Tuesday, 12 January 2016

बुद्धिलाल पाल के कविता संग्रह पर उमाशंकर सिंह परमार


‘राजा की दुनिया’ -  पूँजी, सत्ता, और मूल्य

मानव जीवन का प्रथम सौन्दर्य पक्षीय आविष्कार कविता है | मनुष्य जाति का इतिहास जब से आरम्भ होता है कविता का भी इतिहास आरम्भ हो जाता है कविता को मानव चेतना के विकास से पृथक करके नहीं देखा जा सकता है | जिस प्रकार इतिहास उत्पादन साधनों के विस्तार और परिवर्तन के द्वारा विकसित होता है उसी प्रकार मानव चेतना भी द्वंदात्मक तरीके से विकसित होती है | आर्थिक आधारों का परिवर्तन मानव चेतना का भी परिवर्तन कर देता है | यही परिवर्तित मानव चेतना कविता और कला के सृज़न के लिए उत्तरदायी होती है | अस्तु किसी भी कविता को समय की सीमाओं में ही कसकर मूल्यांकित किया जा सकता है क्योंकि कवि की चेतना का निर्धारण इतिहास या किसी अन्य आलौकिक सत्ता के द्वारा नही होता अपने समय के साथ टकरावों से होता है | समय के साथ कवि का संघर्ष ही कवि को भाषा प्रदत्त करता है | और  भाषा कविता का सृज़न करती है भाषा कवि का निजी उत्पाद है पर कविता उसे वर्गीय उत्पाद बना देती है या यूँ कहिये की जब भाषा कवि की निजी भाषा न बनकर  वर्गीय भाषा बनकर उपस्थित होती है तो वह कविता बन जाती है या कविता की उत्पत्ति होती है | भाषा विश्लेषण और यथार्थ से सामंजस्य द्वारा ही कवि की कलात्मक उपलब्धियों को परखा जा सकता या कविता का चारित्रिक संयोजन अन्वेषित किया जा सकता है |  किसी कविता के उपरी आवरण को देखकर कवि को खारिज नही कर सकते यदि ऐसा होता है तो कवि के साथ अन्याय है | कविता के द्वारा प्रस्तुत चरित्र का मूल्यांकन ही कवि का मूल्यांकन है | अस्तु हमें कविता गत चरित्र और भाषा दोनों को साथ लेकर चलना होगा तभी कवि के युगबोध और सामयिक खतरों को पहचान सकतें है | बुद्धिलाल पाल समकालीन हिंदी कविता में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं उनका कविता संग्रह “राजा की दुनिया” वर्ष २०११ में प्रकाशित हुआ | इस संग्रह में कुल इकहत्तर कवितायें है जो छोटी और संवादी है कुछ कविताएं तो सूक्ति जैसी है | इन कविताओं की खासियत है की ये उपरी आवरण में तो एक दूसरे से पृथक प्रतीत होती है पर कथ्यात्मक अंतर वस्तु और चरित्र का गढ़न इन्हें पृथक नही रहने देता | छोटी छोटी कवितायें और सूक्तियां बड़ी कविता की महाकाव्यात्मक पृष्ठभूमि का निर्माण कर देतीं हैं | या कह सकतें हैं कि राजा की दुनिया एक महाकाव्य है तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी | महाकाव्य की तीन विशेषताएं मुख्य होती हैं पहली विशेषता है चरित्र, दूसरी विशेषता है शिल्प, तीसरी विशेषता है विचार | इन तीनो तत्वों के आलोक में “राजा की दुनिया” का मूल्यांकन किया जाय तो निश्चित तौर पर यह संग्रह महाकाव्य ही ठहरता है बिलकुल वैसा ही जैसे कामायनी, साकेत, प्रियप्रवास आदि हैं |
