परम शिवम् मूलरूप से तमिलनाडु के निवासी हैं | वे सम्प्रति केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल में कमांडेंट के पद पर कार्यरत हैं | पिछले दिनों चुनाव के सिलसिले में उनकी प्रतिनियुक्ति बिहार के औरंगाबाद में हुई थी | वहां से वे माउंटेन मैंन दशरथ मांझी के गाँव गहलौर गये थे | इतना मर्मस्पर्शी और संवेदनापूर्ण यात्रावृतांत हिंदी में कभी कभी ही लिखा गया है |यह एक चिरस्मरणीय यात्राकथा है | - शंकर
‘ओ बबा ! दस्सू बाबा !
काहे गो एतना बड़ा पहाड़ काट दिए जी ?’
आसमान
में तीक्ष्ण सी रजत-रेखा के खिचते-खिचते होटल छोड़ दिया था. गया शहर को जी टी रोड
से जोड़ने वाले राजमार्ग पर बोधगया टी-जंक्शन के समीप स्थित होटल ‘डेल्टा’ में रात का ठौर रहा और अब अलसुबह
गहलौर का रुख.
कोई
सात-आठ बरस पहले कश्मीर में अपनी तैनाती के दिनों में दशरथ बाबा के बारे में
सुना-पढ़ा था कि बिहार की किसी नामालूम सी जगह में अफसाना हकीकत हो गया है और तभी
से उनका अदम्य जीवट, चेतना
और सोच पे हावी रहा . यहीं कहीं से अंतस के गह्वर में एक मनोरथ भी अंखुआयी– ‘... बाबा के थान की जियारत .’ बाबा का वृत्तान्त हमारे समकालीन
महानतम वृत्तांतो में से एक रहा है . चेतन-अवचेतन को अहर्निश उद्देल्वित करता . कई
अवसरों पर अपने उद्बोधनो में कहा भी – “ हमे
बड़े-बड़े आदर्शों की आवश्यकता नहीं, हमे
राष्ट्र्पालों और देश-रत्नों की जरूरत नहीं, हमे
तो छोटे आदर्श चाहिए , हमे
तो दशरथ मांझी जैसे आदर्श चाहिए .” याद
पड़ता है बिहार में अपनी तैनाती पर बटालियन का कार्य-भार ग्रहण करते हुए जवानों को
प्रथम-उद्बोधन का अनुष्ठान भी बाबा के ज़िक्र की आहुति से ही सम्पन्न हुआ था .
बोधगया
से तकरीबन चालीसेक किमी की दूरी पर , गहलौर
गाँव अतरी ब्लाक का हिस्सा है . गहलौर पहाड़ी-मेखला के साथ ही लगती आबादी , मेखला आगे राजगीर तक चली जाती है
. आस-पास के इलाके का एकमात्र बड़ा केंद्र- वजीरगंज . गहलौर के एक तरफ से सत्तर
किमी और बाबा के बाद ‘दूजी’ तरफ से पन्द्रह किमी पड़ता है .
खामोश, बे-आवाज़ खुलते,
सुबह के चमकीले थान में बोधगया पीछे छूट गया है . रास्ते के संग-संग छितराई और
कहीं सघन बसाहट उचक-उचक के आँखों में भरती-झरती है . गाड़ी के पार्श्व में धूसर और
बेहद आम से सुबह के अलसते भू-दृश्य पीछे लगी किसी अदृश्य चरखी में लिपटने लगे हैं
. अपनी ही पृष्ठभूमि की एकरसता में एकमेक होती लोक-गतिविधियों- हॉर्न सुनते ही
सायकिल-सवार दूधवाले का सड़क छोड़कर नीचे उतरना, झुण्ड में से किसी बकरी का निकलकर भागना , ऑटो में एक पैर चढ़ाकर सवारी का
हुज्जत करना,
में सुबह की रौनकें
रफ्ता-रफ्ता खिल रही . रजत-रेखा अब उजाले की उफनती नदी हो गई है .
कोई
आठ-दस किमी बाद नरेश सक्सेना के लिए एक अदद छींक जुटाते फल्गु को पार किया गया - ‘ पुल पार करने से/ नदी पार नहीं
होती/ लोहा लंगड़ पार होता है ’ . पुल
से फल्गु का रेतीला संस्करण ही दीख पड़ता है . बस कहीं-कहीं, छोटे-छोटे चहबच्चों में जी-तोड़
चेष्टा कर पानी ने खुद को सहेज रखा है किसी अकुलशील, अज्ञात प्यास के लिए .
गया, बिहार का दक्षिणवर्ती अंचल है .
ऐतिहासिक रूप से समृद्ध किन्तु वर्तमानिक रूप से पिछड़ा, संसाधन-हींन और नक्सलवाद से
ग्रस्त. एक तरफ नक्सलवादियो का गढ़ कही जाने वाली चक्रबंधा की पहाड़ियां और जंगल तो
दूसरी तरफ बाबा की छैनी की छनन-छनन से गूंजती गहलौर की पहाड़ी-मेखला . खुलती सुबह की
धीमी आंच में दोनों गाड़ियों ने रफ़्तार पकड़ ली है . एक में, मैं, सीमा और ओफी तथा दूजे में जवान .
बीच में ओफी पे किलिच भी पड़ता हूँ “ जब
देखो जस्टिन बीबर, सेलिना
गोमेज़, टिम्बरलेक ! अरे सुबह-सवेरे जे
धापड़-लीला कान छोडो भीतर को कुरेदने लगती है . ” विश्व-संगीत के प्रति अपनी सारी
विनम्रता के बावजूद किसी भी माहौल में कुछ भी सुन लेने के लिए खुद को अप्रस्तुत ही
पाता हूँ चुनांचे अब आभास कुमार गांगुली उर्फ़ किशोर कुमार खंडवा वाले अपने ‘बेरीटोन’ के साथ आ गए हैं और भागती गाडी
में रंग जमाने लगे हैं . गाड़ी की थरथराहट, इंजन
की घनघनाहट और किशोर के टिडली-टिडली-ओयू और ओडले-ओडले-ओ के बीच एक पुकार भी कौंध
रही – ‘
ओ बबा ! दस्सू बाबा !
