विज्ञान के अनुसंधानों को जटिल और श्रमसाध्य माना जाता है। विज्ञान के हमारे वर्तमान उपलब्धियों के पीछे कितने वैज्ञानिकों के लगन, समर्पण,कुर्बानी और जुनून का योगदान रहा है,यह हम अक्सर पढ़ते रहे हैं। मगर मानव सभ्यता के अतीत की पड़ताल भी विज्ञान के शोध की तरह ही रहा है, यह कम लोग जानते हैं।प्राचीन सभ्यताओं को प्रकाश में लाने,उनके उत्खनन, लिपियों को पढ़ने के लिए कितनी मेहनत की गई है,कितनी समस्याओं से जूझना पड़ा है और इसे अंजाम देने के लिए कितने जुनूनी लोग हुए हैं यह जानना रोचक और प्रेरणास्पद है।
भगवतशरण जी ने इस पुस्तक में इतिहास के कुछ चुनिंदा महत्वपूर्ण प्रसंगों का जिक्र किया है।ये प्रसंग पुरातत्ववेत्ताओं अथवा इतिहास की पड़ताल में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के जुनून, उनके समर्पण को दिखाता है कि कैसे अपने काम के प्रति समर्पण, कुछ कर गुजरने की चाह, रहस्य को सुलझा लेने की अदम्य कामना वाले व्यक्तियों के कारण हम आज अतीत को बेहतर जानते हैं। वे जुनूनी चाहते तो सुविधाभोगी जीवन जीते हुए एक औसत व्यक्ति की तरह इस दुनिया से विदा ले सकते थे,मगर उन्होंने वह राह चुनी जिसके कारण आज हम सब मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने का दम भरते हैं।
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कल्पना कीजिये जब जेम्स प्रिंसेप(1837) ने अनथक श्रम के बाद ब्राम्ही लिपि को पढ़ने में सफलता प्राप्त की उस क्षण उसने कैसा महसूस किया होगा! इस 'सुख' को महसूस करने वालों की संख्या अवश्य कम हो सकती है,कइयों के लिए यह फ़िजूल का काम भी हो सकता है मगर ऐसे लोग पहले भी थे और आज भी हैं। कहना न होगा लेखक स्वयं इस 'रोमांस' को महसूस करते हैं। लिखा है-
"उस ब्राह्मी लिपि के पठन की कहानी वस्तुतः पुरातत्त्व का रोमांस है। प्रिन्सेप.ने बारह-बारह वर्ष उसकी गाँठें खोलने के प्रयत्न किये पर वह निष्फल रहा। और एक रात जब वह सुबह के गहराते अँधेरे में ब्राह्मी अक्षरों को मन की आँखों से अपलक निहार रहा था, एकाएक उसे कुछ सूझा – ताम्रपत्रों में लिखावट का अन्त अधिकतर सदा एक ही प्रकार के अनुस्वारान्त दो अक्षरों से क्यों होता है, ताम्रपत्र वस्तुतः दानोल्लेख है, अधिकतर ब्राह्मणों को दिये दान की सनद है, कहीं अन्त के अनुस्वारान्त दोनों अक्षर संस्कृत के 'दान' शब्द को तो व्यक्त नहीं करते? और बिस्तर से कूदकर प्रिन्सेप अँधेरे में खड़ा हो गया। उसने चिराग़ जलाया और ज्ञान का चिराग़ उसी माध्यम से अचानक जल उठा — उसने ताम्रपत्रों और उनकी नक़लों पर नज़र डाली, शब्द दान ही था। दो अक्षर पढ़ लिए गये 'दा' और 'न' और जहाँ-जहाँ उनका संयोग हुआ वहाँ-वहाँ उनके ज्ञान का प्रकाश पड़ा और धीरे-धीरे एक के बाद एक ब्राह्मी लिपि के सारे अक्षर सार्थक हो उठे।" (पृ.14)
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मिश्र की प्राचीन सभ्यता अपने विशालकाय पिरामिडों और हजारों साल से सुरक्षित शवों 'ममी' के लिए चर्चित रही है।एक तो इन उन शवगृहों तक पहुंचना, उनकी सही जगह तलाशना ही दुष्कर रहा है, उस पर प्रायः उन प्राचीन शवगृहों को पूर्व में ही उनमें उपलब्ध 'खजानों' के कारण लुटेरों द्वारा लुटा जा चुका होता है। ऐसे में कोई सुरक्षित शवगृह ढूंढा जाना अपने आप मे इतिहास की बड़ी उपलब्धि थी। इस काम को अमेरिकी पुराविद हॉवर्ड कार्टर (1922) ने कर दिखाया।
