Saturday, 14 May 2016

समकालीन महिला काव्य-लेखन : दिविक रमेश



स्त्री छवि: मिथक ऒर यथार्थ
                       
      यद्यपि शीर्षक में आए  शब्द अर्थात ’स्त्री छवि’, मिथक’ ऒर ’यथार्थ’ अपने नये से नये अर्थ में विचारणीय हॆं तो भी यह मानते हुए कि अधिकतर उस अर्थ से अनजान नहीं हॆं, अपनी बात रखना चाहूंगा

      प्रारम्भ में ही यदि पद्मा सचदेव के हवाले (सबद मिलावा, पृ० 212)  से कहा जाए तो यह जानना भी दिलचस्प होगा कि कविता के क्षेत्र में महिला लेखन पुरुष लेखन की अपेक्षा कम हॆ।  उनके अनुसार,"लड़की कवयित्री हो तो लोग प्रशंसा की नज़र से देखते हॆं । आज तो मॆदान में कवयित्रियां आनी चाहिए । कहानी में जितनी स्त्रियां गतिशील हॆं उतनी कविता में नहीं हॆं ।"कुछ ऎसा ही मत श्रीमती धर्मा यादव ने अपने लेख स्त्री विमर्श ऒर हिन्दी स्त्री लेखन में व्यक्त किया हॆ-"कविता में व्यक्त संवेदना की अपेक्षा स्त्री चेतना की कथा साहित्य में व्यापकता मिलती हॆ ।"(streevimarsh.bolgspot.com) । इसी लेख में उन्होंने नारी मुक्ति के संघर्ष के इतिहास पर भी अच्छी दृष्टि डाली हॆ । हिन्दी में पहला स्त्री काव्य संकलन-’मृदुवाणी (1905) को माना गया हॆ जिसमें 35 कवयत्रियां संकलित हॆं ऒर जिसका प्रकाशन मुंशी देवी प्रसाद के द्वारा किया गया था ।इसके अतिरिक्त 1933 में प्रकाशित गिरिजादत्त शुक्ल ऒर ब्रजभूषण द्वारा संपादित ’हिन्दी काव्य कोकिलाएं’ऒर 1938 में ज्योतिप्रसाद ’निर्मल’ द्वारा प्रकाशित ’स्त्री कवि संग्रह’ का भी उल्लेख किया जा सकता हॆ । मॆं विनम्र निवेदन करना चाहूंगा कि अभी हमारी सभी कवयित्रियों को पूरी तरह पढ़ा ऒर मूल्यांकित नहीं किया गया हॆ ।
तो भी स्त्री छवि को स्त्री लेखन (कविता) के माध्यम से समझने की कोशिश करते हुए मॆंने पाया हॆ कि एक ओर जहां पितृसत्तात्मक प्रवृति के चलते बना दी गई स्त्री छवि को सीधे-सीधे प्रश्नों के घेरे में डाला गया हॆ, यहां तक कि कभी-कभार आत्मालोचन के रूप में भी जॆसे शकुन्त माथुर की कविता "नारी का संदर्भ" (लहर नहीं टूटेगी) में ऒर कभी- कभी उसके विध्वंस की भी राह खोजने का प्रयत्न किया गया हॆ वहां दूसरी ओर स्त्री की उपलब्ध मिथकीय छवियों को भी अनेक रूपों में मथा गया हॆ।
हिन्दी की समकालीन कवयित्रियों ने बहुत बार भारतीय मिथकीय नारी पात्रों के माध्यम से भी आज की नारी को आवाज़ दी हॆ। इस आवाज़ देने के अपने-अपने ढ़ंग रहे हॆं । कभी मिथकीय नारी पात्रों की कमज़ोरियों को ललकार कर. कभी उनके भीतर की ओझल या दोयम दर्जे की कर दी गई शक्ति को पहचान कर ऒर कभी उन्हें कमज़ोर कर देने वाली स्थितियों ऒर अन्य पुरुष या स्त्री पात्रों की खबर लेकर, इत्यादि । एक दिलचस्प प्रश्न यह भी हॆ कि आज की सोच या दृष्टि की अभिव्यक्ति के लिए मिथकीय पात्रों ऒर घटनाओं का सहारा क्यों लिया जाए । लेकिन इस सच को तो स्वीकार करना ही होगा न कि अनेक पुरुष-लेखन की भाँति महिला-लेखन में भी मिथकीय सहयोग मॊजूद हॆ ऒर हक़ीक़त भी हॆ। इस बात को भी ध्यान में रख कर आगे बढ़ना होगा।

      एक छोटी सी कविता  हॆ - ’पढ़िए गीता’  1960 में प्रकाशित रघुवीर सहाय की पुस्तक ’सीढ़ियों पर धूप मे’ संकलित हॆ :

पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सब में लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घर बार बसाइये ।

होंय कँटीली
आँखें गीली
लकड़ी सीली, तबियत ढीली
घर की सब से बड़ी पतीली
भर कर भात पसाइये ?
     
अर्थ, मॆं समझता हूं, साफ हॆ । स्त्री की एक छवि सत्य ही यह रही हॆ कि वह सीता की तरह हो । लेकिन प्रश्न यह उठना चाहिए था कि यह सीता की तरह होना क्या हॆ । यह होना क्या मात्र वही हॆ जो हमने सुना या प्रचारित मात्र हॆ । वाल्मीकि रामायण को यदि हम स्रोत मान लें ऒर उसे प्राय: स्रोत माना भी जाता हॆ तो क्या हमने उसमे वर्णित ’अग्नि परीक्षा’ प्रसंग ऒर उस प्रसंग में चित्रित ’सीता’ की प्रबुद्ध छवि को स्वयं पढ़ा-समझा हॆ । युद्धकाण्ड(षोडधिकशततम:सर्ग) का यह पसंग एक अर्थ में ’नारी विमर्श’ को भी सामने लाता हॆ ऒर वह भी संतुलित रूप में । सीता जानती हॆ कि नारियों में भी कुछ नीच प्रवृत्ति की हो सकती हॆं लेकिन ओछे तो कुछ पुरुष भी होते हॆं । ध्यान देने की बात यह हॆ कि उस समय की सीता अर्थात मूल सीता राम के लांछनों को यूं ही नहीं स्वीकार कर लेती । वह बाकायदा तीखे ऒर करारे, कहा जा सकता हॆ आज के से प्रश्न करती हॆ । पति को संबोधित भले ही ’वीर’, नृपश्रेष्ठ आदि शब्दों से  करती हो लेकिन किसी भी आत्मसजग, स्वाभिमानी नारी अथवा व्यक्ति की तरह राम के कटु वाक्यों के सामने अपने शब्दों को तान देती हॆ। राम को, उनके उस व्यवहार के नाते, ’निम्न श्रेणी का मनुष्य’, ’ओछा मनुष्य’ तक कहने का दमखम रखती हॆ। वह किसी भी समझदार इंसान की तरह पति राम को इन शब्दों में समझाने का भी प्रयत्न करती हॆ:"नीच श्रेणी की स्त्रियों का आचरण देखकर यदि आप समूची स्त्री जाति पर ही संदेह करते हॆं तो यह उचित नहीं हॆ ।"मुश्किल यह हॆ कि राम या ईश्वर भीरू हमारे मन , सहज ऒर न्यायसंगत होने के बावजूद स्त्री ऒर वह भी पत्नी रूपा सीता के उक्त आचरण को कॆसे सही कहने का साहस करे । अगर-मगर करने पर विवश होना ही पड़ता हॆ ।एक बहुत ही नयी, अजानी सी युवा कवयित्री अंजु शर्मा हॆ जिसकी कुछ कविताएं ऒर वक्तव्य लखनऊ से प्रकाशित जनसंदेश (30 अक्टूबर, 2011) में पढ़ने का मॊका मिला । बहुत ही मॊजू ऒर सटीक लगा यह विचार-" स्त्री चाहे पॊराणिक काल की हो या आधुनिक युग की, वह सदॆव ऎसे प्रश्नों से जूझती रही हॆ, जिनका उत्तर मांगने तक का उपक्रम, दुस्साहस ही कहलाता हॆ "। लेकिन  मिथकीय सीता की इस छवि को मॆंने अपने काव्य-नाटक "खण्ड-खण्ड अग्नि" में, बिना मिथकीय सॊन्दर्य’ को आघात पहुंचाए ऒर अधिक रूप में उभारने का प्रयत्न किया हॆ ।   

