विवेक
मिश्र कहानी के क्षेत्र में एक सुपरिचित युवा नाम है | विवेक के कहानी कहने का अंदाज़
समकालीन कथा संसार में एकदम अलहदा है | उन्हें भाषा और विषय के महत्त्व को पता है
| उनकी कहानियों में कहीं भी वृतांत का अनावश्यक विस्तार नहीं मिलता | चालू विमर्शों से अलग विवेक अपनी
कहानियों में पूरे विश्वास और संवेदना के साथ अपने पाठक को साथ लेकर इस कठिन समय
की पड़ताल करने निकलते हैं जहाँ कहानीपन हरदम अपनी विशिष्ट शैली के साथ उपस्थित रहता है
| उनकी कथाओं को पढ़कर यह भी जाना जा सकता है कि समकालीन दौर में किस तरह कवियों और
कथाकारों की समस्याएं एक सी हैं | इधर अपनी कई महत्त्वपूर्ण कहानियों के कारण
विवेक चर्चा में रहे हैं | तीन कहानी संग्रहों के बाद अभी हाल ही में उनके पहले
उपन्यास ‘डॉमनिक की वापसी’ को आर्य स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया है | ‘स्पर्श’
के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनके इस नए उपन्यास के कुछ अंश:-
__________________________________________
अजीत से ‘डॉमनिक की वापसी’ में डॉमनिक का किरदार निभाने वाले दीपांश से मिलने की इच्छा ज़ाहिर किए हुए अभी दो-तीन दिन ही बीते
होंगे कि एक रात साढ़े दस-ग्यारह बजे के बीच जब मैं अपने कमरे पर अकेला ही था और
बड़े उचाट मन से दिल्ली प्रेस से मिली एक बेहूदा सी परिचर्चा का अन्तिम पैरा लिखकर
उससे निजात पाने की कोशिश कर रहा था, कि किसी ने कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा
खोला तो सामने अजीत खड़ा था और उसके साथ था, दीपांश, ‘डॉमनिक की वापसी’ का ‘डॉमनिक’।
पता नहीं दीपांश को अजीत ने मेरे बारे में क्या बताया था। वह मुझसे कुछ इस तरह
से मिला जैसे हम सदियों से एक दूसरे को जानते हों। वह हमारे कमरे पर पहली बार आया था पर नई
जगह आने की झिझक, कौतुहल और औपचरिकता की जगह उसके चेहरे पर एक बेफ़िक्री थी।
हम तीनों कमरे के एक कोने में बिछी दरी पर बैठ गए।
अजीत ने बिना कुछ पूछे अलमारी से गिलास और लगभग तीन चौथाई खाली हो चुकी विह्स्की की बोतल निकाली और गिलासों में पलट दी। खाने के लिए
कमरे पर कुछ नहीं था। इसलिए मैंने पूछा भी नहीं और उन्होंने मांगा भी नहीं। हम
चुपचाप विह्स्की में थोड़ा-थोड़ा पानी डालकर पीने लगे।
कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद मेरे मुंह से निकला, ‘इतना जीवन्त, इतना सहज अभिनय
मैंने पहले कभी नहीं देखा।’
दीपांश ने धीरे से घूँट भरते हुए कहा, ‘मेरे पास
अभिनय जैसा कुछ है ही नहीं, अभिनय कभी भी स्वाभाविक अभिव्यक्ति के बराबर हो ही
नहीं सकता, थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा हो ही जाता है’।
उसने लम्बी साँस लेते हुए आगे कहा, ‘शानी की कहानियाँ बहुत पढ़ी
हैं मैंने। उनकी एक बात हमेशा ज़हन में रहती है कि कहानी कभी भी ज़िन्दगी के नाप की
नहीं हो सकती, वह थोड़ी ढीली या थोड़ी तंग हो ही जाती है.’
ऐसा कहते हुए वह बिलकुल अपने किरदार ‘डॉमनिक’ की तरह लग रहा था।
‘बीच में भूलते या भटकते नहीं हो?’ मैंनेपूछा।
उसने माथे पर आ गए बालों को दोनों हाथों से पीछे करते हुए कहा, ‘भटकाव ने ही तो डॉमनिक बनाया है। उसी से दिशा मिली है।’
‘हर बार कैसे पकड़ पाते होगे, अभिव्यक्ति के उसी एक स्तर को?’ प्रश्न मैंने किया था पर अजीत उसमें शामिल था।
हम दोनो दीपांश की गहरी पर बिलकुल सुनसान आँखों में देख रहे थे। ‘जीवन में हर बात
का पहला सिरा याद रहा आता है। बस मुझे पहला संवाद याद रहता है, मैं उसी के सहारे प्रवेश
करता हूँ फिर सब अपने आप घटता है.’
वह खिड़की से झांकते हुए अंधेरे को देखकर बोला, ‘जानते हो जब हम पहली बार किसी
का हाथ पकड़ते हैं, तो जैसे एक नए जीवन का सिरा
पकड़ते हैं, एक कहानी का पहला वाक्य
पढ़ते हैं, एक किताब का पहला पन्ना
खोलते हैं। तभी हम जान पाते हैं कि एक भरोसे से किया गया पहला स्पर्श केवल छूने का
सुख नहीं होता, उसमें किसी नई दुनिया में प्रवेश
की जिज्ञासा, कौतुहल और उससे पैदा हुई
थरथराहट भी होती है.’
ऐसा कहते हुए दीपांश की आँखों का खालीपन भरने लगा था।
‘इसलिए प्रेम की किसी भी स्थिति में वह पहला स्पर्श, उसका सुख, उसका एहसास सदा के लिए
हमारे साथ रहा आता है, जिसके सहारे हम अनगिनत
स्पर्शों के पुल खड़े करते हैं। दरसल वह पहली छुअन नींव है, धरोहर है, उस रिश्ते की। एक
सुख की आश्वस्ति है, जो बार-बार स्मृतियों में
आकर फिर-फिर छूने को उकसाती है।
शायद यही वो आलम्ब है, जो उम्र के धुंधलके में भी
स्मृतियों में घुलकर हमेशा आनन्द देता है। इसी के सहारे मैं बार बार उस निर्वात
में तिर जाता हूँ, सच मानो वहाँ उस स्पर्श के अलावा कुछ भी नहीं होता.’
