Friday 15 July 2022

शहर का नाम रोशन...

भले ही मैं टीवी न देखूं पर; आज भी अखबार देख लिया करता हूँ। क्योंकि मुझे देश की नहीं अपने शहर की खबरें जाननी होती हैं। देख लेता हूँ,खबरों के जरिये अखबार का चेहरा और उस चेहरे में अपने शहर का अक्स।


आज जो पहली खबर पर नजर गई,वह यह निकली; यूपीएससी में हुआ चयन, शहर का नाम किया रोशन...

मैं हीन भावना से भर उठा। सोचने लगा कि क्या कभी ऐसा मौका आया है, जो मैंने शहर का नाम रोशन किया हो! क्या मैं कलंक हूँ! या शहर पर कोई बदनुमा दाग! क्या मैं भी परीक्षा दूं! पर यहां तो जिंदगी ही रोज परीक्षा लिए जा रही है! अब तो मैं ओवर ऐज भी हो चला हूँ! इससे पहले मैं हीनता के रसातल से पाताल में जाता,मैंने फट से पन्ना पलट दिया।

एक खबर पर मेरी नजर टिक गई।

अर्ध रात्रि को सड़क पर पड़े एक घायल व्यक्ति को राहगीर ने पहुँचाया अस्पताल...
खबर में यह भी बताया गया है कि आपातकाल में उस राहगीर ने घायल व्यक्ति की जान बचाने के लिए अपना रक्त भी दान किया।
मगर मैं खबर में एक लाइन और ढूंढ रहा था,जो बहुत ढूंढने पर भी मुझे नहीं मिली। मैं सोच रहा था कि अखबार ऐसा जरूर लिखेगा कि ऐसा करने से राहगीर ने शहर का नाम किया रोशन। 

मैं निराश होकर फिर दूसरी खबर को पढ़ता हूँ। खबर यह है कि एक रिक्शेवाले ने माल-लत्ते से भरा बैग पुलिस चौकी में जमा करा दिया। बैग में जेवर और कुछ जरूरी कागजात निकले। कुछ देर बाद वह कीमती बैग उसके असली मालिक को खोजकर उसे सुपुर्द कर दिया गया। बैग मालिक ने रिक्शे वाले को इनाम देना चाहा, लेकिन रिक्शा वाले ने मना कर दिया। फिर दरोगा जी के काफी कहने पर उसने एक तुच्छ धनराशि बहुत हिचक के साथ स्वीकार कर ली। मैं सोच रहा हूँ कि अखबार वाले ने यह क्यों नहीं लिखा कि रिक्शे वाले ने बैग वापस करके किया शहर का नाम रोशन...
उसने सिर्फ यह लिखा है कि रिक्शा वाले ने बैग लौटा कर दिखाई ईमानदारी की मिसाल... मैं यह सोच रहा हूँ कि रिक्शेवाले ईमानदार नहीं होते! या गरीब से यह अखबार या कोई भी ईमानदारी की आशा नहीं करता!

मैं कुछ और खबरें देखता हूँ। पन्ने पलटता हूँ। खबरें खोज रहा हूँ, पर विज्ञापन स्वतः दीख पड़ते हैं। वाकई देश बदल रहा हैं। यहाँ खबरें खोजनी पड़ती हैं और विज्ञापन दौड़े-दौड़े खुद आपके पास चले आते हैं। खोजते-खोजते एक खबर पर मेरी नजर रूकती है।

एक औरत कूड़े के ढेर से एक बच्ची को... नवजात बच्ची.. को अपने घर ले आई है। किसी ने उसे कूड़े के ढेर में फेंक दिया था। अखबार लिखता है कि उस औरत ने जो पहले से ही एक बच्चे की मां है,ऐसा करके इंसानियत की दी मिसाल। लेकिन मिसाल देकर भी इस औरत ने शहर का नाम रोशन नहीं किया।
मैं कई बार सोचता हूँ, यह शहर चाहता क्या है या शहर वाले शहर से चाहते क्या हैं ! बस अवसर ! या इसके अलावा भी कुछ!

मैं फिर कुछ अन्य खबरों को देखता हूँ।

एक खबर पर निगाह रुकती है। एक युवक एक युवती को बचाने के लिए चार गुंडों से अकेले ही भिड़ गया। अखबार लिखता है कि कानून व्यवस्था चौपट; सरेआम छेड़ी जाती हैं लड़कियां;युवक ने बीच में आकर बचाई इज्जत...
और इधर मैं सोचता हूँ कि क्या इस युवक ने शहर का नाम रोशन नहीं किया! क्या हैडिंग यह नहीं होनी चाहिए थी कि गुंडों से युवती को बचाकर एक युवक ने किया शहर का नाम रोशन...

मैं अक्सर देखता हूँ; छोटे लोग...आम लोग जिनकी खबरें एक कॉलम, दो कॉलम से ज्यादा नहीं होतीं; वह शहर का नाम भले ही रोशन न करें,लेकिन वह शहर को शहर बनाते हैं। शहर को रहने लायक शहर बनाते हैं। गण्यमान्य लोग तो शोभा बढ़ाते हैं, मगर ये नगण्य लोग ही शहर को जीवंत बनाते हैं। 

शहर का नाम रोशन करने के लिए अब ये यूपीएससी या पीसीएस की परीक्षा नहीं दे सकते। प्रशासनिक 'सेवा' में अपना करियर नहीं बना सकते। बना सकते,तो ये भी करते! मैं जानता हूँ,शहर का नाम रोशन करना इतना आसान नहीं है, जितना आसान किसी की जिंदगी बचा लेना या किसी की जिंदगी में तब्दीली ला देना हैं। सो, ये आसान काम ये आम लोग रोज कर रहे हैं।

मेरे प्यारे शहर! बस इतनी इल्तिजा है तुझसे! मुझे चाहे न क्षमा करना तुम्हारा नाम रोशन न कर पाने के लिए,मगर इन्हें कर देना! प्लीज!


- अनूप मणि त्रिपाठी

3 comments:

  1. वाह वाह! मार्मिक अभिव्यक्ति।

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  2. शहर का नाम रौशन अपने आप हो जाता है जब उस शहर के नागरिक इंसानियत का उदाहरण पेश कर देते हैं । भले ही अखबार में न लिखा हो । सार्थक लेख।

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