       मॆं मिथ या मिथक के संदर्भ में ’मिथ इज द रियल्टी ऑफ इट्स टाइम’ अर्थात मिथ अपने समय का यथार्थ होता हॆ मानने वालों का पक्षधर हूं  । अर्थात मिथ को केवल उसके रंग-रूप या उसकी मिथकीय छवि के आधार पर नहीं बल्कि उसकी तहों में छिपे यथार्थ को समझने के रूप में भी ग्रहण करना चाहिए । इधर मिथ ऒर इतिहास को लेकर भी नया चिन्तन हुआ हॆ । मेरा एक लेख हॆ मिथक: अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम (पुस्तक: संवाद भी, विवाद भी ) । उसमें मॆंने इस विषय पर थोड़े विस्तार से विचार किया हॆ । मॆंने वहां लिखा था :"अंग्रेजी के शब्द मिथ का हिन्दी रूप मिथक है और इस शब्द का प्रयोग आधुनिक काल में हुआ। यह शब्द हिन्दी जगत को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से मिला। ध्यान देने योग्य बात यह है कि मिथ और मिथक अपनी अर्थगत संकल्पनाओं में समान नहीं हैं। मिथ प्राय: तर्क के विपरीत कोरा कल्पनाधर्मी अधिक माना जाता रहा है जबकि मिथक अलौकिकता का पुट रखते हुए भी लोकानुभूति का वाहक होता है। मिथ के कल्पनाधर्मी अर्थ को मानने वाले वेदों और पुराणों को इतिहास से परे कल्पना का     चमत्कार मानते रहे हैं। इधर यह धारणा बदली है। इतिहास और मिथ या पुराणकथाओं के बीच की खाई संकल्पना के धरातल पर बहुत हद तक पट चुकी है।....प्रतिनिधि मत के रूप में कहा जा सकता है कि मिथ या कहें मिथक कोरी कल्पना या गप्पबाजी न होकर, कल्पना के खोल में अपने समय का एक सामाजिक यथार्थ होता है। ...। असल में सत्रहवीं-अठाहरवीं शताब्दियों में कपोल-कल्पना समझा जाने वाला मिथ मनोविज्ञान और विज्ञान के नवोन्मेष के साथ अपना अर्थ बदलने लगा।  इसे कविता की तर्ज पर एक खास प्रकार का सत्य ही माना गया। ऐतिहासिक सत्य का पूरक। इसलिए यदि कोई रचनाकार मिथक को लेकर अपने समय की रचना करना चाहता है तो उसे पहले मिथक के गहरे में निहित सामाजिक यथार्थ को पकड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। अन्यथा या तो रचनाकार मिथक के अभिधात्मक रूप में ही उलझ कर रह जाएगा अर्थात थोड़े-बहुत संशोधन करता हुआ मात्र कथाधर्मी रह जाएगा अथवा उसके अपने सौन्दर्य को नष्ट-भ्रष्ट करके मानेगा।...अत: आगे का रचनाकार मिथक आधारित अपनी रचना में मिथक की केवल नई व्याख्या करने तक सीमित नहीं रहता और न ही उससे      जुड़ी रूढ़ियों से उसे मुक्त कराने मात्र तक। बल्कि समर्थ रचनाकार मिथक में निहित देशकालातीत राग तत्व अर्थात सत्य तक पहुंचकर अपने समय के सत्य को अभिव्यक्त करता है। इस अर्थ में वह मिथक में निहित सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक तत्व का संधान कर, अपने समय के सत्य को वे ही विशेषताएं प्रदान करता हुआ उसमें आत्मसात करता है।" यहां मॆं भगवत       शरण उपाध्याय की पुस्तक "भारतीय समाज का ऎतिहासिक विश्लेषण" में प्रकाशित लेख ’नारी की अधोध: प्रगति’ का भी उल्लेख करना चाहूंगा । इस लेख के माध्यम से हम भारतीय    नारी की शक्ति, उसके अधिकारों, उसके सम्मान आदि को अपनी सांस्कृतिक ऒर ऎतिहासिक विरासत के संदर्भ में भी समझने का प्रयास कर सकते हॆं । उसकी बनती-बिगड़ती छवि का जायजा ले सकते हॆं । वस्तुत: मॆं मिथक को अभिव्यक्ति का एक सशक्त साधन मानता हूं । हमारी हिन्दी कवयित्रियों की मिथक प्रेरित अनेक रचनाएं हॆं जिनके माध्यम से भी इस मत की पुष्टि की जा सकती हॆ ।

हमारे महिला लेखन (काव्य) में जिन मिथकीय नारी पात्रों को प्राय: आधार बनाया गया हॆ, वे हॆं - सीता, गांधारी, माधवी, कुंती, अहल्या, शकुन्तला, सावित्री, यशोधरा ऒर द्रॊपदी । मेरी निगाह में  आने वाले अन्य पात्रों में सरस्वती ऒर पार्वती भी हॆ । मॆं पहले कह चुका हूं कि हिन्दी की समकालीन कवयित्रियों के भारतीय मिथकीय नारी पात्रों के माध्यम से आज की नारी को आवाज़ देने के अपने-अपने ढ़ंग रहे हॆं । कभी मिथकीय नारी पात्रों की कमज़ोरियों को ललकार कर. कभी उनके भीतर की ओझल या दोयम दर्जे की कर दी गई शक्ति को पहचान कर ऒर कभी उन्हें कमज़ोर कर देने वाली स्थितियों ऒर अन्य पुरुष या स्त्री पात्रों की खबर लेकर, इत्यादि । इनमें सुनीता जॆन की राह अलग सी भी हॆ । उनकी एक महत्त्वपूर्ण कृति हॆ-"क्षमा"  जिसमें पत्नी रत्नावली ऒर पति तुलसीदास को केन्द्र में रखकर स्त्री-सरोकार को व्यक्त किया गया हॆ । मिथकीय पात्रों को भी माध्यम बनाया गया हॆ। लेकिन बहुत ही संतुलित ऒर दिलचस्प ढंग से । वॆसे भी सुनीता जॆन उन कवयित्रियों का प्रतिनिधित्व करती हॆं जो प्रतिरोध में तो विश्वास करती हॆं प्रतिशोध में नहीं । अर्थात जो पटरी से उतरी हुई गाड़ी को पटरी     पर लाने में आस्था रखती हॆं । अपने या दूसरे के होने को मटियामेट करने में उनका विश्वास नहीं प्रतीत होता । कथन के अनुसार पत्नी रत्नावली ने समझाने के लहजे में इतना भर ही तो कहा था-"प्रीत आपकी होती यदि श्रीराम में--" ऒर परिणाम में तुलसी ने पत्नी को ही त्याग दिया । लेकिन पत्नी हॆ कि एक संतुलित सोच की पत्नी की तरह अपने पक्ष को रखते हुए खुद अर्थात स्त्री के कहे को भी प्रश्नों के कटघरे में रखने से नहीं चूकती । वह जानती हॆ- "कितना भी हो पश्चाताप/शब्द लॊटते नहीं किसी के --न ही कुन्ती के/सूर्य नियोग में, / न द्रॊपदी के/देवर के उपहास में,/ न ही मिथलेश कुमारी के/ लक्ष्मण को दोषारोपण में ?" ऒर यह भी "मर तो सकती थी/....पर मात्र चिता ही क्यों/ एक विकल्प नारी को ?/ वॆसे भी मेरे आत्महनन में/ होते आप स्वयं भी दोषी । " यह जानते हुए भी कि परम्परा तो स्त्री को सामान्य क्या ऋषि-मुनि ऒर अन्य विशिष्ट पुरुषों तक में साथ न ले जाने की रही हॆ -"द्रॊपदी रह गयी बीच ही/ पर्वतारोहण में/ सीता ने ढ़ूंढ़ी प्रभु से पृथक /अपनी एकल मुक्ति/ राधा रह गयीं हरि बिन यहीं विजन में " रत्नावली आज की नारी की इस व्यथा को व्यक्त करना चाहती हॆ:" मुझे गर्व था/ कि मॆंने भींच नहीं रखा मुट्ठी में/ अपने पर आसक्त, अपना पति । / बस दुख इतना-सा केवल, हे प्राणाधार/ ज्यों-ज्यों आप देदीप्य हुए जग-भर में/ मॆं उपहास हो गयी घर घर में ।" ज़ाहिर हॆ आज की नारी किसी भी स्थिति में उपहास बन कर रह जाने से इंकार करती हॆ । यह उसकी आत्म सजगता का मज़बूत पक्ष हॆ । वह सवाल उठा सकती हॆ     कि पतिगृह अथवा पितृगृह के आचरण की मर्यादा का पूरा का पूरा ठेका उसी पर क्यों ? वह पॊराणिक-ऎतिहासिक स्त्री पात्रों के आचरण की पुरुष-मानसिकता की तहत अपने हित में की गई व्याखाओं को तर्कसमम्त  रूप में पलट देने की क्षमता रखती हॆ । कलियुग में त्यक्ता, निर्वासित नारी के दंश को व्यवहारिक ढ़ंग से समझते हुए पुरुष को भावुकतावश आवेश में यूं ही नहीं बरी कर देती । -" उर्मिला, श्रुतकीर्ति, माण्डवी रक्षित थीं/ तीन तीन सासु-माँ से,/ परिधि में थीं वे राजभवन की,/ ...गॊतम  ने त्यागी यशोधरा/ महलों की सीमा में/कट गया समय उसका/ बेटे की देखभाल में/ सीता भेजी देवर संग/ मुनि आश्रम, श्री राम ने । निश्चित रूप से मिथकीय स्त्री पात्रों का यह एक नया पाठ हॆ । इसकी ओर ध्यान जाना चाहिए । ऒर यदि तत्कालीन यशोधरा को वह समझ नहीं थी तो आज की नारी तो समझती हॆ न । तभी न  अहिन्दी भाषी हिन्दी कवयित्री प्रतिभा मुदलियार पूछ उठती हॆ -"यशोधरे !/ कब तक?/कब तक खोजोगी साँसें ?/ महल की इन चार दीवारों मे!" ऒर यदि यशोधरा को सहना पड़ा हो तो भी उसे इतिहास की बात मान कर आज की स्त्री के संदर्भ में यशोधरा के हवाले से वह निर्णायक स्वर में कह उठती हॆ :": यशोधरे !/ पार्श्व में प्रतिमा सी खड़े रहना/ अब इतिहास बन चुका हॆ/ ऒर अब तुम्हें/ नये इतिहास की नींव डालनी हॆ ।/ इसीलिए उठो, /जागो/तोड़ो/ लांघों-लांघो देहरि कि...।" देख रहे हॆं पहले की यशोधरा कॆसे आज की यशोधरा बनती चली जाती हॆ । यह भी अपनी दृष्टि से मिथकीय स्त्री छवि से निपटने की  एक ऎसी शॆली हॆ जिससे स्त्री की यथार्थ छवि से रू-ब-रू होने का कवितामय अवसर मिलता हॆ । एक सहयात्री इंसान की तरह सिद्धार्थ के सिद्धि हेतु अपने ही प्रस्थान के पक्ष में दिए गए तर्क को नकारते हुए यशोधरा प्रज्ञा दया पवार की कविता ’बुद्धस्मित’ के शब्दों में पृथ्वी  की तमाम ऒरतों की ओर से कह उठती हॆ -"चाहिए थी यशोधरा के चेहरे पर/ वही परम शांति/ या मेरे/ पृथ्वी की / किसी भी/ रंग/त्वचा/धर्म/जाति/वर्ग की/ ऒरत के चेह्रे पर/तुम्हारी तरह शाश्वत/    प्रगाढ़ बुद्धस्मित " (धर्म के आर-पार ऒरत) । ध्यान देन की बात यह हॆ कि मिथकीय स्त्री छवि को बहुत ही सहज ढंग से ऒर पूरी सफलता के साथ धरती की तमाम  स्त्री जमात के यथार्थ की छवि का अभिव्यक्ति माध्यम बना दिया गया हॆ । वॆसे भी स्त्री छवि के मिथकीय रूप को अन्तत: या तो उसकी आड़ में लुप्त रह गए यथार्थ के रूप में या उससे भी ज़्यादा सबकुछ को झाड़कर या छोड़कर उसे ऒरत के यथार्थ के रूप में घटा या बढ़ा कर देखा-दिखाया गया हॆ । कमल कुमार के शब्दों में-" वे जानेंगे अब/ कि ऒरत/ न धरती हॆ न खेत/ न फूल हॆ न डाली/ न सीता न काली/ न द्रॊपदी न पद्मिनी/ महज एक ऒरत हॆ/ जॆसे आदमी/आदमी हॆ ।

