जो व्यक्ति विगत साठ सालों से लिख रहा हो, उसकी पहली कविता की किताब 83 वर्ष की उम्र में आए तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह अविश्वसनीय ही लगता है। अभी हाल ही में फेसबुक पर एक व्यक्ति की पोस्ट देखी थी, जो अपने 60 वें जन्म दिवस के अवसर पर अपनी प्रकाशित 61 वीं किताब की बात बता रहे थे। आजकल जिनकी चार कविताएं भी कहीं नहीं छपी हो, वे भी जल्दी से जल्दी एक संग्रह ले आना चाहते हैं। ऐसे में एक वरिष्ठ कवि के धैर्य एवं प्रकाशन के प्रति ऐसी उदासीनता की दूसरी मिसाल नहीं मिलती।
अशोक प्रियदर्शी एक सुपरिचित वरिष्ठ कहानीकार, आलोचक एवं कवि रहे हैं। इनकी कविताओं की पहली किताब “हाशिये पर” हाल ही में प्रकाशित होकर आई है। किताब का नाम हाशिये पर होने की भी अपनी कहानी है। कभी धर्मयुग पत्रिका में उनकी व्यंग्य कविताओं का कॉलम प्रकाशित हुआ करता था , जिसका नाम था हाशिये पर। उसी कॉलम के नाम पर इस संग्रह का नाम रखा गया है। स्वभावतः इस संग्रह में वैसी कई कविताएं हैं, जो धर्मयुग के उस कॉलम में प्रकाशित हुई थी। संग्रह में कुल इक्यावन कविताएं संकलित हैं। ये कविताएं व्यंग्य कविताएं है।
व्यंग्य कविताओं की खूबी होती है कि ये बिना प्रत्यक्ष आघात किये, चुटीले अंदाज में सामाजिक एवं राजनैतिक विद्रूपताओं पर करारा चोट करती है एवं पाठकों के अंतस्तल को झकझोरती है। लेकिन आज व्यंग्य के नाम पर मंचीय कवि कविताओं के बदले सीधे सीधे चुटकुले पढ़ रहे हैं, फूहड़ता परोस रहे हैं, जो बहुत निराशाजनक परिदृश्य उपस्थित करता है। गद्य में तो व्यंग्य अभी भी पढ़ने को मिल जाता है लेकिन व्यंग्य-कविता अभी दुर्लभ हो गयी है। ऐसे में अशोक प्रियदर्शी जी की ये कविताएं निश्चय ही प्रशंसनीय एवं पठनीय है।
अशोक प्रियदर्शी जी के इस इस संकलन में शामिल हरेक कविता अपने चुलबुले अंदाज ए बयान के माध्यम से, अपनी वक्रोक्तियों से घाव करे गंभीर वाली बात को चरितार्थ करती है। समाज में व्याप्त सामयिक विसंगतियों एवं विडंबनाओं की ओर संकलन की कविताएं जिस अंदाज में इशारा करती है, उससे एक तरफ तो हंसी भी आती है और दूसरी तरफ दिल में एक कचोट भी उठती है। व्यंग्य कविताओं की यही तो विशेषता भी होती है। इनकी व्यंग्य कविताओं का चुटीला अंदाज सहज ही पाठकों तक कविता की अंतर्वस्तु को प्रेषित कर देता है एवं मर्म को छूता है। संग्रह की कविताओं में जहाँ एक ओर राजनैतिक व्यंग्य हैं, वहीँ दूसरी ओर समाज के दुराग्रहों एवं विचित्र मान्यताओं की भी खबर ली गयी है।
अशोक प्रियदर्शी जी की काव्य-चेतना प्रगति और परंपरा के बीच एक सधा हुआ संतुलन बना कर चलती है। हजारों सालों की अनुभव जनित एवं सिद्ध परंपराओं को प्रगतिशीतलता के नाम पर हठात त्याज्य बना देना उनकी चिंतन पद्धति का उद्देश्य नहीं है लेकिन रूढ़ एवं प्रतिगामी विचारों एवं लोकाचारों पर करारी चोट करते भी वे दिखते हैं। वे जितनी सहजता से राजनीतिक चुटकी लेते हैं, उतनी ही सहजता से एवं चुटीले अंदाज में प्यार मुहब्बत की बातें भी कर लेते हैं।
अपनी एक छोटी सी कविता “सम्मेलन” में कवि कहते हैं :
“जो सर्वदलीय राजनीतिक सम्मेलन होना था, हुआ?
क्या हुआ?
हुआ .... होना क्या था !!
हुआ-हुआ”
....
