शरद जोशी : भाषा के मैदान में शब्दों से खेलना जिनकी आदत
थी
ब्रजेश कानूनगो
आजकल खिलाड़ी अपने जूतों पर पर्याप्त
ध्यान देते हैं. खेल कैसा भी रहे जूते अच्छे होना चाहिए. व्यंग्यकार शरद जोशी ऐसे खिलाड़ी थे जिनकी निगाह से कोई छेदमय जूता
छुपा नहीं रह सकता था. जूता चाहे साहित्य का, संस्कृति का,
व्यवस्था का, राजनीति का या खेल जगत का रहा हो,
जब भी कहीं उन्हें फटा जूता नजर आया उन्होंने अपना रचनात्मक पैर
फंसा दिया. उनका लेखन हमेशा ऐसे जूते तलाशता रहता था जिनमें पर्याप्त छेद हों.
फटे जूतों की कभी कमी नहीं रही इस देश
में. फटे जूते नजर आते रहे, शरद जी का व्यंग्य समृद्ध
होता रहा. जूते में हुए छेदों से यहाँ आशय सिर्फ उन विसंगतियों से है जिसके कारण
समाज में विकार पैदा होता है. विसंगतियों पर प्रहार करना व्यंग्य की अनिवार्य शर्त
होती है. हर व्यंग्यकार विसंगति पर चोंट करता है किन्तु शरद जोशी के लेखन में एक
अलग कलात्मकता होती थी. उनकी रचनाओं की भाषा में एक ऐसी लय होती थी जैसी किसी
श्रेष्ठ फ़ुटबाल या हॉकी खिलाड़ी के खेल में होती है. शब्दों की 'ड्रिबलिंग' करते हुए वे सीधे गोल के अंदर पहुँच जाते
थे. शब्दों की यही 'ड्रिबलिंग' उनकी
अनेक रचनाओं में कई जगह मौजूद है, सच तो यह है कि जिन रचनाओं
में वे शब्दों के साथ इस प्रकार खेलें हैं,वे बड़ी ही
प्रभावशाली बन पडी हैं. ऐसी कुछ रचनाओं के उल्लेख के साथ मैं अपनी बात कहने की
कोशिश यहाँ कर रहा हूँ.
हा- हॉकी रचना में जहाँ वे भारतीय हॉकी
की दुर्दशा पर चिंता व्यक्त करते हैं तो वहीं हॉकी शब्द की भी चीर फाड़ कर डालते
हैं. हॉकी के हा के सन्दर्भ में वे कहते हैं- इस 'हा'
को समझें ,जिसमें 'आ'
की मात्रा उतनी नहीं है जितनी 'जा' में होती है, बल्कि उससे कहीं गहरी और लंबी है. हा
आ आ ...! 'हा'
को आप इस तरह कहें कि ठण्ड के दिनों में मुँह की साँस कोहरे में
अटककर भाप की तरह लगे....मेरा 'हा' वैसा
ही है, वही है ! हा..हॉकी ! अडतालीस उनचास के वर्षों के..हा
बापू के लेबुल पर ... देखिए इसे हाय हॉकी कहकर मत टालिए, यह 'हा' है ..यह वह 'हा' है जो किसी देश के इतिहास में एक दशक में एक बार और भारतीय इतिहास में चार
पांच बार फूटता है. हा-आ महसूस कीजिए कि दर्शकों में आप भीष्म पितामह हैं और यह
आख़िरी तीर है जो पूरे महाभारत का मजा खत्म होने के बाद आपको लगा है और उसके बाद
आप धराशायी हो जाएँगे. 'हा अंत' शैली में. ..हा व्यंग्य ! माथा ठोकने के लिए
जी कर रहा है. तेरी सफलता के लिए इतनी असफलताएँ.... हा हॉकी ! तूने खूब की ..भारी
की ..टीम की तो की ही..पूरे देश की की..!
