Saturday, 25 July 2020

रचने का आनंद


उपन्यास लेखन: अंत की गढ़ंत

-         डॉ ज्ञान चतुर्वेदी

 

कविता, कहानी, व्यंग्य, और उपन्यास, विधा कोई भी हो, उसे रचना, मनोयोग से उसकी एक एक पंक्ति गढ़ना, शब्दों और भावों को अपनी ही कलात्मक शैली में जड़ते हुये एक खूबसूरत आकार देने का आनंद कितना अलौकिक- सा होता है, बताना मुश्किल है। आप किसी जेनुइन लेखक से ही कभी पूछिये। वह भी प्रायः बता न पायेगा। यह आनंद है ही अनिर्वर्णीय। मानिये कि गूंगे का गुड़ है।हां,  यहां रचनाकर के लौकिक आनंद और चुनौतियों की बात जरुर की जा सकती है।

उन्हीं में से एक है, लिखी जा रही रचना के अंत को गढ़ने का आनंद।.. रचना किस बिंदु पर समेटी जाये? कहां उसका अंत करें? और कैसे वह अंत बने कि जिसमें तृप्ति और अतृप्ति का भाव एकसाथ समाहित मिले? रचना के स्वाद की तृप्ति के साथ पाठक के मन में रचनात्मक भूख की अतृप्ति भी रह जाये। ऐसा कोई अंत गढ़ना जो रचना के सहज प्रवाह में घुल मिल जाये। यह अंत थोपा हुआ और गढ़ा सा कतई न लगे।

ऐसा अंत गढ़ना एक बड़ी चुनौती है। अब रचनाकार उस चुनौती को ले, न ले -  यह बात एकदम अलग है।.. और यही बात एक हद तक उसके लेखन को औसत या महान बनाती है।.. मैंने तो हमेशा ही इस चुनौती को बहुत महत्व दिया है।  मेरी हर रचना का अंत कुछ ऐसा बने कि वह, समाप्त होने के बाद भी पाठक के मन में चलती रहे।.. मेरा रचा हुआ पाठ जहां भी समाप्त हो वहां से पाठक का अपना पाठ शुरू हो जाये।कुछ इसी भांति का कोई अंत गढ़ने की मेरी चेतनअचेतन कोशिश हमेशा रहती है।

यूं तो संपूर्ण रचना ही महत्वपूर्ण होती है परन्तु, मैं, कदाचित्, रचना के अंत को लेकर कुछ अतिरिक्त ही सचेत रहता हूँ। मैं, रचना के इस अंत में अपनी सारी रचनात्मकता उड़ेल देने की कोशिश करता हूं। कभी इस काम में सफल रहता हूँ तो कभी नहीं। हमेशा तो मन मुताबिक नहीं हो पाता। कभी हो पाता है, कभी होते होते रह जाता है, और कभी लाख कोशिशों के बावजूद कुछ भी नहीं हो पाता। इसीलिये मेरी कुछ रचनाएँ बहुत अच्छी तो कुछ साधारण भी रह जाती हैं। हर लेखक के साथ यह होता रहा होगा।

पर मैं यहां फिर से दोहराऊंगा कि मेरी बात से यह भ्रम कतई पैदा न हो कि रचना का बस, अंत ही महत्वपूर्ण होता है। जाहिर है कि मैं यहां कतई ऐसा कुछ नहीं कह रहा।.. रचना तो आद्योपांत, हर शब्द, विरामचिन्ह, छोड़ दी गई स्पेस,  कहां पैराग्राफ बदला गया, और कहन में अंतर्निहित रसप्रवाह आदि हर छोटे-बड़े उपकरण से ही एक मुकम्मल स्वरुप ग्रहण करती है। रचना अपनी संपूर्णता में कितनी भी खूबसूरत बन रही हो, हर रचना में अंततः वह बिंदु आता है जहां रचनाकार जान जाता है कि अब यह रचना पूरी हुई। कह लिया मैंने जो मुझे कहना था।.. .. अवचेतन में ही कोई आपसे कहने लगता है कि अब यह रचना समेटी जानी चाहिये। रचना का अब अंत किया जाये।.. पर कैसे?.. किस पंक्ति पर?.. किस शब्द पर?... किस भाव पर?.. मेरे लिये ये सबसे चुनौतीपूर्ण पल होते हैं। शायद हर छोटी बड़ी रचना में सबसे ज्यादा कुशलता मांगने वाला हिस्सा यही रहता है।…. और यहीं आकर, “अंत की गढंत  की वह कला काम आती है जो प्रस्तुत लेख का अभीष्ट है।

