आल्हा हिन्दी का एक प्राचीन
छन्द है, जिसमें सर्वप्रथम
11वीं सदी के उत्तरार्ध में जनकवि जगनिक ने महोबा के सेनानायक आल्हा
एवं ऊदल के युद्धों का वर्णन लिखा। बुंदेलखंड एवं अवध में लोकप्रिय आल्हा की लंबी परम्परा
से आधुनिक काल में केदारनाथ अग्रवाल जैसे जाने-माने कवि भी जुड़े।
वर्तमान समय में इस छंद में अवधी बोली की रचनाओं के माध्यम से कवि एवं आलोचक उमेश चौहान
अनेक समसामयिक विषयों पर जनसामान्य का ध्यान अत्यन्त प्रभावी ढंग से आकर्षित कर रहे
हैं। 'तद्भव' के ताजा अंक में छपी आल्हछंद
की यह रचनाएँ हमें उपलब्ध करवाने के लिए कवि के प्रति आभार सहित प्रस्तुत हैं 'स्पर्श’ के पाठकों के लिए इस हफ्ते आधुनिक रंग में रंगी हुई यह लोकप्रस्तुति...
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(1) नई अलख
थकिगे वीर, हारिगे योद्धा, वहिका
कुछु ना करौ मलाल।
बीति विभावरि अब ना जगिहै, कवि आगे का कहौ हवाल॥
बातन - बातन धरम सनातन कौनि दशा मां पहुँचा जाय।
बरन - व्यवस्था कैसे बिगरी अत्याचारु सहा ना जाय॥
ऊँच - नीच के मकड़जाल मां कैसे गा समाजु बिलगाय।
खंड - खंड भै रीति - नीति
सब, मनई का मनई ना भाय॥
रिषिन्ह - मुनिन्ह जो रची व्यवस्था वहिका ककस सुधारा
जाय।
जाति - धरम का भेदु - भाव
सब मन ते ककस निकारा जाय॥
कहैं 'अहं ब्रह्मास्मि', ब्रह्म
फिरि बन्धन मां कस डारा जाय।
झूठु रटैं 'वसुधैव कुटुम्बं' उनका
स्वार्थु विचारा जाय॥
रंग - बिरंगी उड़ैं पतंगै, कौनिउ उड़ै, कोई कटि जाय।
यहि दुनिया के उड़वा मनई बिरथा
डोर बँधे इतरायँ॥
कौनिउ नसल, रंग, रचना है उत्तम,
यहु स्वारथु का दाय।
सबकै भाव - भूमि याकै है, सबका
हास - रुदन सम भाय॥
बाँभन ब्याँचैं पान किन्तु
उइ रहे तमोली का दुतकार।
क्षत्रिय सेवा करैं बहुत बिधि, किन्तु न करैं सूद ते प्यार॥
जनमजात विद्वेष भरा है, गहिरे अबौ पैठ मनुवाद।
करमु बड़ा है सब धरमन ते, है यहु वादु अबौ अपवादु॥
वर्ग - चेतना पर हावी है, धरम, जाति, नस्लीय प्रभाव।
यहै चेतना गाँव - देश मां, यहै विश्वव्यापी
है भाव॥
संतन का बँटवारा होइगा, नेता बँटे वोट के काज।
लोकतंत्र होवै जन - जन का किन्तु अल्पजन बेआवाज़॥
बहुजन का मतलबु आपन जन, स्वजन - स्वार्थु बसि
जनहितु आजु।
केहिके माथे फूलै जन - जन, सबकै ब्यथा हरै
को आजु॥
जे जनवादी, ते अपवादी, उनहूँ रचा
घृणा का जालु।
ख़ूनी क्रांति सफल कबहूँ ना, ख़ूनी होइहैं ककस कृपालु॥
आजु जरूरति नए शब्द कै, गूँजै नई चेतना आज।
आजु जरूरति नए युद्ध कै, जेहिमां शब्द गिरैं बनि गाज॥
कैसे होय हृदय - परिवर्तन, कैसे समरस
बनै समाजु।
बुद्धि, विवेक, शक्ति,
साहस ते, समरथ होयँ सबै जनु आजु॥
कटे पंख कस उड़ी चिरैया, थकिकै गिरी चोंच बल जाय।
कैसे सबल पंख पावै वह, यहिका कौनउ करौ उपाय॥
यहै मरमु का समुझि देश मां, उपजै नई चेतना आजु।
