नया एक आख्यान : आक्रोश की युद्धक मुद्रा
श्री शम्भु यादव समकालीन कविता
में एक महत्वपूर्ण कवि बनकर उभरे हैं। हालांकि वे लिखते कम है, परन्तु उन्होंने जो भी लिखा है वह उनकी रचनाधर्मिता और काव्य सरोकार की लोकोन्मुखता को बखूबी व्यन्जित करता है। ज्यादा लिखने का महत्व नहीं है,
महत्व है ‘क्या लिखा’ गया । अपनी विशिष्ट शब्द-भंगिमा व कथ्यजन्य आक्रोश के कारण शम्भु की कवितायें अपनी
विशेष पहिचान स्थापित कर रहीं हैं।
‘नया एक आख्यान’ 2013 में दखल
प्रकाशन से प्रकाशित उनका प्रथम काव्य संग्रह है, इसमें शम्भु की 1989 से लेकर 2009 तक की कविताओं को संग्रहीत किया गया है। हरियाणा
के ग्राम बडकौदा में जन्में शम्भु की कविताओं पर कडकौदा के लोकरंग, लोकभाषा, लोकभूमि का खासा प्रभाव पड़ा
है। उनकी कवितायें जब ग्रामीण परिवेश का बिम्ब उपस्थित करती हैं, तो लोकशक्ति सिर चढ़कर बोलने लगती है और वाक्य विन्यास में लोक भाषा के रंग-बिखरने लगते हैं, यह बडकौदा का स्पष्ट प्रभाव
है।
‘आख्यान’शीर्षक ही स्पष्ट रूप से ध्वनित करता है कि यह काब्य संग्रह
‘यथार्थ का अनुभुक्त हलफनामा’ है, क्योंकि इसमें काल्पनिक कविवृत्ति का अभाव है। कवि
कथा शीर्शक भी रख सकता था, लेकिन नही रखा कारण कथा शब्द
कल्पना की संभावना। आख्यान शब्द को संस्कृत साहित्य में यथार्थ और सच्ची घटनाओं के
लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है, इसी कारण ‘कादम्बरी’को कथा और ‘हर्षचरितम’ को आख्यान कहा गया है। नया एक आख्यान की विषयवस्तु
और ततजन्य आक्रोश की युद्ध पूर्ण मुद्रा देखकर कहा जा सकता है कि यह संग्रह आख्यान
ही है नाकि कथा है।
नया एक आख्यान की ‘बिगड़ा आस-पास’ से लेकर ‘नया एक आख्यान’ तक की कवितायें,
कविता की भूमि में यथार्थ के उपभुक्त रूप को लेकर चलती है। विषयवस्तु
की अन्तर्वस्तु में गहन विमर्श की छाप हैं, लेकिन मूल स्वर एक है ‘आक्रोश’। हर एक कविता अन्त में एक गम्भीर प्रश्न उत्पन्न करती है,
जिसका समाधान पाठ्क के अन्तस में स्वतः साकार हो जाता है। सामाजिक,
राजनीतिक भ्रष्टाचार और फैले हुए अमानवीय महौल को कवि ने एक
प्रतीकात्मक बिम्ब के द्वारा आक्रोश पूर्ण अभिव्यक्ति दी है।
मायूस है संसार
यह कैसी गाद फैली है
बीहड़ और बदबूदार (पृष्ठ 9)
यहाँ कवि ने ‘तंत्र’को स्पष्ट रूप से ‘‘बदबूदार’ और ‘‘बीहड़’ शब्दों से नवाजकर ललकारा है। ‘‘पिता की सीख’ कविता ने इस बदबूदार और बीहड़ तंत्र से जूझने का तरीका भी है, यह कवि का परंपरागत सामन्तवादी, ब्राह्मणवादी उपागमों से भिन्न है। कवि समझता है कि धर्म और नैतिकता महज कोरे उपदेश
हैं। अनादिकाल से इनका उपयोग शोषण और सत्ता के अत्याचार में होता रहा है तभी तो पिता
‘‘नमक का दरोगा’ के पिता के समान कह रहा है।
सच बड़ा पेट खोर है बेटा
झूंठ के व्यापार में हाँथ अजमाना
घुग्घू बन जाना सियार बन जाना
कुत्ते सा वफादार न बनना कभी.....