काहे गो एतना बड़ा पहाड़ काट दिए जी ? ’आत्म-प्रश्न
नहीं ! एकाध बार आत्मोदगार मुखारबिन्दु से भी फूट पडे और फूटते ही सीमा और ओफी छूट
एक दूसरे की तरफ ताकने लग पड़ीं हैं तथा अपने अल्प-तके में ही दोनों ने त्वरित-गति
से मूक-निष्कर्ष भी निकाल लिया है – ‘ हर्षित
मन ....पुलकित-मन....अभीष्ट की ओर दौड़ता मन.... अभी तो और बर्रायेगा ! ‘
बीच
में मानपुर के पास गाडी रोकी गयी, यहीं
हमारे पथ-प्रदर्शक जवान का मिलना तय था उसे बोला गया था कि हो सके तो बाबा के पहाड़
पे ही कहीं रुकने का इंतजाम देखे ‘ बाबा
के थान से रात का आसमान देख लेंगे ‘ ...पर
पथ-प्रदर्शक ने बताया कि वहाँ दूर-दूर तक
कहीं रुकने का इंतजाम नहीं है . जो वहां ‘रुके’ हुए हैं उनका जिगरा है,
मैंने अपना निष्कर्ष निकाल लिया .
अब
कारवां बाहरी सड़क पर आ गया हैं . रास्ते के दोनों ओर ज़िन्दगी के अलामात के साथ
फैली जमीन . ‘ ओ
बबा ! दस्सू बाबा ! काहे गो एतना बड़ा पहाड़ काट दिए जी ? ’ इस बार प्रलाप-प्रभाव से बचने के
लिए ओफी ने हैडफ़ोन चढ़ा लिया है अलबत्ता सीमा का निरीह-श्रव्य अब भी साथ है . पहियों के नीचे लगातार पीछे छूटती
काली सड़क,
उत्कंठा को बलवती किए
दे रही –
आगे, पीछे, सामने, बाएँ जाने कौन से भू-दृश्य में
बाबा का चिन्ह हो ; कैसा
होगा प्रथम दृष्टिपात ! तीर्थ-भाव ! हज ! भीतर लगातार एक भाषा घट रही है... मै ही
सुनता हूँ अपना ही अनकहा .
अचानक
एक मोड़ काटते, सामने
थोड़ी दूरी पर एक कटी-छंटी चट्टान उभर आयी है ; दो तीन और चट्टानें वैसी ही कटी-छंटी ‘ जे तो नहीं काट दिए बब्बा ने ‘ भीतर सुगबुगाहट हुई . ‘न जे नहीं’ पर रास्ते के दोनों तरफ फैली
एकरसता को इन छंटे हुओं ने अवश्य भंग कर दिया है . मैंने भी प्रायोजित अचरज से
उनकी तरफ देखा ताकि रास्ते की एकरसता को भंग करने के लिए सीमा और ओफी के लिए कुछ
आश्चर्य जुगाड़ सकू.... उन्हें आश्वस्त कर सकू कि मेरी अभीष्ट-यात्रा इतनी भी
गयी-गुजरी नहीं . थोडा आगे चलकर एक ग्रामीण से गहलौर के बारे में पूछा गया जिसने
आगे से मुड़ने का इशारा किया . सीधा रास्ता वजीरगंज और आगे नवादा की तरफ निकलता है
.
अब
कारवां गया-नवादा मार्ग छोड़ गहलौर जानिब सफ़र-शुदा है . इस तरफ कुदरत का मिज़ाज बदला
बदला है –
रास्ते के एक तरफ गहलौर
की पहाड़ी-श्रृंखला और दूजी तरफ वसुधा का प्रशस्त विस्तार, बसे हुओं के झुरमुट, ताड़ के पेड़ों की सामूहिकता और इन
सबके बीच डीज़ल के काले धुंए को आसमान में उलीचती, भागती रेलगाड़ी . सुबह की ताजगी अब जा के हिस्से में आई .
में स्टीयरिंग को ढीला छोड़ता हूँ और खीचकर अपने फेफड़ों में सुबह की ताज़ा हवा भरता
हूँ . ओफी एक दो फोटो क्लिक करती है पर आगाज़ से पहले ही रोमानियत अपने अंजाम तक
पहुच गयी- चार-पांच किमी के स्वस्थ-समतल के बाद अब सड़क ने अपने प्रख्यात भारतीय
प्रारब्ध को पा लिया है – गाडी
दचको से दहल उठी है...सवारियां लगातार डोलने लग पड़ी हैं . मै नई स्थितियों के
सन्दर्भ में दोलनशील सवारियों के मन को पढने की कोशिश करता हूँ – ‘... कष्ट में तो हमाए लिए भी जे
यात्रा किसी तीर्थ से कम नही . अन्धेर-अँधेरे का जगना , रास्ते भर दुनिया-जहान की फालतू
बातें और अब जे दचकों की लीला .’ मैं
गुनगुनाने में व्यस्त हूँ . कब आएगा भाई ! लगभग डेढ़ घंटे होने को आये . फिर एक
सद्य-जागृत और उनींदित ग्रामीण से पूछा जाता है जो आगे की तरफ इशारा करता है .