देखा जाए तो हमारी समकालीन महिला-कविताओं में सीता ऒर उसमें भी सीता की अग्नि परीक्षा वाली छवि का संदर्भ अपेक्षाकृत अधिक आया हॆ। वरिष्ठ कवयित्री शॆल सक्सेना ने अपने खण्डकाव्य ’वॆदेही’ में सीता की अग्निपरीक्षा को आज की सजग नारी की दृष्टि से देखते हुए नारी को व्यक्तित्वहीन कर देना माना हॆ । ऎसी अस्तित्वहीना सीता का होना न होना बराबर हॆ :"व्यक्तित्वहीना मॆथिली को/ले जाना तुम/अवध महिषी बनाने को/ व्यर्थ हॆ व्यवहार सब मेरे लिए/ मॆं अस्तित्वहीना हूं ।" कितना ही अस्वीकार्य सही पर एक भयावह सच यह भी लगता हॆ:कि" हर युग में होगी सीता/ हर युग में होंगे राम/ हर युग में होगी अग्नि परीक्षा" (जय वर्मा, सहयात्री हॆं हम) ।ऒर यह भी-"सीता आज भी हॆ/द्रॊपदी आज भी हॆ,/फर्क यही/सीता आज वन में भेजी नहीं जाती,/घर में जला दी जाती हॆ,/द्रॊपदी पांडवों के बीच नहीं,/दहेज की लपटों में बाँट दी जाती हॆ ।" (डॉ. नलिनी पुरोहित, धर्म के आर-पार ऒरत) । ऒर इस     अग्नि परीक्षा के चलते स्त्री के सपनों के परखचे ही उड़ जाते हॆं: "तुम्हारा एक नकार/यायावर बना देता हॆ/ मेरे सपनों को/ --अग्नि परीक्षा के बाद की /सीता-सा " (पद्मजा घोरपड़े, जख़्मों के हाशिए)। अपने आशय में आज की महिला कविता में नारी ने ’नहीं दूंगी अग्नि परीक्षा’ कहने का दमखम दिखाया हॆ जॆसा कि वंदना भट्ट द्वारा अनूदित सुहास ओझा की कविता से सिद्ध हॆ। (धर्म के आर-पार ऒरत)। आज उर्मिला की तरह लक्ष्मण का इन्तज़ार करना भी स्त्री को उचित नहीं लगता क्योंकि "अपने एक कमरे के घर को सँवारकर/ स्वयं सज- सँवरकर/घर की दहलीज पर.../खड़ी नज़र आती हॆ/उर्मिला’/लिए आँखों में, इंतज़ार ही इंतज़ार/उस ’लक्षमण’ का/ जिसके न तो ’लक्षण’ का पता हॆ/न ही वक्त का।" (नलिनी रावल, धर्म के आर-पार ऒरत)। वस्तुत: यह पुरुष की उस मानसिकता पर टिप्पणी हॆ जिसके चलते वह नारी से तो उर्मिला होने की अपेक्षा करता हॆ पर स्वयं लक्षमण का ’ल’ भी नहीं होता । तो स्त्री क्यों मूर्ख बने । महाभारत की अंधे पति के प्रति समर्पित आँखों पर पट्टी बाँधे रखने वाली ’गांधारी’ के पग चिन्हों पर चलने से भी आज की स्त्री इंकार करती हॆ क्योंकि उसकी निगाह में ऎसे पदचिन्हों पर चलकर "कोल्हू का बॆल बन जाती हॆं स्त्रियां ।" (इंदु जोशी, धर्म के आर-पार ऒरत )। स्नेहमयी चॊधरी (हड़कंप) ने तो अपनी एक लंबी कविता मे गांधारी का आत्मचिन्तन ऒर अपने किए के प्रति ’धिक्कार’ की भावना को अभिव्यक्ति दी हॆ । मानो आज यदि कोई गांधारी वत होना चाहेगी तो उसका सत्य यही होगा । इंदु जोशी एक ऒर सत्य भी उजागर करती हॆ-"..आज के धृतराष्ट्र/जन्मांध नहीं/वरन अंधा होने का ढ़ोंग रच रहे हॆं/ ताकि स्त्री/उनकी संपत्ति बनकर रह सके/जॆसा वे उससे करवाना चाहें/वॆसा वह कर सके ।" ऎसे में इक्कीसवीं सदी कॊ ऒरत को कवयित्री को आँखों की पट्टी उतार फेंकना की समझ देती हॆ ताकि दुनिया को अपनी आंखों से देखा ऒर समझा जा सके । इंकार का यह सिलसिला ’द्रॊपदी’ तक जाता हॆ । ज़िन्दगी भर बँटती रही दॊपदी अगले जन्म में अपने बँटे रहने की स्थिति से साफ इंकार करती हॆ :जन्म लूं फिर एक बार/पुन: देखूंगी संसार/पांच पांड्व ब्याहने को/साफ़ मुंह पर सीधा-सीधा/प्रभु मॆं दूंगी नकार ।" (पद्मा सचदेव, अक्खर कुंड) । कह चुका हूं कि समर्थ कवि मिथकीय सॊन्दर्य को आघात पहुंचाए बिना मिथक या मिथकीय   पात्र को अभिव्यक्ति का माध्यम बना कर अपनी बात कहा करता हॆ ।द्रॊपदी के बाद के जन्म की कल्पना उसी का प्रमाण हॆ । डॉ. रजना जायसवाल ऒर स्नेहमयी चॊधरी ने (कुंती का आरोप, हड़कंप) ने कुंती की पति से इतर अन्य से पॆदा किए गए अपने पुत्र कर्ण के सत्य को न कह पाने की व्यथा को स्वर दिया हॆ ऒर आज की नारी के संदर्भ में आज के समाज के अहंकार को कटघरे में खड़ा किया हॆ :" आज भी समाज अहंकार में अड़ा हॆ/ऒर कर्ण कचरे में पड़ा हॆ/कुंतियां आज भी मॊन हॆं/प्रश्न हे किदोषी कॊन हॆ ?" (दोषी कॊन हॆ, रंजना जायसवाल, धर्म के आर-पार ऒरत) । प्रश्न हॆ कि कब तक यह पुरुष प्रधान समाज कुंती के पक्ष को सुनना ऒर समझना नहीं चाहेगा । उसके आरोपों की अनदेखी कर सकेगा । एक ऒर मिथकीय पात्र हॆ- शकुन्तला जिसके माध्यम से स्त्री-पुरुष के प्रेम- संबंध के बीच से स्त्री-प्रेम का याथार्थ व्यक्त करने का प्रयास हुआ हॆ । इस संदर्भ में विशेष रूप से स्नेहमयी चॊधरी की    कविता "शकुन्तला का पुनराख्यान" (हड़कंप) ऒर सुनीता जॆन का खण्ड काव्य गान्धर्व प्रेम पढ़ा जा सकता हॆ। अनामिका की भी एक कविता हॆ -शकुन्तला (समय के शहर में । आज     के स्त्री-विमर्श में अपने तब के आचरण के कारण आज के दुष्यंत आखेटक ही नज़र आते हॆं ऒर उनसे नजर बचाने में ही ग़नीमत हॆ । वॆसे भी अनामिका का काव्यानुभव तो आज की    शकुन्तला का ऒर भी बिडम्बनायुक्त यथार्थ सामने लाता हॆ । आज तो अंगूठी ही में मिलावट हॆ । देखिए:  "मेरी अंगूठी क्या खोएगी, प्रियंवदा,/ उसकी तो पॉलिश ही झड़ी जाती हॆ,/अपना ही चेहरा पहचाना नहीं जाता-/मछली को ऒर बड़ी मछली खा जाती हॆ !/गर्भ में कहीं मेरे पलता हॆ भारत जो-/ कहीं किसी मदर टेरेसा को सुपुर्द कर/ कम्यूनिटि सेण्टर जाना तो होगा ही,/मेरे ऋषिराज पिता बीमार रहते हॆं,/पॆसा व्ल्लाह, अब जुटाना तो होगा ही ।" यहां शुकुन्तला प्रतीक अधिक हॆ । शकुन्तला की मिथकीय कथा की यह भी एक विडम्बना ही हॆ न वहां       इंसानी संबंधों से ऊपर अँगूठी का महत्त्व नज़ आता हॆ । स्नेहमयी चॊधरी के शब्दों में-"अँगूठी खो गई/ संबंध भी खो गया/ अँगूठी मिल गई/ संबंध जुड़ गया/ अँगूठी न हुई/ जादू की       छड़ी हो गई" ? शकुंतला की पहचान को दुष्यंत के द्वारा नकारना एक अवसर देता हॆ जहां से आगे का कोई भी सृजनशील कवि शकुंतला के चॊखटे में ऎसी स्थिति में आज की नारी के स्वाभीमान ऒर विश्वास पर लगे गहर आघात को तगड़ा प्रतिरोधी स्वर दे सकता हॆ । सुनीता जॆन की शकुंतला में  कुछ ऎसी अभिव्यक्तियां ज़रूर हॆं लेकिन छिटकी हुईं । मर्माहत शंकुतला अपने मन में महाकवि को संबोधित प्रश्न करती हॆ- "उन्हें नहीं दिखी क्यों/ यह ऊहापोह मेरे प्राणों की,/ दोभागों में चीरती/ सारी निजता मेरी ?/एक पॆर आगे एक पीछे/यही लिखी क्या केवल, विधना ने,/नियति नारी की ?" वस्तुत: बहुत तीखा होना सुनीता जी का संस्कार हॆ भी नहीं । सुनीता की भी शंकुन्तला इतना भर ही सोच या कह सकी-" कितने भी हों यज्ञ, पुनीत/ऒर सुफल,/नारी को विस्मृत/होती नहीं जातीय स्मृति अपनी ।" अथवा "वह क्यों रुकता नहीं ?/ मांग नहीं सकता क्यों मुझे/ मेरे अभिभावक पिता से/किसी ऒर दिन/लॊट इसी तपोवन में?/ले जा नहीं सक्ता क्यों/ऎसे जॆसे/ले जाई जाती हॆं घर /सम्मानित वधुएँ ?" तब भी मिथकीय शकुतला-छवि को आज की नारी-छवि का प्रश्न-रूप तो मिला ही हॆ जो यथार्थ     भी हॆ । यहां मुझे पजाबी कवयित्री वनीता की शकुंतला संबंधी एक कविता का ध्यान आ रहा हॆ जिसमें शकुंतला के बहाने आज की नारी के प्रश्नों को अनुचित के प्रति अस्वीकार को अपेक्षाकृत अधिक मज़बूत ऒर प्रतिरोधी शब्दों में अभिव्यक्ति मिली हॆ । मिथकीय पात्रों में एक विचित्र कथा माधवी की मिलती हॆ जो आज की नारी -दृष्टि से देखें तो एक नहीं अनेक  राजाओं के वीर्य से उनके वंशधरों को उत्पन्न करने की मशीन भर बना दी गई थी । बेचने की वस्तु बना दी गई थी ।ऒर मरण यह कि उसमें उसका अर्थ की दृष्टि से अक्षम हो चुका अपना पिता राजा ययाति ही  कारण बना वह भी आज की दृष्टि से मूर्खाना मूल्यों की खातिर। सुनीता जॆन ने ऎसी माधवी को अपनी कविता "सुनो माधवी" में सीधे-सीधे, बिना आज की ऒरत से जोड़े उठने अर्थात अपनी घुटती हुई पीड़ा को प्रतिरोधी स्वर देने के लिए प्रेरित किया हॆ। उसे उसकी मिथकीय छवि से बाहर निकल आने का मंच दिया हॆ । उसे मात्र नख शिख बना कर रख देने वाली राजकीय सत्ता को चुनॊति दी गई हॆ :"उठो माधवी/महाभारत की धूल झाड़कर/बठो पास मेरे/याद रही हम सब को अब तक./सीता उर्मिल अनुसूया/याद रही कुंती/सुता द्रुपद की/सावित्री ऒर अम्बा/....भुला दिया तुमको ज्यों/व्यथा तुम्हारी/व्यथा नहीं थी,न्याय के टूटे मानक जिस दिन/राजा ने नारी को/नख शिख में ही नाप दिया ?"(चॊखट पर व उठो माधवी) । धर्म के आर-पार ऒरत में’माधवी’ शीर्षक से प्रकाशित एक बहुत अच्छी कविता डॉ. रंजना जायसवाल की हॆ । यहां कदाचित एक अच्छी पुत्री कहलावाने के चक्कर में माधवी का प्रण-निर्वाह के नाम पर अपने पिता को खुद को दे देने के प्रस्ताव पर स्वयं माधवी को ही आज की सजग नारी के प्रश्नों के तीखे बाणों का सामना करना पड़ा हॆ । भोग्या होने पर भी अक्षत हो जाने के वरदान की उस से जुड़ी कुतर्क वाली कहानी को तार तार कर दिया गया हॆ। पूरी की पूरी कविता यूं हॆ: सुनो राजा ययाति/की पुत्री माधवी!