जीवंत है शरद जोशी का ‘यथासमय’ व्यंग्य संग्रह
हिंदी के प्रमुख व्यंग्यकार शरद जोशी जी
के साहित्यिक अवदान से भला कौन परिचित नहीं है। व्यवस्था-तन्त्र में व्याप्त
भ्रष्टाचार तथा आम आदमी को बोनसाई बनानेवाली सत्ता संस्कृति के विरूद्ध वे लगभग
जेहादी स्तर पर आजीवन संघर्षरत रहे। वे अपने सहज और बोलचाल के गद्य में ऐसी
व्यंजना भरते हैं जो पाठक के मन- मस्तिष्क को केवल झकझोरती नहीं, एक नयी सोच भी पैदा करती
है। वाकई उनके व्यंग्य नावक के तीर होते हैं। उनकी लेखनी में समाज में यत्र तत्र
सवर्त्र फैले भ्रष्टाचार, शोषण, विकृति
और अन्याय पर जमकर प्रहार करती है और सोचने के लिए बाध्य करती है। यथासमय शरद जोशी
के महत्वूपर्ण व्यंग्यों का संग्रह है, जिसे बड़े ही जतन से
संजोया गया है। हिंदी के प्रमुख व्यंग्यकार शरद जोशी का जन्म 21 मई 1931 को मध्यप्रदेश के उज्जैन में हुआ। शरद जी
ने पत्रकारिता, आकाशवाणी, और सरकारी
नौकरी के बाद उन्होंने लेखन को ही अपना जीवन बना लिया। नई दुनिया से उन्होंने लेखन
की शुरूआत की। 1990 में हिंदी एक्सप्रेस के सम्पादन का
दायित्व संभाला। बाद में नवभारत टाइम्स में दैनिक
व्यंग्य लिखकर देशभर में चर्चित हुए। 1990 में जोशी
जी को पद्श्री से सम्मानित किया गया। जोशी जी के कई लेखकों को टीवी नाटकों के रूप
में फिल्माया गया, जिसमें सब टीवी पर प्रसारित होने वाला
लापतागंज, ये जो है जिंदगी, विक्रम
और बेताल आदि हैं। इसके अलावा उन्होंने
हिंदी फिल्मों जैसे उत्सव, दिल है कि मानता नहीं जैसी
फिल्मों केलिए डॉयलॉग भी लिखे। शरद जोशी जी का निधन 5 सितंबर
1991 को मुंबई में हुआ था। शरद जोशी जी की 271 पृष्ठों की पुस्तक यथासमय उनके व्यंग्यों का संग्रह है, जिसे भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित किया गया है जिसका मूल्य 140 रुपए है।
क्षणभंगुर है मानव ये जीवन
इसे व्यतीत कर नित नए अवसर पाने में
अगर आप शरद जोशी जी के व्यंग्य संग्रह को पढ़ रहे हैं और अचानक ठहाके
लगाकर हंसने लगे तो आपको ये सोचने का मौका नहीं मिलेगा की मेरे सामने वाला क्या
सोच रहा है। पुस्तकालय, संस्कृति, हिंदी भाषा, साहित्यकार,
खेल, राजनीति, ब्यूरोक्रेसी,
अपराध, समाज, शहर,
नेता, चुनाव, पुलिस,
अपराधी, युवाओं से संबंधित सभी मामलों का इतना
बेहतरीन शाब्दिक चित्रण किया है जो बेहद लाजवाब है। जोशी जी ने अपने इस व्यंग्य
संग्रह में पुस्तकालय को सरकारी गोदाम बताया है जो अफसरों के बच्चों के लिए मुफ्त
में पुस्तकों की आपूर्तिकर्ता होती है। भारतीय संस्कृति की दया का विवेचन इस तरह
किया गया है कि कैसे लोग इसकों याद भर करने केलिए भरी सभा में इस भव्य और अपार
भारतीय संस्कृति का ेभरे मंच पर दो शब्दों
में बयां करने की चुनौती दे देते हैं। जोशी जी ने हिंदी की हालत पर भी बड़ा दुख
जताया है और बड़े ही गुस्से में भारत के अंग्रेजपरस्त अधिकारियों को कोसा है,
इसके अलावा हिन्दुस्तान के राजनीतिज्ञों की भी जमकर क्लास लगाई है
