Wednesday, 29 July 2020

क्रांतिवीर के प्रति काव्यसुमन : पंडित रामप्रसाद ‘बिस्मिल’



                पंडित रामप्रसाद बिस्मिल भारत की स्वतंत्रता के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले अमर हुतात्मा रहे हैं। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह की त्रिवेणी ने अपने आचरण, देशभक्ति और वीरता के  त्रिगुणों से भारत के भू-भाग को पवित्र कर दिया। भारत को अपनी मातृभूमि मानकर हजारों बलिदानों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग इस पर किया है। इतिहास के अनेक नामी-अनामी नायकों ने प्राणों की बाजी लगाई है परंतु ऐसे अमर शहीदों पर बहुत कम साहित्यिक कृतियाँ मिलती हैं, जो उनका पूर्ण परिचय भी दे सकें। इतिहास भी इस संबंध में अक्सर मौन ही रहा करता है। सौभाग्य की बात है कि बरेली के प्रख्यात कविवर आचार्य देवेंद्र देव ने पंडित बिस्मिल के जीवन-चरित्र को आधार बनाकर एक महत्वपूर्ण महाकाव्य काकोरी कांड के पुरोधा: पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की रचना की है। कविवर आचार्य देवेंद्र देव की महनीय लेखनी ऐसे महापुरुषों के जीवन चरित्रों के प्रति सदैव नत रही है। सोलह सर्गों में निबद्ध प्रस्तुत महाकाव्य अपनी मौलिक उद्भावनाओं, सार्थक कल्पनाओं और काव्यगत विशिष्टताओं से पाठकों का मन बरबस ही मोह लेता है।
         प्रस्तुत महाकाव्य का प्रथम सर्ग है वंदन। प्रचलित परंपरा के अनुसार कवि प्रथम सर्ग में ईशाराधन करते हैं और अपनी रचना का मूल उद्देश्य भी दर्शाते हैं। कवि देव वंदन सर्ग में भारत माता, माँ शारदे और क्रांतिकारियों की वंदना में प्रवृत्त होते हैं। प्रथम सर्ग का प्रथम पद देखिए--
        हे जन्मभूमि हे मातृभूमि तू वत्सलता की दिव्य धाम
  शत,सहस,लक्ष या कोटि नहीं तुझको पद्मों, शंखों प्रणाम
पंडित राम प्रसाद बिस्मिल स्वयं शायर भी थे। उनका परिचय वाणीपुत्रों में देते हुए कवि लिखता है-
       और भी हुआ है एक मातु शिशु ऐसे रचनाकारों में
       कुछ सबसे अलग रहा है वह शैली में और विचारों में
अंत में कवि माँ शारदे से अपनी कृति पर आशीर्वाद मांगता है-
     मैं तेरे उसी लाड़ले का गौरव लिखने को आतुर हूं
   कर मुझ पर भी रख अंबे! मैं तेरे ही वीणा का सुर हूं
द्वितीय सर्ग प्रभास में दर्शाया गया है कि बिस्मिल के पितामह श्री नारायण लाल बुंदेलखंड के ग्वालियर राज्य के निवासी थे, जो अपना पैतृक स्थान छोड़कर (शाहजीपुर) शाहजहाँपुर आकर बस गए थे। आर्थिक स्थिति ठीक न होने से वहां के लोग बीहड़ अंचलों में जाकर चरस की खेती में संलग्न रहते थे और अनैतिक कार्य व्यापारों को बढ़ावा देते थे परंतु बिस्मिल के पितामह के लिए कवि लिखता है-
            पर संस्कार थे अच्छे जो गए न वह बीहड़ में
            उद्वेलित नहीं हुए वह उस हलके से पतझड़ में
            कुछ भटके इधर-उधर फिर आ गए शाहजीपुर में
            ज्यों छिटकी कोई गोली आ पड़े नए नूपुर में
अथक परिश्रम से पितामह नारायण लाल अपनी आर्थिक स्थिति थोड़ी सुदृढ़ करते हैं—
             विस्मृति की मंजूषा में कल्मष समेट कर अपने
             देखने लगा करते वे स्वर्णिम भविष्य के सपने