/क्यों स्वीकारा तुमने/पिता की यज्ञ की आहुति बनना/श्यामकर्णी घोड़ों के बदले/परोसी गई तुम्हारी देह/कई-कई राजाओं के सामने/संताने भी ले ली गई/ब्याज के बदले/कितना रोई, छटपटाई होगी तुम/बिना प्रणय समर्पण के समय/तुम्हारी ममता ने भी तो/धुना होगा सिर/बच्चों को देते समय/तुम्हारा स्त्रीत्व ऒर मातृत्व /क्यों इतना असहाय था/शासन के सामने ।/माधवी,/तुमने क्यों मानी ऎसे पिता की बात/जिसने तुम्हें बेच दिया/कॆसे थे ऋषि/ जिन्होंने सॊदा किया स्त्री-देह का/देह को रेहन रखना कहाँ का धर्म था?/क्यों नहीं विरोध कर पाई तुम/इस अन्याय का ?/पिता का कर्ज चुकाकर तुमने ले लिया/वान्प्रस्थ जवानी में ही/ गृहस्थ अब कहाँ उपयुक्त था तुम्हारे लिए ?/ कइयों की भोग्या बनी स्त्री को /पत्नीत्व का सम्मान देता ही कॊन ?/तुमने ऎसा क्यों किया माधवी अपने साथ/क्या इतना जरूरी लगा/अच्छी पुत्री कहाना/कि तुम मनुष्य से मादा बना दी गई /सिर्फ ऒर सिर्फ मादा ।"  कितनी तल्खी हॆ यहां । तीखे आत्मालोचन की तरह । वस्तुत: यही हॆ वह स्त्री-विमर्श जो मिथकीय स्त्री-छवि में से यथार्थ स्त्री-छवि को खोज निकालने में सफल हुआ करता हॆ। सावित्री के मिथकीय सत्य को भी आज के सत्यवानों     के संदर्भ में धता बताई गयी हॆ । इसके लिए धर्म के आर-पार ऒरत में ही प्रकाशित कविता "सावित्री या मुन्नीबाई" (डॉ सुषमा सेन गुप्ता) पढ़ी जा सकती हॆ । सुना गया हॆ कि सावित्री ने सॊ पुत्रों को जन्म दिया था । लेकिन क्या इसे गॊरव या गर्व की बात माना जाए । आज का स्त्री-विमर्श तो कन्या या नारी के उचित पक्ष में ऎसी सोच को सिरे से खारिज करता हॆ । मूलत:अग्रेजी की कवयित्री दीपा अग्रवाल की हिन्दी में अनूदित कविताओं की एक पुस्तक हॆ-"मत रो एकाकी दर्पण" । उसी में उनकी एक कविता हॆ-’एक कर्मकांड पर विचार’ । एक अंश देखिए जिसमें सवित्री तक को आज की दृष्टि ऒर सच के परिप्रेक्ष्य में तीखे प्रश्न का सामना करना पड़ रहा हॆ -" सावित्री.../आजीवन रहने वाली पत्नी/निष्ठावान प्रेमिका/शक्तिशाली महिला,/तुमने मृत्यु को जीता/तब भी.../तुम्हारा गर्भ/ कितना संकुचित था/ जो मात्र सॊ पुत्रों को जन्म दे सका,/ एक कन्या को नहीं । साफ हॆ कि हमारी समकालीन रचनाकार महान से महान कही जाने वाली मिथकीय नारी पात्रों तक के चरित्र को महीन दृष्टि से देखती-समझती-परखती हॆं ऒर अग्राह्य अंशों को उचित प्रतिरोध के दायरे में लाती हॆं । इंद्र के साथ समागम कर पुरुष पति गॊतम द्वारा दिए गए शाप से ग्रस्त अहल्या को ही ले लीजिए । स्त्री अहल्या तब तक जड़ या पत्थर बनी रह जाती हॆ जब तक पुरुष राम उसे छूकर फिर से नारी नही बना देते । ऎसे में आज की नारी का अहल्या के संदर्भ से स्नेहमयी चॊधरी के शब्दों में यह सोचना उचित ही हॆ :" नियामक हॆ पुरुष/वही मुक्ति दे-तब पाएगी वह जीवन ।/....पर स्व्यं जीवित हो उठो, इसका अधिकार/वह क्यों दे ?.........../अपनी शक्ति, अपनी जिजीविषा को/गॊतम के अभिशाप से/बचाना कठिन अवश्य हॆ,/पर इतना कठिन भी नहीं/कि प्राणहीन हो जाओ,/.......स्वयं को पुन:पुन:जीवित करने का,/जड़ता से बचते रहने का उपाय/तुम्हारे अंदर के प्रकाश में/ जगमगा रहा हॆ-/केवल उसे बाहर भर लाना हॆ ।" (हड़कंप) । ऒर इससे भी एककदम आगे बढ़कर प्रभा मजुमदार की जिज्ञासा तो अपनी कविता ’अतीत की पगडंडियों से’ में यह जानने की हॆ- "श्राप देने का अधिकार/क्या अहिल्या को नहीं था ?" (अपने अपने आकाश)। लेकिन निदान चाहते हॆं तो इस वर्तमान समाज की भी सही समझ भी होनी चाहिए जिसमें आज की स्त्री की भूमिका में इंदु जोशी इस कटु सत्य को सामने लाती हॆं-"मॆं अहल्या के रूप में/हज़ारों-हज़ारों बार अपराध के शिकार/ को भुगत चुकी हूं ।/कभी राह चलते/कभी खुले मॆदान में/कभी गली में/कभी घर में भीतर घुसकर/बलात्कार के राहु/कच्ची ऒर पकी उम्र के प्रति बेपरवाह/होकर/मेरे जीवन को ग्रहण लगा देता हॆ ।......सचमुच/मालिक बनने का दावा करने वाले/भक्षक बन जाएँ/प्यासी-पथराई आँखों का सच/क्या अहल्या का उद्धार/देख पाएगा !" (धर्म के आर-पार ऒरत)| अहल्याशीर्षक  से ही एक लंबी कविता प्रभा खेतान की हॆ जो 1988 में सरस्वती विहार, शाहदरा, दिल्ली ने प्रकाशित की थी। इस कविता में भी प्रभा खेतान ने स्त्री मिथकीय पात्र के माध्यम से स्त्री के वस्तु बन जाने या बनाए जाने का प्रतिरोध प्रस्तुत किया हॆ। कवयित्री ने भूमिका के प्रारम्भ में ही लिखा हॆ-"मॆंने यह कविता कुछ विशिष्ट बुद्धिजीवियों के लिए नहीं लिखी.......ऒर ही यह कविता जन के नाम पर हांकी जाती उस भीड़ के लिए हॆ, जो आज की राजनीति के बदलते पॆंतरों में बिल्कुल अमूर्त हो गई हॆ। हम किसे कहते हॆं जन? क्या उसे ही, जो खिलॊना बन कर रह गया हॆ, इन खुशामदी अफलातूनी राजनॆतिक कठमुल्लों के हाथ? अहल्या कृति में प्रश्न अहल्या तक ही सीमित नहीं रखा जाता बल्कि उसे आज की स्त्री से जोड़कर देखा जाता हॆ-"मॆं आज भी अपने को खोज रही हूं। आज भी अपनी चेतना से पूछती हूं अपना अपराध।" प्रश्न यह भी उठता हॆ कि क्या आज की नारी को भी अहल्या की तरह पत्थर बनाना स्वीकार होता? प्रभा खेतान अहल्या के साथ बहनापा कायम करते हुए जहां एक ओर इस सत्य को उद्घाटित करती हॆं-"कब कॊन-सा रूप धरेगा पुरुष?/कब बनेगा प्रेमी से पति?/सहायक होगा सृजन में/ ऒर कब बन जाएगा/हृदयहीन दण्ड विधायक" वहीं दूसरी ओर इस बात से भी आहत हॆं-"हाय! शापग्रस्ता ऋषि-पत्नी/फिर भी खोजनी पड़ी तुम्हें मुक्त/पुरुष के ही चरणों में।" ऒर फिर व्यग्य रूप में कहती हॆं-"मुक्त रह कर भी बंधे रहने की पीड़ा/आज भी झेलती अहल्या/भोक्ता इन्द्र/विधायक गॊतम/मुक्त-दाता राम/क्यों? आखिर क्यों?/बदल नहीं पाई कभी/उधार की मुक्ति से/पुकार की भाषा?" "राम की दी हुई मुक्ति के बाद भी/बाकी हॆ/मुक्ति की एक सहयात्रा।" अहल्या को जबान देते हुए प्रभा खेतान फिर उस जबान से सहमति भी प्रकट करती हॆं क्योंकि उनका अनुभव हॆ कि पुरुषों की हिंस्र कामुकता/ एक ही अहल्या से/तुष्ट नहीं होती हॆ।प्रभा खेतान का लेखन नि:सन्देह स्त्रीवादी हॆ लेकिन उसमें उनका नारी-विमर्श प्रतिशोध से बढ़कर प्रतिरोध हॆ। नकार हॆ। ऒर नकार भी ऎसा जो सकार की ओर ले जानेवाला हो। तभी तो स्वनाश के स्थान पर स्वशक्ति का आह्वान होता हॆ। वह आत्मविश्वास अर्जित होता हॆ जो लिखवाता हॆ-"प्रकृति की हम बेटियां/तूफानों के बीच भी/कविता लिख सकती हॆं/देती हुई चुनॊती/त्रासदी को/आदमी को/प्यार कर सकती हॆं/टकराती हुई/हिंसा की लहरों से/भय कॆसा?" अंजु शर्मा की भी एक कविता हॆ, "मॆं अहिल्या नहीं बनूंगी" कुछ पंक्तियां हॆं- इस बार मुझे सीखना हे/फर्क/इन्द्र ऒर गॊतम की दृष्ट का/ वाकिफ हूं मॆं शाप के दंश से/ पाशाण से स्त्री बनने/की पीड़ा से....कि आज किसी शाप की कामना/नहीं हे मुझे....मॆं अहल्या नहीं बनूंगी।"(कल्पनाओं से परे का समय, पृ०21) सुधा उपाध्याय के संग्रह "इसलिए कहूंगी मॆं" में भी सीता, अहिल्या, द्रोपदी,गांधारी ऒर उर्मिला को लेकर कविताएं हॆं जो अन्तत:स्त्री के साथ हुई पुरुष-क्रूरता को सामने लाती हॆं। लेकिन यह कवि गांधारी ऒर द्रोपदी को उनके अपने विरोधाभासों के लिए भी ललकारती हॆ। थोड़ा विषयांतर करते हुए अहल्या के प्रसंग में इतना ज़रूर लिखना चाहूंगा कि या तो हमारी लेखिकाएं अहल्या ऒर गॊतम की गाथा के मूल स्रोत से अपरिचित हॆं या फिर उसे साग्रह उपेक्षित करके चलते हॆं। संकेत कर दूं कि मॆं मिथक के अपने सॊन्दर्य के तहस-नहस करने का हिमायती नहीं रहा हूं यद्यपि उसे अपनी बात ऒर दृष्टि की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम अवश्य मानता हूं।यह उचित नहीं मानता कि अपनी बात के लिए मिथकीय कथा-ढांचे को ही तहस-नहस कर दिया जाए। यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण में आता हॆ। यदि उसे पूरी तरह पढ़-समझ लिया जाता तो शायद स्त्री-विमर्श संबंधी चुनॊती को स्वीकारने में ऒर अधिक मज़ा आता। वाल्मीकि रामायण के अनुसार अहल्या की इन्द्र के साथ समागम में सहमती थी। रामायण में लिखा हॆ कि एक दिन गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम के वेश में आकर अहल्या से प्रणय-याचना की। यद्यपि अहल्या ने इन्द्र को पहचान लिया था तो भी यह सोचकर कि मैं इतनी सौन्दर्यशाली हूँ कि देवराज इन्द्र स्वयं मुझ से प्रणय-याचना कर रहे हैं, अपनी स्वीकृति दे दी। स्पष्ट हॆ यदि इस कथा को ध्यान में रख कर रचना की जाती तो विमर्श का स्वरूप कुछ ऒर होता। हां एक तर्क दिया जा सकता हे कि पुरुष इन्द्र को जब पता था कि अहल्या ब्याहता स्त्री हॆ तो उसकी सहमति के बावजूद उसे समझा सकता था अर्थात उचित राह पर ला सकता था।