जिनको कहा गया है कि ये वही लोग हैं जो ब्रिटेन जाकर बनार्ड शॉ से मिलने के लिए
लाइन में खड़े रहते हैं, लेकिन इलाहाबाद में निराला से मिलने
के लिए वक्त नहीं था। भारत में साहित्यकारों और लेखकों की दयनीय हालत का भी बड़ी
संजीदगी से व्यक्त किया गया है, जोशी जी ने साहित्यकारों की
उस पीड़ा को इस तरह से लिखा है कि उसे पढ़कर हमे ज्ञात हो जाएगा शब्दों और कलम के
ये सिपाही किस हालात से गुजरते हैं। जोशी जी ने लेखकों की एक प्रमुख बीमारी का
खुलासा किया है जिसे मूल्यांकन का मर्ज कहा है और इसका प्रमुख लक्षण बताया है कि
वो बस यही ढ़ंढंते हैं कि कोई उनका मूल्यांकन कर दे, लेकिन
आखिरी साहित्यकारों का आखिरी मूल्यांकन कबाड़ी वाला ही करता है जो उनके बहुमूल्य
लेखकों को किलों के भाव में मूल्यांकन करता है। खेल पर जोशी जी ने खूब कसीदे कसे
हैं हॉकी, क्रिकेट और रिकॉर्ड का ऐसा मिश्रण पेश किया है की
उनकी हालत ही पतली हो गई है। हॉकी की पतली हालत का भी पता चल जाएगा जो विभागों और
सरकारी नीतियों के आगे दम तोड़ रही है जो अब केवल राष्ट्रीय खेल के नाम पर विभागीय
खेल बन कर रह गई है।
राजनेजाओं की भी जोशी जी ने खूब कसाई की है और उनके कर्मो पर लिखा है
कि ये सफेद लिबाज में बिल्ले हैं जो किसी साफ जगह गंदगी करता है तो उसे फौरन
मिट्टी से ढ़क देता है, जिससे संदेश मिलता है कि बुराइयों को एक नेक काम से ढ़क देना चाहिए और
अगले चुनाव में जीत की उम्मीद को प्रबल रखना चाहिए। अपराध देश में बढ़ता जा रहा है
और बलात्कार को लेकर जोशी जी ने लिखा है कि पहले के अपराधी ऐसे मामलों में थानों
में दुबक कर बैठते थे, लेकिन आज केसमय में इसके उलट हो रहा
है और सभी अपराधी सीना तान कर चौकी इंचार्ज की कुर्सी पर बैठता है। जोशी जी लिखते
हैं कि आज का अपराधी बम फेंक कर हत्या भी कर दे तो वो चाहता है कि उसे उसका निजी
मामला समझा जाए और खुद को पूरे देश के सामने ऐसे देखता है कि पूरा समाज अपराधी है
जो उसने ये क्यों नहीं किया। जोशी जी ने युवा दिलों को भी खूब टटोला है और इतना
टटोला है कि इसकों पढ़ते वक्त मुझे ये लगने लगा कि अरे जोशी जी ने मेरे बारे में
क्यों लिख दिया है, तब मैने अंदाजा लगा लिया कि ये समस्या
मेरी नहीं है बल्कि हर युवा दिल की है जो बस स्टाप पर अपने अकेलेपन को तोड़ने के
लिए एक हसीन लड़की की तलाश में अपने नयनों को चारों दिशाओं में घुमाता रहता है,
लेकिन आखिर में वो बस में चला जाता है क्योंकि उसे उस लड़की के
सामने शराफत का चोला भी तो पहनना है। जोशी जी ने लड़कों के बारे में एक और खुलासा
किया है कि बस स्टाप पर शराफत भी एक पैंतरा है, खामोश खड़े
रहना और लड़कियों पर ध्यान नहीं देना भी लड़कियों में डूबे रहने का तरीका है,
आपके साथ तो ऐसा नहीं है पर मेरे साथ तो ऐसा ही है, लेकिन मैं लड़कियों के मामले में शरीफ भी हूं।
यथासमय के कुछ व्यग्यों का सार :-
1: दर्शन ने दर्शन को को मारा
भारत में दर्शन शब्द बहुत प्रचलित हैं यहां देवी दर्शन, नेता देर्शन से लेकर के
