1.
सबसे उदास दिन
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उन अनमने से दिनों में
जब सूरज महज आग का गोला
बन जाए
और चाँद तब्दील हो जाए
सफेद ठंडे पत्थर में
जब आवाजें शोर बन जाएं
और पुकार के आगे खड़ी हो अडिग दीवार
जब दुनिया बदल जाए एक ग्लास हाउस में
जहां तमाम दर्दभरी ऊष्मा के बीच
तपाती यादों के बाहर जाने के
सब रास्तों पर पहरा हो
मैं उदासी के पैरहन पर
जड़ देती हूँ सबसे चमकदार सितारे
सजा देती हूँ खुशनुमा यादों की किनारी
सबसे शोख रंगो को करती हूँ आमंत्रित
अपने लिबास के लिए
अवसाद को तरल हो बह जाने
को मनाती हूँ
अंधेरों को काजल बना सजा लेती हूँ
सूजी आँखों में
संवर कर निहारती हूँ आईने में
देर तक
और मुग्ध हो जाती हूँ
दुःखों को सौंप देती हूँ मोती जड़े पंख
और मन के ताले को खोलती हूँ
मनचाहे संगीत की चाबी से
एकांत को मीत बना
नवाजती हूँ मीठे चुम्बनों से
खोलती हूँ
मनपसंद किताब का मुड़ा पन्ना
डूब जाती हूँ वर्णनातीत सुख में
महसूसती हूँ गूंगे के गुड़ सी मिठास
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उन अनमने से दिनों में
जब सूरज महज आग का गोला
बन जाए
और चाँद तब्दील हो जाए
सफेद ठंडे पत्थर में
जब आवाजें शोर बन जाएं
और पुकार के आगे खड़ी हो अडिग दीवार
जब दुनिया बदल जाए एक ग्लास हाउस में
जहां तमाम दर्दभरी ऊष्मा के बीच
तपाती यादों के बाहर जाने के
सब रास्तों पर पहरा हो
मैं उदासी के पैरहन पर
जड़ देती हूँ सबसे चमकदार सितारे
सजा देती हूँ खुशनुमा यादों की किनारी
सबसे शोख रंगो को करती हूँ आमंत्रित
अपने लिबास के लिए
अवसाद को तरल हो बह जाने
को मनाती हूँ
अंधेरों को काजल बना सजा लेती हूँ
सूजी आँखों में
संवर कर निहारती हूँ आईने में
देर तक
और मुग्ध हो जाती हूँ
दुःखों को सौंप देती हूँ मोती जड़े पंख
और मन के ताले को खोलती हूँ
मनचाहे संगीत की चाबी से
एकांत को मीत बना
नवाजती हूँ मीठे चुम्बनों से
खोलती हूँ
मनपसंद किताब का मुड़ा पन्ना
डूब जाती हूँ वर्णनातीत सुख में
महसूसती हूँ गूंगे के गुड़ सी मिठास
उन सबसे उदास दिनों में
मैं सीख लेती हूँ
एक बार फिर से खुद के प्रेम में पड़ना....
मैं सीख लेती हूँ
एक बार फिर से खुद के प्रेम में पड़ना....