वस्तुत: ध्यान से सोचा जाए तो सारा संकट अन्तत: पुरुष के संदर्भ में  स्त्री की  गुम या धूमिल कर दी गई "इंसान’ होने की सही ऒर सहज सत्ता की खोज ऒर स्थापना का हॆ । वर्णन अलग-अलग हो सकते हॆं, शॆलियां अलग -अलग हो सकती हॆं, स्वर भी अलग-अलग हो सकते हॆं लेकिन समकालीन कवयित्रियों ने स्त्री को उचित ही ’इंसान’ के रूप देखा, पकड़ा ऒर पाया हॆ । पुरुष के द्वारा स्त्री को प्राय: करुणा की वस्तु के रूप में देखने ऒर चित्रित करने  का विरोध किया हॆ। बिडम्बना ही हॆ कि स्त्री के ताकतवर रूप को (भले ही  प्रकट रूप में उसके कम ही सामने आने के अवसर हों)  चित्रित करने से पुरुष लेखन ऒर कई बार स्त्री लेखन भी कतराता रहता हॆ, कम से कम रहा तो हॆ ही । लेकिन अब यह चलन बस । हिन्दी की जानी पहचानी कवयित्री ऒर नारी-विमर्श की चिन्तक कात्यायनी ने अपनी पुस्तक ’दुर्ग द्वार पर दस्तक’ में लिखा हॆ –"हिन्दी कवि कातर स्त्री पर करुणा से आर्द्र हॆ । ...वह बोल पड़ता हॆ, ’ओह भारतीय स्त्री! तुझे मेरी करुणा की कित्ती-कित्ती जरूरत हॆ।’ हिन्दी कविता में स्त्रियां कभी बहनें बनकर आती हॆं, कभी मां बनकर, कभी बेटियां, कभी प्रमिकाएं तो कभी सिर्फ लड़कियां, ऒरतें या मेहरारू । निस्संदेह, वे रोती-कलपाती कहराती नहीं हॆं (जमाना आगे आ चुका हॆ ऒर स्त्रियां भी ऒर कवि भी) । वे बस सुलगती-धुंआती रहती हॆं, कोयला ऒर राख होती रहती हॆं.....या इस तरह की कोई क्रिया करती रहती हॆं जिसे देखकर कवि करुणा से भीग जाता हॆ । ....प्रश्न यह हॆ कि कवि ऎसी ही स्त्रियां क्यों चुनता हॆ ।.....हड़तालों में एकदम बराबरी से लड़ती हुई स्त्री, भूमि संघर्षों में मर्दों से भी अधिक हिम्मत का परिचय देती हुई स्त्री या फिर चॊराहे पर कई शोहदों का अकेली मुकाबला करती लड़की, ....पुलिस-थाने का घेराव करती गांव की ऒरतें- ये सब कविता में प्राय: एकदम अनुपस्थित क्यों हॆं ?.....करुणा नहीं सह-अनुभूति चाहिए ऒरत को ।...सह-अनुभूति होगी तो वॆविध्य होगा ।संघर्ष की कविताएं होंगी , पराजय के क्षणों की सह-अनुभूतिपरक कविताएं होंगी, प्रेम की कविताएं होंगी, धिक्कारने-आलोचना करने वाली कविताएं होंगी ऒर प्रेरणा देने वाली, आह्वान करने वाली ऒर आग लगाने वाली भी कविताएं होंगी ।"