अंतिम दर्शन तक के लिए होड़ लगी रहती है। हालांकि भारत से दर्शन इसलिए गायब हो गया
है क्योंकि बुद्ध की सुंदर मूर्तियां बनी और बुद्ध दर्शन गायब हो गया, कुछ ऐसा ही हाल मायावती द्वारा लखनऊ में बनाए गए बौद्ध विहार का है,
गांधी की मूर्तियां लग गयीं तो गांधी दर्शन गायग हो गया जिसका मतलब
ये है कि दर्शन ने ही दर्शन को मार दिया है।
2: सड़क और गड्ढे
भारत में सड़कों की हालत खराब है और वहीं उनकी पहचान है लेकिन जोशी जी
ने राजा दशरथ पर आश्चर्य जताया है कि आखिर वो कहां से रथ घुमाकर ले आते थे। बेचारे
राम को तो वनवास में सपाट मार्ग मिला नहीं और उसी के बाद उन्होंने ने निर्णय लिया
कि वो पुष्पक विमान से ही अयोध्या कूच करेंगे कहने का अर्थ ये है कि अगर सड़के
होती तो विमान कहां से आते खैर वो त्रेता युग केराम थे लेकिन आप कलयुग के मानव हैं
जो सड़क मंत्रालय और नगर निगम को कोसते हुए अपनी यात्रा पूरी करते रहें।
3: बल्ले से कलम तक
पहले क्रिकेट में अनिवार्यता थी कि कप्तान ऐसे चुने जाते थे जो मधुर
अंग्रेजी बोलने में निपुण हो ताकि मैच में मिली हार के बाद फर्राटेदार अंग्रेजी से
उसके जख्म को कम कर दे। लिखने का तो सवाल ही नहीं उठता है क्योंकि हॉकी और फुटबॉल
के खिलाड़ी उस समाज से आते हैं जिनको प्रार्थना पत्र लिखवाने के लिए किसी की
खुशामद करनी पड़ती है। पर जिनके दामन में दाग होता है वे शायरी से कतराते हैं, शायरों से कतराते हैं,
कुल मिलाकर शब्द मात्र से कतराते हैं, फिर
चाहे वो पत्राकारिता ही क्यों न हो।
4: टीम मैनेजर की प्रार्थना
सौभाग्य और दुर्भाग्य के बीच निरंतर झूलती इस भारतीय हॉकी टीम का मैं
मैनेजर हूं मैं , कृपालु मुझ पर विशेष ध्यान रखना क्योंकि टीम केहार जाने के बाद उसकी हार
के कारणों का विश्लेषण मुझे ही करना पड़ेगा। हे दयालु, तू
अपनी कृपादृष्टि हम पर रख और जैसे भी काम करके इस बार विजयी बना दे।
5: वह चश्मा कहां है
गांधी जी का चश्मा खो गया है, इसकी खबर लगते ही शरद जी चौक गए और सबसे ज्यादा धक्का
उनके मित्र शर्मा जी को लगा, जिन्होंने चश्में को ढ़ूंढ़ने
केलिए खूब कोशिश की और अंत में उन्होंने उस चश्में को गांधी फिल्म में गांधी का
अभिनय करने वाले बेन किंग्सले को पहने देखा, लेकिन अभी उनको
शक है कि अगर किंग्सले नहीं चुराएगा तो ये चश्मा इसी देश में किसी के पास पड़ा
होगा।
6: बड़ा देश बड़ा झूठ
कई बार बड़े देशों पर मुझे दया आती है, सोचकर भला लगता है कि चलो हमारा देश छोटा है और हमें
इतना झूठ नहीं बोलना पड़ता। अमेरिका को कसते हुए जोशी जी लिखते हैं कि आखिर कौन सा
ऐसा क्षण होता होगा जब वो सच बोलते होंगे। खैर बड़ राष्ट्र का अर्थ ही है बड़ा झूठ
और जिस तरह निरंतर झूठ बोलने वाला व्यक्ति हमें बजाए अपराधी के एक मरीज लगने लगता
है उसे उसी तरह निरंतर झूठ बोलने वाला राष्ट्र भी एक मरीज लगता है।
7: हाथ मिलाने से हाथ हिलाने तक
विश्व में हाथ मिलाने और मुस्कुराने का बहुत प्रचलन है और इसी संदर्भ
में उसने कहा कि वे आए, वे मुस्कुराए, उन्होंने हाथ मिलाया यह बहुत बड़ी