अंत की गढंत भी एक कला है। इस कला की समझ ही रचना के अंत को एक ऐसा रुप देती है सप्रयास गढे जाने के बावजूद ऐसा सहज होता है कि पाठक को लगे कि इस रचना का बस यही सर्वश्रेष्ठ अंत हो सकता था।

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अभी तक तो हमने यहां अंत के गढ़ने को लेकर बस कुछ जनरल सी बातें ही की हैं जो लगभग हर विधा पर लागू होती हैं। कविता पर, कहानी पर और लघुकथा पर भी।

परंतु उपन्यास का अंत कुछ अलग सी ही शै होती है। उपन्यास को लिखना यूं तो स्वयं ही एक अलग आनंद है। एकदम जुदा। अनोखा। अतिशय और गहन आनंद।पर उपन्यास लिखने की उतनी ही बड़ी चुनौतियां भी हैं। विराट। विकट। और विरल किस्म की चुनौतियां। ये चुनौतियां उपन्यास रचने के कर्म को और भी इतर अनुभव बना डालती हैं। उपन्यास रचने के इस कुल अनुभव पर विमर्श का अवसर और अवकाश तो यहां नहीं है। हम यहां, बस उपन्यास के अंत को रचने की नितांत अनोखी चुनौती की बात करेंगे। उपन्यास का अंत रचने की चुनौती अन्य विधाओं से एकदम अलग होती है।.. कैसे?

आगे मैं उसी की बात करूंगा।

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उपन्यास का अंत गढ़ना एक अलग किस्म का कथाकौशल मांगता है।

उपन्यास का अंत रचना एक जटिल लेखन क्रिया है। जान लें कि उपन्यास का कोई एक अंत नहीं होता। उसके कई अंत होते हैं। ऐसा कोई एक अकेला अंत जो बस आखिरी चैप्टर या आखिरी पेजों में आ जाता हो, वास्तव में उपन्यास का वैसा कोई अंत होता ही नहीं। हां, पाठक को वैसा लगता अवश्य है। पाठक अंतिम पेज को ही उपन्यास का अंत मान लेता है।.. स्थूलरूप में देखें तो यह सच प्रतीत भी होता है। पर सूक्ष्मस्तर पर, उपन्यास लेखन की कला की निगाह से देखें तो एक उपन्यास समाप्ति तक आते आते कई बार समाप्त होता है। हर अच्छा उपन्यास कई अंतों से गुजरता है। उसके कई अंत, उपन्यास के जारी रहते हुये भी, साथ साथ होते चले जाते हैं। फिर आखिरी पेजों में सारी कथा की आत्मा को समाहित करने वाला एक फाइनल अंत आता है। पाठक के लिए वही उपन्यास का अंत है पर लेखक के लिये नहीं। लेखक के लिये तो इसके पूर्व रचे जाने वाले अन्य छोटे छोटे अंत भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।वे अनेक अंत वास्तव में उस फाइनल अंत की पूर्वपीठिका हैं। इन छोटे छोटे अनेक अंतों को गढ़ पाना ही उपन्यास लेखन की कला होती है।

बात कदाचित् कुछ पेचीदा हो गई। तो इसे सरल तौर पर यूं समझें कि एक बड़े उपन्यास में, मूलकथा को बढ़ाने वाले कई चरित्र आते जाते रहते हैं। मूलकथा के साथ इन चरित्रों की कथा भी चलती है। मूलकथा को संपूर्णता में कहने के लिये इन चरित्रों और उनकी उपकथाओं को रचा जाता है। ये चरित्र ही उपन्यास की पालकी को अपने कंधे पर उठाकर चलते हैं। उपन्यास के लिए हर चरित्र महत्वपूर्ण है। कोई भी चरित्र उपन्यास में बस यूं ही नहीं आ जाता है। छोटे से चरित्र की उपस्थिति भी कथा के लिये महत्वपूर्ण होती है। तभी वह आता है। उपन्यास कमोबेश हर चरित्र पर टिका होता है। एक एक पर। एक चरित्र भी ठीक से न गढ़ा जाये तो पाठक के मन पर उपन्यास की पकड़ छूटने का भय रहेगा। हर चरित्र पाठक के मन में प्रवेश करके उपन्यास का जीवंत संसार रचता जाता है।