उद्भव नामक तृतीय सर्ग में बिस्मिल की जन्म कथा है। नारायण लाल जी के जेष्ठ पुत्र मुरलीधर का विवाह मूलमती देवी के साथ होता है-
             दादी-बाबा के मन को वह क्या भायी
             मुरली संग रच दी उसकी झट्ट सगाई
             दोनों केवल इतने से ही नहीं अघाए
             चट मंगनी, पट कर ब्याह, बहू घर लाए
             घर आंगन में खुशियाँ छा गईं निराली
             इस भाँति बहू संग लाई थी खुशहाली
बिस्मिल से पहले भी उनकी एक संतान काल के गाल में समा चुकी थी। बिस्मिल के जन्म को कवि यूँ दर्शाता है-
             फिर बूँद सीप में पड़ी बन गई मोती
             उमड़ी घटावली हरियल धूप भिगोती
             हो गई कृपा फिर ईश्वर की दोबारा
             नन्हा शिशु उनके आँगन फिर किलकारा
जीवन के संस्कार परिवार द्वारा बचपन में ही डाल दिए जाते हैं। बिस्मिल की माता ने आरंभ से ही उन्हें धार्मिक संस्कार दिए। देशप्रेम की भावना भी उन्होने रामप्रसाद में कूट-कूट कर भरी। शैशव सर्ग की पंक्तियाँ देखिए-
  राम को देती खूब दुलार और अच्छे-अच्छे संस्कार
   कराती रहतीं अक्षर-ज्ञान और कर्तव्यों की पहचान  
इसी क्रम में आगे भी कवि के शब्द हैं-
    धारती कौशल्या का रूप प्रकट करती वात्सल्य अनूप
    यशोदा बनकर कभी- कभार लुटाती वत्सल प्यार-दुलार
     प्राण से प्यारे बालक राम पलटकर बन जाते घनश्याम
     देखती जब अंजनी समान राम लगने लगते हनुमान
       मातु का दढ़ था धार्मिक पक्ष पिता कुश्ती लड़ने में दक्ष
इस प्रकार चतुर्थ सर्ग में दर्शाया गया है कि बिस्मिल के माता-पिता उनका हर प्रकार से भावी चरित्र गढ़ने में लगे थे।ये परिवार के संस्कार ही थे, जो राम प्रसाद बिस्मिल आजीवन इन्हीं मूल्यों पर अडिग रहे।
        पंचम सर्ग कैशोर्य है जिसमें बिस्मिल के जीवन में आने वाले बदलाव महत्वपूर्ण हैं। पिता मुरलीधर धन के आधिक्य के कारण मध्यप हो जाते हैं-
           अर्थ की अधिकता बो देती  प्रायः अनर्थ के बीजों को
कामना उपेक्षित करने ही लगती है अच्छी चीजों को               मुरलीधर भी मुरली तजकर पड़ गए सुरा के चक्कर में इस कारण बढ़ आंतरिक गए मतभेद, विप्रवर के घर में
जिस कारण पिता बात-बात पर बिस्मिल को प्रताड़ित करने लगते हैं, जबकि उनकी माता पूर्णतया धार्मिक और धैर्यवान बनी रहती हैं-
दक्षिण का ध्रुव तो टिका रहा पर उत्तर ध्रुव कुछ दूर हुआ वह तीक्ष्णबुद्धि बालक दोनों में बँटने को मजबूर हुआ संस्कारित था वह बाल वत्स इसलिए कष्ट सब सहता था माँ के आंसुओं की धारा संग वह मीलों- मीलों बहता था
जीवन के दुख हमें मांजने के लिए ही आते हैं। दु:खों के अंधकार के पीछे चमकते पथ मानव की प्रतीक्षा करते हैं। पारिवारिक कलह के कारण बिस्मिल अपना घर छोड़कर एक मंदिर में जाकर रहने लगते हैं। यहीं उनकी भेंट मंदिर के पुजारी से होती है और वे उनमें आध्यात्मिक भाव जगाते हैं-
सहसा मिलना था हुआ निकट मंदिर के एक पुजारी से विद्वान, सत्य-निष्ठावादी निष्कामी पर-उपकारी से
जिसने ईश्वर की भक्ति,भजन पूजन की महिमा बतलाई  दृष्टांत सहित ब्रह्मचर्य की गौरव गरिमा भी समझाई