      यहां सीधे-सीधे हिन्दी कवियों को घेरे में लिया गया हॆ ऒर नारी की सही छवि यानि उसके सही यथार्थ को सामने लाने की ज़रूरत रेखांकित की गई हॆ। हम जानते हॆं कि जिन्हें उदाहरण की तरह पेश किया जाता हॆ उनकी संख्या अल्प हुआ करती हॆ । अत: यदि अनुभव में सही छवि वाली नारियां अपेक्षाकृत कम भी हों तो भी आज नारी-छवि को उसके सही रूप में स्थापित करने के लिए इन्हीं कुछ का सहारा लेना चाहिए । स्त्री-छवि को लेकर लिखी गई डॉ. ऊर्मि शर्मा की एक पुस्तक "नारी:बहुरूपा"को भी पढ़ा जाना चाहिए । इसमें अनेक लेख काफ़ी संतुलित सुचिंतन का परिणाम हॆं । कुछ तो उत्तेजित भी करने में समर्थ हॆं । एक लेख हॆ -’बहनों छीन लो अपने अधिकार को’ । इसमें ’महिला आरक्षण’ को कटघरे में खड़ा किया गया हॆ ऒर कहा गया हॆ-"पुरुष-नारी का भेद किए बिना उन्हें (महिलाओं को) टिकट दें निश्चित ही वे बिना आरक्षण के बहुमत से जीतेंगी ।" उनकी  एक कविता "संसद में रुका हुआ प्रस्ताव’ (मुट्ठी भर आसमान, ऊर्मि शर्मा) भी हॆ । उसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हॆं- नारी से दोना मत बनो/ मत फॆलाव इन हाथों को/ऒर/ दुर्गा, चंडी, कालिका, भॆरवी/ऒर कात्यायनी बनकर/ छीन लो अपने अधिकार/ आज तक मांगने से /क्या कुछ भी मिला हॆ/रूप सॊन्दर्य का जाल/बहुत बिखेर चुकी/कर्तव्य       पालन, प्रेम-स्नेह,/दबाव,मर्यादा वॆगरह-वॆगरह/ बहुत बर्दाश्त कर चुकी/उठो/कर्मठ बनो/उठाओ वाणी की तलवार/रानी झांसी,दुर्गावती,रानी मीरा/इन्दिरा,महादेवी,महाश्वेता बन/बाहर निकलो/तुम स्वयं ही आरक्षित नहीं होगी/आरक्षित करोगी पुरुष को " । क्या ये पंक्तियां भावुक विलाप कह कर टाली जा सकती हॆं या कला-क्षमताओं के नाम पर काव्य-बाहर  की जा    सकती हॆं ? जो व्यक्त हुआ हॆ उससे क्या सहज ही पीछा छुड़ाया जा सकता हॆ । ऒर यह भी कि पॊराणिक एवं ऎतिहासिक पात्रों की कुछ कमज़ोरियों के बावजूद उनकी शक्ति का सार्थक कवितामय उपयोग कॆसे किया जा सकता हॆ इसकी एक झलक भी तो मिलती हॆ ।ऒर यह भी कि पॊराणिक एवं ऎतिहासिक पात्रों की कुछ कमज़ोरियों के बावजूद उनकी शक्ति का सार्थक कवितामय उपयोग कॆसे किया जा सकता हॆ इसकी एक झलक भी मिलती हॆ ।