राजा की दुनियां का चरित्र उपरले तौर पर मिथकीय लगता है पर ध्यान से देखने पर प्रतीत होता है की यह चरित्र वास्तविक जीवन में दिखाई दे रहे चरित्र से अधिक स्पष्ट और प्रभावी है | बुद्धिपाल ने इस चरित्र का संस्कार इस प्रकार से किया है की वह अपनी पूर्ण सत्ता के साथ समय से खुद को जोड़ लेता है | यह चरित्र “राजा” का है | यह व्यक्ति नही है | विचार है | पूरा वर्गीय चरित्र समाहित किये है | अपने वर्गों में सामान्य या “टाइप” बनाकर उभारा गया है | यह सच है आज का समय “राजा” का समय नही है जनता का समय है | पर बुद्धिलाल पाल का उकेरा गया यह चरित्र इतना स्पष्ट है इतना स्वच्छ रेखांकन है की यह वास्तविक जीवन की मूर्त छवि का निर्माण कर देता है | राजा के इर्द गिर्द का परिवेश मिथकीय नही रह जाता है वह समय के साथ ऐसे सामंजस्य बैठा लेता है जैसे शब्द के साथ अर्थ सामंजस्य बैठा लेता है | राजा की व्यक्तिगत विशेषताएं और परिवेश का वर्णन उसे वर्गीय चरित्र का प्रतीक बना देती है| मिथकों का गुम्फन यदि द्वंदात्मक विचारों से नही होता तो मिथक खतरनाक भी हो जातें है वो कवि को उन रीतियों के पक्ष में खड़ा कर सकतें है जिनका प्रतिरोध कवि होने शर्त है | अक्सर ऐसा होता भी है कुंवर नारायण का ‘आत्मजयी’ ऐसा ही मिथक है जिसे कवि ने अपनी बुर्जुवा दृष्टि से पौराणिक मूल्यों के पक्ष में खड़ा कर दिया है | यही तर्क नरेश मेहता की “शंशय की एक रात”  में भी लागू होता है | बुद्धि लाल पाल इस खतरे से बाहर हैं | उनका मिथक जनतांत्रिक प्रतिमूल्यों के प्रतिपक्ष में गढ़ा गया है अर्थात राजा का चरित्र जनतांत्रिक अवमूल्यों के विरुद्ध है | इसलिए कवि राजा के पक्ष में नही है वह समूची दुनिया के पक्ष में है | जनता के पक्ष में है | अस्तु मात्र मिथक की पक्षधरता के आधार पर ही “राजा की दुनिया” का वैचारिक आधार तय हो जाता है | कि यह रचना जनतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता एवं लोक जीवन की प्रतिबद्धता को समाहित किये हुए एक उम्दा मिथकीय महाकाव्य है |
राजा का चरित्र फासीवादी है मैकियावेली के नरेश की तरह बुद्धि का राजा भी चालाक है, राजा ईश्वर का अवतार है, पूरी पृथ्वी का स्वामी है. समस्त शक्तियों का केंद्र है, राजसत्ता का एकछत्र भोक्ता है, प्रजा के लिए पूज्य है, राजा के सामंत भी हैं, महल भी है, हरम भी है, राजा अय्याशी भी करता है, दूसरे राज्यों से लड़ता भी है, सेना, न्यायपालिका, सब उसके आदेश के गुलाम है, समूची सभ्यता उसकी गुलाम है इतनी शक्तियों का स्वामी राजा फासीवादी राजतान्त्रिक राज्य का ही हो सकता है क्लासिकल नज़रिए से देखने पर बुद्धिपाल का राजा राजतान्त्रिक होने का भ्रम पैदा कर सकता है | मिथकीय आग्रह भी इसे परंपरागत राजा बना सकता है | जिसे हिंदुस्तान के इतिहास में खोजा जा सकता है| विश्व के इतिहास में भी ऐसे अनेक राजा रहे हैं | पर “राजा की दुनिया” के राजा की प्रतीति और कार्यव्यवहार में अंतर है प्रतीति भले ही राजतान्त्रिक हो पर कार्य व्यवहार उसे लोकतान्त्रिक सिद्ध कर रहें है | अर्थात बुद्धिपाल का नरेश लोकतान्त्रिक पद्धतियों से चुना गया राजा है | जिसे आधुनिक आर्थिक साम्राज्यवाद ने फासीवादी शक्तियों से विभूषित कर दिया है | मैं इस कविता संग्रह को बार बार पढता हुं और हर बार उनका 'मिथक' फासीवाद का नया चेहरा दिखा देता है । यह सच है राजतान्त्रिक 'नरेश' और बुद्धिपाल के 'नरेश' मे बहुत बडा अन्तर है यदि हम बुद्धिपाल के नरेश को क्लासिकल मानकर इस संग्रह को पढेंगें तो सम्भव है फासीवाद का परम्परागत स्वरूप ही देंखें । बहुत सी कविताएं