आखेट [व्यंग्य संग्रह] – सुशील सिद्धार्थ
समाज की बिखरी पड़ी विसंगतियों का बखूबी ‘आखेट‘
ख्यात व्यंग्यकार, आलोचक,संपादक , चर्चित स्तम्भकार सुशील सिद्धार्थ का जन्म 2 जुलाई 1958 को हुआ और 17 मार्च 2018 को अचानक वो हम सबको अलविदा कह गए।
देश के व्यंग्यकारों को एक मंच पर लाने और आपस में विचार विमर्श के लिए एक व्हाट्सएप समूह का गठन लखनऊ के साथी व्यंग्यकारों के साथ वर्ष 2015 में सुशील जी ने किया - व्यंग्य लेखक समिति ( वलेस ) । व्यंग्य लेखक समिति के जरिए सुशील जी ने समालोचक राहुल देव , भुवनेश्वर उपाध्याय , व्यंग्यकार डॉ सुधांशु नीरज ,लमही पत्रिका के श्री विजय राय के साथ मिलकर व्यंग्य से जुड़ी कई परियोजनाओं को सार्थक और पुस्तकों का प्रकाशन किया। उनके असामयिक निधन से व्यंग्य की कई योजनाएं अधूरी ही रह गईं।
सुशील जी के छह व्यंग्य संग्रह , दो अवधि कविता संग्रह प्रकाशित हैं। सुशील जी के जाने के बाद उनका सातवां व्यंग्य संग्रह ' आखेट ' किताबघर प्रकाशन ,नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। 232 पृष्ठ के इस संग्रह में सुशील जी के 41 व्यंग्य हैं। सुशील जी व्यंग्य संग्रह ' आखेट ' के जरिये समकालीन व्यंग्यकारों में अपने अलग तेवर ,अंदाज और कहन के लिए सबसे अलहदा ,अव्वल और अग्रणी नजर आते हैं। सुशील जी ने ' आखेट ' व्यंग्य संग्रह के विषयों के साथ नए प्रयोग किये वहीं प्रचलित विषयों यथा शोकसभा , साहित्यिक गुटवाद , पुरस्कार ,सम्मान , साहित्य में मठाधीशों की महिमा जैसे सदाबहार विषयों पर उनके व्यंग्य आज भी ताजगी का अहसास कराते हैं। सुशील जी के व्यंग्य , उस परंपरा के हैं जहाँ व्यंग्य की शब्द सीमा ,निबंध के बराबर मानी गई है और ' आखेट' के व्यंग्य बराबर विस्तार लिए हुए हैं। सुशील जी ने हर शैली में व्यंग्य रचे फिर वह संवादात्मक हों , कथात्मक हों या नाटकीय शैली में हों। सुशील जी के पास समृद्ध भाषा है जिसका उपयोग उन्होंने अपने व्यंग्य में किया है। ' आखेट' में सुशील जी के व्यंग्य के शीर्षक भी नयापन लिए हैं ,और व्यंग्य पढ़ने की लालसा जगाते हैं। संग्रह को पढ़ते हुए सुशील जी के व्यंग्य कहने का अंदाज इतना दिलकश होता है कि आप व्यंग्य से जुड़ जाते हैं। व्यंग्य में उपमाओं की भरमार होती है और इससे व्यंग्य रोचक हो जाता है। सुशील जी अवधि भाषा में निष्णात थे अतः उनके व्यंग्य में भी अवधि यत्र ,तत्र दिखाई देती है। रामचरित मानस की चौपाइयों ,कबीर के दोहों का व्यंग्य की आवश्यकता के हिसाब से सुशील जी उपयोग करने से नहीं चूकते।
संस्थाओं के सेमिनार और कैसे वे राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय हो जाते हैं सुशील जी ने बहुत तबियत से लिखा है। माँ - बाप की मृत्यु पर भी कुछ लोग अपनी व्यस्तताओं और भविष्य के फायदे के कारण घर नहीं आ पाते उनके लिए व्यंग्य ' अपार दुख के पार ' में सुशील जी ने लिखा है - ' इतना मत रोओ। इतना चाहती हो तुम अम्मा को अगर यह बात अम्मा जान जातीं तो दो - चार साल और जी जातीं। '