हा-की रचना में शब्दों की ड्रिबलिंग है ,वही शरद जोशी अपने लेख 'ट ठ ड अथवा ढ पर भाषण '
में शब्दों का पूरा फुटबाल ही खेल डालते हैं. भाषण का ऐसा शाब्दिक खाका ढालकर वे सामनें रख
देते हैं जो किसी भी अवसर पर दिया जा सकता
है. बगैर किसी ज्ञान या विषयवस्तु की जानकारी के बिना भाषण झाड देनेवाले
महावक्ताओं पर व्यंग्य का पैनेल्टी कार्नर
ठोकने के साथ ही भाषाई फुटबाल का मैच वे बड़ी आसानी से जीत लेते हैं. कहते हैं –' आप भाषण देने
खड़े हों ऐसे कि आप पर बहुत कुछ लदा है. हाथी की चाल से धीरे-धीरे मंच तक पहुंचें
. एक क्षण के लिए उस महापुरुष की हार से टंगी तस्वीर की ओर देखें और फिर उपस्थित
श्रोताओं की ओर, फिर
अध्यक्ष को कनखियों से देख धीरे से कहें—'अध्यक्ष
महोदय,भाइयों और बहिनों !' एक क्षण चुप
रहें. थूक निगलें .हाथ पीठ पर बांधें. झुककर अपने पैर के अंगूठे की ओर देखें और
कहें कि आज हम एक ऐसे महापुरुष का जन्म दिन (या जो भी दिन हो) मनाने के लिए एकत्र
हुए हैं जो आज हमारे बीच नहीं हैं. (जाहिर है तभी यह सभा हुई ,नहीं तो काहे को होती) आपमें से
बहुत से व्यक्तियों ने इस स्वर्गीय आत्मा (हम उसे 'ड'
कहेंगे) 'ड' के विषय में
पढ़ा है,जाना है, समझा है और प्रेरणा
ली है. हमारे देश में अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है-राम,कृष्ण
,महावीर,गाँधी,टैगोर...'ड' हमारे इतिहास
के एक ऐसे जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं ,जिनकी चमक कभी कम न
होगी. ..यों तो श्री 'ड' के बारे में
अनेक बांतें कही जा सकतीं हैं खासकर उनके जीवन और विचारों को लेकर क्योंकि मै इन
सब में विस्तार से नहीं जाकर ....क्योंकि मेरे बाद अनेक वक्ता हैं,जो 'ड' के जीवन पर प्रकाश
डालेंगे.....'ड' के विचारों को समझाने
के लिए उन परिस्थितियों को समझना होगा जो उस समय थीं जब 'ड'
ने जन्म लिया और उस जीवन को समझना होगा जो 'ड'
ने बिताया. (हर महापुरुष के समय देश एक विशेष परिस्थिति से गुजर रहा
होता है और महा पुरुष किसी न किसी तरह का जीवन तो बिताता ही है.) इस तरह शरद जोशी एक ऐसा भाषण लिखते हैं जो
दो-तीन घंटे तक प्रस्तुत किया जा सकता है.
श्रीमान'ड'
के बारे में जाने बगैर शरद जी का शब्दों से खेलने का यह कौशल उस समय
शिखर पर था जब वे मंच से 'बोफोर्स' नामक
रचना सुनाते थे. रचना का हर वाक्य 'बोफोर्स' मय होता था.उनका बस चलता तो वे शब्दकोश के सारे शब्दों को एक ही शब्द दे
डालते –'बोफोर्स' . जैसे यह शब्द,हर शब्द का पर्यायवाची हो . शरद जोशी ही हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार,कमीशन और बोफोर्स को एकाकार करके रख दिया था,इसे
प्रकरणों पर उन्होंने बीसियों लेख लिख डाले . आज जो देश में स्थितियाँ हैं ,उनकी रचनाएँ उतनी ही प्रासंगिक हैं जैसी तब हुआ करतीं थीं.