चौदह वर्षीय बिस्मिल ब्रह्मचर्य का व्रत अपनाते हैं। सर्गांत करते हुए कवि साररूप में लिखता है-
                 आर्यजन के साथ वैचारिक समन्वय
                 राम का अच्छी तरह से हो चला था
                 संस्कारित भूमि पर मन की, समय, अब
                 तत्वदर्शी बीज अभिनव बो चला था
जैसा कि नाम से ही विदित होता है,यौवन नामक षष्ठ सर्ग बिस्मिल को शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक-सामाजिक रूप से शक्तिशाली,ओजस्वी और गुणवान बनाता है। तभी बिस्मिल ने सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन किया। पिता से मतभेद, लोकोपकार की भावना, बढ़ते रूप-शक्ति-बल-बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान ने अपना चरमोत्कर्ष प्राप्त किया। इसके साथ ही मिले बिस्मिल को सोमदेव जी जैसे गुरु जिन्होंने रामप्रसाद का करुणा विलगित ह्रदय देखकर उनका उपनाम ही बिस्मिल अर्थात् आहत रख दिया--
                 अंतर्मन मानस प्राणों का यह हाल देख
                 गुरु सोमदेव ने उनको बिस्मिल नाम दिया
                 इस बिस्मिल दिल ने ही शायद कालांतर में
                 धीरे-धीरे जीवन भर का संग्राम दिया
क्रांतिकारियों की देशप्रेम भरी गतिविधियों को देखकर, अंग्रेजी सत्ता के दमन कुचक्र से बिस्मिल व्यथित हो जाते थे और एकाकी क्षणों में अक्सर सोचा करते थे--
                 सोचने लगे वे हम काहे के बिस्मिल हैं
                 हमसे तो बढ़कर बिस्मिल हैं यह क्रांति-वीर
                 जो पराधीनता की बेड़ी काटने हेतु
                 हर घड़ी, निमिष, पल विपल दीखते हैं अधीर
बिस्मिल दृढ़प्रतिज्ञ होकर संकल्प करते हैं--
                  सच्चाई के पथ पर अविचल रहकर अब मैं
                  क्रांति की अलख सर्वत्र, सयत्न जगाऊँगा
                  अपनी भारत माता की बेड़ी काटूँगा
                  पापी अंग्रेजों को मार भगाऊँगा
देशहित में कठोर प्रतिज्ञा करने वालों का तुमुलनाद प्रकृति भी मानो सुनती है और अपना अनुमोदन करती है। कवि ने इसे यूँ लिखा है--
                  दिग्पाल हुए चौकन्ने सुन घर-घर नाद अलक्षित
               हो गए सतर्क सहसमुख रखने को धरणि सुरक्षित
               भू भारति के रज-कण ने उठ जड़ा भाल पर टीका
               सिंहासन हुआ विकम्पित ब्रिटिशों की साम्राज्ञी का
बिस्मिल को राष्ट्र स्वातंत्र्य हेतु अपना जो कर्तव्य निभाना था, अब उसका समय आ गया था। कुछ ऐसे परिदृश्य अपने-आप बनने लगे। बिस्मिल को राष्ट्रसेवा के लिए स्वामी सोमदेव  प्रेरित करते हैं। सप्तम सर्ग परिदृश्य में इसी का संकेत है--
                  जब तक हो कटिबद्ध नहीं आगे आएंगे
                  धीर, वीर, गंभीर, युवक निश्चल,निष्कामी
                  तब तक निश्चित समझो बिस्मिल! भरत भूमि से
                  नहीं कभी भी हो पाएगी दूर गुलामी
स्वामी सोमदेव का महाप्रयाण, बिस्मिल का लखनऊ जाना और वहां लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के सम्मान में शोभायात्रा निकालना आदि घटनाओं का यहाँ वर्णन दृष्टव्य है।  बिस्मिल का लोकमान्य तिलक के प्रति सच्ची सच्चा समर्पण  यहाँ दर्शाया गया है। तिलक की शोभायात्रा मोटर गाड़ी के स्थान पर बग्गी से खुली तौर पर क्रांतिकारी निकालना चाहते थे। जिसका विरोध कांग्रेस के ही अन्य नेता कर रहे थे। अंततः वही हुआ जो बिस्मिल के दिल में था--