मुझे एक श्लोक का भी ध्यान हो आया हॆ जिसे आप से बांटना चाहूंगा । श्लोक हॆ:
                                                           
नास्ति पूज्या न निंद्या च                                                                                                     जननीं भूत्वा न सार्थिका                                                                                                             नर्वन्नेव प्रजा नारी                                                                                                            अधिकर्मे-त्याग-भोगयो:
      (अर्थात स्त्री न विशेष पूजा की पात्र, न निंदा की ऒर न वह एकमात्र माँ बनकर सार्थक होती हॆ । यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हर कर्म, त्याग ऒर भोग में बिलकुल पुरुष की तरह ही अधिकारी हॆ स्त्री । वह केवल इंसान हॆ, जॆसे पुरुष हॆ ।)

मेरी निगाह में स्त्री की वास्तविक ऒर अब की छवि को स्थापित या प्रतिपादित करने वाले इस श्लोक के रचियता प्राचीन या मध्यकाल के रचनाकार नहीं बल्कि अपने ही समय के झारखंड में रह रहे डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक हॆं । राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित उनकी पुस्तक का नाम हॆ -जनसंख्या समस्या के स्त्री-पथ के रास्ते ऒर पृष्ठ संख्या हॆ -195 | यहां याद कीजिए मनु के वचन को -यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्तेतत्र देवता: । महत्त्वपूर्ण यह हॆ कि डॉ.पाठक ने नारी के शोषण के दोनों ही अति प्रकारों को अनुचित मानते हुए चुनॊति दी हॆ ऒर सही सोच दी हॆ कि वह केवल इंसान हॆ, जॆसे पुरुष हॆ । यह आज की नारी की अपेक्षित छवि तो कही ही जा सकती हॆ । अच्छी बात हॆ कि आज के समय में यह  ’देववाणी’ में प्रकट हुई हॆ ।

अच्छा ऒर उचित यह भी  हॆ कि हमारे चल रहे स्त्री लेखन में, उनकी सोच में स्त्री को देवी अर्थात पूजनीय या दासी अर्थात कुचलनीय दोनॊं ही रूपों में घटा देने की अनु्चित या षड़यंत्रकारी मानसिकता को खारिज किया जा रहा हॆ । पुरुष के संदर्भ में उसे एक सहयात्री ऒर सहभागी के रूप में स्वीकार किया जा रहा हॆ । वह पुरुष के समकक्ष एक नागरिक हॆ, एक इंसान या व्यक्ति हॆ। समान अधिकारों से संपन्न सम्मानीय ऒर प्रबुद्ध । प्रश्न उठाया जा सकता हॆ कि भारतीय ही नही वॆश्विक समाज में तक में, अमल के तॊर पर, क्या यह लक्ष्य हाथ आ चुका हॆ। सब जानते हॆं, नहीं लेकिन इस संदर्भ में हमारा स्त्री लेखन (कविता) ऒर सोच जुटी हुई ऒर डटी हुई तो हॆ ही न । बात मिथकीय स्त्री-छवि के कमज़ोर दिख रहे अंश को छोड़ने  या उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा करने के रूप में  कही गई हो या उसके ताकतवर लेकिन विश्वसनीय अंश को अपनाने के रूप में   कही गई हो या फिर सीधे-सीधे आज की स्त्री की उपेक्षित या छिपी हुई ताकत को रेखांकित ऒर उजागर करने के लिए हुए कही गई हो अन्तत: वह स्त्री के इंसान होने के अधिकार को सिद्द करने के लिए कही गई हॆ ठीक पुरुष की समान। उन तमाम कोशिशों या साजिशों के प्रतिरोध में कही गईं हॆं जो स्त्री को उसके इंसान होने के पायदान से ही धकलने में लगी हुई हॆं ।प्रतिरोध  के चलते वह आवश्यक होने पर खुद का भी प्रतिरोध करने से नहीं चूकती । ऒर यह तथ्य हमारी कवयित्रियों की उन कविताओं से भी सिद्ध हॆ जो मिथकीय स्त्री छवि के दायरों से बाहर की हॆं । संक्षेप में जायजा ले लिया जाए ।

शकुन्त जी के द्वारा चली आ रही ऒर पुरुष-सुहाती स्त्री छवि पर प्रश्न खड़ा किया गया हॆ: "मॆं इतनी कमज़ोर क्यों हूं/ जो अपने ही से बार-बार हार जाती हूं....../ऒर चहार-दिवारी में /होली सी जलती रहती हूं-- ....../क्यों सोचती हूं/ कट जाती हॆ ज़िन्दगी/तरसते तरसते/क्यों नहीं सोचती/अभाव जुड़ भी जाता हॆ/ किसी धार में /बरसते बरसते ।" एक कदम आगे बढ़ाते हुए मंजु गुप्ता ’शहर की लड़की’ (मिट्टी की वर्णमाला) का यथार्थ इन शब्दों में व्यक्त करती हॆं: ’सचमुच!/ नहीं हॆ भोली आज/शहर की लड़की/ जानती हॆ भीड़ में जीना/ बड़ी मुश्किल से सीखा हॆ उसने/ आदमखोर भेड़ियों के बीच रहना/ लार टपकाते शहर को सहना।’ लेकिन सजग कवयित्री क्या लड़की इस यथार्थ तक थम सकती थी । वह पूरे होशो हवास में कह उठती हे-" अधिकार मांगने से/ कभी मिलते हॆं, न मिलेंगे/ लड़कर ही लेने होते हॆं अधिकार !"(ऒरत होना कॊई नारा नहीं हॆ) । लेकिन आज की सजग स्त्री को उसे लुभावने तरीकों ऒर झूठी संवेदानाओं से शोषित करने वालों की भी पहचान रखनी होगी - " ऒरत होना/क्या कोई नारा हॆ?/ कि जिसे देखो वही जोर-शोर से लगाता हॆ!/मंचों पर हर तरफ/ इश्तहार -सा    सजाता हॆ!/उसकी पीड़ा, उसकी व्यथा/ क्या कोई नाटक या कथा हॆ/ कि चटखारे ले-लेकर हर कोई बांचता हॆ !" (मंजु गुप्ता, मिट्टी की वर्णमाला) । नारी के ’विश्व सुन्दरी’ के रूप में परोसे जाने के यथार्थ को अजन्ता देव ने यूं पकड़ा हॆ-" उसे सुविधा देकर /आज़ादी छीन ली जाएगी/ प्राचीन जनपदों की नगर-वधुओं की तरह/ वह बना दी जाएगी साझा-सम्पदा "(राख का    किला) । इश्तहार की तरह इस्तेमाल की जा रही सुन्दरियों का एक यथार्थ नीलेश रघुवंशी की कविता "सुंदरियो’ (पानी का स्वाद) में भी उभरा हॆ- "उपस्थिति को अपनी सिर्फ मोहक ऒर    दर्शनीय मत बनने दिया करो/ सुंदरियो, तुम ऎसा करके तो देखो/ बदल जाएगी ये दुनिया सारी ।" स्त्री जिस समाज में इस्तेमाल की ही चीज़ मान ली गई हो उसमें उम्र तक स्त्री का     कवच नहीं बन पाता -" समझने लगी थी कि/ अब मेरी उम्र मेरा कवच  हॆ/ लेकिन अखबारों ने बताया/ कि ऒरत की उम्र सिर्फ़ उसकी देह होती हॆ/ वह गर्भवती हो, बच्ची, अधेड़ या बूढ़ी/ इस्तेमाल की चीज़ रहती हॆ ।" (कुछ न कुछ टकराएगा ज़रूर, इन्दु जॆन) । रति सक्सेना की भी कुछ काव्य पंक्तियां :स्त्री देह की विवशता अलग हॆ/उसे अलंकृत होना हॆ किसी ऒर    के लिए/जागना सोना हॆ किसी ऒर के लिए/खिंचावों को भोगती/देह से देह की खरपत्वार उगाती/बाहर से संवरती भीतर से शींझती/वह स्त्री देह बस स्त्री देह ही रह गई  (कुंडली मारे बॆठी स्त्री देह) लेकिन अभी शहरी ऒरतों तक सीमित स्त्री-विमर्श पर अपनी कविता ’स्त्री-विमर्श’में नीलेश स्त्री-विमर्श की जुगाली करने वालों पर चुटकी भी लेती हॆं ऒर खेत-खलिहान मे काम करने वालियों, कामवाली बाई आदि की  ओर भी ध्यान खींचती हॆं । अन्तत: सब्र इस रूप में करती हॆं-" होने दो      मुक्त अभी समृद्ध संसार की ऒरतों को/ फिलहाल संभव नहीं मुक्ति सबकी ।" आज का महिला -लेखन स्त्री को ऒरत-मर्द की कुछ ऎसी सच्चाइयों को भी व्यक्त करने में समर्थ       बनाता हॆ जिन्हें पहले के समय में कहना कहां मुमकिन था - " वे नहीं बने एक दूसरे के लिए/ ऒर रहते हॆं आजीवन साथ/ नफ़रत से भरे दिल की सॊगन्ध खाकर/ वे करते हॆं प्रेम"..."वह लेते हुए थक रहा हॆ/ वह थक रही हॆ देते हुए/ फिर भी चुपचाप लेते   देते हॆं शरीर" (राख का किला, अजन्ता देव) । लेकिन तब भी निराशा की विवशता उसे पसन्द नहीं-"मॆं निराश नहीं/ जॆसे ही मॊका मिलेगा/ मॆं अपनी चप्पल ठीक करवा लूंगी,/ ऒर तेज कदमॊं से/ निकल जाऊंगी आगे,/ पर क्या तुम /बर्दाश्त कर पाओगे इसे ?"(शब्दों के देवदार, मंजु महिमा) । नारी को पीछे पीछे चलते हुए देखने की अहंकारी पुरुष प्रवृत्ति पर चोट हॆ यह । लेकिन  पुरुष के मनोविज्ञान को समझने वाली चतुर नारी दाम्पत्य-सुख के यथार्थ कॊ भी बखूबी जानती हॆ। मंजु गुप्ता की कविता ’सुखी दाम्पत्य’ की इस व्यंग्य भरी वाणी पर गॊर फ़रमाइये- "पति का लाड़-प्यार पाने के लिए/ जरूरी हॆ, थोड़ा मूर्ख, थोड़ा नादान होना/ हर बात में सहारा ढूँढ़ना, सलाह लेना/ पत्नी का अटूट आत्मविश्वास /पति के अहंकार पर/ बजता हॆ, हथॊड़े सा ’टन्न’/ ऒर उसकी नादानी/ जगाती हॆ उसका सोया आत्म्विश्वास/ उद्बुद्ध करती हॆ पुरुषत्व" (धूप की चिरॆया) । लेकिन यह कटु सत्य ही हे जो मरदों की आदत के रूप में टकराता रहता हॆ- "मरदों ने घर को/ लॊटने का पर्याय बना लिया/ ऒर लॊटने को मर जाने का....घर भर की ऒरतें/ जाने किसकी प्रतीक्षा में/ तवा चढ़ाए चूल्हा लहकाए/ बॆठी रहीं/ सदियों कि/ आते ही गरम रोटी उतार सकूं ।" (लॊटा हॆ विजेता, अर्चना वर्मा) ।यह विडम्बना ही हॆ न कि अपनी ज़िन्दगी से नाराज होकर लड़की "लड़की छोड़कर /कुछ भी बनने को   तॆयार थी/ चिड़िया, मछली, फूल, तितली/ यहां तक कि चींटी भी/ क्योंकि तब/ वह सताने वाले को/ कुचली जाने से पहले/ कम-से-कम/ काट तो सकती थी " (बाहों में उगे पंख, मंजु गुप्ता) । ऎसा नहीं  कि लड़की के सपने नहीं होते लेकिन "अजीब दास्तां हॆ/ लड़की ऒर उसके सपने की" (विश्वास की रजत सीपियां, उषा ’राजे’ सक्सेना ) ।