(2)
आम आदमी
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जी नहीं साहब,
मेरे चेहरे पर मुखौटा न लगाइये,
मैं हिन्दू नहीं, मुसलमान नहीं, सिख या ईसाई भी नहीं
मैं तो वो आम आदमी हूँ
जो दम तोड़ने को अभिशप्त है
भूख से,
गरीबी से,
लाचारी से,
मैं ही कुचला जाता हूँ धर्मांधों के क़दमों तले,
मैं ही झोंका जाता हूँ दंगो की रौरव भट्टी में
और जो कहीं बच निकला तो उड़ा दिया जाता हूँ
बम विस्फोट से,
गौर से देखिये साहब,
मैं वो चूल्हा हूँ जो ठंडा रह जाता है हर भारत-बंद में
वो आँतें हूँ जो ऐंठ जाती हैं भूख से लड़ते-लड़ते
मैं वो हाथ हूँ जो थामे है कुदाल, हल या औजार
मेरा चेहरा मिलता है बुद्ध से
और हर बार दांव पर लगती है
मेरी ही निर्लिप्तता
मैं गांधी-सा मानवीयता का पुजारी हूँ
बार-बार उठाता हूँ अहिंसा का श्वेत ध्वज
फिर भी कातिलों के हाथ कपोत-सा फड़फड़ाता हूँ
मैं चीखता हूँ फ़टे गले से
कि ईमान लाओ मुझ पर माई-बाप
मेरा मजहब रोटी है,
वे हर बार दाग देते हैं मेरे माथे पे
तुम हिन्दू हो, मुसलमान हो
मुझे कुछ नहीं चाहिए तुमसे,
वो रोटी जो महक रही है मेरे पसीने से
उसे खून में सनने से पहले सौंप दो मुझे
ये खेत लहलहाएंगे कल मेरी मेहनत से
कि कल चिमनियां उगलेंगी बरकत और धुआं
मेरे ही दम से खड़े होंगी तुम्हारे पुल और इमारतें
मेरे ही हाथों की जुम्बिश से बहेंगी, थमेंगी गंगा-जमुना
और सिर झुका सजदे में आ जायेंगे पर्वतराज
जाने दो मुझे,
मुझे क्या लेना तुम्हारे अल्लाह और राम से,
चले जाओ, मैं कल इंतज़ार में हूँ नई सुबह के,
जाओ, कि मुझे कुछ देर सोना है………
3.
असहमतियां
---------------
वे चली आतीं हैं अक्सर
कभी बुजुर्गों के चमकदार बीते हुए कल सी
कभी क्रोध के कन्धों पर सवार तनी हुए युवा सी
कभी कौतुहल की ऊँगली थामे नन्हे बच्चे सी
तो कभी दोस्ती का चेहरा लगाये किसी दुश्मन सी
कुछ ललकारते हुए, फुफकारते हुए,
कुछ रेंगते हुए सहमी सहमी सी,
कुछ मुस्कुराते हुए दबे पांव
बिना आहट किये आती हैं
ठीक किसी बिल्ली-सी
वे जो चिपकी थी
अपनों के चेहरों पर
कदमों से आ लिपटी
और मनुहार कर मना लिया
कुछ जिन्हे
जिन्हे दबा दिया था
रिश्तों की नर्म जमीन में
वे फूट आई विषैले पौधों की शक्ल में
कुछ उगी ठीक सीने पर
कुछ पीठ पर
कुछ तलवों में अँखुआ गईं
और कुतरती रही वजूद को
धीमे धीमे
कुछ चल दीं मुंह छिपाकर
पर लौटन कबूतरों सी
लौट लौट कर आती रहीं
हर बार नए रूप में
बस कुछ ही थी
जो फुर्र से उड़ गई
पिंज़रे से छूटे पंछी की तरह
और रास्ता भूल गईं
मैंने हमेशा स्वागत किया उनका
खुली बाँहों से
आवभगत कर बैठाया साथ
पूछा हाल चाल, खिलाया गुड़ चना
सच कहूँ
उनकी उँगलियों के सिरे
इंगित करते रहे
कामयाबी के लम्बे किंतु सटीक रास्ते
कड़वी निम्बोलियों-सी
मुझे वे हर बार बेहतर लगीं
सहमति का मुखौटा लगाये साजिशों से ......
4.
दीवारें
-----------
मजहब की दीवारे उठाकर
वे बहुत खुश थे
दरअसल
वे भूल गए थे
दीवारों में ही
खुला करती हैं
खिड़कियाँ
और
दरवाजे ..................
5.
