीलापन दिखाई देता है जो उन्हें जनप्रिय रचनाकार बनाता है․अपने वक्त की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों को उन्होंने अत्यंत पैनी निगाह से देखा और बड़ी साफगोई के साथ उसे सटीक शब्दों में व्यक्त किया․ उन्होंने लिखा कि ‘‘हिन्दी में पाठक की तलाश एक मरीचिका है और शुद्ध लेखक आदर्श जीवन की कल्पना है․ हिन्दी साहित्य दोनों की अनुपस्थिति में फूल-फल रहा है, यह अपने आप में चमत्कार है․''
शरद जोशी की दूरदर्शिता की एक बानगी देखिए जब वे लिखते है कि ‘‘साहित्यकारों ने पिछले वर्षों में बड़े एण्टी आंदोलन चलाये, अकहानी, अकविता, अनाटक․ मगर आगे पाठक अपुस्तक का आंदोलन चलाएगा․ किताबों से इंकार का आंदोलन और वह साहित्यकारों को बड़ा भारी पड़ेगा․'' आज संजाल के जाल में हम किताबों से इंकार का आंदोलन ही तो चला रहे है․ पाठकों ने पुस्तक के बजाए ई-पुस्तक पढ़ना शुरू कर दिया है․
22 जनू 1975 को शरद जोशी ने ‘पचास साल बाद-शायद' में लिखा कि ‘‘हिन्दी में दृढ़ विश्वास को व्यक्त करने के लिए सबसे सशक्त शब्द ‘शायद' ही है इसलिए मैं ‘शायद' लगा रहा हूँ․ उनके व्यंग्य लेखों का संग्रह ‘पिछले दिनों' में शरद जोशी ने जहां सामाजिक स्थितियों को नई दृष्टि देते हुए सही दिशा की ओर इंगित करते है वहीं दूसरी ओर उनकी तीक्ष्णता और पैनेपन से पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता․‘यत्र तत्र सर्वत्र' उनकी 101 व्यंग्य रचनाओं का संग्रह है जिसे पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि शरद जोशी अपने चिंतन और लेखन के स्तर पर व्यापक मानवीय सरोकारों के साथ कितनी संवेदनशीलता और बौद्धिक सघनता से जुड़े हुए थे․ समकालीन जीवन और समाज की तमाम समस्याओं और विसंगतियों में एक सिद्धहस्त व्यंग्यकार की बहुत कुछ तोड़ने और बनाने की भीतरी छटपटाहट भी उनके व्यंग्यात्मक निबंध संग्रह ‘यथासमय', जीप पर सवार झल्लियां', रहा किनारे बैट' में देखा और पढ़ा जा सकता है․ उनके सम्पूर्ण साहित्य में से सौ बेहतरीन रचनाएं स्वयं शरद जोशी द्वारा चुनी हुई ‘यथासंभव' में संकलित है․ अपनी चिर-परिचित शालीन भाषा में वे कहते है कि ‘‘मैंने हिन्दी में व्यंग्य साहित्य का अभाव दूर करने की दिशा में ‘यथासंभव' प्रयास किया है'' यह कहना अतिशओक्ति नहीं होगी कि शरद जोशी ने हिन्दी के गंभीर व्यंग्य को करोड़ों लोगों तक पहुंचाया․ उनके व्यंग्य संग्रहों से गुजरते हुए प्रेम, सौंदर्य, राजनीति, साहित्य, भाषा, पत्रकारिता, नैतिकता आदि तमाम विषयों पर पाठक उनके बेलौस और बेधक प्रतिक्रियाएं देख-पढ़ सकते हैं․
शरद जोशी ने टेलीबिजन के लिए ‘ये जो है जिंदगी', बिक्रम वैताल, सिहांसन बत्तीसी', बाह जनबा, देवीजी, प्याले में तूफान, दाने अनार के और ये दुनिया गजब की, धारावाहिक लिखें․ इन दिनों ‘सब' चैनेल पर उनकी कहानियां और व्यंग्य आधारित सिटकॉम, लापतागंज प्रसारित किया जा रहा है जो काफी सराहा भी गया है․ उन्होंने छोटी सी बात, सांच को आंच नहीं, गोधूलि, क्षितिज और उत्सव जैसे सफल फिल्मों की पटकथा भी लिखा․ शरद जोशी की मृत्यु 23 वर्ष पूर्व 5 सितंबर 1991 को मुंबई में हुई थी लेकिन उनकी लोकप्रियता आज भी वैसे ही बरकरार है जैसे उनके जीवनकाल में थी․ उनके कटाक्ष आज भी उतने ही प्रासंगिक है
-राजीव आनंद
माँ की महिमा का बखान तो सभी करते हैं पर पिता का जाना एक दरख़्त के गिरने जैसा होता है जिसमें आवाज़ नहीं होती पर उसका जाना भी जीवन भर सालता रहता है । -
ReplyDeleteबहुत खूब 👌
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आशाओं के रथ पर दो वर्ष की यात्रा - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteनेहा जी का लेख प्रशंसनीय है। शरद जी को नमन।
ReplyDeleteनेहा जी का लेख प्रशंसनीय है। शरद जी को नमन।
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