उसकी बातों की सरसता में हम किसी अदृश्य झरने की आवाज़ सुन रहे थे।
‘पर यही स्पर्श बहुत रुलाता भी है। उस हाथ के छूट जाने पर सारे पुल ढह जाते
हैं। इस एक स्पर्श के सहारे मन कितनी बातें बिना कहे-सुने ही समझ लेता है।’
उसकी आँखों के किनारों पर जमी कालिमा धीरे-धीरे गीली होकर एक किस्से में ढल
रही थी। पता नहीं यह नशे का असर था या उसके भीतर उफ़नते सागर का ज़ोर। हम उसकी आँखों में देख रहे थे। वहाँ धीरे-धीरे बादल घिर रहे थे, हवाएं तेज़ हो रही थीं…
……वह किसी पहाड़ी पर एक ढलान से घाटी में उतरता हुआ रास्ता था।
उत्तरांचल में कोटद्वार से थोड़ी-सी ऊँचाई पर सिद्धबली का मंदिर है। मंदिर के
पीछे से ढलान उतरने पर एक नदी बारहों महीने छलछलाती बहती है।
जिसमें दूर से देखने पर दो परछाइयाँ घाटी में उतरती हुई दिखाई दे रही थीं। हिमानी
दीपांश का हाथ पकड़कर मंदिर की ओर खींच रही थी। दीपांश मंदिर नहीं जाना चाहता। अजीब
विच्छोव होता है उसे, ईश्वर से। वहीं एक पुराना चर्च है। दोनों चर्च की ओर उतर गए। बहुत दूर
कहीं झरने के गिरने की आवाज़ आ रही थी। दोनो चर्च की काई लगी दीवार से जा लगे।
दीपांश ने हिमानी का हाथ हल्के से छुआ, हिमानी की आँखों के ठहरे हुए पानी में एक तरंग उठी जो दीपांश की आँखों में तिरती हुई अनंत में बिला गई, हिमानी ने दीपांश का हाथ कसकर पकड़ लिया। बिना किसी ध्वनि के रक्त का उद्दीपन हस्तांतरित होने लगा। उन्हें लगा उन दोनो के हृदय के स्पंदन की लयऔर गति एक हो गई है।
उनकी पकड़ में एक वादे जैसा कुछ था। अचानक हिमानी ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की और वह दीपांश के कंधे से जा लगी। दीपांश ने उसका हाथ छोड़ दिया और एक पत्थर उठाकर हवा में
उछाला। चर्च की दीवार पर बैठी चिड़िया आसमान में खो गई।
अब उन्हें देखने वाला वहाँ कोई नहीं था।
वे शायद पहले स्पर्श के उसी एहसास में तिर रहे थे जिसके बारे में बताते हुए
दीपांश की आँखों में यह दृश्य उतर आया था। उनकी साँसों में एक अजीब-सी बेतरतीबी थी जिसे देखकर उस घाटी में बहती हवा थोड़ी तेज़ हो गई थी। दीपांश ने हिमानी के हाथों को अपने हाथ में लेकर चूम लिया था जिससे सुनहला सूरज धीरे-धीरे लाल होने लगा था अब दूर से देखने पर दो नहीं
एक ही परछाँईं दिखाई दे रही थी। अब वहाँ की हवा में ख़ालिस प्रेम बह रहा था। बीतते
समय की टिक-टिक रुक गई थी। लगा वे उसी पल में जम
गए हैं।
बड़ी देर बाद……, चर्च के घण्टे की आवाज़ से समय धीरे से हिला। मोम-सी जमी हुईं आकृतियाँ, एक दूसरे से अलग हुईं जैसे
गहरे पानी में डूब के उबरी हों।
अब हिमानी की आँखें पहले जैसी नहीं थीं। अब वे किसी हिरनी की आँखें थीं।
अब उनमें प्रेम के साथ एक सहज अधिकार बोध और गर्व था। अब वह दीपांश को कन्धों
से पकड़कर धकेलती हुई मंदिर की ओर ले जा रही थी। वे दोनो धीरे-धीरे आसमान से उतरती धुंध में डूब रहे थे।
हम दीपांश की आँखों में और आगे का दृश्य देख पाते कि उसने आँखे बंद कर लीं। फिर एक लम्बी साँस लेकर आँखें खोलीं। अजीत ने बची हुई विहस्की उसके गिलास में पलट दी। तभी उसने एक निर्रथक जान पड़ता प्रश्न किया, ‘तुम्हारे कमरे पर वॉयलिन है?’
हम दोनों ने उसकी तरफ़ आश्चर्य से देखा। उसने एक नज़र कमरे में बिखरी किताबों, पत्रिकाओं और बासी अख़बारों पर डाली। शायद वह भाँप गया कि वहाँ वॉयलिन का होना लगभग असंभव है। उनदिनों हमारे जीवन में संगीत दिल्ली के भागीरथ पैलेस से डेढ़ सौ रूपए में खरीदे गए एक लोकल रेडियो से निकलकर ही आता था और वह भी तभी श्रव्यमान हो पाता था जब कमरे पर कला, संगीत और फिल्मी गीतों का विरोधी कोई वामपंथी मित्र न बैठा हो। तब तक हमें विचार के रूप में कोई दिशा नहीं मिली थी। हम सिर्फ़ अपने-अपने अंधेरों में भटकते बेरोजगार थे जो झूठी-सच्ची बातें बनाकर किसी सपने का पीछा करते हुए महानगरों की ओर भाग आए थे।
उसने उस कलाविहीन रूखे से वातावरण में किसी तरह अपनी स्मृति में रखे एक अदृश्य सेवाद्य यन्त्र का तार छेड़ा फिर जैसे गुनगुनाते हुए बोला, ‘जानते हो पियानो के जादूगर कहे जाने वाले महान संगीतज्ञ बीथोवन को?’
मैं अपने अज्ञान पर झेंपने ही वाला था कि अजीत ने कहा, ‘वह जर्मनी का महान संगीतज्ञ?’
‘हाँ वही जर्मनी के लुडविगवैन बीथोवन। उनका पसंदीदा वाद्य कौन सा था?’
‘………………’
‘जानता हूँ बेवकूफ़ी भरा प्रश्न है। लगेगा ‘पैथेटिक’ और ‘पियानोसोनाटा’ लिखने वाले का प्रियवाद्य पियानो के सिवा क्या होगा!… पर ऐसा था नहीं, उन्हें वॉयलिन पियानो से ज्यादा प्रिय था, अपनी तंगहाली के दिनों में जब दरबार में उन्हें अपनी पसंद का कोई वाद्य चुनने के लिए कहा गया तो बीथोवन ने वॉयलाचुना- बड़ा वॉयलिन.’
अजीत ने जैसे दीपांश के भीतर छुपे उस अदृश्य वाद्य को देख लिया हो, ‘बीथोवन से बहुत प्रभावित लगते हो-अब तुम्हारे और वॉयलिन के संबंध को समझ पा रहा हूँ.’
वह अपनी आँखों की गहराई से मुस्कराया, ‘हम लोगों के बारे में जो जानते हैं और जो सच है, कई बार उसमें बड़ा फ़ासला होता है.’
सच। आज हम उस फासले को देख रहे थे। जिस अभिनेता की एक-एक अदा पर सैकड़ों लोग टकटकी लगाए रहते हैं। जिसके हाथों में वॉयलिन आ जाने पर थिएटर में एक जादू-सा तिरने लगता है। वह एक ऐसा किस्सागो भी है जो बोलता है तो बीता समय सामने जीवन्त हो उठता है।
वह एक साँस खींचकर थोड़ी देर चुप रहा फिर बीथोवन के बारे में ऐसे बताने लगा जैसे वह उसका अपना ही अतीत हो। उसकी उपस्थिति से कमरे का वातावरण बहुत कलात्मक और दार्शनिक-सा हो उठा। उसने बीथोवन की कथा को बीच में रोककर कहा था, ‘दर्द तुम्हारे गुणों को और भी नुकीला औरपैना कर देता है।’ फिर अपने भीतर का सारा दर्द समेटकर उसने किस्सा आगे बढ़ाया।
अजीत और मैं दोनो यही चाहते थे कि बीथोवन का वह किस्सा सारी रात खत्म न हो पर अभी जब वह बीच में ही था कि मेरे दोनो साथी वापस आ गए। वे दीपांश से मिले। हमारे एक साथी जिनका नाम हरि नौटियाल था, जो गढ़वाल के रहने वाले
थे और जो हमारे किस्सों में ज्यादा रुचि नहीं लेते थे। वह दीपांश को कमरे पर देखकर कुछ अन्यमन्स्क हो उठे। दीपांश भी उनसे मिलने
के बाद कुछ ही पल में वहाँ से चला गया।
6-
दीपांश के जाते ही हरि नैटियाल ने हमसे सीधा सवाल किया, ‘यह यहाँ कैसे?’