चुनौती यह बनती है कि उपन्यास का अंत आते आते इनमें से हर चरित्र को अपनी अपनी कथा का एक जस्टीफाइड अंत चाहिए। जितने चरित्र , उतने ही अंत। मैं इन्हींअनेकों अंत का जिक्र कर रहा था। यदि हर चरित्र को ठीक से अंत न दिया गया तो अन्य सबकुछ रोचक सा होते हुये भी उपन्यास अधूरा लगेगा।..  मुझे लगता है कि जब उपन्यास की मूलकथा समाप्ति के करीब आती है तब ये सारे ही चरित्र उपन्यासकार यानि मुझे बड़ी ही उत्सुकता ओर बेचैनी से ताकते होंगे कि अपना उपन्यास पूरा करते हुये यह शख्स कहीं मुझे बीच में ही लावारिस और अधूरा तो नहीं छोड़ देगा?.. देखें कि मुझे उपन्यास में यह कहां ले जाकर छोड़ता है?.. यह मेरे रोल का कहां, किस तरह अंत करता है?

उपन्यासकार को अपने उपन्यास के अंतिम पेज तक आते आते हर चरित्र का एक उचित अंत या समापन गढ़ना पड़ता है। कभी वह ऐसा करने से चूक जाये तो सबसे पहले तो यह कमी उसका पाठक ही नोट करता है। कई उपन्यासों में आप यह अधूरापन महसूस कर सकते हैं कि यार, यह पात्र तो लेखक ने आधे में ही छोड़ दिया। एक अच्छे उपन्यास में हर चरित्र को एक निश्चित अंत दिया जाता है। सिद्धहस्त उपन्यासकार द्वारा हर चरित्र का अंत कुछ ऐसा गढ़ा जाता है जिससे उपन्यास में उस चरित्र के होने का औचित्य सिद्ध हो। हर चरित्र का अंतकथा को एक ऊंचाई देता जाता है। अगर चरित्रों के, ये सारे अंत ठीक से न रचे जायें तो उपन्यास बहुत अच्छा होने के बाद भी कुछ खाली खाली सा लगेगा। जगह जगह वह शिखर छूने से रह जायेगा। इसी लापरवाही  (जल्दबाजी या नासमझी के कारण) एक संभावनापूर्ण कथा लेकर चलता उपन्यास भी अंततः पाठक को असंतुष्ट छोड़ सकता है।

ये छोटे छोटे अंत रचने बड़े कठिन साबित होते हैं। कई बार लेखक इससे बच निकलने की अचेतन कोशिश में अपने चरित्रों को ही भुला बैठता है। पिछले पेजों पर रचे चरित्र को बाद के पेजों में स्वयं ही विस्मृत कर बैठता है। यह एक बड़ी भूल है। इस गफलत से बचने का मेरा उपाय यह रहता है कि अपने उपन्यास लिखने के लंबे अंतराल में (कई बार एक उपन्यास सालों ले लेता है), मैं अपने ही लिखे को बार बार पढ़ता रहता हूँ। अपने लिखे को बार बार पढ़ते, दोहराते रहने से यह आशंका नहीं रह जाती कि कोई चरित्र बीच में ही छूट जायेगा। रचनाकार को यह लगातार देखना ही होगा कि कोई चरित्र, कथा में आने के पश्चात बाद में पूरा गुमहीन हो जाये। एक सजग रचनाकार को बार-बार अपनी पूरी कारगुजारी को सजग रिवीजन की बारीक छन्नी से छानकर, छोटे छोटे चरित्रों को स्मृति में सहेजकर उनका उचित अंत तय करना होता है।

बड़े कलेवर के उपन्यास में तो और भी मुसीबत होती है। जितने ज्यादा चरित्र,  उतने ही अंत और उतनी ही बड़ी चुनौती।उपन्यास के अंत से पूर्व के ये इतने सारे अंत अलग अलग गढने होते हैं। जब तक ये सारे अंत ठीक से निभा न लिये जायें तब तक उपन्यास के सटीक फाइनल अंत को गढ़ने की स्थिति नहीं बन पाती।

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और फिर कैसे बनता है वह आखिरी सटीक अंत?