लोकतन्त्र की संवैधानिक प्रक्रियाओं की ओर संकेत करती हैं और आर्थिक नीतियों पर भी चर्चा करतीं हैं इससे लगता है कि बुद्धि भाई का 'नरेश' कोई और नही लोकतान्त्रिक रूप से चुना गया, बाजार नियन्त्रित सत्ता का अधिपति है । ऐसा अधिपति जो बाजार से नियन्त्रित हो, भले ही वह लोकतन्त्र का तमगा लटका ले, फासीवाद जैसा ही घिनौना होता है | यही इस संग्रह की सामयिकता है | यह संग्रह आर्थिक साम्राज्यवाद के दौर में लोकतान्त्रिक मूल्यों के अवमूल्यन की कहानी कह रहा है | विश्व पूँजी से नियंत्रित सत्ता किस कदर जनविरोधी हो जाती है इस संग्रह को पढ़कर जाना जा सकता है | या यूँ कहें की इसमें २००९ के बाद का हिन्दुस्तानी राजनैतिक इतिहास देखा जा सकता है लोकतान्त्रिक मूल्यों को फासीवाद की गोद में बैठते देखा जा सकता है | निजीकरण और विनिवेश की जनविरोधी नीतियों के कारण आज कोई भी चुनी हो सरकार हो बाज़ार के हाथ में ही खेलती है | बाज़ार ही जनमत निर्माण करता है | बाज़ार ही राजा चुनता है | और राजा भी जनता की बजाय बाज़ार का हित ही देखता है | यही चरित्र “राजा की दुनिया” के राजा का है वह भी बाज़ार नियंत्रित सत्ताधीश है |
बुद्धिलाल पाल का राजा एक तानाशाह है बिलकुल वैसा ही जैसा मैकियावेली का प्रिंस था राजा को धरती पर ईश्वर का अवतार माना जाता है | जनता के पास न तो शक्ति है, न कीर्ति, और न ही धन है जिसके पास ये तीनो शक्तियां हों वही राजा हो सकता है एक ऐसा राजा जिसे ईश्वर की तरह पूजा जाता है तानाशाह ही है | क्योंकि लोकतंत्र में व्यक्ति पूजा का कोई स्थान नही है | गरीब से गरीब आदमी भी राजा होने का स्वप्न देख सकता है | शक्ति का स्रोत जनता होती है अस्तु जनता के चुने हुए प्रतिनिधि को ईश्वर नही कहा जा सकता | लोकतंत्र का ईश्वर जनता है| जनता ही राजा का चयन करती है | बुद्धिपाल का राजा भले ही जनता से चुना गया हो लेकिन उसका ऐश्वर्य किसी राजतान्त्रिक नरेश से कम नही है दुनिया के किसी भी तानाशाह की सारी विशेषताएं उसमे समाहित है “राजा ऐश्वर्यशाली होता है / उसका हर आदेश / ईश्वर का आदेश होता है / राजा ही सर्वत्र पूज्यते / कीर्ति चक्र वाला होता है (पृष्ठ १९) यह ऐश्वर्य भले ही राजा को परंपरागत सिद्ध कर दे पर आजादी के बाद हिन्दुतान का लोकतंत्र भी इन राजाओं से रहित नही है जनप्रतिनिधियों का ऐसो आराम इस राजा के मिथक में एकदम फिट बैठता है | ये कविता एक व्यंग्य है लोकतंत्र में पूँजी की प्रधानता पर | पूँजी लोकतंत्र को व्यवहारिक रूप में राजतंत्र बनाकर रख देती  है | पूँजीवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा जनता की चेतना है जनता यदि शोषण के कुचक्र को समझ ले तो पूँजी आश्रित तंत्र घबराने लगता है यही कारण है की पूंजीवादी शक्तियां राजा के माध्यम से जन विद्रोहों को कुचलती रहतीं है “उसे साफ़ साफ़ दिखाई देता है / आने वाले समय में / कौन कौन से जन आन्दोलन / होने वाले है या हो सकतें है” (पृष्ठ १४) हम हाल के वर्षों का घटनाक्रम स्मरण करे तो बुद्धिपाल का राजा साकार हो जाता है | विश्व पूँजी के दबाव में जिस तरह किसानो के खेत नीलाम किये, जिस तरह निजी उद्द्योगों में मन्दी के नाम पर मजदूरों की छटनी की गयी, उनके आन्दोलन को दबाने में सत्ता का