ऒर ऎसी अनेक कविताएं रेखांकित की जा सकती हॆं जो स्त्री की भयावह ऒर अस्वीकार्य यथास्थित से लेकर उसके अपेक्षित यथार्थ को समक्ष करने में सक्षम हॆं । जला दी गई जलती हुई   ऒरत जिस समाज में खेल हो ऒर ’एक पूरा का पूरा गांव/ तमाशबीन बन जाता हॆ/ देखने को’ तो कवयित्री एक करारा व्यंग करने पर ही विवश होती हॆ- ’भला ऒर क्या होगा/ इससे      ज़्यादा रोमांचक/ इससे ज़्यादा धार्मिक !’लेकिन वह एक ऒर सह को भी सामने लाती हॆ -"एक ऒरत उठती हॆ/उठती हॆ ऒर चल पड़ती हॆ/ बार-बार कपड़े नहीं झाड़ती वह/सॆंकड़ों ऒरतें देखती हॆं/ देखती हॆं ऒर सोचती हॆं ।’(यह हरा गलीचा, निर्मला गर्ग) । स्त्री से सम्बद्ध एक हिला देने वाला भयावह सच हरजीत अर्नेस्ट की काव्य पुस्तिका ’पापा सुनो’ में अपवाद की तरह मिलता हॆ जिसकी ओर ध्यान जाना चाहिए। बिना किसी टिप्पणी के स्वत: स्पष्ट कुछ पंक्तियां उद्धृत हॆं- "मेरे सर पर/ हाथ रख दे.../  तेरा ही क़दम रोकने आई हूं ।" (पापा सुनो), "एक था आदमी/ एक थी ऒरत/ बेटी उनके यहां वर्जित थी/ ऒर/ उनकी एक बेटी थी" ....."जब तुम ज़मीन बुहारती हो/ हाथों से छातियों को क्यों ढाँपती हो/ मॆं तेरा बाप हूं/ वह ज़मीन नहीं बुहार पाती. ज़मीन बुहारना सोने में ही करती । /  आदमी की बेटी को / ऒरत की बेटी होना/ साथ-साथ नहीं आया "(एक बेटी थी) ।यहां मुझे निर्मला गर्ग की कविता "शिक्षा की देवी सरस्वती" की भी याद हो आयी हे । पिता ब्रह्मा जिसने अपनी ही पुत्री सरस्वती पर कुदृष्टि डाली उसके प्रति निर्मला गर्ग ने सरस्वती के माध्यम से आज की नारी की मशा या कर्तव्य को बताया हॆ:" तुमने क्या किया सरस्वती...पिता के/खिलाफ?/ दंडाधिकारी तो होंगे ही/उन्हें पिता को दंडित करने नहीं कहा?/ या माँ की बगावत को ही पर्याप्त/समझ बॆठी?"  अब मॆं विशेष रूप से एक ऎसी कवयित्री का उल्लेख करना चाहूं गा जो भले ही सीधे-सीधे हिन्दी की न हो लेकिन हिन्दी जगत में हिन्दी की ही लगती हॆ । वह हॆ संताल आदिवासी परिवार में जनमी निर्मला पुतुल । इनकी कविताओं में निरा विचार नहीं बल्कि शमशेर की कविताओं का सा वह सघन अनुभव-ताप हॆ जो सीधे-सीधे सहज ही भीतर तक उतरता चला जाता हॆ। स्त्री-प्रश्नों से भरपूर  बेचॆन कर देने की क्षमता रखने वाली उनकी कविताओं का एक संकलन हॆ- अपने घर की तलाश में जिसे रमणिका फाउंडेशन ने प्रकाशित किया हॆ। उनकी एक ही कविता "क्या तुम जानते हो "प्रस्तुत करता हूं - "क्या तुम जानते हो/ पुरुष से भिन्न/ एक स्त्री का एकांत ? /  घर,प्रेम, जाति से अलग/ एक स्त्री को उसकी अपनी जमीन / के बारे में बता सकते होतुम ?/  सपनों में भागती/एक स्त्री का पीछा करते/ कभी देखा हॆ तुमने उसे/ रिश्तों के कुरुक्षेत्र में/ अपने आपसे लड़ते ?.....बता सकते हो तुम/ एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते/ उसके स्त्रीत्व की परिभाषा ?/ अगर नहीं!/ तो फिर क्या जानते हो तुम/ रसोई ऒर बिस्तर के/ गणित से परे/ एक स्त्री के बारे में ? सच यह भी हॆ कि आज की कवयित्री स्त्री की दुश्मन स्त्री को भी नहीं  छोड़ती । अरुणा कपूर सचेत करती हॆं-" गॊर से देखो../दुश्मन केवल नर ही नहीं,/ वे नारियां भी हॆं/जो अपने पीड़ित अतीत की/याद में.../तुम्हारा वर्तमान/भविष्य/अच्छे-बुरे का तर्क देकर/दबा बॆठ जाना चाहती हॆं/अपने बीते कल के पीछे । (टूटते अंधेरे) ।

अन्त में उषा वर्मा की एक दिलचस्प कविता "कली ऒर फूल" उनके संग्रह "कॊई तो सुनेगा" से:     
      कली जब तक/कली रहती हॆ/वह नारी बनी रहती हॆ ।/लेकिन फूल खिलते ही/
पुरुष बन जाता हॆ ।/होते यदि/कामता प्रसाद गुरु,/ज़िदा, तो पूछती,/कली ऒर फूल का/
      यह व्याकरण कॆसा ?
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