Wednesday, 20 January 2016

समीर कुमार पाण्डेय की कविताएँ


बच्चियाँ

   (1)
वह फूल जैसी उगीं थी
शोर उठा लक्ष्मी है लक्ष्मी है
बड़ों ने कहा घर भर गया
पर असल में
उसे फूल नही कांटा माना गया
चुभने के लिए नही आजीवन उपेक्षा के लिए....
जब बिछाए जाने लगे बिसात
मन-पंखुड़ियों को
नोचने और शिकस्त देने के लिए
तब उद्वेलित हो
वही फूल आग और कांटे कटार बने......
चरित्र पर
उठने वाले सवाल
गूंगे, अंधे, बहरे पत्थर बन
कैद करने की कोशिश करते रहे उस गंध को
पर उसे फैलना था दिशाओं के पार तक....

    (2)
हर बलात्कार के बाद भी
वह जिन्दा रहती हैं
चलती है उसकी साँस जैसे तारीख़
सुलगती हैं भीगी लकड़ी समान
उबलती हैं अँधेरे के विरुद्ध
आंदोलित भीड़ के साथ
खड़ी होती हैं मोर्चे पर जैसे मशाल
पर जब भी आशा और धैर्य रखती है
तब निराश हो सुबकती है
उजाला हो या अँधेरा
दीवारों में घूरती ऑंखें उभर आती हैं....
इस देश में वह
एक बार नही बार-बार हारती है
और हर बार हार कर मरता है
यह समाज, देश और कानून
हाँ समाज को जिन्दा रखना है
तो बुझी मशालों को फिर से जलाना होगा
अन्यथा
हमारी हार ही जीवन और धैर्य मृत्यु साबित होगी...

आने वाले वक्त में

वक़्त ऐसा है कि
आने वाले वक़्त में
प्रेम की जगह एकदम खाली रहेगी
उस खाली जगह को
कुछ घिनाते हुए शब्द भरेंगे
देशभक्ति महलों में नही दबड़ों में होगी
क्रोध होगा विरोध नही होगा
भ्रष्टाचार होगा नैतिकता नही होगी
हत्या होगी चीख नही होगी
ऐसे विरोधाभासी समय में
ताकत रहेगी
पर केवल मज़लूमों और असहायों के लिए
न्याय रहेगा
अन्याय के कदमों तले
विद्रोह कविता में होगा
जमीन पर अत्याचारियों में उल्लास रहेगा
मांस के पुतले भी होंगें
पर आदमी बमुश्किल ही मिलेंगे........


लड़ाई-1

यह गजब वक़्त था
कमियों को छुपाने के लिए
सायास गड़े मुद्दे उखाड़े जाते थे
जहाँ सही-गलत नही देखना होता था
बस या तो समर्थन करना था या विरोध
मुद्दे के आलावा कोई बात नहीं सुनी जाती थीं
राजनीति की कठपुतली बन चुकी थी कविता
जरूरी मुद्दे कसमसाने लगे थे उस शोर में....
तब भी
हमने उम्मीद नही छोड़ी
लड़ाई जारी रखी
उन किसानों और मजदूरों के लिए
जिनके सपने पलने के पहले ही टूट जाते
मन टूट जाता सत्ता की बेरुखी से
उम्र कम पड़ जाती जिम्मेदारियां निभाते-निभाते
जिनके अंतड़ी का अंतहीन दर्द
जेब से उभरकर पूरे मुल्क में फ़ैल जाता था
आलम यह कि
आजादी के इतने सालों बाद
लोगों में मंगल-चाँद पर बसने की चर्चा चलने लगी थी
तब वह जीने की कम मरने के बारे में ज्यादा सोचता रहता था.....
उन स्त्रीयों और वंचितों के लिए
जिनकी स्वायत्त सोंच देहरी से शुरू होकर
नैतिकता और संस्कृति के धुंध में खो जाती थी
इनके लिए रेत की धूह होती थी
सुन्दर ख़्वाब और सुन्दर आकृतियाँ
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बावजूद
इनके बोलने पर तमाम प्रश्न मुँह बाये खड़े हो जाते थे
सदा कर्म और संघर्ष में लगे रहने पर भी
केवल उन्हें आदमी मानने में ही
विद्वत समाज ने हजारों वर्ष लगा दिए थे.....

लड़ाई-2

कुछ लोग
परिहास की जीत पर
भ्रम फैला रहे थे
कि कविता युद्ध हार गयी
भ्रम में पली-बढ़ी पीढ़ी
इस छूठ को सच मान रही थी
सत्ता-लोलुप कवि
जो कभी बड़े-बड़े संघर्षों के साक्षी रहे थे
जीत के गीत तो नही
पर बदले हालात के गीत गाने लगे थे
कविता की आत्मा
मन और शरीर में आये बदलाव से दुखी थी
अघोषित विजेता
नवयुग के आगमन के भ्रम में
उन्मादित हो आमूल-चूल परिवर्तन चाहने लगे थे
मुद्दे परिदृश्य से गायब थे
जरुरी लड़ाई हाशिये पर चली गयी थी
वे यह भी चाहने लगे थे
कि सब कुछ उनके अनुसार ही रचा जाए
नही तो मुँह बंद कर दिया जाए
इन दिनों बुराई का ठाट ऐसा
कि अच्छाई बुराई के घर पानी भरती थी
ऐसे माहौल में तय था
कि अब अगली लड़ाई
कुकविता या कुकवियों से होकर
सड़ी-गली असंवेदनात्मक विचारधारा से ही होगी.....

लड़ाई-3

यह लड़ाई
व्यक्ति से नही विचारों से थी
कभी अकड़कर
चल पाने वाले कीड़ों से नहीं
कलम की नोक से
पहाड़ होता जा रहा था मेरा उपजा भय
और मुक्ति का सूरज मद्धिम
मिथकों के चक्रव्यूह से टकराते हुए
बिना हारे थके निःचिंत आगे बढ़ना था
क्योंकि चिंता करना
अपने ही विचारों के विरुद्ध जाना था
इस तरह टकराने से
उम्मीदें जिन्दा रहती थीं मर जाने के बाद भी...

सही मायनो में
यह लड़ाई नही
हमारे वक्त का कालबोध था
जो मुखर होता था
एक रचनात्मक विप्लव के समान मेरे रोम-रोम से
जब पृथ्वी सकुचाई होती थी
आकाश के कुत्सित आचरण से
निर्लज भाषा आदमी को पशु बना देती थी
तब प्रकृति रक्षक शब्द
कविता में ढल अमरत्व प्राप्त कर लेते थे
जो शीघ्र ही इस भ्रष्ट समय को विजित करने वाले थे.....

सच और झूठ का छल

कभी पढ़ा था
कि 'एक ही बात थी
कविता का सामना करना या सच का'
उस वक़्त भी
सच या झूठ के साथ
कवि का जिक्र कहीं नही था....
समय बीता
बोलने की आजादी सबको मिली
पर ऐसे कि
घेरे को कोई नुकसान हो
घेरे के खिलाफ़ जाने पर
डरा देता था अनुभवी समाज
जबकि कुछ लोग
घेरे को तोड़ने में ही लगे थे
ये ताल ठोककर
खड़े थे एक-दूसरे के विरोध में
भाषा कितनी भी पतित हो जाये
चाहें गिराना पड़े खुद को कितना भी
चाहें समय की दीवार के पीछे
लुढ़कती रहें मनुष्यता और मनुष्य की चीखें....
चुप कहाँ रहना
और कहाँ है बोलना
यह क्रिया वे सीख चुके थे
किसी के लौटते ही
आसमान से बरसते थे शब्द-फूल
किसी की वापसी पर
हलक में फँस जाती थी जुबान
कोई ईश्वर से बहस कर छाती फैलाता
तो कोई दबे पाँव झाड़ियों से गाता था प्रेमगीत
देश के हर मुद्दे पर
सबके अपने-अपने सच थे
शब्दों से ही शब्द कुचलने का खेल जारी था
दुःख चाहें जैसा भी हो
उपलब्ध थे बाजार में शोक प्रस्ताव
जिसे सुन-सुन कर
मैं देश का जन
आज आज़िज होकर पूछता हूँ
सच-सच बताओ कवि !
तुम्हारे अबतक के छली-शब्दों में सच कितने प्रतिशत था....

पोखरा और महापर्व

जो कभी
जीवन रहा था जवार का
जिसके अरार पर
औरतें रगड़-रगड़ कर धोती थी कपड़े
जीवन का काजर
घर की इज्जत परेशानियों को
जिसके भीतर
ढलकता रहता था
गाँव का सारा पानी
बरसाती पानी के साथ
गाँव के दुःख और सुख भी
पोखरे के
उस जागृत जल में
भैसों के साथ बचपन भी तैरा करता था.....

गाँव की हवा बदलने से
पुरे वर्ष निर्वासित सा एकाकी
जीवन जीने को अभिशप्त
बूढ़े पोखरे का आँगन
आज गूँज से भर गया है
बिछड़ा अल्हड़ बचपन
आया है करीब
जो गंदले पानी को अनदेखा कर
अपने छोटे-छोटे हाथों से
उलीच रहा हैं खुशियाँ
माटी का दोना थाप-थाप कर
लीपता है उत्साह कगारों पर
वह नही बाँटता हैं घाटों को
ऊँच-नीच और अमीर-गरीब में
जैसे कि बँटा हुआ है हमारा गाँव
छोटे-छोटे टोले तथा आँगन में उठी दीवार से...

गीत गाया जा रहा
'काँचहि बाँस के बहंगिया, बहँगी लचकत जाये'
घाट पर बैठा सुग्गा खुश है
बटोही भी नेहवश मनसा मांग रहा
जगमग दिये की रोशनी और
लोक रंग में डूबे पोखरे की
छाती फूल उठती है
नये आलोक में
गाँव की आस्था, संस्कृति और समरसता से...
पोखरे को इंतज़ार है
जब छठ गीत के साथ
लहरों पर लहरायेगी
प्रभात की पहली किरन
जो रंग देगी सारे घाट तथा पानी को
खिल उठेंगे फूल
साथ ही घूँघट में मुरझाये ओठ और चेहरे भी
पोखरा तृप्त होगा
ग्राम-बहुओं के सानिध्य से 
अघा जायेगा
घाट का मातृत्व
भोर के अरघ से पूरे वर्ष तक के लिए.......

गाँव : कठिन वक्त में

जब बच्चों को सुलाकर
तुम प्यार से मुस्करायी थी
उसी वक़्त
भटके गाँव में
धूसर-प्रेम में पड़ी
एक पागल लड़की छेड़ी गयी थी
पिता के लड़खड़ाकर गिरने से
जब मैं चिंतित हो रहा होता हूँ
उसी वक़्त
एक माँ छत से कूदना चाहती है
घर का लाचार बूढ़ा
ईश्वर से खुद को
उठा लेने की प्रार्थना कर रहा होता है
लड़की के किसान पिता
अपने छुपने और डूब मरने के लिए
खेतों में हल से लकीर खींच पानी दे रहा होता है
हमारे रसोई से
बिस्तर तक के सफ़र में
जब प्याज, दाल और तेल से
देश में बदलाव के बादल छाये रहे होते हैं
उस वक़्त
खेतों को सींचते
गमछे में इज्ज़त बांधे
पस्त किसान को
गाँव के प्रधान के जुड़े हाथ
मकान के प्रलोभन में टटोल रहे होते हैं
किसान सिकुड़ रहा होता है
जाड़े के दिनों सामान
कुछ कुटिल मुस्कराहटों के कारण
और जिन्दा ही
लटक जाता है समाज की सलीब पर 
अपनी गरीबी, इज्जत और बेवसी के साथ....
उसी वक़्त
दाल में तड़का लगा
गाँव टी.वी.से चिपका
सोशल होकर
चर्चा कर रहा होता है
देश, फ़्रांस आदि की दुःखद घटना की.....

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ईमेल- samirkr.pandey@gmail.com

4 comments:

  1. संवेदन में स्थान देने के लिए राहुल भाई को साधुवाद....

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  2. This comment has been removed by the author.

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  3. बेहतरीन कविताएँ। अपने समय के सच से टकराती हुई।

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  4. समीर की कविताएँ आज के समय का दस्तावेज़ हैं...

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गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...