शब्दों से खिलवाड करने की यही प्रकृति 'नेतृत्व की ताकत ' शीर्षक रचना में भी बहुत
अर्थपूर्ण रूप से सामने आती है. 'नेता' शब्द का विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं-
नेता शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है- 'ने' तथा ' ता'....एक दिन ये हुआ कि
नेता का 'ता' खो गया. सिर्फ 'ने' रह गया....इतने बड़े नेता और 'ता' गायब...नेता का मतलब होता है नेतृत्व करने की
ताकत . ताकत चली गयी सिर्फ नेतृत्व रहा गया. 'ता' के साथ ताकत चली गई.तालियाँ खत्म हो गईं जो 'ता'
के कारण बजतीं थीं. जिसका 'ता' चला गया उसकी सुनता कौन है-- नेता
ने सेठजी से कहा—यार हमारा 'ता'
गायब है ,अपने 'ताले'
में से 'ता' हमें दे दो
. सेठ ने कहा कि –यह सच है कि 'ले'
की मुझे जरूरत रहती है ,क्योंकि 'दे' का तो काम नहीं पडता ,मगर 'ताले' का 'ता' चला गया तो 'लेकर' रखेंगे कहाँ
..?सब इनकमटैक्स वाले ले जाएँगे... तू नेता रहे कि न रहे ,मै ताले का 'ता' नहीं दूंगा .'ता' मेरे लिए जरूरी है कभी ' तालेबंदी' करना पडी तो. एकदिन उसने अजीब काम किया .कमरा बंद कर 'जूता' में से 'ता' निकाला और 'ने ' से चिपका
दिया...फिर 'नेता' बन गया. ..जब भी
संकट आएगा ,नेता का 'ता' नहीं रहेगा,लोग निश्चित ही 'जूता'
हाथ में लेकर प्रजातंत्र की प्रगति में अपना योगदान देंगे. कितना
सही कहा था शरद जोशी ने, जूते द्वारा प्रजातंत्र के योगदान
पर आज की कहानियाँ क्या सचमुच उल्लेख करने की यहाँ जरूरत रह गई
है .
नए शब्द, नए
मुहावरे गढने की ललक उनमे सदैव दिखती रही. इसी ललक को वे अपने निबंध 'तलाश कुछ शब्दों की' के जरिए प्रकट करते है. कहते है –कुछ ऐसी
स्थितियाँ है जो अपने लिए एक शब्द चाहतीं हैं. जैसे आप खाना खाने बैठे हैं .एक कौर
मुँह में रख आप क्रोध से पत्नी की ओर देखकर कहते हैं 'यह
खाना है? इसे खाना कहते हैं? ' और आप
मुँह का कौर थूक देते हैं. पत्नी कहती है—'मैं क्या करूँ ,आज नौकर नहीं आया. अब जैसा बना है
वैसा खा लो.लाओ गरम कर दूँ .' अथवा वह कहेगी..''हाँ,तुम्हे घर का खाना क्यों अच्छा लगेगा ,उस चुड़ैल के यहाँ जो खा कर आते हो.' आदि. मगर
प्रश्न यह नहीं है . प्रश्न शब्द का है. पति को परेशानी है उचित शब्द के अभाव
की. अर्थात उस भोजन अथवा खाने के लिए जो
कदापि सुस्वादु नहीं है, कौनसा शब्द दिया जाए ? फिर वह अपने बुद्धिकोश से एक शब्द लाता है- 'भूसा' और अपनी पत्नी की परोसी थाली पर चस्पा कर देता है ...'मैं भूसा नहीं खाऊँगा.' ....समस्या है शब्द की. अनेक
बातें है जिनके लिए आज शब्द नहीं हैं . नींद में दाँत पीसना, बैठे –बैठे यह हिसाब लगाना कि पिताजी मरेंगे तो
क्रियाकर्म में कितने रूपए खर्च होंगे ..शत्रु की पत्नी की सुंदरता पर प्रशंसा भरी
जलन..हिन्दी बड़ी समृद्ध भाषा है, जिसमें 'सिटपिटाना' जैसे शब्द हैं,मगर
बदलते समय के साथ हर भाषा को नयी दुर्दशाओं के अनुकूल शब्दों की आवश्यकता होती है.