दशरथ
नगर . बोर्ड दीख पड़ता है सड़क किनारे . पर जुस्तजू तो गहलौर की थी वो कहाँ खप गया ? अब तक के सारे मंसूबे तो गहलौर से
वाबस्ता रहे हैं – काबा
तस्लीम कर लिया है . ‘ पर
गया कहाँ गहलौर ? ‘ उहापोह
में गाड़ियां दशरथ नगर से आगे निकल गई हैं . में रुकवाता हूँ और पता करने के लिए
जवानों को पीछे गाँव में भेजता हूँ . प्रतीक्षावधि में कुछेक क्लिक कर लेता हूँ .
“ ये
क्या, ये किसको पकड़ के ला रहे ” सामने देखते हुए बुदबुदाता हूँ .
ऊपर कषाय गंजी और नीचे चीकट धोती में लंगड़ता कमतर कद का बदन . जीवन की आंच से तपा चेहरा, क्रीम पाउडर का कोई लांछन नहीं , दुर्निवार कष्टों को अनवरत, अनथक भोगता चेहरा . साथ में मझौले कद में दुबला-सिमटा एक युवक- पुरानी पेंट, कुचैली कमीज़, गले में गमछा और चेहरे पे संकोच .
ऊपर कषाय गंजी और नीचे चीकट धोती में लंगड़ता कमतर कद का बदन . जीवन की आंच से तपा चेहरा, क्रीम पाउडर का कोई लांछन नहीं , दुर्निवार कष्टों को अनवरत, अनथक भोगता चेहरा . साथ में मझौले कद में दुबला-सिमटा एक युवक- पुरानी पेंट, कुचैली कमीज़, गले में गमछा और चेहरे पे संकोच .
-
“ ये कौन है ” में आश्चर्य से पूछता हूँ .
-
“ ये उनका लेडका है सर, बगीरद ! ” हवलदार लिंटो अपनी मातृभाषा
मलयालम के कारण लड़का(पुत्र) को ‘लेडका’ कर राष्ट्र-भाषा को निभा ले जाता
है. मै नाम समझ लेता हूँ – भागीरथ
.
-
“ अरे तो इनको पकड़ के
क्यों ले आए भाई ! चलो बाबा, घर चलो ! ” हम
रास्ते से लगती ढलान पे उतर पड़ते हैं . मुझे जवानों की एकोन्मुखता पे हंसी और तरस
दोनों आ रहा. उनके लिए किसी भी आदेश या बात का एक ही अर्थ है ‘किसको पकड़ के लाना है’ . फरमाँ-बरदारी उन्हें एक-दिशाई बना
देती है,
मै सोचता हूँ और ये भी
कि साथ आया युवक दशरथ बाबा का पोता और साथ चल रहे बुजुर्ग का बेटा होना चाहिए .
मकानों
का एक झुंड बैठा है– चार-पांच
फूस से ढंके मकान , अपना
दुखड़ा रोते हुए से बैठे . गहलौर की कुल आबादी लगभग दो हजार है – मुसहर और भुइयां . नस्ल-दर-नस्ल
हाशिये को ढोती जिंदगी के लिए यहाँ भी हाशिया ही मुक़र्रर निकला– दलित टोला . घरो के बीच आवाजाही
वाली जगह को पारकर अब झोपड़-श्रृंखला टाइप के आँगन में पहुच गए हैं . एक तरफ एक खाट
लगी है जिसपे कथरी गुदड़ी सिमटे पड़े हैं . युवक एक कोठरी के अंदर भागता है और भीतर
से प्लास्टिक कुर्सियां निकाल लाता है . गाँव में सुबह पूरी खुली नहीं है, भागीरथ के दातों में अब भी दातौन
फंसा है मैं लक्ष्य करता हूँ .
एक
लेंटर वाला कमरा बाकी दो तरफ से फूस की छाई झोपड़ियों की कतार और उनके बीच में खुली
जगह. खुली जगह में ही सब क्रमश: व्यवस्थित हो लिए हैं . आस-पडोसी भी निकल आए . पर
टोले में गतिविधियाँ कम ही नज़र आ रहीं . न अखबारवाला , न दूधवाले की पुकार, न मन्दिर की घंटियाँ न भजन के
स्वर . वो सुबहें किसी और लोक में होती होंगी यहाँ अभाव सवेरे को पूरा खुलने नहीं
दे रहे . बंधी-बंधी, ढंकी-ढंकी
सी सुबह है . यहाँ काल-बद्ध कलाप नहीं हैं हर काल की यहाँ एक ही पहचान ठहरी – संघर्ष ! अविराम संघर्ष !
मैंने ही व्यवस्थित होकर बातें शुरू की . भागीरथ मगही
और टूटी हिंदी में जैसे तैसे जवाब देते हैं जिसे दिवार से टिके युवक और बगाहे
सामने रसोई में चूल्हा-रत युवती द्वारा बाहर आकर स्पष्ट किया जाता है . साथ आया
युवक नाम से मिथुन और रिश्ते में भागीरथ का दामाद और उनकी एकमात्र चूल्हा-रत
पुत्री-सन्तान लछमनिया का पति निकला . किसी के आने पर क्या हमेशा वो ऐसे ही चूल्हे
के सामने बैठ जाती होगी, सोचता
हूँ . मिथुन-लछमनिया के युगल सहयोग से एक उबड-खाबड़ संवाद सम्भव हो गया है . भागीरथ
ने ही बाबा के बारे में बताया कि उस तरफ बब्बा नहर-खुदाई का काम करते थे जब अम्मा
खाना-पानी लेकर जा रही थी तभी गिरी और वजीरगंज ले जाते तक सिधार गई बस तभी बाबा ने कसम उठाई थी पहाड़ काटने की . ये भी बताया कि जूनून ऐसा था कि शिशु भागीरथ
को अकेला ही छोड़ निकल जाते थे पहाड़ काटने. और जे यहाँ से वहां लुढ़कते फिरे कोठरी
में . ऐसे ही एक दिन लुढ़के तो पाँव चूल्हे में . जब तक आर्त्त-पुकार पास-पड़ोसियों
को जुटाती एक पैर का पंजा भुंज गया और दारिद्रय के साथ अपाहिजता भी शैशव ही नही
जीवन की भी चिर-संगिनी बन गई . जले के निशान के बीच एक पैर का पंजा ठूंठ सा दिखाई
पड़ता है . बाबा के जुनून से सिर्फ पाँव ही ठूंठ नहीं हुआ परिवार की संभावनाएं भी
ठूंठिया गयी,
वो बोले नहीं, हम सुने नहीं पर तैरता सा लगा .