मैंने और अजीत ने लगभग एक साथ ही पूछा ‘आप इसे जानते हैं?’
उन्होंने बड़े विश्वास से हाँ में सिर हिलाते हुए कहा, ‘हाँ, मैं इसे जानता हूँ’
हम दोनो उनको बड़े ध्यान से देख रहे थे। उनका नाटकों से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था पर
उनको देख के लग रहा था कि वह दीपांश को अच्छे से जानते हैं। हमें लगा शायद उनके पास
उसकी कहानी का वो सिरा है जिसे हम दोनों ही जानना चाहते थे।
आज पहली बार हमारे कमरे पर हरिनौटियाल जो हमारे बीच इकलौते नियमित कामगार आदमी
थे और एक प्राइवेट बैंक की,
दिनभर की, तन-मन को थका देनेवाली नौकरी करके
देर से कमरे पर लौटते थे और हमारे किस्सों से हमेशा एक दूरी बनाए रखते थे, एक किस्सागो हो गए थे और हम
सब श्रोता...
‘यह देबू है, हरिकिशन डबराल का बेटा। ये खंजड़ी
बहुत अच्छी बजाता था, गाता भी खूब था। बाल-दाड़ी, बगैरह बढ़ा के कैसा हो गया ये? बहुत सुंदर था ये। उत्तरांचल
की अलग मांग को लेके छिड़ी लड़ाई ने हमारे यहाँ के कई बच्चों का भविष्य खराब कर दिया।
आज राज्य तो अलग हो गया पर क्या मिला किसी को, फिर वही ढाक के तीन पात। जो इसमें कूदे सबका भविष्य खराब ही हुआ। यह भी रातदिन
अलग प्रान्त की मांग के लिए लोगों का समर्थन जुटाने के लिए गाँव-गाँव गीत गाता फिरता था। कला
तो थी लड़के में पर दिशा नहीं थी। मैंने तो कितनों को समझाया ‘राज्य क्या, यहाँ कुछ भी बना लो, कुछ बदलने वाला नहीं, इस देश का कुछ नहीं हो सकता।
ऐसे क्रान्तियाँ नहीं हुआ करतीं। सबको रोजगार चाहिए, ...दो वक़्त की रोटी। हर आदमी नौकरी की तलाश में शहरों की ओर
भागा जा रहा था। खेत-जंगल खाली हो रहे थे। जो उनके
सहारे वहाँ रुक गए थे उनका उतने में गुज़ारा नहीं हो पा रहा था। बस समझ लो कि
पहाड़ों पे हर दूसरे घर में चूल्हा बाहर से आने वाले मनीऑर्डरों से जल रहा था। हम सब
शान्ति पसंद लोग हैं, झंझट-झमले से दूर रहने वाले पर इसके
बौज्यू, मेरा मतलब है पिता, बिलकुल अलग ही धुन के आदमी थे और ऊपर से इसकी माँ। उन्हें
न जाने क्या रट थी कि अपने पति और बेटे को शहर नहीं भेजेंगे। अपने हक़ के लिए लड़ेगें, संघर्ष करेंगे, यहीं अपने लिए और साथी गाँववालों
के लिए सारी सुविधाएं लेकर आएंगे। इसके पिता वो गाना गाते थे, क्या था वो … ‘साथी हाथ बढ़ाना साथी रे।’’ बहुत बुरा हुआ उन लोगों के साथ।
कौन हाथ बढ़ाता है…आज के समय में। उसी समय ये देबू, क्या नाम है इसका, हाँ, दीपांश किसी लड़की के प्रेम-व्रेम के चक्कर में भी पड़ गया
था। पहले पढ़ने-लिखने की उम्र में आंदोलन,ऊपर
से कच्ची उमर का प्रेम।’
वेकुछदेररुककरदिमाग़परथोड़ाज़ोरडालतेहुएबोले, ‘हिमानी, पूरा नामथा- हिमानी श्रीवस्तव। पहाड़ों की नहीं थी पर वह अपने ताऊजी के
पास रहकर कोटद्वार के कॉलेज में पढ़ रही थी। उसके पिता अखिलेश कुमार श्रीवस्तव,
उर्फ ए.के. श्रीवास्तव, उर्फ अक्खू। हाँ और…एक नाम था उनका ‘एकेस’ जो उन्हें केवल
हिमानी की माँ, बीना जी ही कहती थीं। वह सेन्ट्रल रेल्वे के झाँसी डिवीजन में
रेल्वे के डी.आर.एम ऑफिस में हैड क्लर्क, यानी बड़े बाबू थे। जिनका कुछ ही दिनों
पहले भोपाल डिवीजन में तबादला हो गया था। पहले कुछ दिनों तक वह इस तबादले से बड़े
परेशान रहे पर बादमें वह इसे एक मौके के रूप में देखने लगे थे क्योंकि वहाँ
पहुँचते ही उन्हें सेन्ट्रल रेल्वे के भोपाल भर्ती बोर्ड में प्रवेश परीक्षा विभाग
में बहुत महत्वपूर्ण सीट मिल गई थी..
वह अक्सर ही सपत्नीक छुट्टियों में
हिमानी से मिलनेकोटद्वारअपनेबड़ेभाईकेपास आया करते थे। पर अपनी भोपाल पोस्टिंग के
बाद जब वह आए तो हिमानी ने उन्हें ताऊजी से कहते सुना था कि पिछले दो सालों में,
मेरठ के वाधवा साहब ने इसी सीट पर रहते हुए लाखों पीट लिए थे हालाँकि अब पिछले
पाँच महीनों से वाधवा और उनके चार साथी निलम्बित चल रहे थे और उनके ख़िलाफ़ जाँच
बैठी थी। वह अपने बड़े भाई यानी हिमानी के ताऊजी को आश्वस्त करते हुए कह रहे थे कि
वह इस पोस्टिंग पर बहुत प्रैक्टीकल तरीके से काम करेंगे। उन्हें उस जगह के
पोटेन्सियल के बारे में पता चल गया है और अब वह अपना सही टेलेन्ट वहाँ दिखाएंगे
जिसका कि भरपूर अवसर उन्हें उनके अनुसार अभी तक नहीं मिला था। हालाँकि अभी तक वह
आर्थिक उदारीकरण की हवा में शेयर, डिवेन्चर्स, म्युचुअल फंड आदि को मैनेज करने में
अपना हुनर दिखाते रहे थे पर यह सब करके भी वह अपने से बहुत ज्यादा संतुष्ट नहीं
थे।
वह बार-बार यह भी कह रहे थे कि बस यहाँ दो ढाई साल रह गए तो हिमानी की शादी भी
आसानी से निपट जाएगी। यहाँ पर कई अच्छे पढ़े-लिखे लड़के नौकरी के लिए उनके विभाग के
चक्कर लगाते रहते हैं। हिमानी की माँ, बीना जी भी उसकेपिता की बातों को खासे
उत्साह से सुनकर सहमति में सिर हिला रही थीं। वह अन्त में वही बात दोहराने लगे थे
जो अकसर ही हिमानी और उसकी माँ से कहते थे, ‘जानते हैं लोग जिस विषय को सबसे
ज्यादा उपेक्षा से देखते हैं, नीरस समझते हैं, वही विषय जीवन को समझने के लिए, उसे