आज भी अगर हम देखें तो राजनीति में “हुआ-हुआ” ही हो रहा है। अब तो उससे भी आगे बढ़ कर संसद में भी हुआ-हुआ होने लगा है। जिस उद्देश्य से संसद या विधानसभाओं में जनता के प्रतिनिधि चुन कर जाते हैं, जनता के हित में उस उद्देश्य की पूर्ति हेतु शायद ही कोई काम करते हुए दिखते हैं । अपनी कविताओं में कवि जनहित से हो रहे इस राजनीतिक खिलवाड़ पर गंभीर प्रश्न उठाते हैं।
एक दूसरी कविता “सहयोग -भावना “ देखिए :
शिक्षक ‘अशेष’ कविताई भी करते थे,
जहाँ-तहाँ छपते थे।
लिखा प्रकाशक को –
कि , संग्रह एक प्रस्तुत है,
बहुजन प्रशंसित है,
चाहें तो छाप दें
पत्र शीघ्र आप दें ।
लिखा प्रकाशक ने –
कि पत्र मिला, हर्ष हुआ।
अभी कुछ ज्यादा ही
पड़ी है पांडुलिपियाँ।
सेवा कर सकेंगे नहीं,
इसका है विषाद ।
सहयोग-भावना के लिए धन्यवाद ।
सहयोग भावना के लिए ऐसे धन्यवाद वाले पत्र से भला कौन रचनाकार परिचित नहीं होगा? आज जबकि रोज नए प्रकाशक बाजार में आ रहे हैं और थोक भाव से नई पुस्तकों की घोषणा हो रही है, वहीं विडम्बना यह कि प्रकाशकों का एक ही रोना है कि हिन्दी की किताबें बिक नहीं रही है। भाई किताबें बिक नहीं रही तो छाप क्यों रहे हो?
भारत में समाजवाद एक ऐसा ख्याली पुलाव है, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही लगातार पकाया जा रहा है। लेकिन आज तक इस पुलाव का चावल कच्चा का कच्चा ही रहा है। लेकिन समाजवाद के झुनझुने को बजाकर कई स्वघोषित समाजवादी मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री बन गए । समाजवाद शीर्षक की एक छोटी से कविता में कवि इस स्थिति का अत्यंत ही मज़ाहिया अंदाज में बहुत ही सही आकलन प्रस्तुत करते हुए कहते हैं :
“एक आदमी ने
सड़क पर पाया एक कोडा
तो खुश होकर बोला-
बस, अब घुड़सवार होने में घटता है थोड़ा,
जीन, लगाम, घोडा !
-हमने छू ही लिया है समाजवाद,
बस, कुछ ही है रोड़ा!”
इसी मिजाज की एक और कविता देखें :
शास्त्रों में सत्य ही कहा है –
“संघे शक्ति कलियुगे!’
इस घोर कलिकाल में
अपने संघ-शक्ति वाले राष्ट्र में
शक्ति की घनघोर भक्ति है।
शक्ति याने सत्ता !
मंत्रिपद ! मौज और भत्ता!
अपने व्यंग्य कविताओं के माध्यम से कवि
कहते सबसे अच्छा व्यंग्य वही होता है, जो स्वयं पर ही किया आता है। ऐसे में जबकि कवि अपने व्यंग्य वाण हर दिशा में चला रहा हो, अपने ही साहित्य समाज को भला कैसे बख्श सकता है। अपनी एक कविता “पारिवारिक उपन्यास” में कवि लिखते हैं :
एक कथाकृति हाथ लगी ।
भूमिका में लिखा था-
लेखक आभारी है पत्नी का
जिन्होंने रचने की प्रेरणा दी।
लेखक के अमुक-अमुक बेटे-बेटियों ने
तल्लीनता से प्रूफ देखें
कृति समर्पित थी पूज्य पिता-माता को,
रचना रुचेगी सभी भाइयों को, बहनों को,
प्रकट किया था लेखक ने विश्वास।
कवर पर लिखा था-
पारिवारिक उपन्यास!
किसी भी रचनाकार की रचनाओ में उसके जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति होती है। रचनाकार का अनुभव संसार जितना वृहत होता है , उसकी रचनाओ में उतना अधिक वैविध्य और परिपक्वता परिलक्षित होती है। जीवन में जितने ज्यादा संघर्ष रचनाकार ने किये होते हैं, उतनी व्यापक करुणा और संवेदना उसकी कविता में परिलक्षित होती है। अशोक प्रियदर्शी जी केा अपार जीवनानुभावों से उपजी व्यंग्य की विदग्धता उनकी तात्कालिक कविताओं को भी स्थायी भाव देती है, जिसके कारण वे बासी नहीं होती और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं । अत्यंत सरल, सहज एवं सौम्यता की प्रतिमूर्ति अशोक प्रियदर्शी जी कि यह किताब न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय भी बन पड़ी है।
किताब नोशन प्रेस से प्रकाशित है एवं इसका मूल्य 149/- रुपये है। किताब अमेजन पर उपलब्ध है।
#नीरज नीर
बहुत अच्छा परिचय मिला पुस्तक " हाशिये पर " का ।आभार ।
ReplyDelete