मिथुन
स्नातक है पर नौकरी के लिए फिरता हुआ. प्रारंभ में शुरूआती भ्रम की स्थिति में उसे
पुत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया था किन्तु आहिस्ता-आहिस्ता उसकी वास्तविक
स्थिति साफ हुई . गया में दो-चार महीने पहले आयोजित सेना की भर्ती-परीक्षा में भी
सम्मिलित हुआ पर नाकामयाब, अब
भागीरथ का ही हाथ बंटाता है . भागीरथ, उसकी
पत्नी बसंती देवी, बेटी
लछमनिया और दामाद सब मिलकर साथ लगे प्राइमरी स्कूल में मध्यान्ह भोजन के कार्य में
संलग्न है जिससे तीन हजार रुपए प्रतिमाह की आय निकलती हे और यही आमदनी का एकमात्र
जरिया है . भागीरथ, बसंती
देवी, लछमनिया, मिथुन और उनके दो चेटे-पोटे कुल
मिलाकर आधा दर्जन जीवन और कमाई तीन हजार महीना – एक के हिस्से में पांच सौ रु महीना – उसी में खाना, पहनना, हांड़ी, बीमारी, उत्सव, शोक, दान-दहेज़, पुण्य सब कुछ .
‘
ओ बबा ! दस्सु बाबा !
काहे गो एतना बड़ा पहाड़ काट दिए जी ? ‘
दुनिया केसर डाल के
झकास मलाई फेंट रही पीढ़ियों के लिए ....नगर-निगम के चपरासी तक के वंशज कामोत्तेजक
दवाइयां खाकर रंगरेलियों में हिनहिनाते घूम रहे... अपने वंश को नौवे नम्बर पे
सुरक्षित करने एक भगौड़े-अपराधी के लिए
मुल्क की वजीर-ए-खारजा की इंसानियत उफन पड़ी है .... सुने ‘अंटीलिया’ नाम से एक मकान बना है इसी
पुण्य-धरती पर, बम
चकाचक ...जादू है जादू, भावी
नस्लों के लिए अक्षत -वैभव जुगाड़ रखा है उसके भीतर और एक आप ! घर में हांड़ी-बीमारी
बो गए ?
फाके की झालर टांग गए ? घरवाले मोहताज तक रहे , कि एक दिन व्यवस्था के करुणा-मूर्तियों
की करुणा गहलौर के मंगरू मांझी के खानदान पे भी बरसेगी .
सामने
खाट पर बैठी बुढ़िया (बंसंती देवी ) को खांसी का दौरा पड़ गया है......गरगराती खांसी
फेफड़ों को ठेलकर गगार के साथ बाहर आ, पूरे
माहौल को सहमाती है . अजीब सी ध्वनि है- फेफड़ों की दीवार पे बजबजाते बैक्टीरिया से
उकसती खांसी . यह सिर्फ बीमारी नहीं लगती . अपने सारे भोगे - सिस्टम की
असंवेदनशीलता, हस्तियों
की बेवफाईयां, अतीत
के अत्याचार और अपनी निरुपायता को लगता है बुढ़िया ने खांसी में बदल लिया है .
खांसी के तीखेपन में . लगता खांसी नहीं बसंती की कोस है . खांसी की निरन्तरता और
सुदीर्घ तथा भरे-भरे खों-खों में बुढ़िया शाप देती सी लगती है . बीमारी का पर्याप्त
इलाज न करा पाने की लाचारी से उपजती गरीब की हाय खांसी में बदल गई है . मै विचलित
होता हूँ –
“ कब से है इनको ? “
सब एक दूसरे का मुह देखते हैं, और लछमनिया जवाब देती है –“ पांच-छै महीने हो गए “
सब एक दूसरे का मुह देखते हैं, और लछमनिया जवाब देती है –“ पांच-छै महीने हो गए “
-
“ तो कहीं दिखाया नहीं
क्या ?
”
-
“ गाँव के डॉक्टर से दवाई
ली थी पर तबीयत ठीक नहीं लगती ”
खांसी उसकी तीव्रता और
फेफड़ों की धौंक, मुझे
किसी गंभीर बीमारी के सिमटम्स लगते हैं . उन्हें दिलासा देता हूँ – “ ठीक है, हम लौटकर अपने यूनिट के डॉक्टर को
भेजेंगे वो जाँच करके दवाई भी दिलवा देंगे .”
अब तक लछमनिया चाय बना
के ले आई है . अधिक देर की संगत के फिराक में मिथुन के हाथ में पैसे पकडाते हुए
चाय की मांग मैंने ही की थी – “ काली चाय ’’
-
“ आमिर खान भी तो आए थे न
? “ मेने चाय की चुस्की लेते हुए पूछा
.
भागीरथ ने ढंके-मुंदे
ही बताया कि सब घर पे खाना बना के इंतज़ार में थे कि आमिर शूटिंग-वुटिंग पूरी करके
आएँगे पर नहीं आए . खाना अनखाया रहा, पतीले
का दाना महकता रह गया .