मिश्र के अधिकांश शासकों की कब्रें ढूंढी जा चुकी थी,केवल 'तूतनखामन' की बाकी रह गयी थी जिसकी अहर्निश खोज जारी थी।कार्टर भी लार्ड कार्नार्वन के साथ इस पर काम कर रहे थे।और अंततः कार्टर ने कुछ लुटेरों के क्लू से वह कब्र ढूंढ लिया।विडम्बना कि जो इतिहासकारों के लिए कठिन था वह कई बार लुटेरों के लिए अपेक्षाकृत आसान था। भगवत शरण जी लिखते हैं कि प्राचीन समय से ही कब्रें धन के लालच में लूटी जाती रही हैं। अक्सर इसमे उनमें काम करने वाले मजदूरों तथा पुरोहितों की भूमिका हुआ करती थी। कार्टर ने देखा कि लुटेरे तूतनखामन की कब्र में भी प्रवेश कर चुके थे और चीजें बिखरीं थी। फिर भी इतने सामानों का सुरक्षित रहना आश्चर्य की बात है। सम्भवतः लुटेरे जल्दबाजी में थे या उनकी उपस्थिति का पता लग गया होगा और वे भाग खड़े हुए हों और चैंबर को बाद मे फिर सील किया गया होगा।
भागवत शरण जी किस तरह इतिहास के विस्मयकारी विवरणों के बीच मानवीय सम्वेदना ढूंढ लेते हैं उसकी बानगी देखिए-
"और तभी लोगों ने कुछ और देखा, ऐश्वर्य और राजसी वैभव से भरे स्वर्ण को राशि से दमकते उस कक्ष को सहज मानवीयता से मुखर करता एक अत्यन्त मर्महर दृश्य–विदा के अन्तिम क्षणों में प्रिय के सवर्णभाल पर प्रिया द्वारा छोड़ा फूलों का हार। फूल कुम्हलाकर सूख गये थे, पर रंग उनके अब भी पहचाने जा सकते थे। सवा तीन हज़ार साल जैसे अपनी काल-परिधि को लाँघ पास आ गये। अतीत चाहे जितनी भी दूर का हो, वर्तमान से कितना निकट है! कारण कि दोनों एक ही काल-प्रसार के छोर हैं, कारण कि अजस्र बहती मानवीयता दोनों को अपने स्नायुओं से जोड़े हुए है। अपने अट्ठारह वर्षीय प्रिय तूतनखामन को उसकी प्रिया ने किस साध से प्यार किया था, किस करुण कठोरता से वह उससे अन्तकाल में विलग हुई थी, यह इन सहस्राब्दियों पार के रंगों को, रस की वर्णिम दीप्ति को, आज भी जीवित रखनेवाली मालिका के फूलों से प्रकट है।"(पृ. 34)
तूतनखामन के खजाने का ध्यान सबको रहा,फूल को नजरअंदाज किया गया!
तूतनखामन के मकबरे की खोज के बाद उससे जुड़े व्यक्तियों के निधन से उस समय एक अफवाह फैली कि यह फ़राओं के शांति भंग करने का अभिशाप है। यद्यपि मरने वालों के निधन के अपने कारण बताए गए फिर भी इस अफवाह की गूंज आज भी 'कहानी को रोचक' बनाये रखने के लिए दोहराई जाती है।
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इटली के दो नगर 'हरकुलियस' और 'पॉम्पेई' ईसवी के प्रथम शताब्दी(79 ई.) में विसूवियस ज्वालामुखी के फटने से लावा और राख में दबने से कुछ घण्टो में नष्ट हो गए थे।लोगो को सम्भलने तक का समय नहीं मिला और जो जहां जिस हाल में था लगभग उसी अवस्था मे वहीं दफ़न हो गया। जिन्हें थोड़ा वक्त मिला वे भी कुछ नहीं कर सके और आस-पास ही दब गए। संयोग से रासायनिक क्रियाओं से ये लगभग पत्थर से फ़ासिल बन गए और जब इन स्थलों को खोजा गया तब जैसे पूरा शहर जीवंत हो उठा।रोम के प्रसिद्ध इतिहासकार प्लिनी भी इस अग्निकांड में मारे गए थे।
बिडम्बना कि इन नगरों को खोद निकालने वाले पुराविद 'विन्केलमान' की हत्या एक अपराधी ने धन के लालच में 1768 में कर दी थी।
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ईजियन सागर के पार लघु एशिया के सागर तट पर स्थित प्राचीन नगर 'त्राय'(ट्रॉय)के खोज की कहानी जितना रोचक है उतना ही व्यक्ति के लगन और प्रतिबद्धता का प्रतीक भी । ग्रीक पौराणिक कथाओं में एक ऐसी घटना का उल्लेख हुआ है जिसमे देवराज ज़ीयूस वृषभ का रूप धारण कर लघु एशिया से राजकुमारी यूरोपा को हर ले गया था।इस प्रकार की घटनाओं में अंतिम अन्धकवि होमर के काव्य-प्रबंध 'इलियद' में मुखरित हुई है। वह स्पार्टा की राजकुमारी हेलेन के लघु एशिया के त्राय के राजकुमार पोरिस द्वारा हरण और परिणामतः ग्रीकों द्वारा त्राय के विध्वंश की कहानी है।