बात है। वे हवाई जहाज पर चढ़ गए, उन्होंने हाथ हिलाया और हाथ हिलाने से हाथ मिलाने तक ये दिन समाप्त हुआ।
8: सारे जहां का दर्द
देश के प्रधानमंत्री को अपने देश की चिंता नहीं है लेकिन वो विश्व
केसभी देशों से परस्पर शांति और सद्भाव की अपील करते हैं और सभी मामलों को आपसी
बातचीत से निपटाने की सलाह देते हैं। लेकिन जोशी जी को इस दर्द से बहुत पीड़ा थी
और इसी कारण उन्होंने प्रधानमंत्री ना बनने का निर्णय लिया। उनका मानना था कि
स्कूल में भूगोल का शिक्षक मुझे संसार के नक्शे के पास खड़ा कर बेढ़ब सवाल पूछता
था कि बताओं ब्लाडीबास्टक, होनोलूलू कहां है और मैं बेमन इन शहरों को सारी दुनिया में तलाशता रहता था,
तो क्यों बनता मैं प्रधानमंत्री। कुछ इसी तरह के हमारे प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह हैं जो देश को अस्थिरता के माहौल में सारे जहां का दर्द कम करने केलिए
विदेश चले जाते हैं।
9: गालियां खाने का वर्ष
चुनाव के बीच के पांच वर्षो के तीन वर्ष पत्रकारिता का स्वर्णिम युग
होता है और उसके बाद दो वर्ष गालियां खाने का वर्ष होता है और आजकल वही चल रहा है
और इन दिनों नेताओं के मुंह से जो सुनने को मिले वही कम है। पत्रकारों और नेताओं
का चोलीदामन का साथ है लेकिन कई पल ऐसे भी आते हैं जब दोनों एक दूसरे को जमकर
गालियां देते हैं, लेकिन इसमें बाजी हमारे नेता ही मारते हैं। गलती पत्रकारों की भी है। पिछले
दिनों बलात्कार की इतनी घटनाएं प्रकाश में आईं और प्रशासन ने नोटिस जारी कर दिया
कि प्रेस उनके प्राइवेट मामले में दखल दे रहा है। नेताओं की शिकायत है कि अगर
बलात्कार की घटनाएं ही प्रकाशित की जाएंगी तो शिलान्यास और निर्माणकार्यो की खबरे
कहां छपेंगी। इस मामले में पत्रकारों का कहना है किमालिक हमें जैसी नीतियां बताते
हैं, वैसे हमें चलना पड़ता है और नेता कहते हैं कि मालकिन
हमें जैसी नीतियां बताती हैं, वैसे हमें चलना पड़ता है हम भी
मजबूर हैं।
10: भोपाल में वक्त गुजारने का समय
भोपाल में वक्त गुजारने का सबसे अच्छा तरीका है कि आपकी सरकारी नौकरी
हो जाए। या तो फिर आप धीरे से ये कह दीजिए बड़ी धांधली है बस अब क्या पूरी मंडली
बैठ जाएगी जो मध्यप्रदेश विधानसभा से कम नहीं लगेगी। या जिस विभाग में आप नौकरी कर
रहें हैं वहां ये पता करिए की किसका तबादला होने वाला है और क्यों, इसी को लेकर इतना धोइए कि
दो चार दिन निकल जाए। फिर चार दिन बाद पता करिए कि उसका तबादला हुआ की नहीं हुआ तो
उसके पीछे कौन था और नहीं हुआ तो इसका कारण क्या रहा। बस इन सवालों का जवाब
ढूंढ़ते रहिए समय बड़ी ही आसानी से कट जाएगा।
11: जोशी जी राष्ट्रपति के लिए क्यों खड़े नहीं हुए
जोशी जी को बड़ा दुख होता है कि वो राष्ट्रपति चुनाव में क्यों नहीं
खड़े हुए। आखिर उनको अपने उपर भरोसा है कि वो भी सेलूट ले सकते हैं, हाथ मिला सकते हैं,
स्माइल दे सकते हैं, गेस्ट के साथ चाय पी सकता
हूं दस्तखत कर सकता हूं। तो फिर मैं बन सकता था तो क्यों नहीं बना और खड़ा हो सकता
