लेट जा, भई लेट जा
खाना खा और लेट जा।
पानी पी और लेट जा।
कसरत कर और लेट जा।
नाश्ता कर और लेट जा।
सब्जी काट के लेट जा।
कविता छांट के लेट जा।
दवा खा और लेट जा।
हवा खा और लेट जा।
पेपर पढ़कर लेट जा।
ख़बरें सुनकर लेट जा।
थक जाये तो लेट जा।
छक जाये तो लेट जा।
पड़ी खाट है लेट जा।
बड़ा ठाठ है, लेट जा।
कुछ ना सूझे, लेट जा।
कोई न पूछे लेट जा।
जब जी चाहे लेट जा।
गाहे-बगाहे लेट जा।
थोड़ा पढ़ और लेट जा।
थोड़ा लिख और लेट जा।
अपना घर है, लेट जा।
थकी उमर है लेट जा।
चिन्ता मत कर, लेट जा।
वक्त से मत डर, लेट जा।
धोखा खाकर, लेट जा।
मौका पाकर, लेट जा।
कोई बुलाए, लेट जा।
परवा मत कर, लेट जा।
लेट जा भई लेट जा।
सबसे अच्छा लेट जा।
अशोक
वाजपेयी की एक कविता सुनकर
कुछ लोग जो मुझसे ज्यादा
सफल हुए
ज्यादा मान्य, ज्यादा प्रसिद्ध
ज्यादा ऊंचे पदों तक पहुँचे
ज्यादा सम्मानित किये गये
नजदीक पहुंचे कुछ ज्यादा
बड़े लोगों के
ज्यादा बार छपे स्तरीय
पत्रिकाओं में
ज्यादा भाषाओं में अनूदित
किये गये
उन पर तरस आया आज पहली
बार
बिचारों से कुछ ज्यादा
ही कीमत
वसूल कर ली इन उपलब्धियों
ने
मैं जिन्हें समझ रहा था
अपने से ज्यादा भाग्यशाली
मुझसे कम ही कर पाये अपने
जीवन से प्राप्त।
नहीं तो क्यों करनी पड़ती
उन्हें
अपने आखिरी दौर में यह
प्रार्थना :
‘एक जीवन ऐसा भी दो प्रभु !
तनकर खड़े रह सकें जिसमें
बिना घुटने टेके।’
अफसोस भी हुआ यह सोचकर
कि इतनी सी बात के लिए
बिचारों को
लेना पड़ेगा दूसरा जन्म
क्योंकि यह तो वे सहज ही
कर सकते थे
इस जन्म में भी-
बस लोभ थोड़ा कम रखते
और आत्मसम्मान ज्यादा।
(जयपुर, 24.1.2012)
हो सारा
संसार बराबर
आर बराबर, पार बराबर
हो सारा संसार बराबर।
मालिक और मजूर बराबर
बाम्हन और चमार बराबर।
नर-नारी काले-गोरे से
हो समान व्यवहार बराबर।
एक-एक को दस दस बंगले
यह अन्याय अपार बराबर।
रोटी, कपड़ा, घर, इलाज पर
सबका हो अधिकार बराबर।
पांच उंगलियां नहीं एक
सी
बात तुम्हारी यार, बराबर।
दुगुनी नहीं पर कोई किसी
से
यह अन्तर स्वीकार बराबर।
लाख करोड़ गुना अन्तर यह
जुर्म, जबर, अतिचार बराबर।
धन, धरती, पानी बँट जाये
यंत्र, तंत्र, औजार बराबर।
उत्पादन के हर साधन पर
श्रम कर का अधिकार बराबर।
कुदरत बराबरी की हामी
उसका है व्यवहार बराबर।
हर प्रजाति के भीतर देखो
रूपरंग आकार बराबर।
फूल-फूल तितली-तितली में
सम्मिति का विस्तार बराबर।
कुछ लोगों के छल-बल का फल
विषम विकल संसार सरासर।
इसे बनाना ही होगा अब
इक वैश्विक परिवार बराबर।
जरा रोग पीड़ित अशक्तजन
मिले सभी को प्यार बराबर।
आस्तिक-नास्तिक, एलजीबीटी
सबके हों अधिकार बराबर।
सबके लिये बने यह पृथ्वी
सुख-सुविधा आगार बराबर।
आर बराबर, पार बराबर
हो सारा संसार बराबर।
बयान
यह कौन सी बला लग गयी है
मेरे देश के पीछे
गरीबी और भुखमरी तो पहले
से ही थीं
अब तक भी हो ही रहा था
दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों पर अत्याचार
बस कमी थी तो इस नये डेंगू
की
जिसने पिछले सोलह महीनों
में
इतनी बढ़ा ली है अपनी नस्ल
कि चारों तरफ सुनायी पड़
रही है
इसी की भूँ-भूँ।
वाह रे इन्सान !