1829 के लगभग इस कहानी को जर्मनी के मैकेलेंबर्ग गांव का एक सात वर्षीय बालक 'श्लीमान' अपने पिता से सुनकर इतना रोमांचित हुआ कि इस कहानी के शहर को ढूंढ निकालने का संकल्प कर लिया। "और श्लीमान ने बड़े होकर त्राय को ही नहीं, होमर के महाकाव्य इलियद के स्मरकेन्द्र को ही नहीं, क्रीती सभ्यता को खोद निकाला।"(पृ.47)लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए उसने अपना जीवन दांव पर लगा दिया। इसके लिए उसने पहले मोदी के दुकान पर काम किया।एक-एक पैसा जोड़ता मगर पर्याप्त न होने पर एम्सटर्डम के एक फर्म में नौकरी की।कई भाषाएं सीखकर सेंट पीटर्सबर्ग पहुंचकर आयात-निर्यात का व्यवसाय शुरू किया।इसमे उसने काफी धन कमाया।फिर उसके बाद-
"फिर तो श्लीमान ने उस त्याग का परिचय दिया जिसका उदाहरण मानव जाति के इतिहास में नहीं। उसने अपना सारा व्यवसाय एक दिन सहसा समाप्त कर दिया और अर्जित धनराशि लेकर वह तुर्की की ओर चल पड़ा। संसार के किसी व्यापारी के पास सफल व्यापार की दुकानों की वह श्रृंखला होती तो वह स्वर्ग-अपवर्ग के सुख छोड़ उसकी साधना करता और अनन्त धन, केवल धन के स्वामित्व के लिये, अर्जित कर चलता। पर श्लीमान को वह अभीष्ट न था। उसको अभीष्ट तो त्रॉय को खोद निकालना था जो उसके जीवन के बालपन की प्रतिज्ञा थी,धन मात्र उसे पूरा करने का जरिया था।"(पृ.49)
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जलप्रलय की कहानी अधिकांश प्राचीन सभ्यताओं सुमेरी,बाबुली, असूरी, खत्ती, ग्रीक, लातीनी, भारतीत,चीनी आदि में मिलती है। भगवतशरण जी के अनुसार मूल कहानी दज़ला-फ़रात नदियों के फ़ारसी खाड़ी से लगे मुहाने पर बसे सुमेर के नगरों के आदिम इतिहास से सम्बद्ध है। अन्य सभ्यताओं ने मूल प्रेरणा यहीं से ली है।भारतीय पुराणों में जलप्रलय की घटना की कहानी 'मनु' से सम्बद्ध है जिसका सबसे प्राचीन उल्लेख 'शतपथ' ब्राम्हण में हुआ है। इधर कुछ भारतीय विद्वानों मसलन डॉ रामविलास शर्मा (पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद )में जलप्रलय की मूलकथा के भारतीय संभावना की बात की है। मगर भगवतशरण जी के अनुसार-
"जल-प्रलय की वह कहानी सबसे अधिक विस्तार से बाइबिल की पुरानी पोथी के छठे, सातवें और आठवें अध्यायों में और सुमेरी बाबुली-असूरी अभिलेखों
में लिखी है। जैसे भारतीय कहानी में जल-प्रलय से मनु जीवों की रक्षा कर नयी सृष्टि उत्पन्न करते हैं वैसे ही यहूदियों की कहानी में हज़रत नूह ने जल-प्रलय से रक्षा कर नयी सृष्टि का आरम्भ किया था। पर मनु और नूह की कहानी से पहले की जल-प्रलय- सम्बन्धी कहानी असूरी-बाबुली और सुमेरी ईंटों पर उनसे सदियों पहले-
और सुमेरी में तो सहस्राब्दियों पहले – लिख ली गयी थी असुरी-बाबुली कहानी में जल-प्रलय का नायक मनु और नूह की तरह ज़िउसुद्धू है और उससे भी पहले सुमेरी कहानी का नायक उत्-निपिश्तिम है। यह जल- प्रलय के असूरी-बाबुली-सुमेरी महाकाव्य 'गिलगमेश' में प्रबन्ध रूप से प्रस्तुत है जो संसार का सबसे पहला वीरकाव्य है। निनेवे में मिली बारह ईंटों पर 'गिलगमेश' का अधूरा काव्य लिखा पड़ा था जो अब पढ़ लिया गया है और दूसरी भाषाओं में उसी प्राचीन लिपि में लिखे अन्य पाठों से पूरा कर लिया गया है। इसके एक पाठ की ईंटें ब्रिटिश म्यूज़ियम, लन्दन में, दूसरी पाठ की ईंटें सोवियत रूस के लेनिनग्राद नगर के 'एरमिताज़ते संग्रहालय' में रखी हुई है।"(पृ.67)
जल-प्रलय की कहानी ईसा से करीब 3500 वर्ष पूर्व घटी मानी जाती है। कहानी 'क्यूनीफॉर्म' लिपी में गीली ईंटो पर लिखी गई थी। इन ईंटो को पुराविद लेयार्ड ने 'निनेवे' की खुदाई में प्राप्त किया था। मगर ब्रिटिश म्यूजियम के प्रभारी जार्ज स्मिथ ने उसे पढ़ा तो कहानी अधूरी थी।फिर उसे पूरा ढूंढने का अभियान शुरू हुआ।लंदन के प्रसिद्ध अखबार 'डेली टेलीग्राफ' के आर्थिक सहयोग से स्वयं जार्ज स्मिथ ने निवेवे की पुनः खुदाई करायी। भाग्य ने उसका साथ दिया। स्मिथ ने तीन सौ से ऊपर पट्टिकाएं लेकर लंदन लौटा जिसमे जल-प्रलय की कहानी पूरी करने वाली ईंटो पर लिखे अभिलेख भी थे। कहानी पूरी हो गयी।