इस संग्रह के व्यंग्य ' एक अचंभा देखा रे भाई ' में सुशील जी की मुलाकात ,कबीर से हो जाती है और तब कबीर देखते हैं कि वो जो लिख गए हैं ,धरती पर उससे उल्टा और अजीब ही हो रहा है।
व्यंग्य ' गोद लिए जाने का सुख ' में गोद लेने के महत्व को दार्शनिक अंदाज में व्यक्त किया गया है । बानगी देखिए- ' समाज रचना और स्त्री के साथ एक जैसा आचरण करता है। दोनों को अपने अच्छे होने का प्रमाण रसिकों से लेना होता है। '
' इतिहास गवाह है कि किन्नरों के लिए नवाबों में , नर्तकियों के लिए राजाओं में और शिष्यों के लिए गुरुओं में भांति - भांति के संघर्ष हुए हैं।'
' बूड़ा बंस कबीर का ' व्यंग्य में वर्तमान राजनीति को नँगा किया गया है - ' सपने वे होते हैं जिनको पूरा करने के लिए आप पूरे मुल्क को चैन से सोने नहीं देते । बस एक बार सपना आ जाए कि सबको पछाड़कर आगे निकलना है।'
' सबसे पहले लँगड़ी मारकर कुछ लोगों को लँगड़ा बनाना । फिर उनको मंडल या कमंडल थमा देना। खुद अपार शब्दों के भंडार की चाबी थाम लेना क्योंकि बातें हैं बातों का क्या। हमारे लोग बातपसन्द हैं और बातें अच्छी करने वाले लोग जेब काट ले जातें हैं।'
' तो खेल शुरू । जाति ,धरम ,मजहब ,इलाका जबको बेचना शुरू। सबसे बिकाऊ माल है धरम... इंसानियत।'
व्यंग्य ' सोच व्यापक रहिए ' में सदाबहार बेरोजगारी पर सुशील जी का प्रहार देखिए- ' दिनकर की पुस्तक है - संस्कृति के चार अध्याय । तुम उससे बड़ा ग्रंथ लिखो - बेरोजगारी के पांच अध्याय ' । प्रेमचंद की कहानी है - बड़े घर की बेटी । तुम लिखो - छोटे घर का बेरोजगार बड़ा बेटा।'
' एक दूसरे पर थूकना ही आत्मीयता और पड़ोसी होने का लक्षण है'
' साहित्य में भी ज्यादातर कौन चर्चित है ,वही जो वैचारिक गुंडे हैं , शब्दों के आइटम सांग हैं और काट डालने योग्य हैं। '
आखेट में ' दुर्दशा पर चिंतन ' सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यों में से एक है। इस व्यंग्य में राजनेताओं के चरित्र चित्रण के साथ देश की दुर्दशा राजनेता कैसे करते हैं , कार्यकर्ताओं और राजनेताओं के संवादों द्वारा बताया गया है। एक संवाद देखिए - 'शुगर और ब्लडप्रेशर की तरह अब मानवता ,दया , ममता ,प्यार ,करुणा आदि को नापना आदान हो जाएगा। नापो। वाणी में नम्रता रहे तो हत्या भी अनुष्ठान बन जाती है।'
' प्राणियों में सद्भाव हो ... इसके लिए जरूरी है कि प्राणियों के प्राण हर समय संकट में रहें। जिस समाज मे भय जितना अधिक होता है ,उस समाज में धर्म ,सियासत और बाजार उतना ही अधिक मजबूत होते हैं '
' किसी भी मजहब की पूजा इबादत में आंखे मूंदने का बड़ा महत्व है। मजहब कहता ही है कि आंखे गिरवी रखकर ही सत्य को पाया जा सकता है '
' नेता की बरकत मूढ़ जनता से , वकील की झगड़ों से , डॉक्टर की बीमारों से , अखबारों की दे-दना - दन टाइप खबरों से आती है। '
