डॉ
मोहन नागर की कविता आधुनिक जीवन की काली छाया में लुप्त हुआ वह संयुक्त परिवार है
जिसकी खोज़ कवि अपने पाठक को साथ में लेकर करने को बराबर उत्सुक दिखाई देता है |
लोकजीवन की सादगी और देशज भाषा का ठाठ इनकी कविताओं की मुख्य विशेषता है | डॉ नागर
शहर से गाँव की ओर लौटते हुए इस तरह के विषयों पर लिखी गयी अन्य कविताओं की तरह
नास्टेल्जिक विवरण नहीं फंसते बल्कि अपनी जड़ों की ओर लौटते दिखाई देते हैं यह उनकी
अपनी दुनिया है जिसे बिसराकर कविताई करना उन्हें प्रिय नहीं | डॉ नागर एक
संवेदनशील कवि होने के साथ साथ एक कुशल चिकित्सक भी हैं | उन्होंने यह सामर्थ्य
कठिन जीवनसंघर्षों को पारकर प्राप्त की है | इन संघर्षों का असर उनकी रचनाशीलता पर
साफ देखा जा सकता है | नागर का पहला कविता संग्रह ‘छूटे गाँव की चिरैया’ तीन वर्ष
पहले प्रकाशित हुआ था | मोहन की छोटी कविताएँ विचारसूत्रों की तरह मालूम होती हैं
| इनकी कविताओं में लोकजीवन की महक है, अपनापन है, सरलता है, विश्वसनीयता है,
विविधता है और लेखकीय ईमानदारी की स्पष्ट छाप भी | ‘स्पर्श’ पर कवि का पहली बार
स्वागत करते हुए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ...
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माँ -
जरा सा
कुनमुनाते ही
जाने -
अनजाने पहुंच जाता है हाथ
बच्चे की
छाती तक
और
गूंजने लगती है थपकियाँ -
थप्प
थप्प ...
थोड़ी ही
देर में बच्चा
छाती से
चिपटे -
दोबारा
सो जाता है
बच्चे के
रोने के पहले ही माँ
बच्चे को
चुप कर देती है !
माँ रोज
जागती है -
गौरैया
की नींद ..
पिता -
अक्सर
घोड़े बेचकर सोते हैं ।
चिड़िया -
''ऐसे
नहीं बेटा ...
धीरे -
धीरे पंख फैलाओ
खुद को
भारमुक्त करो
अब पांव
सिकोड़ो ..
थोड़े और
...शाबाश !
अब कूद
जाओ
डरो नहीं
.. मैं हूं ना
गिरे तो
थाम लूंगी ... "
चिड़िया
अपने बच्चे को उड़ना सिखा रही है !
ऐसा करते
समय खुश है -
कि उसका
बेटा भी
एक दिन
दूर
बहुत दूर
तक उड़ पाऐगा ..
और
दुखी यह सोचकर -
कि पंख
ऊग जाने पर यही बेटा
एक दिन
उसे छोड़कर
दूर ...
बहुत दूर उड़ जाऐगा ।
पूस किस
तारिख से बदला -
गाँव की छपरिया में
तिड़के
खपरों के कर्इ सुराख थे
जिनसे
मौसमों का पता चलता था !
नाना हर
बारिश के बाद
खपरे
बदलने की बात करते
पर हमारी
हर अगली बारिश
पीतल की
कसेंडी के नीचे ही रीत जाती थी !
गर्मी
में जब धूप का गोला कुछ ज्यादा ही तीखा होता
तो नाना
जगह - जगह से मुंह बा चुकी पन्नी के बीच
टायर का
टुकड़ा फंसा देते !
सर्द हवा
के थपेड़ों पर अठखेलियां करते -
सुराखों
से झूमते आते कपास के गोले
नानी को
चेताते -
कि कथरी
पर फटी साड़ियाँ चढ़ाने का वक्त आ गया !
इन दिनों
कंक्रीट
के शहर
नौ माले
के फ्लैट में यादों की जुगाली करती
पिनपिनाती
रहती है नानी ..
''पता
नर्इं कैसी जग्गा है रामधर्इ ?
