शर्म तुमको मगर आती है
उनके चमचे ने मुझे धीरे-से बताया कि वे इस समय शर्मिंदा हैं, अगर कोई जरूरी काम हो तो ही आप मिलें
॰ बात यह है कि जब वे शर्मिंदा रहते हैं
तब डिस्टर्ब होना पसंद नहीं करते ॰
"किस बात पर शर्मिंदा
हैं ?" मैंने पूछा ॰
"पता नहीं आज किस बात
पर हैं॰ कल तो छात्रों की अनुशासनहीनता पर थे ॰"
"मैं मिलना चाहूँगा॰
मैं लेखक हूँ और मुझसे ऐसे वक्त चर्चा करना शायद वे पसंद करें ॰"
"जरूर मिलिये ॰ जब वे
शर्मिंदा होते हैं, अक्सर
कवियों को याद करते हैं ॰ तीन -चार दिन हुए एक कवि आया था॰ जब तक रहा लज्जा से गड़ा
रहा ॰"
मैं मंत्री महोदय के कक्ष
में घुस गया॰ वे सामने खादी के सोफ़े पर खादी के कपड़े पहने पैर समेटे बैठे थे॰ उनकी
गर्दन और हाथ लटके हुए थे ॰ मुझे वे समूचे ही लटके हुए लगे ॰ मैंने उन्हे नमस्कार
किया॰ कोई उत्तर नहीं मिला॰ उन्होने मुझे बैठने को नहीं कहा, मगर मैं बैठ गया ॰
एक लंबी सरकारी किस्म की
चुप्पी के बाद उन्होने नजरें उठायीं और मुझे घूरने लगे॰ वे मेरे तरफ ऐसे देख रहे
थे, जैसे मैं उनके समीप पड़ा एक शव हूँ॰ काफी
देर तक मृत बैठा उनकी घूरती नजरों को झेलना जब असंभव हो गया,
तो मैंने करुण रस में सनी कमरे की चुप्पी तोड़ी और बोला,
"सुना, आप शर्मिंदा हैं ?"
"हूँ॰ वे बोले ॰
"शर्मिंदा हों आपके
दुश्मन, आप क्यों शर्मिंदा हों॰" मैंने कहा ॰
"नहीं, मैं शर्मिंदा हूँ ॰"
"आप किस बात पर
शर्मिंदा हैं?" मैंने पूछा ॰
वे चोंके॰ वे कुछ देर याद
करते रहे कि वे किस बात पर शर्मिंदा हैं, मगर याद नहीं कर पाये॰ वे शायद पिछले एक-दो घंटों में लगातार शर्म से
इतने गहरे डूब गए थे कि अपने शर्मिंदा होने की वजह ही भूल गए थे॰ मगर मंत्री हैं, इस तरह भूल जायेँ तो देश का काम कैसे चले॰ उन्होने डायरी निकाली और उसके
पन्ने पलटने लगे॰
"आज कौन-सी तारीख है? उन्होने पूछा ?"
"नौ॰"
"अक्तूबर चल रहा है
ना॰ हाँ, अक्तूबर ही तो ! अभी तो गांधी जी का सब कुछ
हुआ॰ "और डायरी देखकर बोले, "आज मैं औरंगाबाद पर शर्मिंदा हूँ॰ "फिर हैरानी से कहा, "आजकल याददास्त बहुत कमजोर हो रही है॰"
"काम भी तो बहुत रहता
है ॰"
"हाँ, बहुत काम रहता है,
मगर फिर भी वक्त निकालकर घंटा-दो घंटा शर्मिंदा रह ही लेता हूँ॰"
"आप अहमदाबाद पर
शर्मिंदा हुए या नहीं ?"