                   जीत गया अंततः युवाओं का समूह था
                   गाड़ी युवकों ने खुद जुत कंधों से खींची
                   सागर की लहरों जैसे उस जनसमूह की
                   भावुकता बिस्मिल ने निज पलकों में भींची
यहां पर सर्गांत में बिस्मिल की पावन प्रतिज्ञा दर्शाई गई है--
                   सोच लिया, अंग्रेज नहीं जाएंगे ऐसे
                   इनके ताबूतों में कील ठोकनी होगी
                   गरमदलीय जवानों को निज उच्छ्वासों  से
                   महाक्रांति की भट्टी और धौंकनी होगी
बड़े कर्तव्यों के लिए तैयारियाँ भी बड़ी ही करनी पड़ती हैं। क्रूर और निर्दयी ब्रिटिश सरकार से लोहा लेना इतना आसान नहीं था। जैसे को तैसा की तर्ज पर चलकर ही उनसे जीता जा सकता था। इसके लिए सबसे बड़ी आवश्यकता थी शस्त्रों की। बिस्मिल हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बन गए थे।हथियारों की खरीद के लिए धन की बड़ी आवश्यकता थी। बिस्मिल प्रत्येक उपलब्ध स्रोत से धन की व्यवस्था का प्रयास करते हैं। शाहजहाँपुर में रेशमी वस्त्रों का कारखाना भी लगाते हैं। आठवें सर्ग युयुत्सा और नवें सर्ग परिभोग में इन्हीं बातों का मार्मिक वर्णन है--
          बिस्मिल लग गए जुगत में किस तरह जुटे धन, साधन
              द्रुततम प्रकाश गति से भी ज्यादा दौड़ा करता मन
अमेरिकी स्वतंत्रता का इतिहास पुस्तक के प्रकाशन के लिए वे माँ से झूठ बोलकर धन उधार लाते हैं--
                पुस्तक छपवाने को धन माँ से उधार जब लाए
           लाक्षणिक झूठ पर बिस्मिल अति रोए, अति पछताए
                पर,भारत माँ के आगे इस माँ की ग्लानि खपाई
                         ऐसी ऊहापोहों की फिर नौबत कभी न आई
बिस्मिल अपने हृदय में भारत माँ के लिए जितना प्यार रखते थे, देशप्रेम की जितनी भावना रखते थे; उतनी ही भावनाएँ उनके मन में कठोर परिश्रम और सामाजिकता की भी थीं। नवम सर्ग परिभोग में इसी का रूपांकन है। यहाँ हम बिस्मिल को उदात्त मानवीय गुणों से परिपूर्ण पाते हैं-
                 करके प्रबंध जैसे-तैसे हाथों में आए कुछ पैसे
                 यों फिरे बहुत मारे-मारे पर हिम्मत रंच नहीं हारे
         जब सभी ओर संकट छाए ग्वालियर मातु के संग आए
                सिर पगड़ी बाँध किसान बने श्रम के देह पर निशान बने
        चारागाहों में पशु चारण क्या नहीं किया व्रत के कारण
         पर खुद से हार नहीं मानी हाँ, धूल हर जगह की छानी
इसी क्रम में, दसवें सर्ग संघर्ष में वे रेशमी कपड़े का कारखाना लगाते हैं,परन्तु दुर्भाग्य से घाटा हो जाने पर उसे भी बंद करना पड़ता है-
            यही कारण था रामप्रसाद न पाए चला वस्त्र उद्योग
       मातृ भू की विमुक्ति का लगाउन्हें था वृत्ति विनाशक रोग
         इसलिए क्षण में दिया समेट राम ने साझे का व्यापार
    शांति,सुख सुविधाओं को छोड़ क्रांति के पथ पर हुए सवार
