लघुकथा : संचेतना एवं
अभिव्यक्ति
रचना
जीवन की अभिव्यक्ति है। जीवन का प्रवाह ही रचना का प्रवाह है और यही उसका मानदण्ड भी।
किसी भी विधा का मूल्यांकन बाहर से थोपे गए मानदण्डों से नहीं हो सकता। विकासशील विधा
को कुछ निश्चित तत्त्वों की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता क्योंकि उसकी संभावनाएँ
और क्षमताएँ चुकी नहीं हैं। कविता, कहानी, उपन्यास के साथ यही बात है। लघुकथा भी इससे परे नहीं है। यह सामयिक
प्रश्नों का उत्तर देने के साथ-साथ जीवन के शाश्वत मूल्यों से भी जुड़ी है।
लघुकथा
अपनी संक्षिप्तता, सूक्ष्मता एवं सांकेतिकता में
जीवन की व्याख्या को नहीं वरन् व्यंजना को समेट कर चली है। कोई विषय लघुकथा के लिए
वर्जित नहीं है ; लेकिन विषय-चयन से अभिव्यक्ति तक की यात्रा
चुनौतीपूर्ण है। इस चुनौती को लघुकथाकारों ने सहर्ष स्वीकार किया है। युगबोध से
साक्षात्कार अनुभवों की उर्वरता ।अनुभूति की सघनता एवं संवेदना का संश्लिष्ट
प्रभाव लघुकथा की संचेतना का आधार बन सकते है। मानव बाह्य जगत से जितना जुड़ा है;
उतना ही वह अन्तर्जगत् में भी जी रहा है। बाहरी संसार के नदी,
पर्वत, पशु-पक्षी उसके मन से जुड़े हैं;
तो वह मानव होकर भी मानवेतर पात्रों से जुड़ा है। गतिशील होकर भी वह
स्थिर,गतिशील मूर्त्त-अमूर्त्त सभी का सगा -संबंधी है। अतः
लघुकथा से इन पात्रों को निर्वासित नहीं किया जा सकता। विश्व की अनेक लघुकथाएँ
इनसे जुड़ी है। खलील जिब्रान की लघुकथा 'लोमड़ी' इसका ज्वलंत उदाहरण है।
हिन्दी
लघुकथाओं में 'महानता' (डा0 पुष्करणा), जनता का खून (सुकेश साहनी) आदि में
मानवेतर या अमूर्त पात्रों का समावेश किया गया है। राजेन्द्र यादव (गुलाम) हरिशंकर
परसाई (भेड़ और भेड़िए) ने कहानियों में मानवेतर पात्रों का सफल प्रयोग किया है।
लघुकथा में ऐसे प्रयोगों से एलर्जी क्यों? हाँ, ऐसे पात्रों का निर्वाह न होने पर रचना कमजोर तो हो ही जाएगी। व्यंग्य को
लघुकथा के लिए वर्जित या अनिवार्य नहीं माना जा सकता। विद्रूपताओं पर प्रहार करने
के लिए व्यंग्य की आवश्यकता पड़ सकती है। कभी-कभी व्यंग्य रचना में आद्योपांत
पिरोया हुआ हो सकता है तो कभी कथा के समापन बिन्दु के साथ व्यंजित होता है। 'गुरु- भक्ति' (बलराम) में यदि आद्योपांत व्यंग्य है
तो 'आठवां नरक' (राम शिरके) में
व्यंग्य की तीव्रता अंत में खुलती है। हमें व्यंजनावृत्ति द्वारा बोधित अर्थ और
चुटकुले में अंतर करना होगा। जो संकेतितार्थ को नहीं पकड़ पाते; उन्हें कोई लघुकथा चुटकुला लगे तो क्या किया जा सकता है?