जिस तरह से दुरूपयोग हुआ वह किसी से छिपा नही है | यह आज का सबसे बड़ा सामयिक तथ्य है की लोकतांत्रिक संस्थाएं अपना मूल्य खोती जा रहीं है आज वो पूँजी की सबसे बड़ी पैरोकार बनकर उभरीं है | राजा के द्वारा यह देखना की कब और कहाँ आन्दोलन होगा और उसके कुचलने के लिए उद्दत रहना सत्ता के जनविरोधी चरित्र का अंकन है | इस मायने में राजा का मिथक और भी प्रभावी बन जाता है क्योंकि आज का सत्ता चरित्र राजा के चरित्र से बहुत मेल खाता है मुझे तो इस कविता से बिगत जनांदोलनो और उनके प्रति सत्ता  के चरित्र का स्पष्ट बिम्ब दिखाई दे रहा है | राजा की दुनिया बिलकुल आज की दुनिया है | राजनीति का विकृत चेहरा लिए लोकतंत्र की दुनिया है |लोकतंत्र का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसकी विसंगति को बुद्धिलाल पाल ने कचोटा  न हो अपने राजा की दुनिया में समाहित न  किया हो | यह संग्रह इतना सामयिक बन गया है की पूँजी ग्रसित लोकतंत्र के  बदरंग चेहरे का एक एक तार उजागर कर देता है | जैसे अपराधीकरण की समस्या और बिचौलिए दलालों की समस्या आज की राजनीति का भयावह सच है | सामंती वर्चस्ववाद राजनीतिक अपराधी करण का मूल कारण है | मतदान से लेकर सत्ता हासिल करने तक शक्ति और धन का खुला प्रयोग हम आज विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में देख रहे हैं | वर्गीय चेतना को इसी अपराधी करण के बूते दबाया जाता है | ये सच राजा की दुनिया से अलग नही है राजा भी गुंडे पलता है गुंडों को सम्मानित भी करता है उनके लिए लोकतंत्र में पुरस्कार स्वरूप यथोचित जगह भी देता है “राजा के राज्य में /गुंडों की भी / खास जगह होती है /वह भी सम्मानित होता है /बेहद सम्मानित” (पृष्ठ २८) | आज की राजनीति गुंडों की शरण स्थली बन चुकी है| इन्ही गुंडों के द्वारा अल्पमत को बहुमत में तब्दील किया जाता है वर्गीय उत्पीडन किया जाता है | बूथ लुटवाये जातें है | गुंडे राजा के अभिरक्षक होते है | गुंडों के अतिरिक राजा की दूसरी अलोकतांत्रिक शक्ति है दलाल | जी हाँ जनता और राजा के बीच जो संवादी बिचौलिए होतें है उन्हें दलाल कहतें है | पर्दे पीछे सारी अनैतिक गतिविधियाँ यही बिचौलिए करते है सत्ता के गलियारों से लेकर पूंजीपतियों की गद्दी तक इनका बोलबाला होता है|  राजा और पूँजीपतियों के बीच ये एक अनिवार्य सेतु है | हाल के बड़े बड़े घोटाले याद करिए और इन घोटालों में खायी गयी दलाली भी याद करिए राजा की दुनिया में इनका भी अस्तित्व है “राजमहल के गलियारे / रोशन रहते हैं / सत्ता के बिचौलियों से (पृष्ठ ४७) | राजा की दुनिया में इन दोनों का अस्तित्व होना राजा को आज की राजनीति से जोड़ देता है |तीसरी विशेषता जो राजा को लोकतान्त्रिक असंगति से जोड़ती है वह है राजा का व्यक्तित्व आज के नेताओं से हुबहू मिलता है | लोकतंत्र में राजा वही होता है जिसका बहुमत हो जनता जिस पर विश्वास करके अपना वोट दे दे जिसकी जीत हो जाये |जनता का समर्थन हासिल करने के लिए नेता एडी से चोटी तक का जोर लगा देतें है | तमाम लोकलुभावने वादे करते हैं कसमे खातें है व्यवस्था परिवर्तन की बात करतें है योजनाओं का खाका खींचतें है लेकिन सत्ता पाते ही सारी योजनायें विलुप्त हो जाती हैं |या योजनायें आती भी