क़ायदे से जीने के लिए सबसे जरूरी है और वह है, अर्थशास्त्र- इकॉनॉमिक्स’। यह बात वह
अपने जीवन में बहुत पहले समझ गए थे। इसीलिए उन्होंने कॉमर्स वर्ग से इन्टर पास
करने के बाद सीधे इकॉनॉमिक्स आनर्स में एडमीशन ले लिया था। वह तो और भी बहुत आगे
जाते और उन्हें रेल्वे की इस मामूली नौकरी में न बंधना पड़ता, अगर बी.ए. के आखिरी साल में उनका
और हिमानी की माँ, बीना जी का प्यार परवान न चढ़ा होता। इसी वजह से वह एम.ए. में
एडमिशन नहीं ले सके थे। इसके लिए वह मन ही मन अपने बड़े भाई को भी दोषी मानते थे,
जिनके कहने पर पिता जी ने उन्हें मनीऑर्डर भेजना बंद कर दिया था पर अब वह इन सब
बातों को सोचकर निराश नहीं होते थे। उनके भीतर का अर्थशास्त्री अपनी पत्नी के नाम
से ली गई कई बीमा एवं निवेश की एजेन्सियों के माध्यम से कमीशन के धन्धों में
सक्रिय था। वह अकसर कहते कि वह तो बस दिखाने के लिए रेल्वे की यह बाबूगिरी किए जा
रहे हैं, इसमें उनके लिए कुछ नहीं रक्खा पर आखिरकार अब इस नौकरी में भी उन्हें
कमाने का सही अवसर मिल गया था।
इसके बाद हिमानी के ताऊजी और पिता
के बीच हिमानी को लेकर भी कुछ ऐसी बातें हुई थीं जो हिमानी को नहीं बताई गई थीं पर
हिमानी ने उन बातों को घर की हवा में सूंघ लिया था। उसके परिवार में उसे बिना कुछ
बताए उसके विवाह की योजना बननी शुरू हो गई थी।
‘पर आप यह सब कैसे जानते हैं?’ अजीत ने हरिकिशननौटियालको बीच में ही रोक के
पूछा था।
‘क्योंकि मैं भी उन दिनो बेरोजगार
था, उम्र बढ़ती जा रही थी, शहर गए भाइयों ने पैसे भेजने बंद कर दिए थे। सामने बूढ़े
माँ-बाप थे और उजड़े हुए खेत। वे चाहते थे मैं पहाड़ों पर ही रहकर खेती करूँ। खेती न
मेरे बस की थी और न ही उसमें मेरा गुजारा हो सकता था। एक अदद नौकरी की मुझे सख्त
जरूरत थी और उसके मिलने की कोई संभावना कहीं से नहीं दिख रही थी। उन्हीं दिनों
किसी ने मुझे बताया कि ए.के. श्रीवास्तव, हिमानी के पिता मुझे रेल्वे में नौकरी
दिला सकते हैं। उन दिनों भोपाल भर्ती बोर्ड में पैसे देकर नौकरी पाने के किस्से
मध्य प्रदेश ही नहीं अन्य राज्यों के बेरोजगारों मेंभी आम थे। लोग बिना किसी
योग्यता के धड़ाधड़ नौकरियाँ पा रहे थे। मैं भी उनसे मिलकर कतार में जा लगा पर जितनी
रकम की मांग उन्होंने की थी उतनी रकम का इन्तज़ाम तो किसी बेरोगार के लिए असंभव ही
था। ख़ैर मेरी किस्मत अच्छी थी, मेरा काम कहीं और बन गया। आंदोलन-वांदोलन के झमेलों
से मैं पहले ही दूर था। नहीं तो जीवन ख़राब ही होना था।’ उन्होंने पूरी समस्या और
समय से ख़ुद को अलग करके, अपनेकोथोड़ा ऊपर उठाते हुए
कहा।
सिबाय हरि नौटियाल के वहाँ उपस्थित
सभी लोग एक बात मेहसूस कर रहे थे कि कई बार इंसान कितनी चालाकी से अपने स्वार्थ और
कांईएपन से हासिल की गई चीज़ों के आधार पर ख़ुद को विजेता साबित कर देता है।
वह रॉ में बोले जा रहे थे, ‘बस
उन्हीं दिनों मेरा हिमानी के ताऊ जी के पास जाना होता था। मुझे आज भी याद है- कैसा
कोहराम मचा था हिमानी के घरमें जब उसके पिता को पता चला कि वह देबू मतलब तुम्हारे
इस दीपांश से मिलती है। और कुछ प्यार-व्यार जैसा कोई चक्कर है।
कोटद्वार से थोड़ी दूर नदी के पास एक चर्च है।
उसी से आगे ढलान उतरने पर एक मन्दिर है। ये दोनो अक्सर इन्हीं दो जगहों पर मिलते
थे। उन दिनों हिमानी के ताऊजी नौकरी दिलवाने का लालच देकर कई नौजवानों से, कई तरह
की बेगारी कराते थे। उसी समय उन्होंने मुझे दीपांश के बारे में पता करने का काम भी
सौंपा था। एक दिन उसके कुछ एक दोस्तों से बात करके जो कुछ भी पता चल सका था, वह
बताने मैं हिमानी के ताऊजी के पास गया था। पर उस दिन उनके घर का सीन बदला हुआ
था’……अब हम हरि नॉटियाल की आँखों से हिमानी के ताऊ जी के चार कमरों, एक बड़े बरामदे
और उसके सामने एक बड़े लॉन वाले घर के ड्राइंग रुम कहे जाने वाले कमरे में झाँक रहे
थे…
वहाँ गोरे चिट्टे, क्लीन शेव्ड,
तौंद तक चढ़ा के जीन्स और जबरन ख़ुद को ठांस कर छोटी टीशर्ट पहनकर, सदा रस ले-लेकर
बिहारी के दोहों का भावार्थ बताने वाले ताऊजी, किसी ख़ाप पंचायत के लम्बी रौबीली मूंछों वाले ताऊ में बदल गए थे और उनके
सामने खड़े ए.के. श्रीवास्तव जो एक ऐसे पिता थे जिन्होंने बचपन से लेकर अब तक अपनी
बेटी की सारी इच्छाएं पूरी की थीं और इसी कारण हिमानी में शुरू से ही अपने साथ
पढ़ती लड़कियों से अलग एक आत्मविश्वास था। पर उससे यह समझने में चूक हो गई थी कि
उसके भीतर कुछेक चुनिंदा छोटी-छोटी इच्छाएं बड़ी सफ़ाई से रोपी गई थीं और जिस
आत्मविश्वास को वह अपना समझ रही थी, वह आरोपित था। दरसल आज उसे आभास हो रहा था
किउसकी शादी उसके पिता के लिए एक सोच-समझ के किया जाने वाला सौदा थी जिसमें उसकी
इच्छा कहीं शामिल नहीं थी। इसीलिए सदा चटखारे लेकर अपनी प्रेम कहानी सुनाने वाले
पिता आज एक व्यापारी की तरह बतिया रहे थे।
वे कह रहे थे कि जात, पात, धर्म ये
सब वह नहीं मानते पर शिक्षा और स्टेटस की ऊँच-नीच तो देखनी ही पड़ती है। वे कई तरह
के तर्क देकर गैर बराबरी वालों से संबध जोड़ने के फायदे-नुकशान बता रहे थे।