लघुकथा
में वर्णन और विवरण का अवकाश नहीं होता; वरन्
विश्लेषण, संकेत और व्यंजना से काम चलाया जाता है अतः रचना
को धारदार बनाने के लिए भाषिक संयम की नितान्त आवश्यकता है। जहाँ कई वाक्यों की बात
कम से कम वाक्यों में कहीं जा सके, कथन स्फीत न होकर
संश्लिष्ट हो; वहां भाषिक संयम स्वतः आ जाएगा। दिनभर की
व्यस्तता को प्रकट करने के लिए बहुत सारी बातों का वर्णन किया जा सकता है परन्तु
लघुकथा में इसी बात को कम से कम शब्दों में भी अभिव्यक्त किया जा सकता है।
पैण्डुलम (सुकेश साहनी) में सरोज की व्यस्तता दर्शाने के लिए एक सटीक
प्रयोग-"घड़ी की सुई के आगे दौड़ती हुई सरोज..." इस वाक्यांश में घड़ी
की सुई के आगे दौड़ने में सरोज की व्यस्तता और आराम न कर पाने की स्थित को न्यूनतम
शब्दों में प्रस्तुत कर दिया है।
कथ्य
में प्रखरता लाने के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया जा सकता है लेकिन प्रतीकों को
सिद्ध करने के लिए बुनना उचित नहीं है। प्रतीकार्थ प्रस्तुत अर्थ का सहायक हो, उसे उलझाने वाला न हो। कथ्य की माँगपर ही प्रतीक का प्रयोग होना चाहिए।
प्रतीक-प्रयोग से यदि कथ्य की संवेदना आहत होती है तो यह दोष प्रयोक्ता का है,
प्रतीक का नहीं। बच्चे के हाथ में धारदार चाकू दे दिया जाए तो वह
अपना हाथ भी काट सकता है। अच्छे प्रभाव के लिए प्रतीक को तात्कालिकता के प्रभाव से
मुक्त करना जरूरी हैः दुर्बोध प्रतीक रचना को कमजोर ही कर सकते हैं। जगमगाहट (रूप
देवगुण), गाजर घास (सुकेश साहनी) डाका (कमल चोपड़ा) मृगजल
(बलराम) नरभक्षी (मधुदीप) में प्रतीकों का सहज एवं सफल प्रयोग किया गया है।
मिथकों
का प्रयोग भी बहुत सारे लघुकथाकारों ने किया है। जरा-सी असावधानी पूरे मिथकीय परिप्रेक्ष्य
को घ्वस्त कर सकती है। कथ्य के अनुरूप ही मिथक का चयन करना चाहिए। मिथकों की अपनी
एक मर्यादित स्थित है, उसमें रद्वोबदल करना रचना के
साथ धोखा करना है। एक लेखक ने 'सीता' को
गलत ढंग से प्रस्तुत करके रचना को फूहड़ बनाने में कसर नहीं छोड़ी है। नतीजा (शंकर
पुणतांबेकर) निलम्बन (उपेन्द्र प्रसाद राय) मिथक प्रयोग के अच्छे उदाहरण हैं। कथानक
का अपना अस्तित्व है। कथ्य ताजादम है या बासी यह लघुकथा को एक हद तक ही प्रभावित करता
है। कथानक की प्रस्तुति प्रचलित कथानक को भी सशक्त बना सकती है। प्रस्तुति ठीक न
होने पर नया कथ्य भी प्रभावशून्य सिद्ध होगा। 'डाका' लघुकथा में दो समानान्तर घटना क्रम है- डाका और दहेज। लेखक ने डाकाजनी के
माध्यम से दहेज के बहुप्रचलित विषय को नवीनता और प्रखरता से जोड़ दिया है। परस्पर
विरोधी घटनाओं में एक अदभुत साम्य पिरो दिया है। 'सपना'
(अशोक भाटिया) में दो समानान्तर घटनाक्रम के द्वारा बच्चों के साथ
शिक्षा के नाम पर किए जा रहे 'अत्याचार' को रेखांकित किया है। बच्चे और चिड़िया के जीवन का विरोधाभास एक गहरी टीस
छोड़ जाता है।
भाषा
को लेकर लघुकथा में ढेर सारी भ्रांतियाँ हैं, सच तो यह है
कि संवेदना की भाषा और अभिव्यक्ति की भाषा के बीच एक अन्तराल है। संवेदना के स्तर
पर जी लेने के बाद ही लिखने की बारी आती है, पहले नहीं।
लिखने के लिए थोड़ा पीछे मुड़ना पड़ता है अत: अनुभूति के साथ एक अनकहा समझौता करना