है तो उनका कार्यान्वयन इस प्रकार होता है की फायदा आम जनता नही पूंजीपति  उठातें है या  है या राजा के नजदीकी समस्त योजनायें डकार जातें हैं बुद्धिपाल का राजा इस चरित्र से पृथक नही है इस तथ्य को उन्होंने बड़ी शिद्दत से दिखाया है “राजा की / योजनाओं के आंकड़े / झूठ के पुलिंदे होतें हैं / उसकी योजनाओं का लाभ / जरुरत मंदों में कम / अपनों में ही रेवाड़ी से से बंटते हैं” (पृष्ठ २६) | लोकतंत्र जब पूंजीतंत्र का सेवक हो जाता है तो जन हित की बात करना बेमानी है | सत्ता महज़ एक साधन बनकर रह जाती  है | बाज़ार का , लूट का , अपराध का, दलाली का, राजा की दुनियां के माध्यम से बुद्धिलाल पाल ने पूँजी ग्रस्त सत्ता चरित्र का जबरदस्त चित्रण किया है राजा का यह चरित्र आज की लोकतान्त्रिक सत्ताओं का चरित्र है | लोकतान्त्रिक मूल्हीनता का चरित्र है |
बुद्धिलाल पाल का “राजा की दुनिया” की सामयिकता और जनपक्ष धरता केवल लोकतान्त्रिक संस्थाओं के अवमूल्यन  मात्र को दिखाकर ही नही संतुष्ट हो जाती बल्कि एक कदम आगे चलकर नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रभाव से सत्ता पर उत्पन्न असंगतियाँ भी दिखाने से वो नही चूकते |आज सत्ता का पक्ष जनता नही है पूँजी है | पूँजीवाद सत्ता का सहयोग पाकर सार्वजनिक संपत्ति पर भी अपना दावा कर रहा है |चाह कर भी जनता के धन पर जनता का हिस्सा नही दिया जा सकता है क्योंकि नवउदारवाद का अकाट्य तर्क यही है की जो भी है सब धनपतियों का है | इस स्थिति नज़ारा आज के हिंदुस्तान में बखूबी किया जा सकता है “राजा का खजाना / कुबेर का खजाना होना चाहता है / धनपतियों को संरक्षण देता है “ (पृष्ठ १७) | जब राजा का खजाना लोक विमुख होकर अभिजन का सेवक हो जाये मात्र पूंजीवादी वर्ग का पोषण करने लगे तो समझ जाना चाहिए की पूँजी वाद अपनी चरम सीमा को प्राप्त हो चुका है | पूँजीवाद की  चरम सीमा में एक ही नियम होता है प्रतिस्पर्धा | अर्थात जो कमजोर है , जो गरीब है उसे जीने का हक नही है | उनका ख़त्म हो जाना ही बेहतर है |बाजारवाद का भी यही तकाजा है |राजा की दुनिया में बाजारवाद के इन खतरों की ओर स्पष्ट संकेत मिलता है राजा पूंजीपतियों की गिरफ्त में है उसके राज्य में केवल एक ही नीति है  प्रतिस्पर्धा  “उनकी दुनिया का / सर्वमान्य नियम है /प्रतिस्पर्धा /जिसमे उनकी सिर्फ / संगठित पूँजी होती है /चिंतन उसी पर /ज्यादा लाभ ,ज्यादा शोषण “ (पृष्ठ ५२) | प्रतिस्पर्धा एक छद्म नाम है असली नाम है लूट , शोषण ,जिस राज्य की नीति में लूट और शोषण को नीति का नाम दे दिया जाय तो वह राज्य जनहितकारी कैसे हो  सकता है राजा की दुनिया में पूंजीवादी शक्तियां संगठित होकर जनता का शोषण करती है | पूँजी वाद का यह काला सच नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का निकर्ष है |इस तथ्य को बड़े सहज अंदाज़ में बुद्धिलाल पाल ने समझाया है| यह अभिकथन राजा की दुनिया को एकदम सामयिक कर देता है आज की दुनिया का सच पाठक के जेहन में उभर आता है | इस प्रकार राजा की दुनिया का चरित्र नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के द्वारा गढ़े गए लोकतंत्र का चरित्र है जिसे हम आर्थिक फासीवाद भी कहते  है जब लोकतंत्र पूंजीवादी शक्तियों