जस शंकर अद्वैत जगावा, वैसै नवा होय कुछु काजु॥
सबै मनुष्य एक सम उपजैं, एकु होय आचार - विचार।
श्रीनारायण गुरु दर्शन सम, नई सोचु पावै विस्तार॥
जीवन - यापन की खातिर कोउ चाहै जौनु करमु गहि लेय।
लेकिन वहिते वहि मनुष्य कै, जग माँ काहे दुर्गति होय॥
सबै वरण के संत - महतमा, सबै वर्ग
- नेतागण आजु।
'जन - गण - मन' की नई अलख ते,
रचौ नीति नव, नवा समाजु॥
भारतीय चेतना बनै अब फिरि
ते विश्व - चेतना आजु।
जो न होय अस तौ पक्का अबु
समझौ आपनु बूड़ जहाजु॥
(2) अकथ कहानी
मोरे देस कै अकथ कहानी, येहिका अजब रीति - व्यवहार।
आल्हा के प्राचीन छंद मां
बरनौ किए बिना बिस्तार।।
कहैं 'अहिंसा परमो धर्मः' चक्कू लेहे फिरैं बाज़ार।
लाठी छोड़ि तमंचा थामिन, सजे दबंगन के दरबार।।
कहैं बिनय बाढ़ै बिद्या ते
किन्तु बढ़ा उल्टा आचार।
जे गरीब अनपढ़ ते विनयी, पढ़े - लिखे कै ऐंठ अपार।।
'सत्यमेव जयते'
का ठप्पा निरे झूठ का बनै प्रमाण।
झूठी जाति, आय, शिक्षा औ झूठि बल्दियत
क्यार जुगाड़।।
दुई नम्बर कै बड़ी प्रतिष्ठा, कोठी, एसयूवी सब होय।
सत्य मार्ग पर चलै तौ आपनि
लोटिया तुरतै देय डुबोय॥
हेय परम श्रम मानैं लेकिन 'श्रमेव जयते' का परचार।
जूता तक नौकर पहिनावैं, सेवा - भोगिन कै भरमार॥
'परपीड़ा सम नहिं अधमाई'
तुलसी वचन उचारैं रोज़।
दुसरे का कस दुखु पहुँचावैं, यहि कै करैं नित्य ही खोज॥
कहैं नारि देवी सरूप है, मौका मिलतै लूटैं लाज।
करैं नीचता बिटियन के संग, गिरै न उन पर कौनिउ गाज॥
कहैं स्वच्छता सुजन निशानी, किन्तु अस्वच्छ करैं परिवेश।
पूजैं धरती, पीपर, बरगद,
लूटैं प्रकृति - सम्पदा शेष।।
कहैं श्रेष्ठ है आपनि भाखा, मुलु अंगरेज़ी मां बतियांय।
लरिकन का भाखौ ना आवै, 'हाय', 'हलो'
सुनि जिया जुड़ाय॥
परम्परा कै देयँ दोहाई, मरमु न हिरदय रखैं लगाय।
जाति - पाँति के मकड़जाल मां, सदियन ते समाजु बिल्लाय॥
पहली बारिश मां खुश होइकै, जैसे ब्वावै खेतु किसान।
किन्तु न फिरि बरसै तौ जानौ
छप्पर - छानी सबै बिकान॥
वहै हालु है देसु का भैया, उत्तम बीज बुद्धि औ ज्ञान।
पर विवेक - जलु मिलै न तौ फिरि डार - पात बीचै मां सुखान॥
स्वारथवादी रचि विधान नव दीन्हिनि
ऐसु भरम फैलाय।
रूढ़िवादिता भरी मगज़ मां, मन ते मनुज-प्रेम मिटि
जाय॥
कूकुर, बिल्ली, तोता पालैं,
पर गरीब मानुस न सोहाय।
वहिका दूरिअ ते दुतकारैं, प्रीति न तनिकौ चित्त समाय॥
स्वारथ मां मनई अस आंधर, कांधु न देय कष्ट मां कोय।
शरण देय वहिका घर लूटैं, कूकुर उनते नीकै होय॥
पालनहार मातु - पितु ते बड़, येहिमा
रहा न कुछु बिस्वास।
कोकिल - अंडज काकपूत सम, धोखा
देइ उड़ैं आकाश।।
कथनी - करनी मां बड़ अंतर, कहं तक कहौ देश कै रीति।
प्रीति भुलानी, नीति बिकानी, जन
- जन के मन बाढ़ी भीति॥
कैसे सुधरी, चाल जो बिगरी, चिन्ता
यहै खाय दिन - रात।
कौनु सिखैहै, कौनु बतैहै, हमका आत्म