कार्यालयीन भृष्ट व्यवस्था पर उनका एक व्यंग्य इस तरह कटाक्ष करता है - ' पैसे का लेन - देन हो जाए तो व्यवस्था से बड़ा कोई दोस्त कोई दूसरा नहीं। पैसा ही लोकतंत्र है। वरना सब षड्यंत्र है '
साहित्यकारों की गुटबाजियों , पुरस्कार, सम्मान के खेलों पर संग्रह में कई व्यंग्य हैं।
' वे जानते थे कि सत्ता पुरस्कार देकर दरबार में कुत्ता पाल लेती है। ये कुत्ते दरबार को चाटते हैं और बाकियों पर भोंकते हैं। उन्होंने कुछ बब्बरशेरों को जबरकुत्तों में बदलते देखा है '
सुशील जी ने अपने पहले के व्यंग्य संग्रह और आखेट में भी नवीन मुहावरों का सृजन किया है । जैसे -
सहानुभूति की क्रीड़ा, तारीफ के सिक्के, करुणा के कुकुर, परंपरा के चमगादड़, मतलब की खेती, व्याख्या की मोमबत्तियां, बहस की अंत्याक्षरी, इंसानियत का बोझ, तर्कों की तलवार ,संवेदनाओं के टूरिस्ट आदि।
सुशील जी अपने व्यंग्यों में शेरो शायरी की पैरोडी का भी खूब प्रयोग करते हैं -
' ए मालिक तेरे बंदे हम
ऐसे हों हमारे करम
मूंग हरदम दलें
साथ अपने चलें
चाकू ,कट्टा ,तमंचा औ बम ।'
सुशील जी के व्यंग्य में पंक्तियां ,सूक्तियां बन गईं लगती हैं-
' भीड़ ,भ्रष्टाचार और भय का सात जन्मों का साथ है।'
' सत्ता बदलती है तो सत्य भी बदल जाता है।'
व्यंग्य संग्रह आखेट की भूमिका प्रख्यात व्यंग्यकार पद्मश्री ज्ञान चतुर्वेदी जी ने लिखी है। सुशील जी ,ज्ञान जी को अपना व्यंग्य गुरु मानते थे और पचमढ़ी की व्यंग्य कार्यशाला के बाद दोनों में फोन पर लंबे संवाद और बातचीत होती रहती थी। ज्ञान जी की इस भूमिका को पढ़ने के बाद आखेट में क्या कुछ है और सुशील जी का समकालीन व्यंग्य परंपरा में क्या स्थान है ,जाना जा सकता है। ज्ञान जी की भूमिका के बाद ,इस संग्रह पर किसी के लिए भी कुछ नया कहना बचता नहीं है इसलिए मैंने , ' आखेट' की भूमिका का उल्लेख अंत में किया है। ज्ञान जी ने 'आखेट ' की भूमिका में सुशील जी और उनके व्यंग्य के बारे में कहा है कि समकालीन व्यंग्य के भेड़ियाधसान में आखेट एक ताजा हवा का झोंका जैसा लगेगा और आखेट व्यंग्य की ताजा बयार है।ज्ञान जी लिखते हैं समकालीन व्यंग्य परिदृश्य में बल्कि भारतीय भाषाओं की समृद्ध व्यंग्य परंपरा में सुशील जी का व्यंग्य अद्वितीय और कई मायनों में इतना अनोखा है कि उसका आदरपूवर्क उल्लेख किये बिना भारतीय व्यंग्य की ईमानदार बात करना कभी भी सम्भव नहीं होगा।
अंत में यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में युवा व्यंग्यकारों को यदि व्यंग्य के सौंदर्य शास्त्र को पढ़ना , समझना है तो 'आखेट ' को, सुशील जी के अन्य व्यंग्य संग्रहों को जरूर पढ़ें। सुशील जी के संग्रह 'आखेट' के व्यंग्य कबीरी विचारधारा और परंपरा के बेहतरीन व्यंग्य हैं और देश ,समाज की बिखरी पड़ी विसंगतियों का बखूबी आखेट करने में सक्षम हैं।
- डा हरीशकुमार सिंह
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