आज हमारे बीच शरद जी नहीं हैं इसीलिए
हमें भ्रष्टाचार के कारण मंत्रियों के जेल जाने की प्रक्रिया तथा जेल जाने पर
अचानक ह्रदय रोग होने की बीमारी के लिए उचित शब्द नहीं मिल पा रहे हैं. शरद जी के
बाद व्यंग्य में भी नए शब्दों के निर्माण पर मंदी की छाया स्पष्ट
दिखाई दे रही है. शरदजी ने ऐसे अनेक विषयों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया जो
व्यंग्य के परम्परागत विषयों से बिलकुल अलग रहे. निसंदेह इसके पीछे उनकी तीखी नजर,चुटीली भाषा और शब्दों की बाजीगरी रही है,जिसके कारण
वे ऐसा कर सके. भारतीय जीवन दर्शन तक को
माध्यम बनाते हुए बड़ी खूबसूरती के साथ अपनी शैली में व्यंग्य करते हुए ओलंपिक खेलों
में भातीय टीम के निराशाजनक प्रदर्शन पर दुखी होकर उन्होंने लिखा ...'खेलों में हार –जीत तो होती ही रहती है ,असली बात है खेलों में भाग लेना.. हमारा काम है वहाँ तक जाना और अपनी खेल
भावना का प्रदर्शन करना ..कि लो , हम आगए.. अब हमें हराओ .
गोल्ड मेडल के मोह में हम प्रायः नहीं फंसते . यह भारतीय जीवन दर्शन के विरुद्ध है
कि सोना-चांदी आदि जो भौतिक माया मोह है ,उसके पीछे हम दीवाने हों ,परेशान हों, इसलिए पदक हमें नहीं मिलते. यह घटियापन
हममें नहीं है कि एक सोने के टुकड़े के लिए सबसे आगे दौड रहे हैं. ' शरद जी के मन की पीड़ा शब्दों के
जरिए प्रकट हो कर पाठकों, श्रोताओं को भीतर तक उद्वेलित कर देती थी.
व्यंग्य लेखन का यह योद्धा भाषा के मैदान
में शब्दों का सार्थक खेल प्रतिदिन खेलता रहा . साहित्य के अखाड़े में भले ही कुछ
आयोजकों ने परहेज किया हो लेकिन उस एकलव्य
ने कभी किसी प्रतियोगिता में उतरने की चाह नहीं रखी. जहाँ भी विसंगति का कुत्ता
भोंकता नजर आया उसने अपना तरकश खाली कर दिया.
--
ब्रजेश कानूनगो
जन्म - 25 सितम्बर 1957 देवास,
मध्य प्रदेश में।
शिक्षा - रसायन विज्ञान तथा
हिन्दी साहित्य मे स्नातकोत्तर।
प्रकाशन - व्यंग्यसंग्रह- ‘पुन: पधारें’, (1995), ‘सूत्रों के हवाले से’
(2014)
वसुधा की अनुषंगी कविता
पुस्तिका ‘धूल और धुएँ के
परदे में’ (1999)
कविता संग्रह ‘इस गणराज्य में’ (2014)
बाल कथाओं की पुस्तक ‘फूल शुभकामनाओं के’ (2003) , बाल
गीतों की पुस्तिका ‘चाँद की सेहत’ (2007) प्रकाशित। लघु कहानियों का संग्रह ’रिंगटोन’ प्रकाशनाधीन।
सम्प्रति - रचनात्मक लेखन, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में संलग्न,
तंगबस्तियों के गरीब बच्चों के लिए चलाए जाने वाले व्यक्तित्व विकास
शिविरों मे सक्रिय सहयोग।
सम्पर्क - मनोरम, 503 ए, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-452018 फोन -0731 2590469 मो.न. 09893944294
ई-मेल- bskanungo@gmail.com
शुक्रिया,राहुल देव जी. बहुत अच्छा प्रयास है यह. शरद जी को रचनात्मक रूप से याद किया जाना सचमुच उल्लेखनीय है.
ReplyDeleteबहुत बधाई राहुल !
ReplyDeleteArey ....:) Neha Sharad .
ReplyDeleteशरद जी जैसे व्यंगकार पर कुछ लिखने के लिए व्यक्ति का
ReplyDeleteअपनी भाषा और व्यंग्य पर मज़बूत पकड़ होनी चाहिए , जैसी कि ब्रजेश जी की है ......
शुक्रिया नेहा जी।
Deleteशुक्रिया नेहा जी।
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