के हाथ में खिलौना बन जाता है तो उसे फ़ासीवाद ही कहा जाता है | पूँजी ग्रसित लोकतंत्र का अवमूल्यन कविताओं में बहुत कम देखने को मिला है | पूँजी के इस पक्ष का चित्रण राजकुमार राकेश की उपन्यासों में बहुत अच्छे ढंग से किया गया है बिलकुल वैसा ही उल्लेख कविता के क्षेत्र में बुद्धि लाल पाल ने कर दिखाया | इस मायने में राजा की दुनिया अपने समकालीन संग्रहों से चार कदम आगे हो जाती है क्योंकि किसी भी कवि ने लोकतान्त्रिक फासीवाद का इतना वैज्ञानिक चित्र नही उपस्थित किया है यह संग्रह पूँजी ग्रसित लोकतंत्र पर एक मुकम्मल बयान है बुद्धिपाल ने  जिस कलात्मक खूबी  साथ मिथकीय चरित्र को हिंदुस्तान का यथार्थ बनाकर प्रस्तुत किया है वह अपने आप में अलहदा है |
अब थोड़ी चर्चा इस संग्रह के कला पक्ष भी हो जाय क्योंकि शिल्प के मूल्यांकन पर ही जनसरोकारों की सार्थकता खोजी जा सकती है इस संग्रह के शिल्प का सबसे उम्दा पक्ष काव्यभाषा है| अक्सर प्रतिबद्ध रचनाओं की काव्य भाषा ऐसी ही होती है | पूंजीवादी शोषण, सामंती नैतिकता ,और व्यवस्था तंत्र के खिलाफ आम आदमी की भाषा ही रचना को स्वर देती है| ऐसी अवस्था में भाषा से हम अमूर्तन की अपेक्षा नहीं कर सकते है | सच भी है जब यथार्थ का कटुतम रूप हमारी आँखों के सामने हो तो अमूर्तन का ध्यान किसे रहता है| यथार्थ ही कविता की मुख्य भाषा बन जाता है | राजा की दुनिया में बोलचाल की भाषा को काव्य भाषा बनाकर बुद्धिपाल ने यथार्थ की भाषाई क्रांति की है | यही कारण है उनकी कविता बयान जैसी प्रतीत होती है | धूमिल जैसी सपाट बयानी का जगह जगह प्रयोग मिलता है |ऐसी भाषा अभिजत्य भाषा की टेक्निक को अस्वीकार  करती है “अब रात्री भोज /सुविधा जनक गेस्ट हॉउस “ (पृष्ठ ४८) यह भाषा आक्रोश पूर्ण है इस आक्रोश को देखकर समझा जा सकता है की भाषा जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध है| ओर यही प्रतिबद्धता काव्यभाषा को विस्तार दे रही है |शक्ति दे रही है विसंगतियों से उबरने के लिए ऐसी ही भाषा की जरुरत है|यदि रचना सामयिक खतरों की और ध्यान आकृष्ट करना चाहती है तो काव्य भाषा को भी यथार्थ से शब्द खोजने पड़ेंगे तभी रचना वाजिब प्रतिबद्धता को प्रकट करेगी| यह कहने में मुझे कोई संकोच नही की बुद्धिपाल ने बिलकुल सही भाषा का चयन किया है |भाषा कविता की रचनात्मक शक्ति को बढ़ा देती है जिसके द्वारा स्थापित पूंजीवादी मुहावरों के विरुद्ध नए मुहावरे की स्थापना होती है| बुद्धिपाल की कवितायें जनतांत्रिक मुहावरा बनने की क्षमता रखती हैं| वाक्यों का गठन और हर एक वाक्य पर आम आदमी के पक्ष में चिंतन इन वाक्यों की रचनात्मक शक्ति में इजाफा कर रहा है| मुहावरों में लक्षणा और व्यंजन जैसी शब्द शक्तियों का प्रयोग होता है जिससे मुहावरे अपना मंतव्य और भी प्रखरता से संप्रेषित करतें हैं| यह खूबी राजा की दुनिया में है देखिये “जिनके कटोरों में /सिर्फ मदिरा का यौवन ही / छलकता रहा /वे ही / हमारी किस्मत लिखते रहे / बार बार /हर बार” यहाँ पर भाषा का यथार्थवादी चमत्कार देखने के लायक है| यही वो अवस्था है जब भाषा सूक्ति बन जाती है और पाठक की जुबान पर पैठ बना लेती है |भाषा को मुहावरा बनाने में बुद्धिपाल ने कोई कसर नही छोड़ी है इस गुण से माधुर्यता के साथ साथ अभिरुचि भी उत्पन्न हो रही है जो आज की कविता में  लगभग विलुप्त हो चुकी है माधुर्य और अभिरुचि का इतना यथार्थवादी अंकन बहुत कम कवियों में मिलता है ऐसा अंकन विजेन्द्र, केशव, और निलय, संतोष में भी देखा जा सकता है | यह बुद्धिलाल पाल की काव्यभाषा के क्षेत्र में बड़ी उपलब्धि है |