जरूरत पड़ने पर करना खुद ही
वार
‘करना खुद ही वार’यह शब्द विसंगतियों से
जूझने का पैतरा है। कवि अपनी कविताओं में घोषित अभिधा रूप में या प्रतीकात्मक रूप में
युद्ध की मुद्रा में खड़ा दिखता है ‘‘बीरबानी’ कविता का यह अंश देखें।
हारे में कंड़ा-उपला डालना न
भूलिए
बचा रखनी है आग हरदम (पृष्ठ
11)
आग का यह परिरक्षण और लगातार
जलने की कामना देखकर दुश्यंत कुमार की ‘आग जलनी चाहिए’ का स्मरण
हो आता है। कवि कहीं-कहीं खिन्न होकर जड़ बुर्जुवा को खत्म करने के लिए व्यूह रचना
करने लगता है। वह संकेत करता है कि टूटना तो निष्चित है, परन्तु प्रहार अवसर पर ही होना चाहिए।
वह नजर मार रही है
बन्द पानी की बोतल के कमजोर
हिस्सों पर
वह तलाश में है उचित समय की
वह इकठ्ठा करना चाहती है बहुत
साथी
एक साथ साधा जा सके निषाना
(पृष्ठ 77)
आक्रोश के साथ-साथ यह युद्ध
मुद्रा कम ही कवियों में देखने को मिलती है। यहाँ कविता महज पढ़ने की वस्तु नही रह
जाती वह खुद एक ‘लड़ाकू महारथी’ प्रतीत होने लगती है, जो कवि से अलग होकर अपने अस्तित्व के साथ शहीद होने के लिए प्रस्तुत है। लेकिन
अफसोस है कि कुछ आलोचकों ने इस तथ्य को नजर अंदाज करके शम्भु की कविताओं मं ‘करूणा का शोकगान’ खोज लिया है। करूणा और लाचारी का यह अन्वेशण किसी समीक्षक का
मानसिक फितूर हो सकता है, नया एक आख्यान का कथ्य नहीं
हो सकता।
स्त्रीविमर्श के सन्दर्भ में
शम्भु की कविताओं का बयान सबसे जुदा है। जैसा कि हम जानते है कि ‘स्त्री विमर्श’की अभिजात्य आक्रामकता ने उसे एकांगी बना दिया है। कोई भी विचार जब एकांगी हो जाता
है तो कितना ही उचित न हो उसे कुतर्क ही कहा जाता है। शम्भु की नारी महानगरीय नहीं
है वह तथाकथित विकास से भी दूर है। वह दूर गांव में रहने वाली मेहनतकश और गरीब नारी
है, जो सुबह से शाम तक दो जून की रोटी के लिए अपना पसीना
बहाती है, लकिन समाज की वर्चस्ववादी सोंच उसे जकड़े हुए है।
इन प्रसंगों में कवि के ग्रामीण संस्कार खुलकर बोलने लगते हैं।
वह मुँह अंधेरे उठ गयी है
तुडे में विनौले मिलाती
भैसों को डाल रही सानी
थाण से उठाती गोबर
दिन चढे़ उपले थापेगी (पृष्ठ 10)
पुरूश के वर्चस्ववादी अस्तित्व
को कवि ने खूब छकाया है, यहाँ भी वह सामाजिक ढ़ांचे के
अन्दर कैद वर्गीय घात हो सह रही नारी का वास्तविक सत्य उद्घाटित करने से नहीं चूकते
हैं इस वर्चस्व से आक्रोश उत्पन्न होता है। कवि ने घोशित कर दिया है कि इस व्यवसथा
में ‘‘बगैर पंख नुचवाये’ कोई भी लड़की अपनी मंजिल नही पा सकती सफल प्रेम नहीं कर सकती।
गौरैया कांटो के बीच से
अपने को बचाती ले उड़े तिनका
डाक तक पहुँच जाये
बगैर पंख नुचवाये
बना ले अपना प्यार (पृष्ठ 20)
मात्र पुरूश का अहम ही नहीं
सामाजिक कुरीतियों के जकड़न में झटपटाती भारतीय नारी की दुर्दसा पूर्ण नियति का चित्र