लोगों की सोयी चेतना जगाने के लिए उन्होंने खूनी परचे भी बांटे।किसी विधि कोई लाभ न होने पर अब बिस्मिल अपने साथियों के साथ वह कदम उठाते हैं,जिसने उन क्रांतिवीरों का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित कर दिया।काकोरी काण्ड का षड्यंत्र रचा जाता है--
                काकोरी में घटना को अंजाम दिया जाएगा
                जो भी आवश्यक होगा वह काम किया जाएगा
एकादश सर्ग संक्रांति के बिस्मिल अपने हाथों से अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का आरम्भ करते हैं। सरकारी खजाने से भरी ट्रेन लूट ली जाती है। कवि ने यहाँ संपूर्ण घटना का क्रमबद्ध रूप से अत्यंत सजीव वर्णन प्रस्तुत किया है-
                राम प्रसाद बिस्मिल का यह अभियान सफल
                 आजादी के इतिहास-ग्रंथ का पृष्ठ बना
                 जो काकोरी का महाकांड कहलाता है
                 जन-जन में पाता है अब भी सम्मान घना
टोली के सदस्य बनारसीदास द्वारा अपनी चादर ट्रेन में ही भूल आने की भूल कर दी गई थी। जिस कारण ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों का पता लगाते-लगाते उन तक पहुंच जाती है। बंधन नामक बारहवें  सर्ग में पुलिस द्वारा क्रांतिकारियों को पकड़ना और राजद्रोह का मुकदमा चलाना वर्णित है। कवि ने इन पंक्तियों में कितनी मार्मिक बात कही है--
                 बंदी कर पैंतालीस धधकते शोलों को
                 आजादी के गौरव-गायक हरबोलों को
                 तंत्र ने मुकदमा राजद्रोह का शुरू किया
                 मनमानी धाराओं का गट्ठर लाद दिया
त्रयोदश सर्ग औदात्य है। अपनों के विश्वासघात, ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियाँ और अंग्रेज जज द्वारा सभी दलीलें खारिज किया जाना; इन सब का वर्णन कवि ने यहाँ किया है-
                 इस भेदभाव को बड़ा धूर्त के गुर्गों ने
                 न्यायालय में विपरीत बयान करा डाले
                 अपराधों में कर घोषित उनको सिद्ध दोष
                 मुक्ति के द्वार पर चढ़कर डाल दिए ताले
अनेक सच्चे-झूठे केसों और गवाहों के जाल में फँसाकर आज़ादी के दीवानों को अलग-अलग प्रकार की कठोर सजाएं दी जाती हैं-
                 बिस्मिल, रोशन सिंह और लाहिड़ी को फांसी
                 बख्शी शचींद्र को यात्रा काले पानी की
                 मन्मथ को सश्रम कैद बोल दी बीस साल यूँ
                 जिंदगियाँ लीं छीन प्रमत्त जवानी की
प्रस्तुत औदात्य सर्ग में बिस्मिल के चरित्र का औदात्य दर्शनीय है। उनका उच्च आचरण, उनकी अनुशासनबद्धता, सामाजिकता, परोपकारभावना,सभी के दु:ख में शामिल होना--सभी कुछ यहाँ दर्शनीय है।
जेल में बंद इन क्रांतिकारियों को मुक्ति दिलवाने के लिए महामना मदनमोहन मालवीय, पंडित गोविंद बल्लभ पंत, काका कालेलकर, लाला लाजपत राय आदि वायसराय और प्रिवी काउंसिल तक से क्षमा याचना के लिए अपना जोर लगाते हैं। परंतु अंधी सरकार के सामने सारे अनुनय-विनय व्यर्थ सिद्ध होने ही थे। गोरखपुर जेल में बंद बिस्मिल जी अनेक कष्ट उठाते हैं। प्राणोत्सर्ग का समय निकट ही जानकर बिस्मिल पुनः ईश्वर आराधन में लग जाते हैं--