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मानव सभ्यता के विकास में पुनर्जन्म और किसी और लोक की यात्रा की अवधारणा सामान्य रही है। कई सभ्यताओं में इस 'यात्रा' को सुखद बनाने के लिए राजा-रानियों के साथ उसके सेवकों, पत्नियों, पशुओं से लेकर उसके प्रिय और उपयोग के वस्तुओं को दफनाया जाता रहा है। ऐसे कब्रों में 'रानी शुबाद की कब्र' चर्चित है। सुमेरी सभ्यता के इस रानी की कब्र की खुदाई लियेलार्ड वूली ने 1927-28 में की थी।कब्र में रानी शुबाद के साथ नौ नारियों और एक पुरूष के अस्थिपंजर थे।पुरूष तन्त्री वादक था। स्त्रियां दासी थीं। पास ही जहर के प्याले थे जिससे इन्होंने जहर पीया था। रानी के श्रृंगार के लिए कीमती पिटारियाँ थी जिनके भीते अंजन से इत्र-फुलेल तक सभी सामान मौजूद थे। शुबाद के अस्थिपंजर में सिर पर ताज,कानो में भारी कुंडल,विविध हार जो सोने और कीमती पत्थरों के बने थे। चांदी-सोने की गंगा-जमुनी बकरियाँ, चांदी के जहाज, अनेकानेक अलंकरण जैसे तैसे पड़े थे।
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इसी तरह मिश्र की सभ्यता में पुनर्जन्म और मृत्यु के बाद जीवन की कल्पना ने विशाल पिरामिडों और संरक्षित शवों 'ममी' को जन्म दिया।इस पुस्तक के हवाले से देखें तो 'खुफु' के पिरामिड मे प्रवेश करने वाला पहला बाहरी व्यक्ति अंग्रेज पुराविद विलियम मैथ्यू फ्लाइन्डर्स पेट्री था जिसने 1880 में वहां प्रवेश किया था।
"पेट्री ने उन महान सम्राटों द्वारा निर्मित पिरामिडों के अचरज भीतर-बाहर से कोने-कोने देख लिये। वस्तुतः देखना उसे बाहर से कहीं ज़्यादा भीतर से था और बड़ी उम्मीदों के साथ उसने उन लाशों को खोजा जिनकी सँभाल के लिये मिस्र के फ़राऊनों ने उन आश्चर्यों का निर्माण किया था। पर खूफ़ के महान पिरामिड के शव-कक्ष में जो पत्थर का ताबूत रखा था वह खाली मिला। जिसकी रक्षा के लिए वह इमारत खड़ी की गयी थी, वह स्वयं वहाँ न था, लाश लापता थी। खुफ्रन के गगनचुम्बी पिरामिड में रखे जिस बाहरी पत्थर के ताबूत में पिरामिड-निर्माता का शव रखा गया था, उसमें अब वह शव तो न था, वहाँ वह पत्थर के टुकड़ों से ज़रूर भरा था। मनकौरा के पिरामिड में उसके शव-कक्ष में
फ़राऊन मनकौरा की 'ममी' टुकड़ों में बिखरी पड़ी थी। पेट्री ने जो खोजा वह तो नहीं पाया— राजाओं के शरीर के अवशेष वहाँ उसे नहीं मिले — पर मिस्त्री तत्त्व
का रहस्य उसने भेद डाला। हज़ारों साल पहले मरे मानव को, उसके विगत वातावरण को फिर से जिन्दा कर आज का जीवित मानव उससे सदियों की बात पूछ और जान रहा था, स्वयं मक़बरों के नीचे के पानी में हलता, कीचड़ में सना।"(पृ.80)
ये पिरामिड आज कितने भी भव्य लगें,इनके पीछे की एक हक़ीक़त यह भी है-
"देश की लाख-लाख जनता पिरामिडों के निर्माण के खर्च के लिये आवश्यक अनिवार्य 'कर' देती, बीस-बीस साल तक एक-एक फ़राऊन जीवन में तैयारी करने में, शव को समाधि देने के लिये पिरामिड बनवाने में खर्च करता,जीवन मृत की तैयारी में ही गुजर जाता। नूबिया और इथियोपिया के मजूर, फिलिस्तीन और सीरिया के मजूर, द्वीपों के मजूर लाख-लाख की संख्या में काम करते। खूफ़ के एक पिरामिड बनाने में ही एक लाख मजूरों का उपयोग हुआ था। जीवन के.पचीस से पैंतीस साल तक के सबसे ताक़तवर दस साल ये गुलाम-मजूर पिरामिडों के निर्माण में खरचते और जब एक खेवे के मजूर पैंतीस साल की उम्र में बूढ़े हो जाते, मर जाते, या बूढ़े या मरे हुए समझ लिये जाते, तब उनकी जगह दूसरों से भर ली जाती, और यही क्रम सदियों चला करता, क्योंकि पिरामिडों के निर्माण का क्रम कभी टूटता नहीं था।
