Saturday 28 May 2016

तीन कवि : तीन कविताएँ – 22


गुजरात के मृतक का बयान / मंगलेश डबराल

पहले भी शायद मैं थोड़ा थोड़ा मरता था
बचपन से ही धीरे धीरे जीता और मरता था
जीवित बचे रहने की अंतहीन खोज ही था जीवन
जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया
तब तक मुझे आग के ऐसे इस्तेमाल के बारे में पता भी नहीं था
मैं तो रंगता था कपड़े तानेबाने रेशेरेशे
चौराहों पर सजे आदमक़द से भी ऊँचे फिल्मी क़द
मरम्मत करता था टूटीफूटी चीज़ों की
गढ़ता था लकड़ी के रंगीन हिंडोले और गरबा के डाँडिये
अल्युमिनियम के तारों से छोटी छोटी साइकिलें बनाता बच्चों के लिए
इस के बदले मुझे मिल जाती थी एक जोड़ी चप्पल एक तहमद
दिन भर उसे पहनता रात को ओढ़ लेता
आधा अपनी औरत को देता हुआ

मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
वह मुझे बचाने के लिए खड़ी थी मेरे आगे
और मेरे बच्चों का मारा जाना तो पता ही नहीं चला
वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख़ भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था पता नहीं उसका क्या हुआ
मेरे हाथों का ही पता नहीं क्या हुआ
उनमें जो जीवन था जो हरकत थी वही थी उनकी कला
और मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मारे जा रहे हों एक साथ बहुत से दूसरे लोग
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मक़सद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मक़सद हो

और जब मुझसे पूछा गया तुम कौन हो
क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम
कोई मज़हब कोई तावीज़
मैं कुछ नहीं कह पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था
सिर्फ़ एक रंगरेज़ एक कारीगर एक मिस्त्री एक कलाकार एक मजूर था
जब मैं अपने भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की
जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे अल्युमिनियम के तारों की साइकिल के
नन्हे पहिए
तभी मुझपर गिरी आग बरसे पत्थर
और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ फैलाए
तब तक मुझे पता नहीं था बंदगी का कोई जवाब नहीं आता

अब जबकि मैं मारा जा चुका हूँ मिल चुका हूँ
मृतकों की मनुष्यता में मनुष्यों से भी ज़्यादा सच्ची ज़्यादा स्पंदित
तुम्हारी जीवित बर्बर दुनिया में न लौटने के लिए
मुझे और मत मारो और न जलाओ न कहने के लिए
अब जबकि मैं महज़ एक मनुष्याकार हूँ एक मिटा हुआ चेहरा एक
मरा हुआ नाम
तुम जो कुछ हैरत और कुछ खौफ़ से देखते हो मेरी ओर
क्या पहचानने की कोशिश करते हो
क्या तुम मुझमें अपने किसी स्वजन को खोजते हो
किसी मित्र परिचित को या खुद अपने को
अपने चहरे में लौटते देखते हो किसी चेहरे को.



इस देश में / बृजेश नीरज

इस देश में
चीख
संगीत की धुन बन जाती है  
जिस पर थिरकते हैं रईसजादे
पबों में

सुन्दर से ड्राइंग रूम में सजती है
द्रौपदी के चीर हरण की
तस्वीर

रोटी से खेलती सत्ता के लिए
भूख चिंता का विषय नहीं बनती
मौत की चिता पर सजा दी जाती है
मुआवजे की लकड़ी

किसान की आत्महत्या
आंकड़ों में आपदा की शिकार हो जाती है

धर्म आस्था का विषय नहीं
वोटों की राजनीति में
महंतों और मुल्लाओं की कठपुतली है

झंडों के रंग
एक छलावा है
बहाना भर है चेहरे को छुपाने का

तेज़ धूप में पिघलते
भट्टी की आग में जलते
आदमी की शिराओं का रक्त
पानी बनकर
उसके बदन पर चुहचुहाता है
गंध फैलाता है हर तरफ

इस लोकतंत्र में
आदमी की हैसियत रोटी से कम
और भूख उम्र से ज्यादा है




मेरे पास जो है बचा हुआ / शहंशाह आलम

तुम्हें हमेशा की तरह
चाँद चाहिए था आधी रात का
ओसकण से भीगा हुआ
तुम्हारी देह की तरह

शब्द चाहिए था चौरंगा
भाषा चाहिए थी
गिलहरी की पूँछ की तरह मुलायम
सच यही है सच के जैसा इनदिनों
किसी घृणा की तरह घृणित
तुम्हें देने के लिए मेरे पास
लाल तपा हुआ सूरज है
अपने सातों घोड़ों से विलग
पक्षी हैं पसीने से भरे हुए
कड़कड़ शब्द हैं
शहद के छत्ते से विरत
न चमत्कार है
न स्वप्न खंड है
पानी से विमुख
पानी से उदासीन
पानी से विरत
यह समय है बजबजाता हुआ सा
और यह कठोर समय
बढ़िया जैसा कुछ
देने कहाँ देगा

तुम्हारी रात के किसी किस्से में

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