बारिश के बाद
-----------------
बादलों की ओट से
वह आज निकला है कई दिनों बाद
धूप अनचाहे मेहमान सी
नहीं लगती अब
सूरज की तपिश भी
तपाती नहीं सहला देती है इन दिनों
कभी कभी तो बड़ी शिद्दत से इसकी प्रतीक्षा रहती है
जैसे यादों के झुरमुट में खो गई कोई प्रिय सहेली
या जैसे बहन के घर का रास्ता भूल गया हो
तीज का घेवर लानेवाला छोटा भाई
आलस को हौले से छिटका
चींटियों की एक कतार मुस्तैद है बिल से बाहर
उल्लास के शिखर पर बैठे
पंख फटक रहे हैं कल से छिपे हुये सहमे परिंदे
सर्द आवारा हवा ने एकाएक जगाया है सबको
चमक आए पत्तों पर इठला रहा है बूढ़ा बरगद भी
अचार की बरनियाँ
और दाल की डिब्बे ही नहीं
आज प्रसन्न है
सील गया घर
सीला साजोसामान
सीला तन और
धूप की नरमाहट से खिल गया है
सीला हुआ ऊबा सा मन
दीवारों में ही
खुला करती हैं
खिड़कियाँ
और
दरवाजे ..................
5.
बारिश के बाद
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बादलों की ओट से
वह आज निकला है कई दिनों बाद
धूप अनचाहे मेहमान सी
नहीं लगती अब
सूरज की तपिश भी
तपाती नहीं सहला देती है इन दिनों
कभी कभी तो बड़ी शिद्दत से इसकी प्रतीक्षा रहती है
जैसे यादों के झुरमुट में खो गई कोई प्रिय सहेली
या जैसे बहन के घर का रास्ता भूल गया हो
तीज का घेवर लानेवाला छोटा भाई
आलस को हौले से छिटका
चींटियों की एक कतार मुस्तैद है बिल से बाहर
उल्लास के शिखर पर बैठे
पंख फटक रहे हैं कल से छिपे हुये सहमे परिंदे
सर्द आवारा हवा ने एकाएक जगाया है सबको
चमक आए पत्तों पर इठला रहा है बूढ़ा बरगद भी
अचार की बरनियाँ
और दाल की डिब्बे ही नहीं
आज प्रसन्न है
सील गया घर
सीला साजोसामान
सीला तन और
धूप की नरमाहट से खिल गया है
सीला हुआ ऊबा सा मन
सच है
मौसम का बदलना
कभी कभी मन का बदलना है.......
--
अंजू शर्मा
41-A, आनंद नगर, इंद्रलोक मेट्रो स्टेशन के सामने, दिल्ली 110035
41-A, आनंद नगर, इंद्रलोक मेट्रो स्टेशन के सामने, दिल्ली 110035
बहुत सुन्दर, मन को छूती कवितायेँ !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, मन को छूती कवितायेँ !
ReplyDeleteअंजु की कवितायेँ मन के भीतर पहुँच कर देर तक बतियाती है ,सिखाती है उदास दिन में स्वयं से प्रेम करना ,असहमतियों के मुखोटों में पहचान लेती है कामयाबियों को ,अल्लहा और राम की साजिश करती राजनीती को दुत्कार कर देती है एक मेहनत कश इंसान का परिचय ,बताती है दीवारों में ही होते है खिड़की और दरवाजें और बदलते मौसम की सीलन को सुखा देती है कुनकुनी धूप में और उसकी तपिश में जिन्दा करती है रिश्तों को ।
ReplyDeleteअंजु शुभकामनाएं मित्र ,खूब लिखो
अंजु की कवितायेँ मन के भीतर पहुँच कर देर तक बतियाती है ,सिखाती है उदास दिन में स्वयं से प्रेम करना ,असहमतियों के मुखोटों में पहचान लेती है कामयाबियों को ,अल्लहा और राम की साजिश करती राजनीती को दुत्कार कर देती है एक मेहनत कश इंसान का परिचय ,बताती है दीवारों में ही होते है खिड़की और दरवाजें और बदलते मौसम की सीलन को सुखा देती है कुनकुनी धूप में और उसकी तपिश में जिन्दा करती है रिश्तों को ।
ReplyDeleteअंजु शुभकामनाएं मित्र ,खूब लिखो