निर्माण क्या था, मनुष्य की निरन्तर बलि थी। तबकी लिखी कहानी आज भी पढ़ी जा सकती है -फ़राऊन पूछता, काम ढीला क्यों चल रहा है? मन्त्री कहता,
मजूर गुलाम दोचित्ते हो गये हैं। फ़राऊन पूछता, क्यों? मन्त्री कहता, वे आप तो यहाँ हैं, उनके बाल-बच्चे दूर वतन में हैं— नूबिया में, इथियोपिया में, फ़िलिस्तीन
में, सीरिया में। फ़राऊन कहता, उनके बाल-बच्चों को बुला लो। बाल-बच्चे बुला लिये जाते, रेगिस्तान में घर की तरह दीखनेवाले बिलों में गुलामों के क़ुनबे ढूँस दिये जाते। फिर कार्य शिथिल होता और फ़राऊन पूछता, काम ढीला क्यों चल रहा है ? मन्त्री कहता, गुलाम दोचित्ते हो गये हैं। फ़राऊन पूछता, क्यों ? मन्त्री
कहता, इसलिए कि बच्चे, जो घर पर हैं, उनके लिये इन्हें मोह हो आता है, कि पत्थरों की ढुलाई में अगर जान गयी, जो अक्सर चली जाती है, तो इन बच्चों का क्या होगा? फ़राऊन कहता, बच्चों को नील में डुबा दो। और लाख-लाख.बच्चे नील-नदी की मँझधार में डुबा दिये जाते!"(पृ.81)
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सभ्यता के विकास क्रम में मानव समाज यौन नियमन के अलग-अलग मन्ज़िलों से गुजरा है। यौन साम्यवाद से एकल विवाह तक की मंज़िल के कई पड़ाव रहे हैं। यद्यपि यह भौगोलिक और समाज सापेक्षिक भी रहा है और एक ही समय मे अलग-अलग समाजो में यौन नैतिकता के मूल्य भी भिन्न-भिन्न रहे हैं।कई प्राचीन समाजो के यौन नियमन आज हमें आश्चर्य चकित लग सकते हैं। लेखक ने प्राचीन बाबुल के 'ज़िग्गुरत' का उदाहरण दिया है जहां प्रत्येक विवाहिता पत्नी को पत्नीत्व का कानूनी अधिकार तभी मिलता, जब वह फीस लेकर अजनबी से सहवास कर लेती। इस प्रयोजन के लिए काम की देवी मिलित्ता के मंदिर को चुना जाता था। ज़ाहिर है यह घटना काम तृप्ति के लिए नहीं अपितु सामाजिक आधार के लिए बरती जाती।
भागवत शरण जी भारतीय मंदिरों में काम मूर्तियों का चित्रण, देवदासी प्रथा, शलभंजिकाओं के चित्रण को इसी परंपरा से जोड़ते हैं-
"और कोनारक(कोणार्क) तो प्रतीक मात्र है, उसके प्रकार के मन्दिरों की संख्या अनेक हैं, पुरी से खजुराहो तक। यह कहना तो आज कठिन है कि कोनारक और तत्सम मन्दिरों का सम्बन्ध वेश्याओं अथवा उनकी वृत्ति से था या नहीं पर उनके बहिरंग रूपायन से स्पष्ट प्रकट है कि काम-विलास की अनन्त प्रक्रियाएँ उन मन्दिरों- द्वारा समादृत हुई थीं। कोनारक, भुवनेश्वर, पुरी, काशी, खजुराहों के मन्दिरों के बहिरंग हज़ारों यौन आसनों से अलंकृत हैं, जिनके मन्दिरों से सम्बन्ध की चर्चा में काफ़ी विस्मय प्रकट किया जाता है। यद्यपि जिस सन्दर्भ में हम इस प्रसंग को देख रहे हैं उसमें विस्मय का स्थान है नहीं। इन मन्दिरों के इन यौन-सन्दर्भों की परम्परा का प्रारम्भ तो स्थापत्य-वास्तु में, पूजन के सान्निध्य में, भारत में भी कब का हो गया था। साँची के महान स्तूप को घेरनेवाली दूसरी पहली सदी ई. पू. की रेलिंगों पर आदमकद नग्न शालभंजिकाएँ निर्मित हैं और मथुरा के जैन स्तूप की कला की तो गौरव ही फेरने वाली रेलिंगों की नयी नंगी यक्षिणियाँ हैं, जिनका कामविलास उससे भिन्न नहीं जिसकी ओर कालिदास ने अपने 'मेघदूत' में यक्षों को नायक बनाकर संकेत किया है। देवालयों के शृंगारिक रूपायनों और यौन उत्कीर्णनों का, अर्द्धचित्रों का, घना सम्बन्ध था, प्राचीन प्रतीकों के अतिरिक्त,एलोरा के कैलास मन्दिर से लेकर खजुराहो के मन्दिरों तक।"(पृ.86)