-
“ भीड़-वीड ज्यादा थी क्या
?
’’ , मैंने अखबार में कहीं पढ़े हुए के आधार पे सवाल किया .
-
भागीरथ – “ हूँ....हाँ....थी ...” लगा स्वर में कोई सहमति नहीं है
सिर्फ कसक है- ‘ इत्ती
भी भीड़ नहीं थी, आते
तो अच्छा लगता ’ अबोला
ही छा गया .
इस बीच मैंने बाबा का
सामान दिखाने का निवेदन किया और मिथुन लेंटर वाली कोठरी में घुस गया है . यह ‘लेंटर-सम्मान’ बाबा को इंदिरा-आवास-योजना की एक
यूनिट के रूप में मिला था .
मिथुन, बाबा का हथौड़ा, छैनी, सब्बल उठा लाया है .
मिथुन, बाबा का हथौड़ा, छैनी, सब्बल उठा लाया है .
‘
आह ! यही वो संगी हैं
जिनसे पहाड़ चीरा गया , वुजू
करके छू छूने वाले ! अजाब आएगा ! दुनिया की कौन सी ऐसी पवित्रता है जो इनमे निहित
नहीं... बाबा ने अपनी बकरी बेचकर पहाड़ काटने के लिए इन्हें ख़रीदा था . ‘अश्रु-स्वेद-रक्त’ से सना लोहा एक मनुज के संघर्ष से
ठोस हो आया है, इसके
घनत्व में एक इंसान का उरूज लहलहाता है, इसके
वजन में इंसानी हौसला फरफराता है ....’ अभिभूत
बैठा हूँ . हाथो की त्वचा टकराई है ठोस लोहे और लकड़ी के हत्थे से . कुछ पल ऐसे ही
भावोद्रेक में बीते होंगे फिर शनै: शनै: प्रकृतिस्थ हुआ और आस-पास से तादात्म्य
बिठा पाया . ओफी को भी छुलवाया कि ‘लोहे
का अभिप्राय’
मेरा विस्तार भी जाने
और समझे कि इस्पाती-ठोस किसी काम का नहीं यदि वो मनुष्य के ठोस से मिलकर पहाड़ और
नियति के ठोस को न हरा दे, जाने
कि इसके ठोसत्व में सिर्फ लौह-तत्व नहीं
मनुष्यता का चरम भी निहित होता है .
पर
अब दुनियादारी भीतर उठने लगी है, एक लालच सिर उठा रहा– ‘ इनमे से कोई औजार खरीद क्यों नहीं
लेते ? अकेले-पकेले
में ‘गाढे’ का जुगाड़ रहेगा ’ थोड़ी
बात-चीत के बाद मौका देखकर बातो-बातों में इस अभिलाषा का प्रस्ताव भी कर देता हूँ
.
स्मृति
का गौरव-गान और उसपे निछावर होता मानस भरे-पेट के चोंचले हैं मियाँ वरना तो घोर
आर्थिक तंगी से जूझता और कौर-कौर के लिए खटता जीवन येन-केन अपने त्रास से मुक्ति
ही चाहे है . भागीरथ की तरफ से कोई तीखा प्रतिकार नहीं आया है वो प्रस्ताव को लेकर
गोल-मोल है . दरअसल इस समय तक परिवार को ये आस भी हो चली थी कि भविष्य की भर्तियों
में मेरे द्वारा मिथुन की सम्भव मदद की जाएगी . इसी के चलते एकाध अंक-सूची की
फोटोकॉपी भी मुझको पकड़ाई जा चुकी थी . भविष्य की किसी सम्भावित-सहायता की
प्रत्याशा में अभी से उपकृत मनस ने स्वयं को निर्विकल्प कर लिया था .
‘
ओ बबा ! दस्सू बाबा !
काहे गो एतना बडा पहाड़ काट दिए जी ? ‘
‘यहाँ चहुँ-ओर डिजीटल तरीके से ‘अच्छे-दिन’ आ गए हैं- ...मेक इन
इंडिया...स्टार्ट-अप इंडिया....लल्लन-टॉप इंडिया....और भी जाने का का हो रहा
....हाँ इस बजबजाते चकाचक में भी मिथुन को
नौकरी नही मिली है हर आने जाने वाले की तरफ मुह बा के तकता है और हर आने जाने वाला
परिवार को आस का झुनझुना पकड़ा जाता है . सुबह से शाम तक ख़ट रहा है एक-एक जन तब
गिन-गिन के दाने आ रहे हिस्से में . किसी दिन भी भुखमरी लपलपा के छा रहेगी वंशजों
पर . वंश के नौनिहाल धूल में लिथरे गुड को जीभ की नोक से चाट कर स्वाद-अनुभव को
लम्बा कर रहे, कलेजा नहीं जुट पा रहा कि गड़प जाएं एक बार में . आपके नाम पे दुनिया
चिकनी हो रही ...त्वचा को संवार रही. ओ बबा ! ‘
‘
न ! नहीं खरीदूंगा !
मैं बिक भी जाऊं तो ये छैनी-हथौड़े की कीमत नहीं चुक सकती.... ये दुनिया बिक जाए तो
भी नहीं... ये कई-कई बार बिक जाए तो भी नहीं ....ये मनुष्यता का वैभव है, ये मनुष्यता की विरासत हैं, इनसे एक नई दुनिया बनाई जा सकती
है, इनसे एक नई दुनिया गढ़ी जा सकती है
, नहीं खरीदूंगा...नहीं खरीद पाउँगा, जो भी देना है निगाह नीची रख ऐसे
ही हाथ पे रख जाऊंगा , ’ अन्दर
ही अन्दर खदबदाने लगता है .