उन्होंने हिमानी के आगे कल्पना और यथार्थ, भावना और तर्क की बैलेन्स सीट तैयार
करके रख दी थी। उसके प्रेम को भावुकता में की जा रही नासमझी सिद्ध कर दिया था
जिसके लिए वह जीवन भर पछताने वाली थी। उनके लिए सच्चा प्रेम और उससे मिला सुख कोरी
कल्पना ही थी जो जवानी के दिनों में सभी कभी न कभी कर ही बैठते हैं। वह जोश में यह
भी कह गए थे कि यदि अपने जवानी के दिनों में उन्होंने प्रेम जैसी भूल और फिर उसमें
पड़कर शादी की जल्दबाजी न की होती तो वे आज पता नहीं कहाँ होते। उनकी यह बात उनकी
पत्नी जो उन्हें प्यार से एकेस कहती थीं, को बहुत नगवार लगी थी और उनकी कई साल
पुरानी मिस्टर ए.के. श्रीवास्तव के लव सेलेकर लवमेरिज तक पहुँचने वाली रुमानी
कहानीजिसेवहहुलस-हुलसकरअपनीसहेलियोंकोसुनातीरहीथीं, अचानकहीउनकेभीतररेशा-रेशाबिखरगईथी।वहकहानीजिसपरउनकावज़ूदऔरउनकीसहेलियोंकेहिसाबसेउनकेचेहरेकाग्लोदोनोहीटिकेहुएथे
झूठी साबित हो गई थी। उनके ‘माईडियर एकेस’ के एक वाक्य से उनका वह भ्रम भी टूट गया
था कि उनके पति बहुत प्रेक्टीकल होते हुए भी उनके बारे में बहुत रोमांटिकहैं, बहुत
सेन्टीमेन्टल हैं। इसी भ्रम के चलते ही तो वह उनकी सारी कारगुज़ारियाँ सहती थीं। यह
सुनने के तुरन्त बाद ही वह तेज़ी से जवान होती लड़कियों की सहेली नहीं बल्कि बुढ़ापे
की दहलीज़ पर पैर रख चुकी एक प्रोड़ महिला और दो बेटियों की माँ लगने लगी थीं। पर
चूँकि यहाँ मामला बेटी के भविष्य का था और उसका भला-बुरा केवल श्रीवास्तव जी और
उनके बड़े भाई ही अच्छे से समझते थे। इसलिए वह चुप ही रहीं। पर अपने प्रेम विवाह को
श्रीवस्तव जी एक गलती मानते हैं इस बात ने उन्हें अचानक ही कमजोर कर दिया था और यह
जानने के बाद वह किसी बहाने से धीरे से भीतर चली गई थीं।
हिमानी के चेहरे से ‘आत्मविश्वास की
पर्त’ और ‘पिता के उसके मन की हर बात समझने की गलत फ़हमी से पैदा होने वाला
इत्मीनान’ दोनो गायब हो गए थे।
अब वह डरी, सहमी, संशय ग्रस्त स्त्री थी।
उसने सहारे के लिए एक दूसरी स्त्री, अपनी माँ की तरफ़ देखना चाहा पर वह वहाँ
नहीं थीं। माँ थोड़ी देर पहले जिस विश्वास के सहारे वहाँ खड़ी थी अब वहाँ अचानक उतार
लिए गए विश्वास का केंचुल भर पड़ा था। इसके अलावा घर में जो अन्य स्त्रियाँ थीं,
उनमें एक उसकी छोटी बहिन जो भोपाल में पिताजी और माँ के साथ ही रहती थी और इस खास
मौके पर उनके साथ यहाँ आई थी और दूसरी उसकी ताईजी ही थीं। उन दोनो के पास आधुनिक
परिधानों से सजे चेहरे और महंगे और ट्रेण्डी कहे जाने वाले वस्त्रों और आभूषणों से
लदे शरीर तो थे पर अपनी कोई आवाज़ नहीं थी। उनके मुँह से पिता और ताऊ की कही बातें
ही लिंग बदल कर प्रतिध्वनित होती थीं। वैसे वे कभी इस बारे में ज्यादा सोचती भी
नहीं थीं। वे जैसी भी थीं अपने आप को अपने आस-पास की महिलाओं से अलग और बेहतर
समझती थीं। उनकी इस निर्द्वन्द्वता की समय-समय पर हिमानी के पिता और ताऊ तारीफ़ भी
करते थे। इसलिए उन दोनो का भी इस मामले में वही मत था जो पिता और ताऊ का था। इसलिए
हिमानी उस घर में मदद के लिए या तो अपने भीतर झाँक सकती थी या दूसरे विकल्प के रूप
में अपने पिता की ओर देखकर याचना में हाथ जोड़ सकती थी।
उसने पहले पिता की ओर देखा।
पिता का चेहरा किसी वैधानिक चेतावनी-सा सपाट और सख़्त था। उस पर लिखा था कि
प्रेम एक प्रकार की आत्महत्या है। बिना कुछ कहे-सुने ही उसे पता चल गया था कि उसे
इस जीवन में प्यार करने की अनुमति नहीं है। उसकी पसंद-नापसंद सब पिताजी की मर्ज़ी
से तय होगी और वह जानती थी कि पिताजी की मर्ज़ी का काँटा नफ़ा-नुकशान तोलकर ही
हिलेगा।
उसने सहम कर अपनी आँखें पिता के
चेहरे से हटाकर सामने लगे आदमक़द शीशे पर लगा दीं। उसने पहली बार देखा उसके मनकूप
में गहरे बैठा पिता का डर उसकी आँखों के पानी में काँपने लगा था। वह ठीक-ठीक अपने
आपको ही शीशे में देखकर पहचान नहीं पा रही थी। उसने अपने भीतर उस प्रेम का सिरा
बड़ी मुश्किल से ख़ोज कर टटोला जिसके सहारे वह अभी तक अपने पिता और ताऊ के सामने खड़ी
थी। उस भयाक्रान्त अवस्था में भी उसे ढपली की थाप पर दीपांश की आवाज़ में एक लोकगीत
सुनाई दिया। वह ऐसे बोली जैसे उसके गले से उसी लोकगीत के बोल फूट पड़े हों।
उसने लगभग काँपती आवाज़ में कहा, ‘आप उसे ठीक से जानते नहीं, दीपांश बहुत अच्छा
लड़का है.’
‘नाम मत लो उसका मेरे सामने। अच्छा लड़का है! करेगा क्या? खाएगा क्या? कैसे खड़ा
होगा मेरे सामने? ढपली लेकर?’
‘वो बहुत अच्छा कलाकार है...’
‘ऐसे कलाकार शहरों में फुटपाथ पर खड़े होकर भीख मांगते हैं, अगर सही में चाहता
है तुम्हें तो करे पाँच लाख का इन्तज़ाम, मैं नौकरी दिलाता हूँ, रेल्वे में..’ यह
कहते हुए एक रिश्वतखोर कर्मचारी और एक सधे हुए दलाल ने अखिलेश कुमार श्रीवास्तव के
भीतर के पिता को पूरी तरह ढक लिया था। उनकी हर बात से अंधेरा झर रहा था।
धीरे-धीरे पूरा दृश्य अंधेरे में डूब गया। ……या शायद हिमानी को ही ऐसा लगा। क्योंकि उसके ठीक बाद हिमानी की आँखें बन्द
होती चली गईं..