यद्यपि देवालयों में काम मूर्तियों के चित्रण सम्बन्धी और भी स्थापनाएं हैं जिनका चित्रण भगवतशरण जी ने नहीं किया है।
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मिश्री सभ्यता के 'रहस्य' को समझने में 'रोज़ेत-शिला' कुंजी साबित हुआ। इसकी प्राप्ति से ही मिश्र की चित्र-लिपी को पढ़ने सफलता प्राप्त की जा सकी। यह अभिलेख नेपोलियन के अभियान के दौरान 1798 में नील नदी के रोज़ेता नामक मुहाने पर प्राप्त हुआ था।इसमे तीन-तीन लिपियों में एक ही लेख खुदा है। सबसे ऊपर चौदह पंक्तियों में सिंह,बाज, सर्प, मनुष्य, हाथ-पैर आदि के चित्र बने थे।बीच में बत्तीस पंक्तियों में अनेक प्रकार के चिन्ह बने थे,जिनमे जहाँ-तहाँ चित्रों की आकृतियां भी दिखाई पड़ती थीं। नीचे तीसरी लिखावट ग्रीक अक्षरों की थी,ग्रीक भाषा मे लिखी,54 पंक्तियों में।
चूंकि रोमन लिपि ज्ञात थी इसलिए मिश्री लिपि को तुलनात्मक अध्ययन से पढ़ने की सम्भाबना बढ़ गयी।
लिपि को पढ़ने में एक समस्या और सुलझानी पड़ती है। लिपिबद्ध भाषा की। इस समस्या को सुलझाया इंग्लैंड के भौतिक विज्ञानी टामस यंग ने। उसने पता लगाया कि वह भाषा 'कुफ़्ती' थी। इस टामस ने सफलता की दिशा को आगे बढ़ाया मगर लिपि को पूरी तरह डिकोड करने में फ्रांस के फ्रांस्वा शाम्पोलियो ने सफलता प्राप्त की।
शाम्पोलियो बेहद प्रतिभाशाली था।19 साल के लगभग वह विश्वविद्यालय में इतिहास का प्रोफेसर हो गया था।
"शाम्पोलियो ने पाया-जिस सम्बन्ध में हर किसी ने भूल की थी- कि चित्राकृतियाँ मिश्री चित्र-लिपि में केवल वस्तु के रूप की ओर ही संकेत नहीं करतीं,वे कई बार ध्वनित चिन्ह का रूप भी ले लेती हैं, कितनी ही बार ध्वन्यात्मक वर्ण या अक्षर भी बन जाती हैं। और एक साथ उस चित्र-लिपि, चिह्न और विचार-चित्र-लिपि का भेद खोलकर रख दिया। आज जो मिस्त्री लिपियों का अध्ययनविद्यार्थी करते हैं उन्हें गुमान भी नहीं कि उनके 'प्राइमरों' के तैयार होने में शाम्पोलियों का कितना रक्त सूखा है, उसको निर्धनता से कितना युद्ध करना पड़ा
है, कितनी उनींदी रातें बितानी पड़ी हैं, कितनी मेधा का खर्च हुआ है।
कारतूसों के भीतर बन्द संज्ञा-नामों के अक्षरों को विचारचिन्हों, ध्वन्यात्मक वर्णों के रूप में अन्य चित्रों से वह सालों सम्बन्धित करता गया और एक दिन उनका समूचा भेद खुल गया। सहस्राब्दियों पहले प्रस्तुत, सहस्राब्दियों पहले विस्मृत, मिस्त्री लिपियों का पढ़ा जाना सुकर हो गया। रोजेता शिला की मिस्री लिपियाँ दो प्रकार की थीं: चित्र-लिपि और चिह्न लिपि । वस्तुतः अतिप्राचीन काल में ही मिस्र में चित्र-लिपि का आविष्कार हुआ था जिसका पहले और अधिकतर उपयोग धर्मसम्बन्धी, देवसंज्ञक विषयों के आलेखों के लिये हुआ। हज़ारों साल बाद उस पवित्र लिपि का उपयोग जनसाधारण ने करना चाहा जिसका पुरोहितों से सम्बन्धित 'हिरेटिक' नाम पड़ा, जो सर्वथा चित्र-लिपि से कुछ भिन्न थी। ईसा से अनेक सदियों पहले उस लिपि का एक तीसरा रूपान्तर हुआ, तेज़ लिखने के लिये, 'देमोतिक' कहलाया। वैसे तो प्राचीनतम 'हीरोग्लीफ़िक' अथवा चित्र-लिपि में चिह्नों, ध्वन्यात्मक अक्षरों का आरम्भ हो गया था पर उनका विशेष विकास देमोतिक में ही हुआ। शाम्पोलियों ने तीनों में से प्रत्येक मिस्री लिपि को पढ़कर उनके विविध प्रकारों का अन्तर खोज निकाला। और प्राचीन मिस्र की समूची सभ्यता, उसके देवताओं और उपासकों के समूचे धर्मादेश और विश्वास, उसके सम्राटों की विजय प्रशस्तियाँ, उसका सारा पिरामिडों, मन्दिरों, स्तम्भों की।दीवारों पर खुदा साहित्य सहस्राब्दियों बाद मनुष्य के अध्यवसाय से पढ़ा जाने लगा।"(पृ.94)