                 पुनः शुरू हो गई वही पहले जैसी दिनचर्या
                 संध्या-वंदन, यज्ञ, सुभग शुश्रूषा और सपर्या
बिस्मिल अपनी आत्मकथा लिखना भी आरंभ करते हैं। साथ ही साथ उनका काव्य सृजन भी चलता रहता है। कवि के शब्दों में-
                 कविता की साधना साथ लेखन के चलती रहती
            बन-बनकर इतिहास, लोक-मन-मध्य चलती रहती
जेल में बिस्मिल के माता-पिता भी उनसे मिलने और उनके अंतिम दर्शनों के लिए आते हैं-
                 मात-पिता अपने बिस्मिल बेटे से मिलने आए
                 हँसते-मुसकाते चेहरों में दिल के दर्द छुपाए
इसी बहाने वे बेटे को चाह रहे थे छूना बूढ़े होकर भी बच्चों से वे बन गए नमूना आखिरकार उन्नीस दिसंबर सन् 1927 की वह मनहूस घड़ी आ पहुंची, जब बिस्मिल को फाँसी दी जानी है-
            पल भर को ठिठके, उन सबको दिल से दूर भगाया
                  खुद के हाथों फाँसी का फंदा खुद को पहनाया
कवि ने यहाँ मानो अपनी मानस-चेतना में जाकर, बिस्मिल जी के इस पावन प्राणोत्सर्ग को वहीं खड़े होकर देखा है।आचार्य देवेंद्र देव लिखते हैं-
                  एक बार फिर वंदे मातरम् का नारा उच्चारा
                  इसके आगे दृश्य नहीं कवि देख सका बेचारा
                  एक निमिष के लिए चेतना उसकी टूट गई थी
                  ष्टि स्तंभित हुई लेखनी कर से छूट गई थी
 यहां एक और उद्भावना कवि ने की है, जिसमें बिस्मिल जी कर्तव्यनिष्ठा और देशप्रेम का संदेश भारतवासियों को कवि के माध्यम से देते हैं-
                  अगर कर सको काम एक कवि तो तुम इतना करना
                  यह करके मेरे प्राणों की व्यथा वेदना हरना
                  उनसे कहना धरती माँ के प्रति भी वे कुछ सोचें
                  एक-दूसरे की न खाल द्वेषों में पढ़कर नोचें
                   मेरे भारतवासी अपनी जीवन-वृति सुधारें
                  राष्ट्रघातिनी देख हरकतें मौन न किंचित धारें
                  सोचता था कवि सराहे भाग्य अपना
                  लक्ष्य तक पहुँचाए, बिस्मिल जी का सपना
पंद्रहवाँ वर्ग प्रदाह है। इसमें बिस्मिल जी की अंतिम यात्रा का करुणापूर्ण वर्णन है। बिस्मिल की माता के अमृत वचन सदैव कानों में गूंजते रहेंगे-
                  मैं बलिदानी की माँ हूँ यह प्रण अब ठान रही हूँ
                  राष्ट्रहित दूसरे बेटे का भी कर दान रही हूँ
                  वह इससे बढ़कर निकले स्वातंत्र्य-समर-संग्रामी
               बन जाए वीर भ्राता के क्रांतिक पद का अनुगामी  
अग्नि ने बिस्मिल का पार्थिव शरीर तो जला दिया लेकिन उनके शुभ कर्म, उनके सत्संकल्प और उनका यश अमर कर दिया। ऐसे महापुरुषों का वंदन-अभिनंदन तो स्वयं देवता भी करते हैं।देवलोक में क्रांतिदलों के पावन मिलन को कवि ने अभिव्यक्ति दी है-
                      देव लोक में गूँजने विधि का लगा अलिंद
                     विचर रहे थे क्रांतिकर बोल-बोल जयहिंद
                     बिस्मिल थे अशफाक थे रोशन सिंह भी साथ
                     जिनको थे देवेंद्र भी झुका रहे थे माथ