लछमनिया
से एक चाय और मांगता हूँ . गोल उत्सव-हीन चेहरा जीवन के आधे-अधूरे को बरतता , दिन-ब-दिन दरकते अपने गाढ़े को
सहेजता . बदन कुचैली साड़ी में लिपटा फिर भी अभी पानी उतरा नहीं है . परिवार में
सबसे ज्यादा स्फूर्ति जगाती और संतोष-प्रद यही उपस्थिति है. बाबा की जिजीविषा इसी
बची खुची स्फूर्ति में दिख रही बाकी सब अपने-अपने कगारों पर बुझे-बुझे से रेंग रहे
. ‘स्फूर्ति’ मेरी मांग सुनते ही चूल्हे पे बैठ
जाती है ,
चाय लाती है मिथुन की
नौकरी के लिए सकुचे और अस्फुट स्वरों में बोलती है . अपने मन में ‘कितना कर पाउँगा ’ की शंका लिए मैं हर एक को आश्वस्त
करने की कोशिश करता हूँ .
-
“ अरे टोपी कहाँ है बाबा
की ?
’’
अचानक ही याद पड़ता है
तो भागीरथ से पूछता हूँ, सुनकर
मिथुन अन्दर से बाबा की टोपी ले आता है .
गहलौर
घाट तोड़ने वाला
दशरथ दास
अतरी (गया)
लम्बाई-360 फुट चौड़ाई-30 फुट ऊंचाई-25 फुट
समय – 22 वर्ष
दशरथ दास
अतरी (गया)
लम्बाई-360 फुट चौड़ाई-30 फुट ऊंचाई-25 फुट
समय – 22 वर्ष
छूता हूँ , निरखता हूँ , माथे लगाता हूँ . मोटे घने सूत
में थरथराहट है......निश्छल संघर्ष से स्पन्दना जाग गई है .
-
“ लगा लीजिये ” भागीरथ मेरी तरफ देखते हुए मगही
में बोलते हैं , थोड़ा
सकुचाता हूँ पर ललक कसमसा गई है ...घीरे धीरे सिर पे रखता हूँ ‘......और नेपोलियन ने पोप के थाल से
राजमुकुट उठाकर अपने सिर पे रख लिया .’
‘
ओ बबा ! दस्सू बाबा !
काहे गो एतना बड़ा पहाड़ काट दिए जी ? ’
कोयला-खदान हो रहा , टू-जी हो रहा, व्यापम हो रहा... महापंगत बैठी है
इस देश के छोर से अछोर तक, नेता-अभिनेता, अलेक्टर-फलेक्टर, आफिया-माफिया सब संग-साथ जीम रहे
...गलबहियां फुदक रही ...हर निवाले में दिगंत गुंजाती डकारों के साथ भारत-माता का
जय घोष है.....आप तोड़ो पथरा...! रजत शर्मा पदमश्री हो गए .....सचिन भारत-रत्न हो
गए आप ‘ठेंगा-शिरोमणि’ ही रहे, और तोड़ो पथरा ! ....रजत शर्मा देश
के लिए लिखे-बोले...सचिन जी देश के लिए खेले ...एक आप अपने लिए पहाड़ काट गए ...ओ
बबा !
मै
जवानों को चलने का इशारा करता हूँ अब अगला पडाव बाबा की कर्मस्थली है - अपने जौम
में डूबा गुस्ताख पहाड़ जिसे उसकी रचना के बाद से दलित-टोले में निर्वासित एक मुसहर
की अनगढ़ जिद ने हराया .
गाँव
से डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ी उचान है जहां बाबा ने रास्ता काटा था इसके
मुहाने पर बाबा का एक स्मृति-स्थल बनाया गया है . भागीरथ बताते हैं स्थल तो बन गया
पर कोई फोटो-वोटो नहीं लग पाई और परिवारजन भी साधन के अभाव में नहीं लगवा पाए . मै
आश्वस्त करता हूँ कि एक बैनर बनवा के भिजवा दिया जाएगा .
ये तीर्थ-पथ का आरम्भ
है . जवानों को पीछे रोक दिया है भागीरथ
और मिथुन जवानों के साथ पीछे रुक गए हैं .
सीमा और ओफी के साथ, मै आगे बढ़ता हूँ ...पहाड़ी उंचाई वाला रास्ता, बाबा के हाथ का तराशा हुआ .
पहाड़िया कटी-छंटी, कुछ
समय पहले सरकार ने कंक्रीट सड़क बनवा दी है लिहाजा गाडियों की आवाजाही भी मुमकिन हो
गई है . रफ्ता-रफ्ता उंचाई आ रही . सीमा और ओफी आगे निकल गए हैं, मै सिर झुकाए, पैर जमाता पीछे चल रहा हूँ .