"अरे , अहमदाबाद पर तो दो-तीन दिन रहा॰ पिछले दिनों
तो कुछ ऐसा हुआ कि जब शर्मिंदा होने को कुछ नहीं मिला, तो
अहमदाबाद पर हो लिया॰ मगर सवाल यह है कि एक ही विषय पर कब तक शर्मिंदा रहें॰ बोर
हो जाता हूँ ॰"
"सही बात है ॰"
"क्या किया जा सकता
है॰ हमारा देश इतना विशाल है,
समस्याएँ इतनी अधिक हैं और हालत ऐसी हो गई है॰ कई बार तो दिन में दो-तीन मामले ऐसे
हो जाते हैं कि नेताओं का काम बढ़ जाता है और उन्हें लंबे वक्त तक शर्म से झुके
रहना पड़ता है॰"
"मगर मैं कहता हूँ कि
आप अपने विभाग की शर्म झेलिए । आप दूसरे मंत्री के विभागों की बातों पर क्यों
शर्मिंदा होते हैं । केबिनेट में सबको अलग-अलग विभाग बंटे हुए हैं ।"
"ठीक कह रहे हो
।"
"जैसे रबान्त सम्मेलन
में हमें भाग नहीं लेने दिया गया । यह शर्म की बात हुई । मगर साहब उसके लिए विदेश
विभाग के मंत्री लज्जित हों, आप
काहे अपना कीमती वक्त खराब करेंगे ?"
"कह तुम ठीक रहे हो, मगर भाई हम आल इंडिया लीडर हैं - हमसे कुछ
अपेक्षाएँ की जाती हैं, हमारे कुछ फर्ज हैं । सिर्फ अपने
विभाग तक हम सीमित तो नहीं रह सकते ।"
"इस तरह तो आप अपना
स्वास्थ्य खराब कर लेंगे ।"
"देश के लिए जीवन दे
दिया है, तुम स्वास्थ्य की बात कर रहे हो!"
"मैं आपसे सहमत नहीं।
आपके पास दो-तीन विभाग हैं। आप वरिष्ठ नेता हैं। आपकी शर्मिंदगी की एक सीमा है, एक स्तर है । आप हर किसी मामले में
शर्मिंदा नहीं हो सकते । जैसे आपके पास कृषि विभाग है और देश में पैदावार कम हो
रही है। विदेशों से अनाज मांगना पड़ रहा है । आपको सिर्फ इस बात पर शर्मिंदा होना
चाहिए।"
"पहले तो तुम यह सुधार
कर लो कि मेरे पास कृषि विभाग नहीं है । जब था तब भी मैं इस बात पर शर्मिंदा नहीं
था कि हमें बाहर से अनाज मांगना पड़ता है । यह नीति का प्रश्न है, इसमें शर्म कैसी ।" वे गरजकर बोले ।
उन्हे क्रोधित देख मैं नरम
पड़ा। मगर मैंने सूत्र नहीं तोड़ा। मैंने कहा "श्रीमान, जहां तक मुझे ख्याल आता है, मैंने अनेक बड़े नेताओं को भाषाओं में यह वक्तव्य देते सुना है कि यह
हमारे लिए शर्म की बात है कि देश को बाहर से अनाज मांगना पड़ रहा है ।"
वे ज़ोर से खिलखिलाकर हँस
पड़े । "देखो भाई, ऐसा है
कि शर्म-शर्म में भी फर्क होता है। कुछ बातों को लेकर नेता लोग जनता को शर्मिंदा
करने की कोशिश करते हैं, जैसे अनाज ज्यादा पैदा न करने की
बात, अधिक पैदा करने की बात। कुछ जनता की बातों पर हम नेता
लोग शर्म से सिर झुकाते हैं और कई बातें ऐसी होती हैं जिस पर जनता और नेता सभी
शर्मिंदा रहते हैं।"
"जैसे ?" मैंने पूछा।
"जैसे पूज्य बापू के
बताए मार्ग पर देश का काम न चल पाया। इसे लेकर जनता हमें कहती है कि शर्म आनी
चाहिए। हम जनता को कहते हैं कि तुम्हें शर्म आनी चाहिए। गरज यह है कि दोनों
शर्मिंदा हैं। इस प्रकार सारा देश ही शर्मिंदा है। आखिर देश है क्या - जनता और
नेता से मिलकर ही तो देश बना है।"
"क्या बात है। आप बहुत
बड़ी बात कह गए । वाह ! देश है क्या, नेता और जनता से मिलकर ही तो देश बना है। वाह।"