काव्यभाषा के बाद राजा की दुनियां में प्रयुक्त काव्य बिम्बों की चर्चा जरुरी है| भाषा  जितनी ताकतवर है बिम्ब उतने ही प्रभावी हैं| क्योंकि ये बिम्ब पूंजीवादी परिवेश में मूल्यों के अवमूल्यन के बीच व्यक्ति की मानसिक अवस्था का प्रतिनिधित्व करतें है| यह संग्रह आम आदमी को केंद्र में रखकर लोकतंत्र का मूल्यांकन करता है| अस्तु आम आदमी की मानसिक वृत्तियों को समाहित करके प्रतिरोध में बदल देने की कला इन बिम्बों में है| यही इस संग्रह की खूबी है | बिम्ब तभी उत्पन्न होतें है जब यथार्थ आक्रान्तकारी हो जाता है| कवि परिवेश से इतना पीड़ित हो जाय की वह परिवेश से अपनी कविता को पृथक न कर सके तब परिवेश की घातक विसंगतियां बिम्ब का रूप धारण कर लेतीं है | यही बिम्बों की रचनात्मक पृष्ठभूमि है| इसी  पृष्ठभूमि में बुद्धिपाल के बिम्बों को देखना चाहिए | हर एक कविता एक स्वतंत्र बिम्ब रचती है  | राजा की दुनिया में सत्ता के जितने सामाजिक , राजनैतिक , आर्थिक . पूंजीवादी, आपराधिक  आयाम हैं छोटी छोटी कविताओं में छोटे छोटे बिम्बों के सहारे उपस्थित होतें है | ये छोटे छोटे बिम्ब व्यक्ति और परिवेश के मध्य दृष्टि के सहारे निर्मित होतें है | यही छोटे बिम्ब एकत्र होकर एक बड़े बिम्ब का निर्माण कर  देतें है| सारे बिम्बों का सामूहन आखिरकार एक बड़े बिम्ब में हो जाता है जिसे राजा की दुनिया कहा जाता है | यही इस संग्रह का महाकाव्यत्व है जिसमें  छोटी छोटी अवांतर कवितायें आखिर में बड़ी कविता  का निर्माण कर देती है | बिम्ब सामूहन की यह कला बहुत कम कवियों में देखने को मिलती है| राजा  की दुनिया में यथार्थ की वैज्ञानिक जांच  के सहारे व्यापक मानवीय संबंधों को रचनात्मक स्तर पर परिभाषित करने की कोशिश की  गयी है| इस कोशिश  में बिम्बों का योगदान अधिक है | यदि बिम्बों का शैल्पिक प्रयोग इस संग्रह में न होता तो राजा का चरित्र व्यापक रूप से प्रतिष्ठित भी न होता “वह राजा है / जादूगर की तरह /रस्सी पर चढ़ता है /हमर दिखाई नही देता /दिखता है / सिर्फ उसका माया जाल” (पृष्ठ १२) |
इस प्रकार बुद्धिलाल पाल का राजा की दुनिया भूमंडलीकरण के दौर में लोकतान्त्रिक मूल्यों की गिरावट का उम्दा स्थापत्य है | पूँजी के द्वारा सत्ता का संक्रमण और सत्ता द्वारा लोकतान्त्रिक मूल्यों का हनन इस संग्रह का बीज बिंदु है |मूल कथ्य है | यह कहन आज के हिंदुस्तान का राजनीतिक चरित्र उजागर कर देता है आज़ाद हिंदुस्तान में पूँजी वादी तंत्र का ख़तरनाक पहलु है हिन्दुस्तानी आवाम द्वारा भोगी गयी यातनाओं का काला चिटठा है | अपने समय के साथ पूँजी .सत्ता और मूल्यों के चरित्र का समुचित मूल्यांकन है |
   
-उमाशंकर सिंह परमार
बबेरू, बाँदा, ९८३८६१०७७६

1 comment:

  1. अनुज राहुल का आभार जो मुझे संवेदन मे जगह दि

    ReplyDelete

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...