7-
उसदिनदीपांशसेहुईमुलाक़ात और हरि नौटियाल की बातों सेहमनेजितनाउसके बारे
मेंजानाथाउससेज्यादाजाननेकीचाहहमारेमनमेंथी।उधरतबतक ‘डॉमनिककीवापसी’ काकईबारमंचनहोचुकाथा।दीपांशकेअभिनयकाजादूसबकेसिरचढ़करबोलरहाथा।उसकेअभिनयकीतारीफ़मेंअख़बारोंमेंबहुतकुछलिखागयाथा।नाटककेदिल्लीसेबाहरभीकईशोहोचुकेथे।पच्चीसवाँशोदिल्लीमेंहीहोनेवालाथाजिससेपहलेविश्वमोहननेप्रेसकेकुछलोगोंकेसाथमुझेभीअपनेऑफिसजो
किक्नॉटप्लेसमेंएकआर्टगैलरीकेऊपरथा, बुलायाथा।शायदउन्होंनेअपनेनाटकपरमेरा लेखपढ़लियाथा।
उसदिन चाय परशोकेबारेमेंकुछऔपचारिकबातें और आगे की योजना के
बारेमेंबताकरविश्वमोहन जल्दी हीवहाँसेचलेगएथे।हमसबभीनिकलहीरहेथेकिविश्वमोहन
कीसहायकइतिजोउनकेथिएटरग्रुपकीकास्टिंग, कॉस्ट्यूम, एडवरटाइजिंगआदिसेलेकररिहर्शलतककासाराकामदेखतीथीऔरसाथहीसाथहिंदीकेलोकनाट्योंपरशोधकररहीथी, नेबतायाथाकिअभीकुछदेरमेंदीपांशभीवहाँआनेवालाहै।उसनेयहभीबतायाकिनाटकोंपरमेरीलिखीसमीक्षाएंवहअक्सरपढ़तीहै।
‘क्यादीपांशअपनेनाटकोंकीसमीक्षाएंपढ़ताहै?’ जिज्ञासावशमैंनेपूछा।
उसनेथोड़ाझिजकतेहुएकहा,
‘शायदनहीं, परआपकेलिखेएकलेखकीकटिंगजिसमेंआपनेकॉस्ट्यूमसकीअलगसेचर्चाकीथी, उसीनेमुझेदीथी।’
फिरवहटेबलपरपड़ेअपनेबिखरेहुएपेपरसमेटतेहुएबोली, ‘उसकेबारेमेंकुछभीठीक-ठीककहनामुश्किलहै।मेरामतलबहै- कईबारतोवहइतनीबारीकचीज़ेंऑबसर्बकरलेताहैजोहमसेइतनाअलर्टरहनेपरभीमिसहोजातीहैं।’
मुझे लगा इति भीदीपांश के काम से उतनी ही प्रभावित है जितना कि मैं। मैं उससे
उसके शोध के विषय मेंकुछ पूछ ही रहा थाकि तब तकदीपांश भीआगया। वह आते
हीबड़ीगर्मजोशीसेमिला।लगाजैसेउसेमालूमथाकिमैंउसकाइन्तज़ारकररहाहूँ। उसके साथ
अंग्रेजी पत्रिका ‘द आर्ट’ में नाटकों पर स्तंभ लिखने वाले नामी पत्रकार सैम्युल
भी थे. उनसे मेरा परिचय कराते हुए उसने कहा ‘आपकी तरह ये भी अभिनेताओं के ‘मेथड ऑफ
एक्टिंग’ पर गहरे शोध के साथ नाटकों पर बहुत दिलचस्प ढंग से लिखते हैं.’
सैम्युल ने मेरी ओर देखतेहुए, ‘चलिए
कभी हिंदी नाटकों पर आपसे लम्बी बात करूंगा. वैसे और क्या लिखते हैं?’
मैंने भीतर दबे सपने को बाहर निकालते
हुए कहा, ‘एक छोटी-सी कहानी ज़ेहन में है जिस पर फ़िल्म बनाना चाहता हूँ.. नाटकोंपर लिखने
के अलावा आजकल उसकी स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूँ.’
सैम्युल मुस्कराते हुए बोले, ‘ओह ये
तो अच्छा है, पर कभी नाटक लिखने के बारे में भी सोचिए. हिंदी मेंनए नाटकों की कुछ
कमी-सी दिखाई देती है.’
‘जी जरूर.., नाटक बहुत प्रभावित करते
हैं,शायद आगे कभी कोई लिख भी सकूँ.’ मैंने सैम्युल से सहमत होते हुए कहा.
थोड़ी देर बाद इति हमलोगों के लिए ऑफिस के किचिन में चाय बोलकर वहाँ सेनिकल गई
थी.
पहले हम बड़ी देर तक हिन्दी नाटकों के इतिहास पर बात करते रहे। जहाँ तक मुझे पता था दीपांश ने नाट्यशास्त्र की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी पर उसकी जानकारी चौंकाने वाली थी। नाटकों
पर तमाम दृष्टिकोणों से बात होते-होते अन्त में बात उसके नाटक की भी हुई। …फिर न जाने कैसे
बात नाटकों से होती हुई प्रेम पर आ गई। सैम्युल ने प्रेम और जीवन को केंद्र में रखके दीपांश
के नाटक की एक अलग ही समीक्षा प्रस्तुत की. उसके बाद वह भी चले गए.पर मेरी और दीपांश
की चर्चा ज़ारी रही...
मैंने पाया कि प्रेम जैसे उसके जीवन का कोई अधूरा शब्द है जिसे वह बड़ी शिद्दत से पूरा करना चाहता है और इस कोशिश में वह और अधूरा, और खंडित होता जा रहा है।इस बारे में बात करते हुए उसके शब्दों से ज्यादा उसकी आँखें बोलती थीं। उसदिन
उसकी आँखों में एक साफ़ आसमान वाली पहाड़ों की एक रात जिसमें पौ फटने को थी, दूरतक फैली थी…
पहाड़ों के ऊपर तने आसमान में सप्तॠषि देखते ही देखते कहीं बिला गए थे।भोर का तारा जो हिमानी की छत के ठीक ऊपर चमकता था। आज वह वहाँ नहीं दिख रहा था।
खुले आसमान में एक बादलकेटुकड़े ने उसे ढक लिया था।रातअपनेनथुनेफुलाती-पिचकातीधीरे-धीरेपीछेहटरहीथी।पूरबकीप्राचीपूरीताक़तसेउसेपरेधकेलरहीथी।रातशायदभोरकेतारेकोदेखेबिनाजानानहींचाहतीथी।तभीउसबादलनेखिसककरभोरकेतारेकेआगेपड़ेपर्देकोहटादिया।ताराचमकउठा।उसेदेखतेहीरातपीछेहटगई।पहाड़ों, घाटियोंऔरबुग्यालोंमेंदूर-दूरतकफैलेमालू, बेडू, तिमला, काफल, चीड़, बांज, बुरांशअलसाएहुए सेजागनेलगे...