उपन्यास का वह आखिरी पल क्या होगा ? कहां जाकर हम यह कथा बंद करेंगे? कोई सिद्धान्त भी है, कि बस यूं ही? है तो। कम से कम मैं, जो किस्सागोई की कला में परमविश्वास रखता हूं कुछ सिद्धांतों का पालन करते हुए ही अपने उपन्यासों का अंतिम चैप्टर लिखने की कोशिश करता हूं।

कैसे? क्या हैं वे सिद्धान्त?

मेरे निकट उपन्यास का यह फाइनल अंत बस यूं ही तय नहीं हो जाता। इसके लिये बहुत सा गणित साधना पड़ता है। इस गणित में सबसे महत्वपूर्ण होता है वह केंद्रीय विचार या वनलाइनर जिसके कारण मैं यह उपन्यास लिखने के लिये बैठा।

.. वनलाइनर का मतलब? मतलब यहां बस दो तीन पंक्तियों में समाहित उस कथा या विचार से है जो शुरुआत में आपके मन में आया और उपन्यास लिखने का कारण बना। वह कथासूत्र ही आगे पूरे उपन्यास के केंद्र में रहने वाला है। कथा उसके आसपास ही बुनी जायेगी। बस, यही होता है वनलाइनर। अन्य कथाकारों का तो मुझे पता नहीं कि वे अपना उपन्यास कैसे शुरू करते हैं? मैं यहां बस अपनी बात कह रहा हूँ। कभी कोई पूछे कि उपन्यास की पूरी कथा शुरू से ही मेरे मन में रहती है क्या? तो मेरा उत्तर है कि बिल्कुल नहीं। वह कतई नहीं रहती। शुरू में तो एक केंद्रीय विचार सा होता है। बस। फिल्मस्क्रिप्ट लेखन में इसे ही वनलाइनर कहते हैं।

तो यही वनलाइनर मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण रहता है। मैं इसे पूरे उपन्यास में नहीं छोड़ता। मैं तब तक उपन्यास शुरू ही नहीं कर पाता जब तक यह वनलाइनर कथा मुझे पूरी तरह जकड़ न ले। इस वनलाइनर में सब समाहित है।.. उपन्यास में मूलतः क्या रहेगा? क्या कहना चाहता हूं मैं?  विचार क्या है? कथा बीज कैसा क्या है?... इसी वनलाइनर पर मैं फिर कई दिनों तक सोचता रहता हूँ। छोटा सा कथाबीज। छोटा सा विचार। छोटा लगता है पर एक बार वह मेरे मन को पकड़ ले और कई दिनों तक मेरा पीछा करता रहे तो मैं उस वनलाइनर के चारों तरफ उपन्यास बुनने बैठ जाता हूं। मैं यहां ऐसे ही कुछ वनलाइनरों के अपने अनुभव शेयर करने की अनुमति चाहता हूं।

नरकयात्राका वनलाइनर क्या था?

मैं तब मेडिकल कालेज से नया नया डाक्टर बनकर निकला ही था। डाक्टरी ट्रेनिंग के दौरान मैंने सरकारी अस्पताल के अराजक सिस्टम को बड़े करीब से देखा था। मन इसे लेकर बड़ा बेचैन था। सिस्टम के खिलाफ उपन्यास रचने के लिये मानो मैं खुद को अपना ही हाथ पकड़कर रोज बिठाता था।.. पर लिखोगे क्या ?  और किस लाइन पर?..  लिखना नहीं हो पा रहा था। फिर एक कथा का उडता सा विचार मन में आया।.. एक बडा़ अस्पताल। दो वरिष्ठतम टाइप के डाक्टर। एक ही कुर्सी। उसके लिये दोनों की लड़ाई। दो गुटों में बंटे डाक्टर। सब लड़ रहे हैं। और अस्पताल, आमजन और (आमजन जैसे ही) जूनियर डॉक्टर सारे निरपराध लोग क्रासफायर में मारे जा रहे हैं।ऐसा कुछ। यही फिर  नरकयात्रा का वनलाइनर बन गया।

ऐसे ही वनलाइनर बारामासी, मरीचिका, हम न मरब, पागलखाना और अपने लेटेस्ट लिखे जा रहे उपन्यास के भी रहे हैं। यहां लेख में स्थान की कमी है वर्ना वे भी यहां बताता। पर ऐसा मान लें कि शुरूआत में हर उपन्यास की आत्मा इन्हीं दो तीन पंक्तियों में बसी रहती हैं। हर उपन्यास शुरूआत में ऐसे ही वनलाइनर के तौर पर मेरे मन में आया है। इस एक विचार में ही मुझे पूरा उपन्यास मिलेगा, यह विश्वास ही अंततः मुझे उपन्यास लिखने के लिये बैठने को लालायित करता है।..

फिर यह वनलाइनर मन में हरदम ही बना रहता है। दो तीन माह। या ज्यादा भी। मैं इस विचार के साथ दिन रात गुजारता हूं। सोते जागते। मन में चलता रहता है, यही। इसी बीच एक दिन उपन्यास की शुरुआत हो जाती है। कोई एक चरित्र। कोई एक घटना। और लिखना शुरू। फिर और घटनायें रची जाती हैं। नये चरित्र आ जाते हैं। कथा में नये मोड़। जैसा जीवन में होता है न, वैसा ही। कुछ प्रत्याशित , कुछ अप्रत्याशित मोड़। उपन्यास ठीक हमारे जीवन की तरह बढ़ता है। वैसा ही बढना भी चाहिए। बहुरंगी। सुख। दुख। हंसी। चिंतायें। सबकुछ इसमें आता रहता है। यहां सबसे महत्वपूर्ण होता है, उपन्यास लिखते समय उपन्यासकार का निरंतर उस वनलाइनर को साथ लेकर चलते रहना। उसे विस्मृत नहीं करना है। धागा तो वही है। उसी पर विभिन्न चरित्रों और घटनाओं के मोती पिरो रहा हूं मैं। लिखते हुये सतर्क हूं कि मेरे उपन्यास का हर चरित्र उस केंद्रीय विचार के विभिन्न आयामों को प्रकट करे। यही वनलाइनर उपन्यास लेखन के दौरान मुझे निरंतर राह दिखाता चलता है। कोई भी घटना, कथा, उपकथा,  विवरण या चरित्र, फिर वह कितना भी रोचक बन रहा हो मुझे उपन्यास में वह कतई नहीं चाहिये यदि वह इस वनलाइनर से इतर हो रहा हो, तो। हर चरित्र उसी हद तक उपन्यास में आगे जायेगा जब तक इस वनलाइनर में व्याप्त विचार को फलीभूत करने के लिये उसकी जरूरत है। बस, वहीं तक। इससे ज्यादा नहीं।

इस तरह शनैः शनैः उपन्यास आकार लेने लगता है।..

फिर एक समय तक लिखने के बाद आप जान जाते हैं कि मैं जो कुछ कहना चाहता था वह अब तक की कथा में लगभग आ गया है। अब इससे आगे उपन्यास बढ़ाने की हर कोशिश उपन्यास में ऊब और दोहराव पैदा करेगी। इस एक पल को पहिचानना और समझ पाना भी हर उपन्यासकार को आना ही चाहिए।अब जाल को समेटने का वक्त आ गया।.. अब कथा का समापन हो।..  चरित्रों को तो उनके रोल के हिसाब से आप बीच बीच में पहले ही किसी न किसी खूबसूरत मोड़ पर छोडते चले ही आ रहे हैं। आप अब उस जगह हैं जहां वह वनलाइनर अपनी संपूर्णता में एक मुकम्मल उपन्यास के रूप में आ गया सा लगता है। बस, यहीं उपन्यास का आखिरी चैप्टर लिखने की चुनौती सामने आ खड़ी हो जाती है।

अब फायनल अंत को रचना शेष है।

यहाँ भी मेरा पहला और आखिरी प्रयास यह रहेगा कि मैं अपने वनलाइनर को उसकी संपूर्णता के साथ शिखर पर पहुंचा दूं। उसी विचार के आसपास तय करना होता है कि कथा कहां समाप्त होगी? उपन्यास के किस पात्र पर? किस घटना पर? कथा के किस मोड़ पर?  जो भी चुनाव हो वह कुछ ऐसा हो कि यह अंत पूरे उपन्यास का निचोड़ प्रतीत हो। उपन्यास के अंत पर पहुंचकर पाठक को कथा के शिखर पर पहुंचने का प्रबल अहसास हो। वहां उसे पूरी कथा के सौंदर्य का विहंगम अवलोकन हो, और कथा की ऊंचाई का रोमांच भी महसूस हो। इस शिखर से उसे वह वनलाइनर एकदम स्पष्ट दिखे। ऐसा सब हो तो मान लें कि उपन्यास को अपना सटीक अंत मिल गया।.. वैसे यह सब कहना बडा़ आसान है पर उसे ठीक वैसा रचने में जान पर बन आती है।

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उपन्यास का अंत खोजने और रचने के कुछ नितांत निजी अनुभवों के जिक्र से अपनी बात समाप्त करूंगा। अपने हर उपन्यास के अंत पर आकर मैं हमेशा ही बुरी तरह उलझा हूं। अंतिम तीन चार पेज रचने में कई बार मुझे दो तीन माह तक भी लगे हैं।.. बार बार लिखना। .. बार बार अपने लिखे को काटना।.. फिर लिखना। फिर फिर लिखना।.. पूरे लिखे को सिरे से रिजेक्ट करना।.. नये नये कोंण से कई तरह के कई अंत बनाना।और कई बार तो लंबे समय तक कुछ भी न सूझ पाना। शून्य में ही भटकना। फिर कोई चीज अचानक ही मन में कौंध जाना। .. ऐसा सब चलता है।

सबसे ज्यादा कठिन थापागलखाना का अंत रचना। यह यूं भी एक कठिन फैंटेसी शैली में लिखा उपन्यास था।सर्वशक्तिमान बाजार के चंगुल से निकलने की जुगत में छटपटाते छह पागलों की कथा। हर पागल की कथा एक नये कोण से बाजार के खेल को समझने समझाने का प्रयास था। अंत तक पहुंचते पहुंचते हर पागल की कथा एक उचित अंत तक पहुंच भी गई थी। फिर भी उपन्यास बहुत अधूरा लग रहा था। मैं जान रहा था कि जब तक इस फैंटेसी का अंत बाजार पर नहीं आयेगा बात अधूरी रहेगी। परंतु उपन्यास में बाजार की कोई स्वतंत्र कथा थी ही नहीं।.. तब? जिसकी अलग से कोई कथा न हो उसको उपन्यास के अंत में कैसे लाया जाये? सोच नहीं पा रहा था। वैसे उपन्यास के पूरे बैकग्राउंड में बाजार सर्वत्र था। सवाल था कि अब उपन्यास के अंत पर आकर इस बाजार को बैकग्राउंड से निकालकर सामने कैसे लाऊं? क्या करूं?.... दो महीने तक,  कुछ सूझा ही नहीं।.. फिर एक रात, लगभग ढाई तीन बजे, एक स्पष्ट से सपने में,  मैंने,  स्विट्जरलैंड में, अपनी कुक्कूघडि़यों के लिये मशहूर एक कस्बे में कभी देखी उस खूबसूरत और विराट घड़ी के टावर को फिर से देखा।..  स्विट्जरलैंड घूमते हुये मैंने उस घड़ी और उसमें बने पुतलों का नाच देखा था। पर्यटकों की भीड़ वहां उस घड़ी के टावर के चारों तरफ खड़े होकर इंतजार करती थी कि घड़ी का बड़ा कांटा कब बारह पर आये और घड़ी से निकलकर वे पुतले घूम घूमकर नाचें।यही घड़ी और पुतले मैंने उस रात सपने में फिर से देखे। सपने में एक चीज नई थी। पुतलों में आग लगी हुई थी। वे धू-धूकर के जलते हुये नाच रहे थे। आग का एक गोला सा घड़ी के चारों तरफ नाच रहा था। सपने में, भयभीत पर्यटक यहां वहां भाग रहे थे।मेरी नींद खुल गई।मुझे पागलखानाका अंत मिल गया था।फिर अंत कुछ यूं बना।.. समय ही बाजार को पराजित करेगा, यह विचार। ..एक घंटाघर।..  नाचने वाले पुतलों वाली घंटाघर की घड़ी। ..घड़ी का विद्रोह। ..समय का विद्रोह। समय से हारता बाजार। ..अंततः वह बात बन गई जिसनेपागलखानाको मुकम्मल बना दिया।.. इस अनोखे अंत की बड़ी तारीफें भी हुईं। हां, यह अंत मुझे एक सपने से मिला था, यह बात मैं पहली बार यहां बता रहा हूँ।.. रात तीन बजे उठकर मैंने यह अंत लिखा था।