जूतों की हलकी खरखराहट ही बाहर है पर भीतर असंख्य अध्वनियाँ कुलबुलाने लगी हैं - यही पहाड़ है जिसके लिए बब्बा ने सर्वस्व
होम कर दिया . इसी के विस्तार को पार करते हुए फगुनी ने प्रथमत: सम्बोधित किया था-
‘ रे औघडिया ’, इसी उजाड़ थान में कभी आदिम-ऊष्मा
गमकी थी, यहीं दो जीवन बिला गये पर अनगिन जीवन-सूत्र निकल आए . मैं
बचा-बचा के कदम रखता हूँ- भागीरथ द्वारा बताए गए विवरण अब नीचे धरती पर
दृश्य-रूप में उभरने लगे हैं –
‘एक घुटन है, जो
बिलख पड़ना चाहती है, भीतर ‘धरती-हिलने’ जैसा का थरथरा रहा ...रुलाई-फुलाई की कभी
मजाल न हुई औघडिया के सामने पर आज गहलौर का पहाड़ छाती को
भसका रहा , उसका उचान आज छाती चीरकर उग
रहा- वजीरगंज के ब्लाक चिकित्सालय के पीछे सूने
में स्थित शव-गृह में फगुनी की निस्पंद देह रखी है; पहाड़ी पे बाबा को
दाना-पानी पहुचाने के नियम में आज
व्यतिक्रम हो गया पैर जम न पाए और
खाने की पुटरिया के साथ फगुनी तीस फुट
नीचे कटीले-नुकीले पत्थरों पर – माथा धचक गया और संवलाई देह अपने ही खून में
नहा गई ...चिकित्सकों ने मृत घोषित कर दिया ...ए फगुनी ! फगुनिया रे ! बेर-कुबेर,
घाम-वृष्टि, सोक-रोग घिटती रही संग-साथ,
हम औघड़ की दलिद्दरी में दुनिया रचती, रे जीवन-संगिनी ! तेरी सांवल-काया में ही
इस औघडिए का ठिया सजा रहा अब कहाँ धर दें इस अधूरे को ? ....इत्ती निश्चेष्ट ? भीतर का बिलबिला पसलियों में भरता
जा रहा है, फेफड़े फूलने लगे हैं- निचाट अकेले में एक हल्का सा बुक्का बाहर
आता है और हरहराकर बाँध टूट गया है – भाषातीत ध्वनि में निमंज्जित एक तरल हाहाकार भी मिचमिची आँखों से उफन चला
है, निर्बाध ! – बब्बा रो रहे हैं ..फल्गु ने दिशा बदल ली है- दूर-दराज की बहने वाली आज मिचियाए
सूने-नेत्र कोटरों से बह रही . शव-गृह की चूने से पुती उघडी दीवार की सीलन
में बब्बा का रुदन भी जम रहा . . दिवार के
संग टिके-टिके हल्का घूमे थे कि
खीच-खांचकर चिथडयाती कथरी से जैसे-तैसे ढंकी फगुनी के पैर में अटकी बिछिया की
चौंध ही बहाना हो गयी
और भल्ल-भल्ल करके सात समुन्दर उफन पड़े ; ‘ओ रे फगुनिया, सुन ! इसी कातर रुलाई की साखी में संकल्प लेते हैं काट देंगे उस मगरूर को जो
तुम्हे भसका दिए.’
में गिरते-गिरते बचता
हूँ, ठोकर ने दृश्य-श्रृंखला को तोड़ दिया है. जवान अब पीछे दीख नहीं पड़ रहे .
सड़क-किनारे हलकी छाँव बिखरी है यहीं बैठ गया हूँ. धूल उठाई है- मुट्ठी भर धूल.... ‘अश्रु-स्वेद-रक्त’ से सनी धूरी......छैनी- हथौड़े की
छन्न-छन्न से अनुगुंजित धूल-कण, एक हाड-मॉस के अभाव,
संघर्ष और यातना की शाहिद मुश्त-ए-गुबार. यहीं कहीं बाबा की मढिया भी बनी थी. मैं
आस-पास घूरता हूँ और भीतर भागीरथ के बताये
विवरण का ‘बॉयोस्कोप’ देखता हूँ - हलकोरे मारते हवा-पानी के झोंको ने मढिया उलट दी थी और अब
धारा-धार बारिश में भुर-भुरे आकाश के नीचे घिर आए
थे बब्बा . मौसमी बुखार में तपते बदन को आज ब्लाक ऑफिस बुलाया गया था जहां बताया गया कि सड़क-निर्माण के लिए आया
चार हजार रुपया तो ‘मालिकान’ कब के ले गए और ‘मालिकान’ कह दिए –‘ नीच जात के हो थोड़ी दूरी से बतियाओ देहरी पे चढ़ने की कौन सी नइ रीत सीख लिए दसुआ ! ’ सरकार भी चाहे कि पहाड़ जस का तस रहे तभी पिछले
हफ्ते हवालात भी हो आए – सरंक्षित पहाड़ को काटे के आरोप में. बस जीवन ही सरंखित नहीं . सरकार से लेकर ‘कपाल-लिखे’ तक सब उलटे हो रखे
हैं, सारे ‘पहाड़-बचैया’ और सब के विरुद्ध एक
अकेला मूसलाधार बारिश में नंगे आसमान के नीचे भींजता बुखार से तपता बदन. बोर (बब्बा का बोरिया चोगा) के खोंचे में
सम्हाली दवा की
पुडिया तो कब के
सिरा ले गए इन्दरराज . अब निरुपाय ! निर्विकल्प ! पर 104 डिग्री सेंटीग्रेड में प्रलयंकारी बरसात
में तपते बदन में छुपे उष्ण ने अपना इलाज खोज निकाला है- कांपते हाथो ने छैनी-हथौड़ी उठा ली है- ‘ पाट देंगे उन सारे उभारों को जो किसी के गिरे का कारन
बने तो,’ गिरते
जल-बिन्दुओं की ध्वनि के साथ फिर छन्न-छन्न गूंजने लग पड़ी है, हर जल-कण इसी छन्न छन्न में
प्रति-ध्वनित
हो रहा....