दीपांशकेकमरेकीखिड़कीपरसुबहहोरहीथी।
एकपहाड़ीपरढलवांछतवालेतीनमकानथे।उनमेंसबसेनीचा, ढलानकीतरफ़छोटे-छोटेदरवाज़ेऔरखिड़िकियोंवालाघरदीपांशकाथा।उसकेसामनेसेउतरतीघुमावदारऊँची-ऊँचीसीढ़ियाँसड़कपरपहुँचनेकेछोटेरास्तेकेतौरपरइस्तेमालहोतीथीं।उनसीढ़ियोंकेकिनारे-किनारेपहाड़केऊपरसेबहाआतापानीतेज़ीसेनीचेउतररहाथा।कहतेहैं- पानीकाबहावदेखतेचलो, पहाड़सेउतरनेकारास्तामिलजाएगा।परदीपांशनेअपनीमंडलीकेलिएपहाड़केऊपरकीजगहचुनीथीजहाँपहुँचनासबकेलिएसहजनहींथा।चोटीपरबनीझोपड़ीमेंशामकोमंडलीबैठतीथी।ढपलीकीथापदेरराततकवादियोंमेंतिरतीरहती।
एक लाल रंग की डायरी में लिखी कविताओं का सस्वर पाठ होता।
किसी गले से पंत की पंक्ति फूटती-
‘बुरांश के दिल में आग है’ कई स्वर मिलकर कहते- ‘उसमें जीवन की फाग है’
कई बार इन कविताओं को सुनकर पिताजी
ऊपर चले आते। ऐसे में वह अक्सर अज्ञेय की वह कविता सुनाते, ‘नई धूप में चीड़ की
हरियाली/ दुरंगी हो रही थी/ और बीच-बीच में बुराँश के गुच्छे/ गहरे लाल फूल मानो
कह रहे थे/ ‘पहाड़ों के भी हृदय है, जंगलों के भी हृदय है’।
कभी-कभी कुछ महिलाएं भी घर का काम
निपटा कर हाथ में लालटेन लिए ऊपर तक चढ़ आतीं। जिसमें बिमला मौसी, जिनके पति अलग राज्य की इस
मांग के लिए कई साल पहले एक दिन प्रदर्शन करते हुए लखनऊ में पुलिस द्वारा धर लिए
गए थे और किसी भी तरह अब तक जिनकी जमानत नहीं हो पाई थी, रोज़ ही आ जातीं। वे अपने
पति की निशानी- एक चांदी का सरौंता हमेशा हाथ में दबाए रहतीं और नीली सांटन की
छोटी-सी पोटली से सुपारी निकालकर किसी बहुत जरूरी काम की तरह उसे कुतरतीं और उसी
नीले सांटन के थैले में वापस डाल देतीं। साथ की औरतें कहती, ‘बिमला सुपारी नहीं,
अपने आगे खड़े पहाड़ से जीवन का एक-एक पल काटती है, सरौंते से’।
औरतें झोपड़ी के बाहर जलती आग
तापतीं और झोपड़ी के भीतर की बातें इस उम्मीद में सुनती कि शायद भीतर जो कुछ भी हो
रहा है वह किसी जन जागरण जैसा है जिससे पहाड़ पर अलसाया हुआ समय धीरे से करवट
बदलेगा और उन्हें अपने दुखों की गुहार लगाने के लिए, न्याय मांगने के लिए
घर-बाग-ज़मीन छोड़कर मैदानों में नहीं जाना पड़ेगा। जब वे झोपड़ी से आती आवाज़ों को सुनतीं
तो उनकी पनीली आखों में उनके सामने जलती आग झिलमिलाती रहती। वे कई बार झोपड़ी के
भीतर बैठे नौजवानों के भविष्य की चिन्ता में नम भी हो जातीं। वे बीतती रात और
आसमान से उतरते कोहरे के बारे में झोपड़ी में बैठे लड़कों को चेतातीं।
दीपांश की अम्मा कभी ऊपर के कमरे
में न आतीं वे नीचे अपने कमरे में बैठीं ऊपर उसके कमरे की चमकती रोशनी को ताकती
रहतीं। बीच-बीच में रसोई में जाकर चूल्हे की राख इस आशा में कुरेद आतीं की उसमें
बची आंच चूल्हे पर चढ़ी पतेली को उसके नीचे उतरने तक गर्माए रखेगी। पर रात कितनी भी
बीत जाए ऊपर झोपड़ी के भीतर की सभासुबहकीयोजनाबनाकर हीविसर्जितहोतीऔरउसके बाद
हीदीपांशनीचे उतरकरघरमेंघुसता।कलरातजबउतरातोसुबहकीयोजनातयथी उन्हें सुबह अपने गाँव
से निकल कर जगह-जगह रुकते हुए पौड़ी तक की यात्रा करनी थी. पौड़ी उन दिनों अलग राज्य
की मांग को लेके खासा सक्रिय था. पर दीपांशजैसेनिश्चयऔरअनिश्चयकेबीचझूलरहाथा।बीतीरातबहुतलम्बीथी…
सुधीन्द्र और महेन्द्र कुछ और साथियों को लेकर दीपांश के घर के सामने कीढलानपर
खड़े थे। सुधीन्द्र ने वहींखड़े-खड़ेहीआवाज़लगाई।उसकेहाथमेंढपलीथी और पहले हीप्रभातफेरीकेलिएउन्हें देर हो चुकी
थी।आजउन्हें ऊपर पौड़ी की ओर चढ़ते हुए दोपहर से पहलेतीनगाँवोंकीफेरीकर लेनीथी।कुछ
नए गीत गाने थे। कुछ सोए हुओं को जगाना था।
इन्हींप्रभातफेरियोंमें गली-गली घूमते हुए ऐसा लगने लगा था पहाड़ का एक अलग
नक्शा तैयार हो रहा है। इसकी सुगबुगाहट देश की राजनीति में भी होने लगी थी। ऐसी कई
टोलियाँ कई गावों में सक्रिय थीं। कुछ राजनैतिक दलों ने बदलते समय को भाँपकर इन
टोलियों को समर्थन देना भी शुरू कर दिया था।ऐसीहीएकफेरीमेंदीपांश
कीमुलाक़ातहिमानीसेहुईथी।हिमानी
नेजबअपनेकॉलेजकेरास्तेपरदीपांशकोगातेसुना,तोउसेलगाकिदीपांशनहींबल्कि पहाड़ख़ुदअपनीदुर्दशाकीकहानीकरुणस्वरमेंगाकरसुनारहेहैं।पेड़, पहाड़, नदियाँ, घाटियाँसबउनकीटोलीकेसाथचलकरअपनाहक़मांगरहेहैं।उसकाभीमनकियाथाउनकेसुरमेंसुरमिलानेका।परउसनेअपनेपिताऔरताऊजीकोहमेशाहीकहतेसुनाथाकियेपहाड़ीजितनाचाहेसिरपटकलेंपरयहराज्यअलगनहींहोसकता।ऐसेराज्यनहींबनाकरते।
जिस दिन पानी सिर से ऊपर होगा सरकार यहाँ ‘पीएसी’ लगा देगी जिसके जवान घर में घुस
के एक-एक को तोड़ के रख देंगे. इसकेलिएबहुतबड़ीलड़ाइयाँलड़नीपड़तीहैं। बहुत सारी
क़ुर्बानियाँ देनी होती हैं।परवेनहींजानतेथेकिलोगभीतरहीभीतर,बड़ीऔरआर-पारकीलड़ाईकामनबनाचुकेथे।
सुधीन्द्रने फिरआवाज़ लगाई। परजवाबमेंआजदीपांशकाकोईउत्तरनहींआया।सुधीन्द्रकोलगावहअभीभीसोरहाहै।अबकी
बार उसनेढपलीपरथापदेतेहुएआवाज़लगाई साथ ही महेन्द्र जिसकी आवाज़ सबसे बुलंद थी, ने
भी साथ दिया। पर दूसरी तरफ़ ख़ामोशी ही रही।
दीपांशतोजैसेसारीरातसोयाहीनहींथा।रातखिड़कीसेआसमानकोताकतेऔरसन्नाटेमेंतेज़ीसेपहाड़सेनीचेउतरतेपानीकीआवाज़सुनतेबीतीथी।रातभरउसेयहआवाज़सालतीरहीथी।उसेकईबारलगाकिवहसंकरीनालियोंमेंमिट्टीगिराकरनीचेबहतेपानीकोरोकले।उसेपहलीबारइसप्रवाहमेंख़ुद
