बच्चे खेलते हैं
बच्चे
क्लाशिनोकोव से खेलते हैं
निकलते
हैं मुंह से
तड़-तड़; गड़-गड़ की आवाज़
खेल
ही खेल में
वे
धरती पर लोटपोट हुए जाते हैं
जिंदगी
के पहले पहर में कर रहे हैं
मृत्यु
का पूर्वाभ्यास
खेलते
हुए बच्चों के भीतर
रगों
के दौड़ते लहू को
जल्द
से जल्द उलीचने की आतुरता है
लड़ते
हुए मर जाना
उनके
लिए
रिंगा
रिंगा रोज़ेस और
छुपम
छुपाई सा रोमांचक खिलवाड़ .
बच्चे
जिसे समझते हैं खेल
वह
खेल होकर भी दरअसल
खेल
जैसा खेल है ही नहीं
अमन
की उम्मीद और
रक्तरंजित
धरती के संधिस्थल पर
अपरिहार्य
युद्ध की आशंकाओं से भरी
एक
खूंखार हिमाकत है.
बच्चे
सिर्फ बारूद से खेलना जानते हैं
हथगोले
हमारे अहद की फ़ुटबाल हैं
कटी
हुई गर्दनें हैं शांति की रूपक
भुने
हुए सफेद कबूतर
पसंददीदा
पौष्टिक आहार
एटम
बम को लिटिल बॉय कहते हुए
वे
गदगद हुए जाते हैं .
बच्चे
अब बेबात खिलखिलाते नहीं
गुर्राते
हैं ,हिंसक
षड़यंत्र रचते
खेलते
हैं घात प्रतिघात से भरे खेल
झपटते
हैं एक दूसरे की ओर
नैसर्गिक
उमंग के साथ.
बच्चे
सीख गये हैं
मारने और मरने का
खिलंदड़ी.
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नन्ही बच्चियां
दो नन्ही बच्चियां घर की चौखट पर बैठीं
पत्थर उछालती खेलती हैं कोई आदिम खेल
वे कहती हैं इसे -गिट्टक
इसमें न कोई जीतता है न कोई हारता है
बतकही और खिलखिलाहट में गुजरता है वक्त.
दो नटखट सहेलियाँ देखते ही देखते
सयानी हुई जाती हैं
उनके पास देखने लायक कोई ढंग का सपना तक नहीं
सिर्फ है लिया –दिया सा बेरंग बचपना
बाहर मेह बरसता न होता
वे देर तक कीचड़ में एक पाँव पर फुदकती
इक्क्ल दुक्कल खेलतीं.
एक राजकुमारी है दूसरी नसीबन
कतरे हुए कच्चे आम पर नमक बुरक
सी-सी करते हुए खाना उन्हें भाता है
वे जानती हैं अपना धर्म अपना मजहब
ईद की राम राम और दिवाली की मुबारकबाद
बेरोकटोक पहुँचती है एक दूजे के पास.
फिलवक्त माहौल ज़रा तनी हुई रस्सी सा है
गाँठ ही गाँठ लगी हैं चारों ओर
लोग सिर जोड़ कर बतियाने की जगह
रगड़ रहे अपने नाखून खुरदरे समय के सान पर
बच्चियां मन मसोस बंद दरवाजों के पीछे से
तिरा रही हैं अदृश्य बोसों के कनकौए बड़ी उम्मीद
के साथ.
बच्चियां कहती हैं ऊपर वाले से
अपनी दुआओं में ,हे परवरदिगार
हमें संग संग गिट्टक खेलने का थोड़ा सा मौका
खेलने लायक ज़रा सा सपाट आंगन दे दे
फिर कुछ दे या न ही दे
बात बात पर किलकने की सोहबत तो दे ही दे.
हंसना क्या होता है
यह जानना हो तो
किसी मसखरे से पूछो
बाकी लोग तो बस
यूँही हँस लिया करते हैं .
मुस्कान की थाह लेनी है
तो उस रिसेप्शनिस्ट से जानें
जिसके जबडों में
मुस्कराते रहने की जद्दोजेहद में
गठिया हो जाता है .
नग्नता का मर्म जानना
है
तो उस कैबरे डांसर से पता करें
जिसे ठीक से तन ढकने की मोहलत
घर के बंद दरवाजों के पीछे
कभी कभार ही मिलती है .
मौन की भाषा को जानना
है
तो झांक लो
उन लाचार आँखों में
जिन्होंने अभी तक हर हाल में
सच बोलने की जिद नहीं छोड़ी है .
कविता का मर्म जानना हो
तो उसे कागजों से निकाल
रूह तक ले जाओ
कविता की मासूम भाषा में
उम्मीद अभी तक जिन्दा है .
जिंदगी का मर्म जानना
है
तो मौत की दहलीज़ तक ठहल आओ
इसे ऐसे सपने की तरह जियो
जो कच्ची नींद में टूट भी जाये
पर मन मायूस न हो .
नए शब्द नए भावार्थ
गढते हुए
सब खुद –ब –खुद
पता चलता है
किसी से कुछ मत पूछो
बहती नदी की गति को
तस्दीक की जरूरत नहीं.
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स्मृति का अस्तबल
स्मृति
के अस्तबल में हिनहिना रहे हैं
बीमार
अशक्त और उदास घोड़े
अतीत
की सुनहरी पन्नी में लिपटे
इन
घोड़ों को यकीन नहीं हो रहा
कि
वे वाकई बूढ़े हो चले हैं.
रेसकोर्स
में सरपट भागते भागते
वे
भूल चुके थे स्वेच्छा से थमना
ठिठकना
और ठिठक कर मुड़ना
पीछे
घूम कर अपने फौलादी खुरों के साथ
निरंतर
घिसते हुए समय को देखना.
घोड़े
अपने सपनों में अभी भी दौड़ रहे हैं
बीत
गए वक्त को धता बताते
असलियत
के मुख को धूलधसरित करते
अपनी
जीत और जीवन का जश्न मनाते
यह उनका सच को नकारने का अपना तरीका है .
अस्तबल
में खूंटे से बंधे बूढ़े घोड़े
अभी
तक जब तब हिनहिना लेते हैं
ताकि
शायद उनकी कोई सुध ले
उन्हें
लौटा दे बीता हुआ वक्त
उमंग
उत्साह और रफ़्तार |
स्मृति
के अस्तबल में
बीमार
अशक्त और उदास घोड़े ही नहीं
अनेक
अगड़म सगड़म चीजों के साथ
कुछ
ऐसे दु:स्वप्न भी रखे हैं
जिन्हें
इत्तेफाक से
घोड़ों
की तरह हिनहिना नहीं आता |
और
सबसे हैरतअंगेज़ बात यह कि
ये
घोड़े आईने के नहीं बने हैं
फिर
भी इनमें कभी कभी मुझे
अपना अक्स दिख जाता है.
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निर्मल गुप्त
208 छीपी टैंक, मेरठ - 250001
मो.-8171522922
मर्मस्पर्शी रचनाएँ पढ़ने को मिली, धन्यवाद प्रस्तुति हेतु!
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