पड़ता है। भाषा में सरलीकरण की क्रिया या आम बोल चाल की भाषा कोई सायास कार्य नहीं
है वरन् सतत् अभ्यास का प्रतिफल है। सायास होने पर भाषा की सहजता जरूर नष्ट होगी।
जिस विधा की सारी संभावनाएँ चुक गई हों, भाषा को पंगु बनाना
हो उसके लिए सरलीकरण प्रमुख हो सकता है। भाषा किसी रचना के ऊपर नहीं थोपी जाती।
भाषा कथ्य के भीतर से ही उपजती है। भाषा केवल पात्रानुकूल ही नहीं होनी वरन्
परिस्थिति, मानसकिता एवं परिदृश्य के भी अनुकूल होती है। एक
ही पात्र हर्ष, शोक या भय में एक जैसी भाषा प्रयुक्त नहीं
करेगा।
पत्नी, अधिकारी, पुत्र और नौकर के सामने भाषा का स्वर और
स्तर भिन्न-भिन्न हो जाएगा। आज का जीवन बहुत जटिल है, मानसिक
गठन और भी अधिक जटिल। इसका प्रभाव अभिव्यक्ति पर पड़े बिना नहीं रह सकता।
संस्कृतनिष्ठ भाषा न कोई खतरा और न दबाव; क्योंकि भाषा की
वास्तविक निष्ठा कथ्य से है, फारसी या संस्कृत से नहीं। सरल
भाषा में यहाँ तक की आम बोलचाल की भाषा में लिखी गई ढेर सारी नई कविताएँ दुर्बोध
है। यह दुर्बोधता भाषा के कारण नहीं आई वरन कवि की जटिल, विचार-संकुल
अनुभूतियों के कारण आई है। लघुकथा भी इससे परे नहीं। सरल भाषा में लिखी पारस दासोत
की लघुकथाएँ कहीं-कहीं अस्पष्ट हो गई हैं। लघुकथाकारों में एक वर्ग ऐसा है,
जो भाषा के प्रति बिल्कुल लापरवाह है। अच्छी-भली रचना कमजोर भाषा के
घेरे में आकर अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ सकती।
लघुकथाओ
में बाह्य-संघर्ष तो खूब मिलता है। शायद इसका कारण वे विषय हैं, जिनमें जनसाधारण की आवाज बनकर लघुकथा ने अपना रास्ता तय किया है। परन्तु एक
लम्बे अर्से तक एक ही दिशा में दौड़ लगाना हितकर नहीं। लघुकथा को नए आयाम खोजने
पड़ेंगे। अन्तर्द्वन्द्व एवं अन्त:संघर्ष को लेकर कई रचनाएँ सामने आई हैं। इस तरह
के विषयों में भाषा अतिरिक्त अनुशासन की माँग करती है। ‘कितने
परदेस’ (कमल चोपड़ा), बोहनी (चित्रा
मुद्रगल), अपना घर (धीरेन्द्र शर्मा),
हिस्से का दूध (मधुदीप), वाकर (सुभाष नीरव), ड्राइंगरूम (पुष्करणा) आखिरी पड़ाव का सफर (सुकेश साहनी), चिड़ियाघर (श्याम सुन्दर अग्रवाल) आदि लघुकथाएँ सशक्त भाषा में लिखी होने
के साथ-साथ अन्त:संघर्ष का सफलतापूर्वक निर्वाह करती नज्ञर आती हैं।
अब
आवशयकता है कि नए से नए विषयों का संधान किया जाए; जिससे
लघुकथा गिने-चुने विषयों के दायरे से बाहर आकर अपने सशक्त रूप की छाप छोड़ सके। यह
तभी संभव है जब पूर्वाग्रह-मुक्त होकर लघुकथाओ पर विचार किया जाए।
--
रामेश्वर
कांबोज 'हिमांशु'
जन्म
: १९ मार्च १९४९, बेहट जिला सहारनपुर, भारत
में।
शिक्षा
: एम.ए., बी.एड.
प्रकाशित
रचनाएँ :
कविता
संग्रह : 'माटी, पानी
और हवा', 'अंजुरी भर आसीस', 'कुकडूं
कूं', 'हुआ सवेरा',
लघु
उपन्यास : 'धरती के आंसू', 'दीपा', 'दूसरा
सवेरा'
लघुकथा–संग्रह
: 'असभ्य नगर'
अनेक
संकलनों में लघुकथाएँ संकलित तथा गुजराती, पंजाबी, उर्दू
एवं नेपाली में अनूदित।
संप्रति
: प्राचार्य, केन्द्रीय विद्यालय हज़रतपुर, फ़िरोज़ाबाद
से अवकाश प्राप्त करने के बाद स्वतंत्र लेखन।
संपर्क
: rd_kamboj@yahoo.com
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