अब आखिरी उदाहरण।

बारामासी का अंत भी पाठकों को बेहद भाया है।.. बारामासी एक विधवा मां के सपनों की कथा है। अपने बड़े होते बच्चों को लेकर उस मां के सपने हैं। छोटे छोटे सपने। बारामासी उन सपनों के टूटने, और टूटते चले जाने के बाद भी उस मां द्वारा सपने देखते चले जाने की हिम्मत की कथा है। बच्चे बर्बाद निकल गये तो क्या?  अब उनकी औलादों को लेकर भी तो सपने हैं इस बिंदु पर उपन्यास समाप्त होगा। यही बारामासी का अंत होगा, यह बात मैंने उपन्यास का उत्तरार्ध रचते हुये ही तय कर ली थी।.. तब तो अंत बड़ी आसानी से तय हो गया ? । नहीं। ऐसा हुआ नहीं। अंतिम द्रश्य विधवा दादी और किशोरउम्र पोते का लिखा जाना था। मुश्किल से दो पेज का द्रश्य। इसे मैंने बार बार लिखा परंतु हर बार यह कुछ अधूरा सा बना लगता था। कहीं कुछ छूट रहा था।.. पर क्या था वह?.. तब मुझे अमिताभ बच्चन के पोस्टर वाला द्रश्य लिखने की सूझी।.. उपन्यास की शुरुआत में दिलीप कुमार के कैलेंडर वाला द्रश्य है। यह पुरानी पीढ़ी का समय गुजर जाने का इशारा था। फिर बीच उपन्यास में अम्मा के युवा बेटे द्वारा कमरे की दीवार पर धर्मेंद्र का पोस्टर चिपकाने का द्रश्य है। यह बदल गये समय का प्रतीक था।.. तो अब उपन्यास के एकदम अंत के द्रश्य में पोते को लेकर अम्मा के सपने, और पोते के समय कि नया नायक आना चाहिए।इस तरह मैंने धर्मेंद्र के पोस्टर को हटाकर, उसके स्थान पर अमिताभ के पोस्टर को चिपकाते किशोर पोते के द्रश्य पर उपन्यास को अंत किया। यह अंत पाठकों को बहुत भाया।

ऐसे ही नरकयात्रा, मरीचिका, हम न मरब, और अभी अभी समाप्त किये अपने नये अप्रकाशित अनाम उपन्यास के अंत को रचने की भी रोचक कहानियां हैं। पर वे सब फिर कभी, किसी अन्य मौके पर।.. मैंने श्रीलाल शुक्लजी से   राग दरबारी और मकान”,  उनके दो बेहद चर्चित उपन्यासों के अंत को लेकर कभी लंबा विमर्श किया था। उसकी बात भी फिर कभी किसी अन्य अवसर पर की जायेगी।

-ज्ञान चतुर्वेदी

-40,अलकापुरी, भोपाल- 462024

1 comment:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 30 जनवरी 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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