"और जनता भी
क्या।" वे बोले, "असल में तो नेता ही देश है । जब नेता शर्मिंदा होता है तो अपने आप सारे देश
का माथा शर्म से झुक जाता है।"
"मगर एक निवेदन
है।"
"कहिए ।"
"प्रतिदिन के बजाय आप
सप्ताह में एक दिन शर्म का निश्चित कर लीजिये। उस दिन आप पूरे समय राष्ट्रीय, प्रांतीय, स्थानीय और
पार्टी के आपसी मामलों को लेकर जितना शर्मिंदा होना हो, हो
लिया कीजिये। क्या ख्याल है ! यह रोज-रोज का सिर-दर्द।"
"पहले मैं यही करता
था। सिर्फ रविवार को शर्मिंदा होता था। उस दिन मिलने जुलने वाले काफी आते हैं। मैं
बातें भी करता रहता था और बात-बात पर अफसोस भी जाहिर करता रहता था। लोग प्रभावित
होते थे। वे कहते थे कि आप सचमुच अखिल भारतीय स्तर के लीडर हैं, क्योंकि आप सारे देश के सभी मामलों और
घटनाओं पर अफसोस करते हैं, सारा दिन शर्म से झुके रहते
हैं।"
"इसमें क्या शक है
!"
"दूसरे नेता टुच्चे
हैं, बेशर्म हैं।" वे क्रोध में बोले -
"मैं जितना हर बात पर शर्मिंदा होता हूँ, उसके वे एक
चौथाई भी नहीं होते ।"
"उनकी आपसे क्या
बराबरी। आप तो शर्म में डूब मरते हैं, जब कि वे चिंता भी नहीं करते। निहायत शर्म की बात है।"
"तुम मानते हो!"
"मानता हूँ ।"
मैंने ज़ोर देकर कहा।
"तुम्हारा कोई काम हो
तो बताना, हम कर देंगे।" वे बोले.
"फिलहाल कोई काम
नहीं। मगर आप यह बताइये कि आपने सप्ताह में एक दिन शर्माना बंद क्यों कर दिया।
"
वे गंभीर हो गए। उन्होने छत
की ओर देखा, गर्दन सहलायी और
धीरे से कहा - "देखो, हमारा देश प्रगति कर रहा है।
प्रगति करने के साथ समस्याएँ बढ़ रही हैं। अब वह समय नहीं रहा जब नेता मजे से सिर्फ
सप्ताह में एक बार शर्म खाता था और बाकी दिन आराम से पड़ा रहता था। अब स्थितियां
बदल रही हैं। जनता हमसे उम्मीद करती है कि हम ज्यादा-से-ज्यादा शर्म करें और हमें
करनी पड़ रही है।
"मगर कब तक, आखिर कब तक ? कब तक
आप देश की हालत पर शर्मिंदा होते रहेंगे ? कुछ कीजिये, कदम उठाइए साहब। मुझे तो आपके स्वास्थ्य की चिंता हो रही है । कहीं आपको
दिल का दौरा न पड़ जाए ।"
"इस शरीर ने जीवन-भर
दौरा किया है। सारा देश-विदेश घूमा है। एक दौरा दिल का भी सही।" वे बोले और
सिर लटकाकर बैठ गए। "नहीं-नहीं, मैं यह नहीं होने दूँगा। आप कुछ कीजिये। पार्टी को एक कीजिये, समस्याओं के हल निकालिए, कड़े कदम उठाइए, कुछ कीजिये।"
"मैं शर्मिंदा
हूँ।"
"सिर्फ इससे काम नहीं
चलेगा, कुछ कीजिये।"
"मैं शर्मिंदा हूँ, और क्या करूँ।" वे झल्लाकर
बोले-"मैं शर्मिंदा हूँ, देश में एकता नहीं, समस्याएँ हल नहीं हो रहीं, हम कड़े कदम नहीं उठा रहे, काम कर नहीं रहे, इसलिए मैं शर्मिंदा हूँ, और क्या को चिल्लाकर बोले थे। उनकी आवाज सुन उनका वही चमचा, जो मुझे दरवाजे पर मिला था, दौड़कर अंदर आया और मुझे
सोफ़े से खींचने लगा -"उठिए आप, निकलिए यहाँ से। आप एक
नेता को डिस्टर्ब कर रहे हैं। यह उनके शर्मिंदा होने का वक्त है। उन्हे शांति से
शर्मिंदा होने दीजिये।"
"आप कौन हैं ?"