तुम जानवरों तक को देखने
लगे हो
अपनी रंगभेदी नज़र से
भैंसों के मांस का वैश्विक व्यापार तुम्हारा
फूलफल रहा है बेरोकटोक
पर पूरे देश में तुम वर्जित
कर देना चाहते हो
गाय का मांस।
गोरी चमड़ी की गुलामी
तुम्हें यहाँ तक खींच लायी।
जिसे युगों तक खाते रहे
तुम्हारे पुरखे
उस पर अखिल भारतीय प्रतिबंध
लगाना चाहते हो तुम
क्या सिर्फ इसलिए कि उसे
पसन्द करते हैं वे लोग
जिन्हें तुम मलेच्छ मानते
हो
और सिर्फ दूसरी श्रेणी
का नागरिक
बनाकर रखना चाहते हो, अपने देश में।
और जिसका मुर्दा मांस खाने
के लिए
मजबूर हैं युगों से, सस्ते प्रोटीन के कारण
वे लोग
जिन्हें भंगी-चमार बनाकर रक्खा है तुमने
अपनी कॉलोनियों से बाहर
की गंदी बस्तियों में।
जो अपने फ्रिज में रक्खे
गाय का मांस
सरेआम पीटपीट कर उधेड़ लो
उस इन्सान का मांस।
मारो उसे
जो भी तुम्हारी धार्मिक
भावनाओं को आहत करे
चाहे वह दाभोलकर हो या
कलबुर्गी
सुकरात, मंसूर या चार्वाक
ब्रूनो या गेलोलियो
अब तो तुम्हारे ही सैंया
हैं कोतवाल।
लड़ो, लड़ते रहो मेरे देश के
कुछ-कुछ भले/ कुछ-कुछ अच्छे लोगों।
लड़ो एक-दूसरे के खिलाफ़ चुनाव
काटते रहो एक-दूसरे के वोट
और देखते रहो
देश को जहन्नुम में जाते
हुए
कभी मत लड़ो चुनाव की इस
प्रणाली के खिलाफ़
विजयी घोषित कर दिया जाता
है जिसमें
कुल के दस फीसदी वोट पानेवाला
भी।
आशा की किरन दिखाई दी थी
एक
अरविन्द केजरीवाल
पर उस ‘छोटे आदमी’ने एकछत्र बनने के चक्कर में
कितनी जल्दी दिखा दिया
अपना टुच्चा प्रॅक्टिकल
व्यक्तित्व
अपने सबसे सिद्धान्तनिष्ठ
साथियों को
बाहर का रास्ता दिखाकर।
कैसी विडम्बनापूर्ण स्थिति
है कि
सबसे बुरे लोग सबसे ज्यादा
संगठित हैं
कम बुरे कम संगठित
और अच्छे लोग सबसे कम संगठित।
(अगस्त-2016)
लष्टम
पष्टम
सब कुछ लष्टम पष्टम है
बिगड़ा पूरा सिस्टम है।
कमज़ोरों को गोली मारो
यही यहाँ का कस्टम है।
सत्य, न्याय ईमान अहिंसा
मूल्य-मान सब नष्टम है।
जनसेवा व्यवसाय सियासत
मुज़रिम सबमें रुस्तम है।
चोर लुटेरे प्रथम पंक्ति
में
भले आदमी अष्टम हैं।
मौत
मौत ज़िन्दगी की मंजिल है
मौत से तब फिर डरना क्यों?
मौत आये तब डटकर मरना
कतरा कतरा मरना क्यों?
(5.12.2011)
शेर पे बैठी दुर्गा की तस्वीर नहीं है भारतमाता
छुटभैयों पर तनी हुई शमशीर नहीं है भारतमाता
कच्छ - चिरांगल, तमिलनाडु – कश्मीर नहीं है भारतमाता
इसका एक एक बाशिंदा इसको मिल के बनाता है
किसी मोदी किसी इंदिरा की जागीर नहीं है भारतमाता
ईमेल- ranjeet1937@gmail.com
सुन्दर सृजन
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