केबहजानेकाख़तरालगरहाथा।बार-बारआँखोंकेआगेहिमानीमुस्करारहीथी।उसेलगरहाथाजैसेहिमानीऔरउसनेप्रेमकोनहींचुनाबल्किइसअकारथसमयमेंप्रेमनेउन्हेंचुनलियाहै।वहभीतबजबइसकेलिएउनकीकोईतैयारीनहीं।वेकिसीजंगलीफूलसेअभी-अभीअपनीडालियोंपरखिलेथे।बचपनसेअबतककिसीनेभीइसतरहउन्हेंकभीनहींचुनाथा।बसवेअपनेजीवनमेंऐसेहीरहेआएथेऔरअपनेइसतरहहोनेमेंवेकहींनकहींख़ुशभीथे।परअबजबअचानकवेप्रेमकेलिएचुनलिएगएथे।प्रेमउन्हेंनचारहाथा, सिखारहाथा, दिखारहाथाऔरवेनाचरहेथे,देखरहेथे, सीखरहेथे।
उस दिन सुधीन्द्र के लाख बुलाने पर भी दीपांश नीचे नहीं आया उसने माँ से कहलवा
दिया था कि उसकी तबियत कुछ अच्छी नहीं है। हालाँकि सुधीन्द्र को उसकीइसतरह बदलती
और बिगड़ती तबियत का कुछ अंदेशा हो गया था पर फिर भी वह रोज़ की तरह उसे साथ ले जाना
चाहता था पर दीपांश उस रोज़ उसके साथ नहीं गया।
कॉलेज के बाद हिमानी उसे उसी चर्च
के पीछे मिलने वाली थी।
वह समय से पहले ही वहाँ पहुँच गया
था। आज चर्च की दीवारें जीवित जान पड़ती थीं। वे उसके पहले प्रेम के अनोखे स्पर्श
की बिन मांगे ही गवाही दे रही थीं। धीरे-धीरे दीपांश को चर्च की इमारत अच्छी लगने
लगी थी। वैसे पुरानी इमारतों, खंडहरों से उसका एक अजीब-सा रिश्ता था। उसके सपनों
में अक्सर खाली इमारतें, खण्डहर और टूटे हुए घर आया करते थे। सपने में वह उनसे
बोलता, बतियाता था। न जाने क्यूँ
उसे लगता था कि एक दिन पहाड़ वीरान हो जाएंगे और फिर जब पहाड़ बर्फ़ की चादर ओढ़कर
सोया करेंगे तो उन्हें जगाने वाला कोई नहीं होगा। वह पिघलती बर्फ़ के नीचे से
निकलते बंजर पहाड़ों के सपने देखता था। पर आज उसे चर्च की दीवार के सहारे आसमान
छूने को चढ़ती चली जाती बेल आश्वस्त कर रही थी कि सब कुछ कभी खत्म नहीं होता। सब
कुछ मिटने के बाद भी कुछ न कुछ रहा आता है। आज आसमान जैसे उस बेल के सिरे पर फूटती
कोंपल पर टिका था। न जाने क्यूँ आज हिमानीका इन्तज़ार अन्य दिनों के इन्तज़ार से अलग
था। आज रह रहकर उसके विचारों की लय, उसकी धड़कनों की लय के साथ तेज़ धीमी हो रही थी।
हिमानी को अब तक आ जाना था पर वह नहीं आई। कई घण्टों चर्च की दीवार से सटकर वह ऐसे
खड़ा रहा जैसे वह अभी अपने ऊपर चढ़ी बेल को उतारकर उसके सिर पर रखेगी और अपने भीतर
समेट लेगी पर ऐसा नहीं हुआ। दीवार ने कुछ नहीं किया। कुछ नहीं कहा। दीपांश का कहा
कुछ नहीं सुना।
दिन ढ़लने से कुछ देर पहले
सुधीन्द्र ही उसे ढूँढता हुआ वहाँ पहुँचा था। पहले तो उसने बिना भूमिका के प्रेम
के विरोध में बीसियों बातें सुनाईं। बताया कि कैसे अब वह समय आ गया है जब हमारे
सपनों का प्रदेश बनने ही वाला है। पौड़ी ही नहीं पहाड़ के गाँव-गाँव में सभाएं हो रही
हैं. दो अक्टूबर को सब इकट्ठे होकर केंद्र सरकार के सामने अपनी मांग रखने के लिए
दिल्ली पहुंचेगे. वहाँ बोट क्लब पे एक बहुत बड़ी रैली रखी गई है. इसके लिए अब हमें
जी जान एक कर देना होगा। ऐसे में उसे इस तरह प्रेम में पड़ने का कोई हक़ नहीं। उसने
उसे समझाया कि यह मौका उनके जीवन में फिर नहीं आएगा। पर दीपांश के कानों तक उसकी
अधिकांश बातें नहीं पहुँच रही थीं।
दीपांश ने सुधीन्द्र को हिमानी के बारे में कुछ बताना चाहा, पर उसने उसे रोकते हुए कहा,
‘मैं जानता हूँ, हिमानी ने ही बताया कि तुम यहाँ उसका इन्तज़ार कर रहे हो।’ यह कहते
हुए उसने एक चार बार घड़ी किया क़ाग़ज़ उसकी ओर बढ़ा दिया।
दीपांश ने बड़ी उत्सुकता से उस क़ाग़ज़ को खोला और पढ़ने लगा। वह क़ाग़ज़ जिसे वह अपने पहले
प्रेम पत्र के रूप में पढ़ रहा था उसको बन्द करते हुए उसके होठों पे जो शब्द थे उनका प्रेम
से सीधा कोई वास्ता नहीं था पर शायद उनके बिना उसके इस रिश्ते के कोई मायने नहीं
थे। वह बुदबुदाया, ‘पाँच लाख! नौकरी के लिए!’
उस दिन अपने जाने की बिना कोई आहट दिए, …दिन चुपचाप चला गया।
----
विवेक मिश्र
15 अगस्त 1970 को उत्तर प्रदेश के झांसी शहर में जन्म.
विज्ञान में स्नातक, दन्त स्वास्थ विज्ञान में विशेष शिक्षा, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नात्कोत्तर. तीन कहानी संग्रह-
‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’, ‘पार उतरना धीरे से’
एवं ‘ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?’ प्रकाशित. 'Light through a labyrinth' शीर्षक से कविताओं
का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कोलकाता से तथा कहानियों का बंगला अनुवाद डाना
पब्लिकेशन, कोलकाता से प्रकाशित. लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित. कुछ कहानियाँ संपादित संग्रहों व स्नातक
स्तर के पाठ्यक्रमों में शामिल. साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन. चर्चित कहानी ‘थर्टी
मिनट्स’ पर फीचर फिल्म निर्माणाधीन. कहानी- ‘कारा’ ‘सुर्ननोस-कथादेश पुरुस्कार-2015’ तथा फ्रेंच, स्पैनिश व अंग्रेज़ी में
अनुवाद के लिए चुनी गई. कहानी संग्रह ‘पार
उतरना धीरे से’ के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा वर्ष 2015 का ‘यशपाल पुरूस्कार’
मिला. पहले उपन्यास ‘डॉमानिक की वापसी’ की पांडुलिपि को किताबघर प्रकाशन द्वारा ‘आर्य
स्मृति सम्मान-2015’ के लिए चुना गया.
संपर्क- 123-सी, पाकेट-सी, मयूर विहार फेज़-2, दिल्ली-91
मो-9810853128 ईमेल-
vivek_space@yahoo.com
धन्यवाद।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete