तुम पूछना अवश्य !
ओह, मासूम बच्चे
ये उम्र नहीं थी तुम्हारी
इस तरह जाने की
अभी बस कल ही तो तुमने
'माँ' कहकर उसे गले लगाया होगा
और पापा की उंगली थामे
निकले होगे कभी शाम को
देखते होगे टुकुर-टुकुर आँखों से
पंछी, पौधे, नीला आकाश
सब कुछ आश्चर्यचकित होकर
कितने प्रश्न कौंधें होंगे
ह्रदय में तुम्हारे
जिनका उत्तर तुम्हें
मिलना ही चाहिए था !
तुम्हें सीखनी थी गिनतियाँ
कंठस्थ करनी थी
कितनी ही बाल कवितायेँ
खींचनी थी आड़ी-टेढ़ी लकीरें
पन्नों और दीवारों पर
भरने थे उसमें
अपनी कल्पनाओं के तमाम रंग
छुपना था कहीं किसी परदे के पीछे
और "मैं यहाँ हूँ' कहकर
इठलाते बाहर आना था
तुम्हें अपनी तोतली जुबाँ से करनी थी तमाम ज़िद
और इस सुनहरी हंसी से जीत लेनी थी दुनिया!
लेकिन मेरे आयलान
ये दुनिया हंसती कहाँ है आजकल?
और न ही हंसने देती है किसी को
तभी तो छीन ली तुमसे
तुम्हारी खिलखिलाहट
और किनारे ला छोड़ा तुम्हें
निपट अकेला
उसी रेत पर
जहाँ टीले बनाने की उम्र थी तुम्हारी
तुम इस दुनिया में
कक्षा का पहला पाठ भी न
पढ़ सके
और देख ली, तुमने 'दुनियादारी'
काश, अब हम सब भी
न मुंह फेरें
रेत पर औंधे मुंह सोती हुई सच्चाई से
पुरानी कहावत हुई
कि "दर्द को महसूस किया जा सकता है
वो दिखता नहीं"
इधर तुम्हारी तस्वीर
कलेजा चीरकर रख देती है!
ओ मेरे, नन्हे दोस्त
अलविदा तुम्हें!
लेकिन पूछना अवश्य
उस ईश्वर से
जो लहरें बन तुम्हें
इंसानियत की लाश ठेलता
तट तक बहा तो लाया
पर जीवित क्यूँ न रख सका?
उसकी न्याय की पुस्तक में
हर निर्णय देरी से ही क्यों आता है?
कैसे बर्दाश्त होती है उसे
किसी निर्दोष की निर्मम मौत?
क्यों बचा लेता है वो आततायियों को,
गुनाह के बाद भी
इक और गुनाह करने के लिए!!
आख़िर, दूसरे के पापों की सजा
बेबस, मासूम लोग ही क्यों भुगतते हैं??
पढ़ना चाहोगे?
'कविता' नहीं है मात्र
प्रेम और बिछोह की
स्वादिष्ट चटनी
नोचना होता है इसमें
हर गहरा घाव खसोटकर
कि रिसती रहे पीड़ा
और जीवित रहे भाव
जीनी होती है
एक मरी हुई ज़िंदगी दोबारा
खींचकर लाना होता है
किसी कोने में दुबका, सहमता
असहाय बचपन
खोलना होता है
जबरन भींचा गया मुँह
करनी होती है निर्वस्त्र
उसकी हर पीड़ा!
आवश्यक है दिखाना, दुनिया को
एक स्त्री की नीली पड़ी पीठ
और जाँघों से रिसता लहू
खून के आंसू पीते हुए
हंसना होता है
लोगों के हर भद्दे मजाक पर
देखना होता है, कातर आँखों से
अपने ही शहर के चौराहे पर
मौत का भीषण तांडव
और गलियों में
टुकड़े-टुकड़े हो रहा धर्म
इंसानों की शक़्ल में
बर्फ होता शरीर या कि
बेबस मानवता की लाश ?
अंतिम-संस्कार किसका है?
कौन तय करे ?
मारना चाहोगे न
अब तो, एक करारा तमाचा
अपने ही समाज के गाल पर!
हाँ, हँसेंगे कुछ कायर वहां
तुम्हारे इस मूर्खतापूर्ण कृत्य पर
तुम फिर सहलाते हुए
अपनी ही झुकी पीठ को
नम आँखों से
मांगोगे मुक्ति
फोड़ोगे सर दीवारों से
कि ख़त्म हो सके
हृदय की हर संवेदना
और फिर न बन सके
कवि कोई !
आह! अभिव्यक्ति को
शब्द-संयोजन में गढ़कर
परोस देना भर ही
नहीं है 'कविता'
मेरी समझ में
"यह एक नृशंस हत्या है
कवि की
रोज अपने ही हाथों!"
परजीवी
पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी
चौतरफ़ा रेलिंग के भरोसे टिकी
परजीवी ज़िन्दगी
सब कुछ बौना
आत्मा-विहीन
निरर्थक, निरुद्देश्य
पेड़-पौधे, नदिया, जीव-जंतु
इमारतें, गाड़ियां
इंसान, रिश्ते सभी
भुरभुरे, घुन लगे
घुसपैठिया दीमक
लीलता रहा चुपचाप
बुनता रहा नफरत
भीतर तक!
बंद ही सही
सारी दिशाएं
बिछा दो नुकीले प्रस्तर
हर मार्ग पर
होंगी तिरोहित भावनाएँ
तिरस्कार की दूषित सलिला में
फड़फड़ाने दो
डूबते-उतराते संबंधों की
गिड़गिड़ाती चिड़िया को
कि उड़ान भरते ही
फ़िर क़तर देना पंख
उसी निर्ममता से
और पटक देना
नागफनी के
सुरक्षित घोंसले में
देती रहेगी सड़ांध
शब्दों की उबकाईयां!
छिन्न-भिन्न
लावारिस लाश-से
अधकचरे अस्तित्व पर
भिनकेंगी समाज की मक्खियाँ
फिर न कोई आवाज़
न एकांत का भय
न चिड़चिड़ाहट, न अहसास
बस नि:शब्द, अचेतन,
मूक-बधिर मन
प्रश्नोत्तर की सांप-सीढ़ी की
बांट जोहे बगैर
एक सन्नाटा, एक चुप्पी
औंधे मुँह पड़ी हुई
असंख्य अभिलाषाओं के
'वेंटिलेटर' पर
अंतिम घोषणा
और अकथ्य ही गूंजेगी
स्याह आसमान में
एक अनचाही, अनसुनी यात्रा की
निराश पदचाप!
अभी जारी है.....!
संघर्ष सिर्फ़ वही नहीं
जो प्रत्यक्ष और दृष्टिमान है
इक लड़ाई भीतर भी
चला करती है कहीं!
अब नि:संकोच हो बोलती वो
हर विषय पर
युद्धरत-सी, इस समाज और
उसके व्यर्थ के रीति-रिवाजों से
करती वाद-विवाद, तर्क-कुतर्क,
सहती ताने, अपमान के असंख्य तीर,
कुछ व्यंग्यात्मक नज़रें भी
पर अब न रही वो 'बेचारी' है!
सबको दिखती है, ये
'अस्तित्व की खोज में, अचानक
प्रारंभ हुई, एक बेतुकी सोच'
करते हैं हतोत्साहित
आत्मा को चीरने की हद तक
'जीती' नहीं है वो कभी
इस पुरुष प्रधान समाज में
हर रिश्ते ने की 'मौत' उसकी
हर हाल में वो ही 'हारी' है
कर्तव्यों को निभाना
साक्षात परम धर्म उसका
अंतत: 'भारतीय नारी' है!
तो आओ, बांधो ज़ंजीरों से,
कर दो छलनी
शब्दों के अचूक प्रहार से
उड़ाओ मखौल उसके हर
कमजोर विश्वास का
करो लहुलुहान उसे,
घृणित तीखे उपहास से
जी न भरे तो, बिछा दो राहों में
अनगिनत ज़हरीले काँटे भी
पर जीतेगी वही
अब हर हाल में, देखना सभी
न ठहरी, न ठहरेगी, कहीं भी कभी
जान गई अपने 'होने' का मतलब
और इसीलिए
'असत्य' पर 'सत्य' का
'भ्रम' पर 'यथार्थ' का
'द्वंद्व' पर 'अपनत्व' का
'घृणा' पर 'प्रेम' का
'निराशा' पर 'आशा' का
'पराजय' पर 'विजय' का
'पीड़ा' पर 'उल्लास' का
'दर्द' पर 'मुस्कान' का
'हताशा' पर 'उत्साह' का
'आर्तनाद' पर 'आह्लाद' का
'संशय' पर 'विश्वास' का
'मायूसी' पर 'उम्मीद' का
'अहंकार' पर 'स्वाभिमान' का
कर्तव्यों की गठरी संग
अधिकारों की दौड़ का
इस संवेदनहीन दुनिया में
मानवता की खोज का
हर अधूरा संघर्ष......................
..................अभी जारी है !
ज़िंदा हूँ मैं!
मैं छोड़ती नहीं हूँ उम्मीद
उम्मीद के ख़त्म हो जाने पर भी
नहीं रहती मौन
शब्दों के चुक जाने पर भी
हँसती हूँ व्यर्थ ही
हँसी न आने पर भी
पुकारती हूँ गला फाड़
अनसुना हो जाने पर भी!
कि उम्मीद को छोड़ा
तो फिर रहा क्या?
जो दोहराया ही न खुद को
तो आख़िर कहा क्या?
न हँसी व्यर्थ ही
तो कब हँस पाऊँगी
चीखकर जो पुकारा
तो खुद से ही मिलके आऊँगी!
उम्मीद के पूरे होने की,
स्वार्थी उम्मीद में
अब नहीं जीती मैं
उत्तरों की बाट जोहती
सूखी सुराहियाँ
नहीं पीती मैं
हँसती हूँ कि 'ज़िंदगी'
चलती रहे
पुकारती हूँ, कि चलो
मेरी ही ग़लती रहे!
वरना ये समझने में अब
कोई मुश्किल, न कला
नि:स्वार्थ कोई किसी का
कभी हुआ है, भला
और फिर एकाएक खिल पड़ती हूँ मैं
जैसे अपनी ही बेवकूफ़ियों से मिल पड़ती हूँ मैं!
है बंजर ज़मीं, उधर सरहदों में
मैं उड़ती इधर, अपनी हदों में
जैसे सोने के पिंजरे का
इक परिंदा हूँ मैं
ईमां सलामत, तभी तो
"ज़िंदा हूँ मैं"
!
सुनो, भगवान...!
सुनो, भगवान!
आज भी वही हुआ
जो होता आया है
अब इन बातों से
ज्यादा हैरानी नहीं होती
हाँ, होता है मन उदास
कुछेक आँसू भी
अनायास ढुलक पड़ते हैं
मुट्ठियां भिंचती हैं
बेवकूफ़ कलेजा भी
मुँह को आता है
रुंधता है गला
एक-दो दिन
और फिर वही दिनचर्या
सब कुछ सामान्य
सच,'इंसानी जीवन' कितना
सस्ता हो चला है यहाँ
पता ही होगा न तुम्हें तो
तुम्हारी ही बनाई दुनिया जो है
यहाँ तुमसे ज्यादा ज़रूरी कुछ भी नहीं
तुम्हारे अलग-अलग
नामों की आड़ में
और उन्हीं नामों से बनी
पूजनीय किताबों में
होता है तुम्हारा ख़ूब ज़िक्र
कि तुम ये कर सकते
तुम वो कर सकते
तुम सर्वदृष्टा,
तुम सर्वज्ञानी,
तुम पालनहारा,
जग अज्ञानी
तुम निर्माता
तुम दुख-हर्ता
तुम भाग्य-विधाता
तुम ही सबके दाता
सुना है
तुम्हारी अनुमति के बिना
एक पत्ता भी नही हिलता
ये प्राणवायु, नदिया की धारा
समंदर, पहाड़, पत्थर
सब में समाहित हो तुम
अब एक बात बताओ
जब ये सब सच है
तो एक बार आगे बढ़कर
तुम खुद ही कभी अपने ऊपर
सारा दोष क्यूँ नहीं ले लेते
हटते क्यूँ नहीं
हम सबकी दुनिया से
क्या तुम्हें समझ नहीं आता
इस सब की जड़
'बस तुम ही रहे हो सदैव'
या फिर ऐसा करो
एक ही झटके में
ख़त्म करदो ये दुनिया
और करो पुनर्निर्माण
इंसानियत का
बस, इस बार
उस पर
मेड इन हिंदू, मुस्लिम,
सिख, ईसाई, जैन,पारसी
या कोई अन्य धर्म का
ठप्पा लगाकर न भेजना
बस, 'मेड बाय गॉड' काफ़ी है
और क्या कहूँ, मेरे दोस्त
जी बहुत व्यथित है
जब रोक नहीं सकते
मानवता की लाश को
हर गली चौराहे पर
दिन-प्रतिदिन गिरने से
तो हर बात का
श्रेय भी क्यूँ लेते हो?
छोड़ ही दो न
हमें अकेला हमारे हाल पर
जीने दो हमें चैन से अब
तुम्हारे नाम के बिना!
स्वप्न या....?
एक घना जंगल
यहाँ जानवरों की आवाजाही
पूर्णत: वैध है
चोरी से परखते
नापते-तौलते
घात लगाते पशु
अचानक टूट पड़ते हैं
अपने-अपने शिकार पर
लेते हैं आनंद
लहू से लिपटे उस
माँस के लोथड़े और
निरीह चीखों का
दिखाई देते हैं
इस दृश्य से सहमे
पेड़ पर चढ़े हुए
टहनियों से लटके
झाड़ियों में दुबके
कुछ छोटे जीव-जंतु
सुनाई देती है
बीच में कहीं-कहीं
सियारों के हूकने की आवाज
जो हर पलटती गुर्राहट के साथ
डूबती चली जाती है
आँख खुलती है
मैं खुद को
अपने देश में पाती हूँ!
प्रीति 'अज्ञात'
जन्म-स्थान - भिंड (म.प्र.)
शिक्षा - स्नातकोत्तर (वनस्पति विज्ञानं)
वर्तमान निवास-स्थान - अहमदाबाद (गुजरात)
संप्रति - संस्थापक एवं संपादक - 'हस्ताक्षर' मासिक वेब पत्रिका, लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता
प्रकाशित साझा-संग्रह - एहसासों की पंखुरियाँ, मुस्कुराहटें...अभी बाकी हैं, हार्टस्ट्रिंग्स.
"इश्क़ा", काव्यशाला, गूँज
संपादन - एहसासों की पंखुरियाँ, मुस्कुराहटें..अभी बाकी हैं, मीठी- सी तल्खियाँ (भाग-2), मीठी- सी तल्खियाँ (भाग-3), उदिशा
विशेष - * विभिन्न राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक पत्रिकाओं, समाचार पत्रों, वेब पत्रिकाओं में कविताएँ / आलेख प्रकाशित,
* 'डेवेलपमेंट फाइल' (अँग्रेज़ी की राष्ट्रीय मासिक पत्रिका) में गुजरात ब्यूरो प्रमुख (नवंबर 2014 से)
* मासिक वेब पत्रिका 'ज्ञान मंजरी' में नियमित स्तंभ 'कैमरे की नज़र से'
* 'साहित्य-रागिनी' वेब पत्रिका में मुख्य संपादक (सितंबर 2013 से सितंबर 2014 तक)
पुरस्कार -
* 'म.प्र पत्र-लेखक संघ' द्वारा पुरस्कृत
* 'कवि हम-तुम' द्वारा राष्ट्रीय सम्मान (जनवरी 2015) से पुरस्कृत
* 'अखंड भारत ' मासिक पत्रिका द्वारा 'साहित्य-गौरव' सम्मान
* 'कवि हम-तुम' संस्था द्वारा राष्ट्रीय सम्मान (जनवरी 2015)
* परिकल्पना साहित्य सम्मान 2015 (अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन, थाईलैंड)
ईमेल - preetiagyaat@gmail.com
आपकी कविताओं के शिल्प की बुनावट और बिम्बों की गझिनता प्रभावित करती है। तुम पूछना अवश्य ! बहुत मार्मिक कविता है। वसीम अकरम की एक कविता की याद ताजा कर दी। बधाई स्वीकारें....
ReplyDeleteधन्यवाद, चौहान जी :)
Deleteरचनाएँ साझा करने के लिए शुक्रिया,'स्पर्श' टीम :)
ReplyDeletenishabd
ReplyDeleteआभार!
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