अंतिम सर्ग उपसंहार है, जिसमें कवि ने बिस्मिल जी के सामाजिक विचारों और उपदेशों को स्थान दिया है। बिस्मिल राष्ट्र के नागरिकों से अनुरोध करते हैं-
समता की, समरसता की बह चलें सुभग सरिताएँ राष्ट्र की अर्चना के हित सज उठे दीप-मालाएँ जिससे श्री बिस्मिल जी का साकारित हो हर सपना विश्व के गगन पर चमके दिनकर-सा भारत अपना

                             इन पंद्रह सर्गों में बिस्मिल’ जी के जीवन चरित्र की अनेक मनोहर झाँकियाँ प्रस्तुत की गई हैं। ईश्वर भक्ति,राष्ट्र भक्ति और समाज भक्ति-तीनों का ही तारतम्य काव्य में बना रहा है।लोकजीवन के विविध रंग दिखाती कवि की लेखनी आँचलिक सम्वेदना की लीक पर चलते हुए वैश्वीकरण के विश्वासों की अभिव्यक्ति भी है। प्रस्तुत काव्यकृति महाकाव्य के रूप में लिखी गई है, जिसमें कविवर आचार्य देवेंद्र देव महाकाव्य के लक्षणों की संपूर्ण विशेषताओं का भी समन्वय करते हैं। महाकाव्य का कथानक सर्गबद्ध होना चाहिए। प्रस्तुत महाकाव्य में कुल सोलह सर्ग हैं जो क्रमबद्ध रूप से कथा का विस्तार करते चलते हैं। प्रत्येक सर्ग में अलग-अलग छंदों का प्रयोग है। सर्गांत में छंद बदलता है जो अगले सर्ग के आने की सूचना देता है। महाकाव्य का नायक कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति होना चाहिए। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल अमर हुतात्मा रहे हैं। उनके चरित्र पर लिखकर स्वयं अपनी लेखनी को कवि ने धन्य किया है। प्रथम सर्ग में वंदना आदि के द्वारा कवि ने मंगलाचरण की भूमिका का निर्वाह किया है। प्रत्येक सर्ग के आरम्भिक पदों में भूमिका के लिए सामान्य कथन द्वारा सर्ग को विस्तार दिया गया है। नाट्य संधियों का उचित पालन हुआ है। यूँ तो मुख्य रस वीर रस है लेकिन इसके साथ-साथ शांत और करुण रस का भी प्रतिपादन हुआ है। समय-समय पर सूर्य,चंद्र,संध्या, प्रकृति चित्रण को कवि ने बहुत ही सुंदरता से दिखाया है। महाकाव्य का उद्देश्य बिस्मिल जी के यश को सामने लाना है। इससे कवि भी यश का भागी बना है।

           पंडित रामप्रसाद बिस्मिल महाकाव्य की भाषा बहुत उदात्त है। आचार्य देवेंद्र देव संस्कृत के भी अच्छे ज्ञाता हैं। अतः संस्कृतनिष्ठ पदावली का प्रयोग स्वाभाविक है। तत्सम् और पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग प्रभावित करता है।देशज शब्दों का प्रयोग भी द्रष्टव्य है। गवेषणात्मक भाषा और भावपूर्णता प्रस्तुत खंडकाव्य की विशिष्ट पहचान है। अमर क्रांतिकारियों पर लिखते समय इतिहास का प्रमाण भी सामने रखना होता है। आचार्य देवेंद्र देव ने इतिहास की सीमारेखा में रहकर ही सम्पूर्ण महाकाव्य का प्रणयन किया है। कवि का अध्ययन और मनन-चिंतन कृति में स्पष्टतया दिखाई देता है। निष्कर्षत: कहा जाए तो प्रस्तुत महाकाव्य अमर हुतात्मा पंडित बिस्मिल के चरणों में एक ऐसा काव्यपुष्प है जो अपनी सुगंध से पाठकों और भावकों को आनंदित और  उत्प्रेरित करता रहेगा।

पुस्तकः पंडित रामप्रसाद बिस्मिल
कविः आचार्य देवेंद्र देव
प्रकाशकः विद्या विकास अकैडमी, नई दिल्ली
मूल्यः ₹500    पृष्ठः 240

समीक्षक : डॉ नितिन सेठी
सी-231, शाहदाना कॉलोनी, बरेली (उ.प्र.)

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