भी है। समाज के अतार्किक निश्कार्षों से व्यथित, शोषित स्त्री का चित्र।
बुढि़या की तीन जवान लड़कियाँ
ज्यादा पढ़ नहीं सकीं और
शादी में दहेज चाहिए समाज को
तीनों की तीनों कुवाँरी (पृष्ठ 44)
समाज की सड़ी हुयी संस्कृति
के बलबूते स्त्री-पुरूश में किया जाने वाला अन्तर ‘चारित्रिक अन्तराल’ भी उत्पन्न करता है। समाज इस घातक और भिवेदकारी सोंच को कवि ने बहुत निर्मम प्रहार
द्वारा ढ़हाया है। पुरूश यदि स्त्री का त्याग करे या स्त्री पुरूश का त्याग करे,
अन्त में चरित्रहीन स्त्री ही होती है। सब कुछ समान है दोनों
पत्यिक्त हैं दोनों में केवल एक अन्तर है एक स्त्री है, एक पुरूश है। एक को कहा जाता है ‘मुँह मारती’होगी और ‘‘खूटे से बांधने’की सलाह दी जाती है। दूसरा खुलेआम सांड की तरह घूमता है उस पर
कोई लांछन नहीं है।
उन दोनों के बीच सबसे बड़ी सामान्य बात
दोनों का परित्यक्त होना
एक का स्त्री होना
दूसरे का पुरूष
सबसे बड़ी भिन्नता
...................
बांध दो किसी और खूंटे (पृष्ठ 66)
स्त्री और पुरूष के मध्य विद्यमान
वर्गीय अन्तराल एवं पूंजीवादी पिंजड़ें में कैद मेहनत कस नारी की कथा ‘नया एक आख्यान’ में एक नई सोंच औ ध्वंस की आक्रोशपूर्ण मुद्रा लिए उपस्थित है। शम्भु के शिल्प
पक्ष पर कुछ आलोचकों ने प्रश्नचिन्ह लगाया है, उनका कहना है कि‘काब्यात्मकता’ अखरती है, इसमें काव्यमयता का क्षय है। पता नहीं आलोचक किस काव्यपरकता की बात कर रहे है,
वह समझ से परे है, क्योंकि काव्यात्मक हानि
के तार्किक निष्कर्ष देना जल्दबाजी है। जहाँ पर कवि ने काव्यात्मक क्षय किया है,
वहाँ कविता ‘कथ्यात्मक उत्थान’ पा जाती है। यदि कथ्य और विसंगतियों का आमेलपूर्ण
उद्घाटन हो रहा है तो काव्यात्मक कक्ष की बात करना महज कुन्ठा ही है। देखिये काव्यात्मक
क्षय और वर्गीय चरित्र का पर्दाफाश एक साथ है।
खाने को लजीज इननैक्स वेज नानवेज
बैठक के बाद छप्पन भोग वाला डिनर
आयातित विदेशी शराब का प्रबन्ध भी (पृष्ठ 22)
पूंजीपतियों और अफसरों के द्वारा
बैठक के बहाने जनता की गाढ़ी कमाई को अय्यासी में उड़ाना और वह भी तब जब आधी आबादी
भूख और गरीबी से त्रस्त होकर आत्महत्या कर रही है। इस चरित्र के खुलासे में यदि काब्यात्मक
क्षय हो रही है तो वह ऐसा काव्यात्मक क्षय हजारा काब्यात्मक उत्थान से बेहतर है। दूसरी
बात जो कवि को श्रेश्ठ काव्यात्मक उत्थान देती है, वह है लोक रंग से लवरेज ‘सौन्दर्य बोध’ । यह बोध विरले कवियों में होता है ग्रामीण सादगी
का यह चित्र देखिए।
वह घाघरा पहेन रही है
ऊपर कुर्ती
सिर पर गोटे वाली लुगड़ी
बस हो गया सिंगार (पृष्ठ 14)
यह वास्तविकता नारी है,
जिसे हम आम जीवन में देखते है, इस सौन्दर्य को बोध उसी को ही सकता है जिसने गांव का जीवन जिया हो।
कि एक दुर्बल काया स्त्री