था तो क्यों नहीं हुआ। खैर छोड़िए राष्ट्रपति चुनाव में बड़ा खेल है जगजीवन राम को
राष्ट्रपति पद केलिए चुना गया तो वो कहने लगे कि मुझे योग्य व्यक्ति समझकर
राष्ट्रपति बनाया जाए तो मैं बनने केलिए तैयार हूं लेकिन हरिजन होने के नाते
राष्ट्रपति नहीं बनूंगा और वो नाराज हो गए। वहीं जाकिर हुसैन साहब राष्ट्रपति बन
गए और लोगों ने कहा कि कितने भी उंचे पद पर गए हों हैं तो मुसलमान ही।
12: टूटता अकेलापन
शराफत भी एक पैंतरा है, खामोश खड़े रहना और लड़कियों पर ध्यान नहीं देना भी
लड़कियों में डूबे रहने का एक तरीका है। सड़क गली मोहल्ले से गुजरने वाली हर लड़की
को अपनी मासूका समझ लेते हैं और अपने उस अकेलेपन को तोड़ने की कोशिश करते हैं जो
सालों से टूटने के लिए बेचैन हो उठी है।
13: आपका बन्दा, हॉकी कोच की
मुद्रा में
नियुक्त करने से पूर्व अफसरों ने मुझे नीति स्पष्ट कर दी थी कि हमारे
देश की हॉकी टीम भारतीय जनता का नहीं बल्कि
भारत के सरकारी विभागों का प्रतिनिधित्व करती है। अफसरों ने बताया कि आपके
प्रिय चमचे कौन हैं जिनकों ओलंपिक भेजना है और खेलने का मौका अवश्य देना है। राष्ट्र
में तीन तरह के खिलाड़ी होते हैं एक वो जो ओलंपिक जाते हैं और उन्हें वहां खेलने
का मौका मिलता है, दूसरे वे जो जाते तो हैं पर इस बात का सख्ती से ध्यान दिया जाता है कि वो
खेलने ना पाएं और तीसरे वे जो योग्य खिलाड़ी हैं, मगर ओलंपिक
के काबिल नहीं समझे गए।
14: मूल्यांकन का मर्ज
मूल्यांकन एक ऐसा मर्ज है जो हर साहित्यकार को कभी न कभी लग जाता है।
कुछ को कम उम्र में और कुछ को बुढ़ापे में यह बीमारी लग जाती है। वे अंदर से
परेशान हो जाते हैं। वे अपने लेख साहित्य को बटोरकर मोहित दृष्टि से देखने लगते
हैं और मूल्यांकन के लिए उतावले हो जाते हैं और इसी अनंत अथाह कचर पेटी में अपनी
स्थिति को भांपने का आग्रह यदि पूरा हो जाए तो निश्चित ही आप सौभाग्यशाली होते
हैं।
15: मैं प्रतीक्षा में हूं
अपने देश को समझने का दावा तो सब करते हैं लेकिन ये निष्ठुर हिंदी को
नहीं समझ पाए। देश और देश की भाषा के लिए इससे बड़ा क्या अपमान है जिसने हम मिट्टी
के मानुष को पहचान दी हमने उसे ही भुला दिया है। लोग हिंदी को हीन भावना से देखते
हैं वहीं अंग्रेजी को ऐसे देखते हैं जैसे मर्लिन मनरों की गोरी टांग हो गई हो।
हमने दिनकर, महादेवी,
और माखनलाल जी को भाषण देते
हुए सुना होगा लेकिन हमारा मन यह नहीं हुआ कि हम ऐसी हिंदी बोलें, पर जब कोई अंग्रेजी में स्वरलहरी बहाता है तो रीढ़ में मधुर कंपन होने
लगता है। ये वही मधुर कंपन है जो अंग्रेजी
सरोजनी नायडू की अंग्रेजी सुनकर जवाहरलाल नेहरू की पीठ में होता था। ये वहीं नेहरू
थे जो लंदन जाने पर बनार्ड शॉ से मिलने के लिए आतुर रहते थे लेकिन इलाहाबाद जाने
पर निराला जी से मिलने का समय नहीं निकाल पाते थे। भवानी भाई ने कहा था कि हिंदी
बड़ी है शायद इसीलिए सबके चरणों में पड़ी है।
-मनीष कुमार सिंह
No comments:
Post a Comment