- शुद्धि कै बात॥
सरबनाश ते पहिले सँभरौ, का बरखा जब कृषी सुखान।
युवजन, बिटिया, बबुआ जागौ,
तुमहीं हौ भविष्य कै शान॥
तुमहीं धारक, तुम परिचारक, तुमहीं
संस्कृति के रखवार।
पुनर्जागरण कै बिजुरी बनि, चमकौ घटाटोप के पार॥
(3) डटे रहौ
बहुतै जटिल जगत कै रचना, बहुतै कुटिल लोक - व्यवहार।
स्वारथ बस सब जग पतियावै, वरना देय सदा दुतकार॥
देखि - देखि जग कै कुटिलाई, को अस, जो न जाय अकुलाय।
केहिके रोषु न बाढ़ै मन मां, को सहि सकै घोर अन्याय॥
राजे - महराजे जग - जीते,
बादशाहगण आलीशान।
एकु - एकु करिकै सब बीते, जग का बदला नहीं बिधान॥
प्रजातंत्र की नई उजेरिया
मां जब जगा नवा बिसवास।
तबहूँ ठगे गए हम रोज़ुइ, मिटा न कबौ रोगु, संत्रास॥
जन - गण चुनैं बिधाता आपन, मिलै न कोऊ कष्ट - निवार।
बड़े धनबली, बाहुबली जे, लोकतंत्र
के लम्बरदार।।
घूसखोर जनसेवक होइगे, सत्ता - सुख कर्तव्य
भुलान।
खंडित बड़ि समाज - संरचना, भिक्षुक बने
गरीब, किसान॥
जे मजदूर, दलित, हतभागी,
उनका कोऊ न पुरसाहाल।
गाँव - गाँव कै यहै कहानी, उनके लरिका सदा बेहाल॥
ज्वातै परती खेतु बिसनुआ, आधी मालिक लेय दबाय।
भारी कर्जु चढ़ा है माथे, आधी मां वहु रहा चुकाय।।
आधी तृप्ति, अधूरा जीवन, बहुतै रुदन,
अधूरा हास।
आधे पेटु मंजूरी करिकै, पूरी करै अधूरी आस।।
वहिके सबै सवाल अधूरे, मिलैं अधूरे सबै जबाब।
वहिकै जाति, समाज अधूरा, जनम ते
वहिका भाग्य खराब।।
बड़का मारै, देय न रोवै, चहुँ दिसि
घूमैं रंगे सियार।
करू करेला नीम चढ़े हैं, भोगी जोगिन कै भरमार।।
जन - नेता अभिनेता होइगे, सेवक करै लागि व्यापार।
उनहीं के बाढ़े मिटी गरीबी, ऐसइ मन मां भरा विचार॥
एकुइ रावनु भा त्रेता मां, अब तौ घूमैं हियाँ हज़ार॥
कौनि जुगुति बचिहैं अब सीता, कौनु द्रोपदी का रखवार॥
ऐसे मां मनु करै कि भैया, कर्रे ब्वाल सुनावा जाय।
आँखिन झ्वांकैं धूरि जो, उनकी आँखिन मिर्चा डारा जाय॥
काहे बनौं नंद की गैया, काहे न बनौं शंभु का सांड़।
काहे बनौ रुचिर बिरियानी, काहे न बनौं चौर का मांड़।।
काहे करौं सरस कविताई, काहे बनौं जगत का भांड़।
जीवन जटिल जाल मां जकड़ा, काहे न हनौं वचन के वाण।।
जहाँ पसीना की छलकन मां, झलकै साँचु ज़िन्दगी क्यार।
हुँवैं कै गाथा रचिबै, कहिबै, केतनेउ दुश्मन
बनैं हमार।।
सब प्रबुद्धजन मिलिकै स्वाचौ, जो होइ रहा उचित का भाय।
नहीं उचित तौ का फिरि चुप्पै
बैठब कहा उचित अब जाय॥
पोंगापंथी खूबु नसायिसि, वहिते पल्ला झाड़ा जाय।
मरमु धरमु का अब पहिचानौ, जेहिते स्वत्व सँभारा जाय॥
धरे मुखौटा जे छलछंदी, उनका भेसु उतारा जाय।
जेहिमां दुखी गरीब न रोवै, वहै उपाय विचारा जाय॥
बनौ न अब माटी के माधौ, चलौ, उठौ, सँभरौ, भिड़ि जाव।
जब तक
देसु - समाज न बदलै, तब तक
डटे रहौ यहि ठांव॥
umeshkschauhan@gmail.com
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