प्रसंगवश सिंधुघाटी सभ्यता के लिपि के अभी तक नहीं पढ़े जा सकने का एक कारण अभी तक किसी द्विभाषिक अभिलेख का न मिलना भी है जिसमे एक लिपि पढ़ी जा चुकी हो। यानि इस सभ्यता को अभी भी अलनी 'रोजेटा-शिला' की तलाश है।
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सिंधुघाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल मोहनजोदड़ो की खोज 1922 में राखलदास बनर्जी द्वारा एक कुषाण कालीन बौद्ध स्तूप के खुदाई से हुई।दरअसल स्तूप के नीचे गहरे में इस सभ्यता के अवशेष थे,और स्तूप का निर्माण भी उसी सभ्यता के ईंटो से कराया गया था। मोहनजोदड़ो स्थानीय भाषा का शब्द है जिसका अर्थ 'मृतकों का टीला' है। विडम्बना की आधुनिक काल मे भी इस स्थल ने मनुष्य की 'बलि' ले ली। दरअसल 1937 में प्रतिभाशाली इतिहासकार ननिगोपाल मजूमदार की उत्खनन के दौरान पैसे की लालच में बलुची कबीलाई डाकुओं ने हत्या कर दी थी। मोहनजोदड़ो अपने नगर नियोजन, सड़को, नालियों के प्रबंधन के लिए प्रसिद्ध है।
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पन्द्रहवी शताब्दी के अंत मे इतावली नाविक कोलम्बस ने चीन और भारत की सीधी राह खोजने, सोने का नगर 'एल्दोरादो' खोजने स्पेन से चल पड़ा था। भारत और चीन तो राह के अंत मे होने से उसे नहीं मिले और बीच मे ही अमेरिका महाद्वीप आ मिला और उन्होंने उसे ही भारत कहा और उसके निवासियों को इंडियन अथवा भारतीय। मगर वह उन 'मयों' का साम्राज्य था जिसे आज रेड इंडियन के नाम से पुकारते हैं। माया सभ्यता की खोज का श्रेय स्टीफेंस और टॉमसन को जाता है। फके ने माया सभ्यता के नगरों का पता लगाया, दूसरे ने 'चिचेनइट्ज़ा' के नरभोजी कुँए का।
"हाँ, मय लोगों के साम्राज्य भी थे, फैले साम्राज्य, जिनकी सीमाए कम से कम चार बड़े राज्यों— मैक्सिको, होन्दूरस, गुआतेमाला और युकातान—को घेरती थीं। साम्राज्य जो अनजाने युगों से चलकर 16वीं सदी ई. के मध्य तक बचा रहा था और जिसका नाश कोलम्बस के बाद साम्राज्य निर्माण की कामना से वहाँ पहुँचने वाले स्पेनियों ने किया। उनकी ही एक जाति आज भी संयुक्त राज्य अमेरिका में बसी 'इंडियन' कहलाती है जो अधिकतर गोरे अमेरिकनों से मिलने से परहेज़ करती है और जिनके गाँव में बसनेवाले कुनबे न तो अपने बच्चों को अमेरिकी स्कूलों में पढ़ने भेजते हैं और न रुढ़िवादी बूढ़े अमेरिकनों का मुँह तक देखना चाहते हैं । उनके घर मिट्टी के हैं, उनकी भाषा अपनी है। मध्य अमेरिका.में रहनेवाले उनके भाई - बन्द – इंका, परूबियन, मायन आदि — कहलाते हैं और अपने गोरे मालिकों से भिन्न बादामी रंग के प्रायः नौकरों की ज़िन्दगी बिताते हैं। उन्हीं के पूर्वजों ने कभी मध्य अमेरिका में अपने साम्राज्य खड़े किये थे। इ
मयों का उस मय असुर से कोई सम्बन्ध नहीं, जो प्राचीन असुरिया का था, जिसके नाम का उल्लेख बार-बार भारतीय वास्तु-ग्रन्थों में हुआ है। ये मय कौन थे, इसका
पता आज तक नहीं चला, यद्यपि अटकल इस सम्बन्ध में अनेक लगाये गये हैं"(पृ.105)
माया सभ्यता के चिचेनइट्ज़ा के मंदिर में बलि का कुआं है जिसमे उस समय देश मे अकाल पड़ने और संकट आने पर युवक-युवतियों की बलि दी जाती थी।
"स्पेन की राजधानी माद्रिद में 1863 में एक डायरी मिली। डायरी युकातान के आर्चबिशप दिएगो दे लान्दा ने लिखी थी, प्रायः तीन सौ साल पहले, 1566
में। दे लान्दा ने मय ख्यातों के आधार पर लिखा था-
'जब-जब देश में अकाल पड़ता, उस पर संकट आता, तब-तब पुजारियों और साधारण जनता का, पाताल के देवताओं को प्रसन्न करने के लिए, जुलूस निकलता। पुजारी क़ीमती और पवित्र चढ़ावे की वस्तुएँ लिये जाते और उन्हें बलिके कुएँ में झोंक देते। चढ़ावे की इन पवित्र वस्तुओं में लावण्यवती सुन्दरियाँ होतीं,.युद्ध में पकड़े तरुण होते।'