ना ऊपर
जा सके हैं
ना उतरत
बने है
टंगे रहो
बस झंर्इ के झंर्इ ,
दरवज्जा
लगाए रहो तो पता सुंदा नर्इं चले
कि कब
दिन गओ ?
कब सांझ
भर्इ ? "
जब से
गाँव की छपरिया के सुराख छूटे हैं
नानी ही
नहीं
हमको भी
पता नहीं चलता कर्इ - कर्इ बार
पूस किस
तारीख से बदला ... ?
अग्घन
किस तारीख से शुरू .... ?
नानी की
बानी -
मैं
दुनिया की चकाचौंध के पीछे
महज़ इसलिये नहीं भागता ...
कि बहुत
छोटा था -
तभी बता
गर्इ नानी ..
बेटा -
अंधेरों
से लड़ने के लिये -
बस एक
दिया ही काफी है ।
अस्तित्व
-
एक नन्हा
सा ओसकण हूं
अपने
छुटपन पर सकुचाया सा
पर इतना
तो बखूबी जानता हूं ..
कि यही मिठास लिये
मिलूंगा
जब सागर से
वो यकीनन
ही -
अपने
खारेपन पर शर्मा रहा होगा ।
अब पत्थर
लिख रहा हूँ इन दिनों -
फूल लिखा
-
मुरझा गया !
कांटा
लिखा -
चुभ गया
!
अब पत्थर
लिख रहा हूं इन दिनों ..
थमाया जा
सके जो -
किसी
मजलूम के हाथ ..
जा -
तराश ले इसे
बना ले
हथियार
कभी तो
गुजरेगा हुक्मरां -
तेरी
बस्ती से ।
भगवान
होना चाहते हैं -
चीतों सा
दौड़ना
मछली सा
तैरना
बाज सा
उड़ना
इंसान ये
सब करना चाहता था !
धुंआ
छोड़ती गाड़ियाँ आईं
तेल
बहाते जहाज़ तैरे
और अब
पंछियों से टकराते हेलीकॉप्टर !
मैं डरा
हुआ हूँ इन दिनों !
सुना है
कुछ इंसान अब -
भगवान
होना चाहते हैं |
आप मरे -
आपने
सुना
और डरे !
आपने
देखा
और डरे !
आपने कहा
और और
डरे !
आप चुप
रहे
और मरे |
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डॉ मोहन नागर
जन्म – 1 अगस्त 1972 , ग्राम - गुढ़ी,
जिला - छिंदवाड़ा
7 माह की उम्र में पितृ शोक, रिश्तेदारों द्वारा परित्याग के चलते अभावग्रस्त
जीवन, पालन मामा द्वारा | पं. जे. एन. एम. चिकित्सा महाविद्यालय, रायपुर से एम.बी.बी.एस.,
गाँधी चिकित्सा महाविद्यालय भोपाल से निश्चेतना विशेषज्ञ की उपाधि | पहली कविता 1994 में प्रकाशित एवं प्रसारित | आकाशवाणी, दूरदर्शन से 200 से ज्यादा कविताएँ प्रसारित ,
नाट्य लेखन | टेली फिल्म , सीरियल का लेखन एवं निर्माण / पटकथा लेखन | सदस्य - द
फिल्म रायटर्स एसोसिएशन
समाचार पत्रों, आकंठ, समय के साखी, कृति ओर, स्वाधीनता,
हिमतरू आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित
कविता संग्रह – “छूटे गाँव की चिरैया” मेधा बुक्स एवं “ छूटी दुनिया
बिसरे लोग” पहले पहल से प्रकाशित | चिकित्सक लेखकों के संग्रह “स्वरचना” एवं “
त्रिवेणी” का संयोजन / सम्पादन
सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन , निश्चेतना विषेशज्ञ { निजी अस्पताल }
संपर्क - बेतवा अस्पताल, हनुमान चौक
गंजबासोदा जिला विदिशा मप्र 464221
फो. 9893686175 .
ईमेल - 1872mohannn@gmail.com
बहुत सुंदर रचनाएँ
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