"मैं मंत्रीजी का चमचा
हूँ।"
"मैं डिस्टर्ब नहीं कर
रहा।" मैं नेता की तरफ घूमा-"आय एम सौरी । मैं डिस्टर्ब नहीं करना
चाहता। मैं शर्मिंदा हूँ।"
"यह मुझे डिस्टर्ब
नहीं कर रहे हैं, इन्हे
बैठा रहने दो।" - उन्होने चमचे से कहा। चमचा मेरी ओर क्रोध से घूरता चला गया। कुछ देर चुप्पी रही। फिर वे बोले -
"तुमको भी कभी शर्म आती है ?"
"आती है। कई मामलों
में मेरा सिर शर्म से झुक जाता है। जैसे हमारे निष्क्रिय नेताओं को देखकर, जिन्हें हमने चुना है।"
"तुम ठीक करते हो। यह
हमारा राष्ट्रीय गुण है, धर्म
है। हर भारतवासी को शर्मिंदा होना चाहिए। अच्छी बात है।"
उन्होने गर्दन लटका ली, सिमटे पैरों को और समेटा और धीरे-धीरे एक
अच्छे नेता की तरह शर्म से सोफ़े में डूब गए।______________
1968-69 के वे दिन
(यह लेख सौ
वर्ष बाद छपने के लिए है)
आज से सौ वर्ष पहले अर्थात
1969 के वर्ष में सामान्य व्यक्ति का जीवन इतना कठिन नहीं था जितना आज है। न ऐसी
महँगाई थी और न रुपयों की इतनी किल्लत। सौ वर्ष पूर्व यानी लगभग 1968 से 1969 के
काल की आर्थिक स्थिति संबंधी जो सामग्री आज उपलब्ध है उसके आधार पर जिन तथ्यों
का पता चलता है वे सचमुच रोचक हैं। यह सच है कि आम आदमी का वेतन कम था और आय के
साधन सीमित थे पर वह संतोष का जीवन बिताता था और कम रुपयों में उसकी जरूरतें पूरी
हो जाती थीं।
जैसे एक रुपये में एक किलो
गेहूँ या गेहूँ का आटा आ जाता था और पूरे क्विण्टल गेहूँ का दाम सौ रुपये से कुछ
ही ज्यादा था। एक सौ बीस रुपये में अच्छा क्वालिटी गेहूँ बाज़ार में मिल जाता
है। शरबती, कठिया, पिस्सी के
अलावा भी कई तरह का गेहूँ बाज़ार में नज़र आता था। दालें रुपये में किलो भर मिल
जाती थीं। घी दस-बारह से पंद्रह तक में किलो भर आ जाता था और तेल इससे भी सस्ता
पड़ता था। आम आदमी डालडा खाकर संतोष करता था जिसके तैयार पैकबंद डिब्बे अधिक
महँगे नहीं पड़ते थे। सिर्फ़ अनाज और तेल ही नहीं, हरी
सब्जि़यों की भी बहुतायत थी। पाँच रुपया हाथ में लेकर गया व्यक्ति अपने परिवार के
लिए दो टाइम की सब्ज़ी लेकर आ जाता था। आने-जाने के लिए तब सायकिल नामक वाहन का
चलन था जो दो सौ-तीन सौ रुपयों में नयी मिल जाती थी। छह हज़ार में स्कूटर और
सोलह से पच्चीस-तीस हज़ार में कारें मिल जाती थीं। पर ज़्यादातर लोग बसों से
जाते-आते थे, जिस पर बीस-तीस पैसा से अधिक ख़र्च नहीं बैठता
था। निश्चित ही आज की तुलना में तब का भारत सचमुच स्वर्ग था।
मकानों की बहुतायत नहीं थी
पर कोशिश करने पर मध्यमवर्गीय व्यक्ति को मकान मिल जाता था। तब के मकान भी आज की
