Saturday 25 July 2020

साक्षात्कार : व्यंग्य अगर चेतना का हिस्सा है तो वह अंदर से उपजेगा


व्यंग्य विधा के अग्रगण्य हस्ताक्षरों में से एक स्मृतिशेष वरिष्ठ व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ से व्यंग्यकार रमेशचन्द्र शर्मा की व्यंग्य विधा पर केंद्रित बातचीतः-


प्रश्न-   व्यंग्य को आप किस तरह परिभाषित करते हैं?

सुशीलजी- वैसे तो व्यंग्य की शास्त्रीय परिभाषाएं बहुत हैं । यूँ भी साहित्य की सभी विधाओं में व्यंग्य निकलता है । मगर जब वक्रोक्ति और व्यंजना शक्ति का अनुपात जब लेखन में ज्यादा हो तो वही व्यंग्य कहलाता है ।

 

प्रश्न-   वर्तमान व्यंग्य लेखन व्यंग्य की परिभाषा की कसौटी पर कितना खरा उतरता है?

सुशीलजी- वर्तमान व्यंग्य लेखन में वक्र टिप्पणियां ज्यादा हैं, जिनका संबंध साहित्य से कम अखबार की रीति-नीति से ज्यादा है । अखबारी व्यंग्य लेखन तो शब्द संख्या तक में सीमित होकर रह जाता है । यही वजह है कि बहुत कम व्यंग्य खरे उतरते हैं । व्यंग्य लेखन में भले ही राजनीतिक चेतना ना हो मगर समझ तो हो । महज विसंगतियों के ध्वंस के लिए ही ना लिखा जाए । व्यंग्यकार की समझ भावी निर्माण की सूझ से भी पूर्ण होना चाहिए । विचारधारा के स्तर पर जो नादान हैं, वे तो क्षम्य हैं, मगर जो जानता है कि वह क्या कर रहा है, वह क्षम्य नहीं है । व्यंग्य लेखन में राजनीति की समझ के साथ आर्थिक और सामाजिक समझ होना भी जरूरी है । कोई भी विधा में लिखने के पहले गंभीर अध्ययन भी आवश्यक है ।

 

प्रश्न- पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य को दिया जा रहा स्थान पर्याप्त है?

सुशीलजी- व्यंग्य अब पत्र-पत्रिकाओं की प्राथमिकता में नहीं है । वे अब उतना ही स्थान व्यंग्य को दे रहे हैं, जितना वे दे सकते हैं । प्राथमिकता प्रभाव से तय होती है । अब ना परसाई जैसे व्यंग्यकार हैं, ना उनके जमाने जैसे संपादक हैं । दूसरी बात यह कि पत्र-पत्रिकाओं की नीति बाजारवाद और पूंजीवाद तय कर रहे हैं ।

 

प्रश्न-   क्या व्यंग्य में पैनापन कम होता जा रहा है?

सुशीलजी- बिलकुल, अब व्यंग्य में पैनापन कम हो रहा है। इसकी वजह को हम यूं समझ सकते हैं। पहला, भाषा में अब विवेक नहीं है। दूसरा, भाषा में प्रवाह और प्रभाव होना आवश्यक है। तीसरा, वाक्य छोटे और सुगठित होने चाहिए। चौथे, रचनाकार को सारी बातें खुद ही समझाने की व्यग्रता से बचकर पाठकों की समझ पर भी विष्वास करना चाहिए। अपने पूर्ववर्ती व्यंग्यकारों का भी गहन अध्ययन करना चाहिए। चौथी बात जो सर्वेष्वर ने कही है कि कई बार साहस के अभाव में मर जाते हैं शब्द। व्यंग्यकार को इतना साहसी होना चाहिए कि वह कीमत भी चुकाने को तैयार रहे। व्यंग्य शाब्दिक पक्षधरता है जो मुक्तिबोध की तरह पूछता है- पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है?

 

प्रश्न- व्यंग्यकार की कथनी और करनी में अंतर होने पर क्या वह व्यंग्य लेखन का अधिकारी रह जाता है?

सुशीलजी- निर्णायक क्षण में गलतबयानी कथनी और करनी के अंतर को दर्षाती है। जिस व्यंग्यकार में यह अंतर जितना कम होगा, वह उतना बड़ा व्यंग्यकार होगा। व्यंग्यकार में इतनी ईमानदारी तो होना चाहिए कि वह जिस विचारधारा के लिए काम करता है, उसके विपरीत नहीं जाए। विचारधारा और जनता से बेईमानी करने से अच्छा है वह नहीं लिखे।

 

प्रश्न-   व्यंग्य अब अंदर से उभरने की बजाय एक अभ्यास की तरह लिखा जा रहा है?

सुशीलजी-      व्यंग्य अगर चेतना का हिस्सा होगा तो वह अंदर से उपजेगा। औपचारिक होने पर वह अभ्यास हो जाता है। रचना दरअसल जीवन चाहती है, जैसे प्रेमचंद, नागार्जुन, निराला, परसाईजी का लेखन अंदर से निकलता है। जो लेखन अंदर से नहीं हो, वह महज अभ्यास ही होगा, निष्प्रभावी, औपचारिक।

 

प्रश्न-   कुछ अखबार व्यंग्य को विपक्ष पर हमले का जरिया बना रहे हैं तथा सत्ता पर आक्रमण से बचा रहे है?

सुशीलजी-      रचनाकार सनातन रूप से विपक्षी होता है। क्योंकि ईमानदारी से काम नहीं करना सत्ता का चरित्र होता है। व्यंग्यकार आलोचक तो होता है, मगर निंदक नहीं।

 

प्रश्न-   छपने के लिए समझौते करना उचित हैं?

सुशीलजी- छपने के लिए कभी भी समझौते नहीं करना चाहिए। युग कैसे भी हो, संभावनाएं कभी समाप्त नहीं होतीं। दरबारी कवियों ने तो काव्य के माध्यम से दरबारों में जनसाधारण की भावनाओं को व्यक्त किया था।

 

प्रश्न-   कहा जा रहा है कि मौजूदा दौर मे अभिव्यक्ति कठिन होती जा रही है। आप इसे कैसे देखते हैं?

सुशीलजी- कठिनाईयों का कीर्तन करने से काम नही चलता। यही हालात अगर परसाई जी और शरदजी के सामने होते तो वे इन हालातों में भी रास्ता निकाल लेते ।

 

रमेशचन्द्र शर्मा, स्वतंत्र लेखक/पत्रकार

7, आर्य समाज मार्ग, गली नं. 7,

(दौलतगंज स्कूल की गली)  बहादुरगंज, उज्जैन (म.प्र.)

ईमेल-  rameshchandrasharma14@yahoo.com

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