मुझे लगता है, पहाड़ के शिखर-बिंदु पर पहुंचकर ओफी मुड़कर मुझे देख
रही है. मैं अपने आकार से छोटा उसे दिख रहा होऊंगा, सोचता हूँ. उठने-उठने को करता
हूँ मगर देह में तपन लगती है – कहीं बुखार तो नहीं ! 104 डिग्री ! कदम उठाते ही
उंचाई तीखी हो आई है पीछे से एक जीप आ रही है मै रास्ता देने के लिए साइड में खड़ा
हो जाता हूँ . ये अच्छी जगह है यहाँ से
गहलौर गाँव साफ़ दीख पड़ता है और
‘मालिकान’ का पीला-पुता, ऊँचा, पक्का मकान
भी- गाँव की गतिविधियों के साथ हथकंडों,
पैंतरे-बाजियों, दुत्कार और खाल-नुचाई
का केंद्र. इसी की परछाईं
में बगाहे सवर्ण-तिरस्कार भी झेला
था ‘माउंटेन-मैन’ ने. आज दृश्यता माध्यमातीत हो रखी है, विगत अपने में ही घटी-रची
होनियों को आज मेरे मनस पे उकेर रहा -
खाल नोचवाकर सिक्का ढालने वाले ‘मालिकान’ की ड्योढ़ी के आगे छितराई
धूप में कंधे पे चावल लादे खड़े हैं बब्बा.
रामजन, सनेही, कुंजल. बीरन, सबने मना कर दिया, सबका लब्बो-लुबाब –‘पईसा होता तो एसई न दे देते, चावल का बदला काहे लेते, घर में धेला
नहीं है ’..अब बस ‘मालिकान’ का सहारा है वो चावल खरीद लें तो बचे
भगीरथ ....पैर जला के गया जिला चिकित्सालय के आयसीयू में अठारह घंटे से
बेहोश पड़ा है डॉक्टर कह दिए ऑपरेशन होगा, पैसा लाओ वरना बचना मुश्किल . बस तभी से पैसे के इंतजाम में बब्बा द्वार-द्वार, देहरी-देहरी
हो रहे . लांछन , अपमान और जीवट के सिवा
कभी कुछ जुड़ा नहीं, जोड़े भी नहीं, चुल्लू में पिए , पतरे में खाए और बोर पहिन लिए – पर हाय री निरुपायता ! कुकुर-समान
दुरदुराने वाले ‘मालिकान’ से आज आस हो आई है . चिलमिली धूप से मिचमिच आँखों के
तरल-पटल पर भागीरथ की छवि उभरती है फगुनिया कहती थी बड़े स्कूल में पढ़ाएंगे, तू तो
औघड़ रहे, इसको ‘बाबू ’ बनाएंगे, . पर
दुनिया कहे है जे सब पहाड़-बाबा के काटे का फल है, पंडा भी बोले-‘काहे छेडी ले रहे
हो दसुआ, भोगना पड़ जाई ‘ . डराते हैं सब . लांछित करते हैं सब. दुरदुराते हैं सब.
पग्गल-पग्गल चिल्लाते हैं सब . ‘ हे
विधना ! कितनी अग्नि-परीक्षा जोड़ रखे हो
एक निरे हत्यारे पहाड़ को बचाने, अब तो
जोर-जुलुम तक पे उतर आए ! ठीक है ! तो किरिया लेता हूँ, मालिकान यदि पइसा दे दिए
तो साबुत छोड़ दूंगा पहाड़ को नही तो मटियामेट समझो ’ और पहाड़ तो तभी चकनाचूर हो गया
था जब बब्बा ने कसम में भी कठिन को चुन लिया था ; मालिकान कुर्ता पहन बाहर को कदम
बढ़ाए ही थे कि घरवाली ने खीचा पीछे से और खुद अन्दर से भभकती हुई बाहर आई – ‘ का
रे, जब देखो तब मुंह उठाए चला आता है, तोर
हाथ का धान तो हमार डंगर भी न खाए’ .
‘मालिकान’ के पईसा बिना भागीरथ को छब्बीस घंटे बाद पाँव के नीचे ठूंठ के
साथ होश आया, संकल्प को तो अब विधना
भी न डिगा सकते थे .इस्पात का स्थायी –भाव
‘संकल्प’ होता है क्या ? कुछ देहों के पञ्च-तत्व में संकल्प भी निहित होता है क्या
?
.....माथे पे पसीना चुह-चुहा रहा
है, मै रास्ते के उपरी-बिंदु पर पहुच गया हूँ सीमा और ओफी यहीं खडे हैं उनके बाजू
से खड़ा हो जाता हूँ . धूसर पहाड़ से लेकार नीलाहटो
के विस्तार तक सब ठिठके लगते हैं
पर ठिठक के बावजूद एक श्रृंखला जारी है – काल में बे-हिसाब पीछे छूटे कोलाजों का
तो आज पर्व हो आया है, दनदनाते चले आ रहे, पर ये कोई चित्र नहीं , कोई दिव्यता
नहीं, जीवन का ठोस है – घनीभूत ! सामने वजीरगंज जाने वाली सड़क फरफरा रही
है....किसी के पहाड़ काटे से अब जीवन सरल हो आया
है ....अपार, अछोर, अबाध बहने लगा है....पृथ्वी की अक्खड़ भू-संरचनाएं नत हो
आई हैं.... ‘ ए फगुनी के औघडिया तेरी जिद पे जान रखते हैं ......
(पांच दिन बाद 07/04/14 को हुए एक हादसे में वाहिनी के एक
अधिकारी और दो जवान वीरगति को प्राप्त हुए फिर आम-चुनाव-2014 की व्यस्तताएं और उसके बाद
स्थानांतरण .... आश्वासन के अनुसार वाहिनी के चिकित्सक को नहीं भिजवा पाया . बाद
में ज्ञात हुआ कि उपचार के अभाव में 12 अप्रैल
को ‘खांसी वाली बुढिया उर्फ़ बसंती
देवी उर्फ़ दशरथ मांझी की पुत्रवधू का अवसान हो गया)
(परिकथा के जनवरी-फरवरी अंक २०१६ में प्रकाशित )
परम शिवम
कमाण्डेंट
केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल
अमेठी, उत्तरप्रदेश
मो- 8969205566
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