तुलना में बड़े होते थे, यानी उनमें दो-तीन कमरों के
अलावा कुछ खुली जमीन मिल जाती थी। छोटे शहरों में दस-पंद्रह रुपयों में चप्पल और
पच्चीस-चालीस में चमड़े का जूता मिल जाता था जो कुछ बरसों तक चला जाता था। डेढ़
सौ से लेकर तीन-चार सौ तक एक पहनने लायक सूट बन जाता था-टेरीकॉट के सिले-सिलाये।
कमीज़ सिर्फ़ पचास-खुद कपड़ा खरीदकर सिलवाने में बीस-पच्चीस में बन जाती थी। एक
सामान्य-व्यक्ति अपने पास तीन-चार कमीज़ या बुश्शर्ट रखता था। लोगों को पतलून
के अंदर लँगोट पहनने का शौक था, जो डेढ़-दो रुपये में मिल
जाती थी।
औरतों का भी ख़र्च ज्यादा
नहीं था। एक साड़ी तीस-पैंतीस से सौ-सवा सौ में पड़ जाती थी। हर औरत के पास ट्रंक
भर साडि़याँ आम तौर पर रहती थीं जो वे बदल-बदलकर पहन लेती थीं। स्नो की डिबिया दो
रुपये में, लिपस्टिक ढाई-तीन रुपये में और चूडि़याँ
रुपये की छह आ जाती थीं। इसी कारण शादी करके स्त्री घर लाना महँगा नहीं माना जाता
था। अक्सर लोग अपने विवाह तीस साल की उम्र में कर डालते थे। स्त्रियों का बहुत कम
प्रतिशत नौकरी करता था। अधिकांश स्त्रियों का मुख्य धन्धा पत्नी बनना ही था।
कुछ स्त्रियों के कुँवारी रहकर जीवन बिताने के भी प्रमाण मिलते हैं। पर विवाह का
फैशन ही सर्वत्र प्रचलित था। यह कार्य अक़्सर माता-पिता करवाते थे, जो बच्चों को घरों में रखकर पालते थे।
1969 का भारत सच्चे अर्थों
में सुखी भारत था। लोग दस-साढ़े दस बजे दफ़्तर जाकर पाँच बजे वापस लौटते थे, पर दफ़्तरों में एक कर्मचारी के पास दो घण्टे से अधिक का काम नहीं था।
कैंटीन में चाय का कप बीस-तीस पैसों में मिल जाता था। एक ब्लेड बारह-पंद्रह पैसों
में कम-से-कम मिल जाती थी। और अख़बार बीस पैसे में आ जाता था। जिन्हें शराब पीने
की आदत नहीं थी वे दो रुपया जेब में रख सारा दिन मज़े से गुज़ार देते थे। सिगरेट
की डिबिया में दस सिगरेटें होती हैं और पूरी डिबिया पचास-साठ पैसों में मिल जाती
थी। पहले की सिगरेट भी आज की सिगरेटों की तुलना में काफ़ी लंबी होती थी। हाथ की
बनी बीड़ियाँ आज की तरह नियामत नहीं थीं। दल-पंद्रह पैसे के बंडल में बीस बीड़ियाँ
निकलती थीं। माचिस आठ-दस पैसे में आ जाती थी। जिनमें साठ-साठ तक तीलियाँ होती थीं।
हालाँकि लायटर का रिवाज़ भी शुरू हो गया था था।
1968-69 की स्थिति का अध्ययन
करने पर पता लगता है कि रेडियो सुनने और सिनेमा देख लेने के अलावा कला-संस्कृति
पर लोग अधिक खर्च नहीं करते थे। हालाँकि अख़बार निकलते थे, पत्रिकाएँ छपती थीं पर उनकी बिक्री कम थी। माँगकर पढ़ने और सांस्कृतिक
कार्यक्रमों और नाटकों के फ्री पास प्राप्त करने का प्रयत्न चलता रहता था। उसमें
सफलता भी मिलती थी। विद्वानों के भाषण फोकट में सुनने को मिल जाते थे। मुफ्त
निमंत्रण बाँट निवेदन किये बग़ैर भीड़ जुटना कठिन होता था। लेखक सस्ते पड़ते थे।
आठ-दस रोज़ मेहनत कर लिखी रचना पर तीस-पैंतीस से सौ-डेढ़ सौ तक मिल जाता था पर
कविताएँ पच्चीस से ज़्यादा में उठ नहीं पाती थीं। बहुत-सी पत्रिकाएँ बिना
लेखकों-कवियों को कुछ दिये ही काम चला लेती थीं। एक पत्रिका आठ-दस रुपये साल में
एक बार देने पर बराबर आ जाती थी। अधिकांश पत्रिकाएँ लेखकों-कवियों को मुफ़्त प्रति
दे रचनाएँ प्राप्त कर लेती थीं। सस्ते दिन थे। चार रुपये रीम काग़ज़ मिलता था और
साठ पैसों में स्याही की बोतल मिल जाती थी। वक़्त काफ़ी था, लेखक लोग रचना माँगने पर दे देते थे।
निश्चित ही 2068-69 की तुलना
में सौ वर्ष पूर्व के वे दिन बहुत अच्छे थे। देश में इफ़रात थी और चीज़ें सस्ती
थीं। आज उस तुलना में भाव आसमान पर पहुँच गये हैं कि जीना मुश्किल है। कमाई में
पूरा नहीं पड़ता बल्कि बहुत से लोगों के लिए दोनों टाइम का भोजन जुटाना भी कठिन है।
मकान और फर्नीचर सभी महँगा है कि लोग कठिनाई से ख़रीद पाते हैं। उन दिनों में एक
सोफ़ासेट ढाई सौ से सात सौ रुपयों में आ जाता था और साधारण निवाड़ का पलँग (तब
निवाड़ के पलँग प्रचलित थे) तीस-चालीस से ज़्यादा नहीं पड़ता था। तीस रुपये में
रज़ाई और साठ-सत्तर में बढ़िया कम्बल मिल जाते थे। कोई आश्चर्य नहीं अगर आज 2069
की तुलना में 1969 का आदमी काफ़ी सोता था और घण्टों रज़ाई में घुसे रहना सबसे
बड़ी ऐयाशी थी। आज वे दिन नहीं रहे, न वैसे लोग।
हमारे उन पुरखों ने जैसा शुद्ध वनस्पति घी खाया है, वैसा
हमें देखने को भी नहीं मिलता। तब की बात ही और थी। एक रुपये में आठ जलेबियाँ चढ़ती
थीं, लोग छककर खाते थे। केला रुपये दर्जन तक आ जाता था। फिर
क्यों नहीं बनेगा अच्छा स्वास्थ्य? पुराने लोगों को
देखो-साठ-सत्तर से कम में कोई कूच नहीं करता था। लंबी उमर जीते थे और ठाठ से जीते
थे। आज की तरह श्मशान में अर्थियों का क्यू नहीं लगता था। पाँच रुपये में पूरा
शरीर ढँकने का कफ़न आ जाता था। सुख और समृद्धि के वे दिन आज कहानी लगते हैं जिन पर
सहसा विश्वास नहीं आता। पर यह सच है कि आज से सिर्फ़ सौ वर्ष पूर्व हमारे देश के
लोग सुख की जिंदगी बिता रहे थे। तब का भारत आज की तुलना में निश्चित ही स्वर्ग
था।
दोनों व्यंग्य हमेशा की तरह शानदार हैं। धन्यवाद्। आपने उनके व्यंग्य दिए।
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