फिग्ररोआ का वृत्तान्त सुनिए-
‘देश के स्वामियों और श्रीमानों की रीति थी-साठ दिन संयमपूर्वक उपवास कर वे पौ फटते ही बलि के कुएँ पर जा पहुँचते। फिर उनमें से प्रत्येक स्वामी और श्रीमान इंडियन (रेड इंडियन) जाति की अपनी स्त्रियाँ कुएँ में यह कहकर डाल देते कि देवता से माँगना कि स्वामी का साल उसके मनोरथों को पूरा करे। 'हाथ-पैरों से निर्बन्ध नारियाँ धमाके के साथ तेज़ी से जल में गिरतीं। अगले दोपहर उनमें से जो चिल्लाकर पुकार सकती थीं, पुकारतीं, और डोरें ऊपर से उन तक लटका दी जातीं। जब वे अधमरी ऊपर आतीं, उनके चारों ओर अलाव जला दिये जाते, सुगन्धित द्रव्यों का धुआँ कर दिया जाता। जब धीरे-धीरे वे होश में आतीं तब कहतीं-नीचे हमारी जाति के अनेक लोग हैं, नर-नारी और उन्होंने हमारा स्वागत किया था। और जब वे उन्हें देखने सिर ऊपर करतीं तब उन पर मार पड़ती, और जब चोट से तिलमिलाकर वे अपने सिर नीचे झुकातीं तब उन्हें लगता कि नीचे अतल गहराइयाँ और गढ्ढे दिखाई पड़ रहे हैं, और तब नीचे वाले लोग स्वामियों के वर्ष-फलक के सम्बन्ध में उनके प्रश्नों का उत्तर देते।"
कल्पना की जा सकती है अंधविश्वास के करण कितने अकाल मौत मरते थे! एडवर्ड टॉमसन ने लांदा के ये विवरण पढ़े थे और औरों की तरह उस पर अविश्वास नहीं किया अपितु उस बलिकूप को ढूंढने की ठान ली और अंततः चिचेनइट्जा और उसके बलिकूप को ढूंढ निकाला।
"चिचेन इत्ज़ा के उस पवित्र बलि-कूप में सबसे अधिक महत्त्व की मिली.वस्तुओं में प्रधान नर-कंकाल थे जिनमें अधिक संख्या नारी अस्थि-पंजरों की थी। और उनसे भी कहीं अधिक दिलचस्प एक खोपड़ी थी, बूढ़े मर्द की खोपड़ी। बूढ़े आदमी का भोग कूप का देवता कभी स्वीकार नहीं करता था, इससे स्पष्ट है कि बूढ़े आदमी को कूप में डाला जाना पुजारियों को सम्मत न रहा होगा।क्या यह सम्भव है कि कोई जवान मर्द या लड़की अपने भाग्य के साथ क्रूर पुरोहितों को भी एक झटके में बलि कूप के देव की भेंट के लिए घसीटती चली गयी
हो ?"(पृ.125)
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आगे के अध्यायों में भगवतशरण जी ने गान्धार में बौद्ध प्रभाव, पाणिनि,सन्त थॉमस का उस क्षेत्र में आगमन, ग्रीक और भारतीय संस्कृति से बने गांधार कला,बुद्ध की प्रारंभिक मूर्तियों का जिक्र किया है।
मृदगांव(सारनाथ) जहां बुद्ध ने 'धर्मचक्र प्रवर्तन' किया की खोज, सहेठ(श्रावस्ती) की खोज,अम्बपाली की अमराई,कंकाल पहरुआ का जिक्र है।
फिर 'पुरातत्व की पुजारिन' ग्लैडिस और आइलीन तथा पुरातत्वेत्ता वेंडेल फिलिप्स के अरब अभियान,संकट और बच निकलेने का रोचक जिक्र है।
आख़िर में मृत सागर के तीर की गुफाओं में मिले अभिलेखों को प्राप्त करने की कठिनाइयों का जिक्र है।
इस तरह पूरी पुस्तक रोचक विवरणों से भरा है।इसमे जानकारी के साथ गद्य का प्रवाह भी है जो इतिहास जैसे विषय के लिए दुर्लभ है। ऐसा भी नहीं कि इसके लिए ऐतिहासिकता से समझौता किया गया हो। लंबे उद्धरण देने से लेख लम्बा अवश्य हो गया है मगर उस 'रोमांस' को पाठकों को महसूस करवाने के लिए यह आवश्यक लगा। यह मात्र झलक है प्यास बुझाने के लिए पुस्तक तक जाना होगा।
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पुस्तक- पुरातत्व का रोमांस
लेखक-भगवतशरण उपाध्याय
प्रकाशन-भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन वर्ष-1967
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● अजय चन्द्रवंशी,कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320
बहुत ही खूबसूरत लिखा है।
ReplyDeleteब्लॉग में प्रकाशन के लिए धन्यवाद
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