जिसकी आँखों से सूना पन और मलिन चेहरा हो
दुर्बल काया हाँथ
अगल-बगल में अपने बच्चों को थामने कसे (पृष्ठ 38)
दुर्बलकाय स्त्री का यह चित्र
मसीने की खुशबू से भरा हुआ है। वस्तुतः शम्भु की कवितायें अनावश्यक कलात्मक भार से
रहित हैं, क्योंकि कलात्मक भार से उनका कथ्य खण्डित हो सकता
था, जो शायद किसी भी कवि के लिए स्वीकार नही होगा और
ऐसा कवि जो जनपक्षधरता का सरोकर रखता हो उसके लिए तो और भी मुश्किल है।
फिर भी विषय अनुरूप कलात्मक
भंगिमा भी कवि ने प्रस्तुत की है, प्रतीकात्मकता, बिम्बपरकता, गत्यात्मक आरोह-अवरोह,
अप्रस्तुत विधान को षुम्भु ने अपनी कविताओं में उतारा है केवल
वहीं पर जहाँ पर आक्रोश को संजीवनी मिलती है।
उसके पोर-पोर में/फिलमी गीतों का आरोह-अवरोह (पृष्ठ
19)
अंधविश्वासों के बैनर तले (पृष्ठ 15)
इन दोनों उदाहरणों में रूपक
विधान और अप्रस्तुत विधान का सुन्दर प्रयोग है। बिगड़ा आस-पास, आषंका, चिडि़या जैसी कविताओं ने उच्चकोटि
की बिम्ब परकता और प्रतीकात्मकता मिलती है, गत्यात्मक आरोह-अवरोह का उदाहरण देखें शायद की इसे स्पष्ट कहीं उदाहरण मिले जहाँ
शब्द के घात से ही अर्थ उत्पन्न हो जाता है।
तकती पे तकती
तकती पे दाना
तकती पे दलाल
दलाल का दिवाना जमाना
तकती पे नहीं अब दाना (पृष्ठ 32)
संग्रह में कुल 55 कवितायें
हैं विषय प्रथक-प्रथक और स्वर एक है, अपनी अन्तर्वस्तु को
साथ लिए हुए हरेग कविता विसंगति से जूझती हुयी दिखाती है ‘जीर्णोद्धार’ कविता में ऐतिहासिक स्थलों
के नाम पर लूट ‘आशंका’ में विदेशी कंपनियों द्वारा व्यवस्था को तिल-तिल
काटने की व्यथा है, यह एक फन्तासी कविता ‘बैठक’ में लोक तांत्रिक अय्यासी और ‘दुखियादास कबीर’ में सामयिक
राजनीत पर करारा व्यंग है ‘जय बोलो महात्मागाँधी की’ कविता में लोकतन्त्र के विकृत चेहरे को प्रस्तुत किया गया है।
कवितायें बहुत सी है यदि लिखा
जाये तो एक और आख्यान तैयार हो जायेगा। हर कविता का फलक महाकाब्यात्मक औी पीड़ा सार्वभौमिक
है। आख्यान नया इस अर्थ में है कि कवि ने जिस कारीगरी से व्यवस्था जन्य आक्रोश को जन
सरोकारों से जोड़ कर युद्ध के रचनात्मक व्यूह में खड़ा कर दिया है, वह अपने आप में नया है। यह युद्ध वर्गीय द्वन्द की पराकाष्ठा
है। वाद-विवाद, सम्वाद के सहारे वर्गीय शल्यक्रिया
करने वाले पाठ्को के लिए एक उम्दा काव्य है। सत्ता के मूकदर्शक विदशक बनकर ‘‘चारण धर्मिता’ का निवर्हन करने वाले कवियों के गाल पर तमाचा है। शम्भु यादव का यह काव्यसंग्रह
व्यवस्था जन्य आक्रोश की युद्धमुद्रा का चित्र है। सार्थक अभिलेख है ।
-उमाशंकर सिंह परमार
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 20 मार्च 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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