एक दिन बुलडोजर
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ये घास
बार-बार
उग आती है
मुँडेरों पर ,
बार-बार
खुरपियों से
छिलता हटाता हूँ
छिलते-हटाते
तंग हो जाता हूँ
ख़ैर, एक दिन
कोई बुलडोजर आयेगा
न रहेगा बाँस
न बाजेगी बाँसुरी
किसान, जवान, मज़दूर
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क़र्ज़, आत्महत्या
और आंदोलन के कारण
होती रहती है
किसान की चर्चा
कोर्ट मार्शल
और शहादत की वजह से
होती रहती है
जवान की चर्चा
क्या शोषण
और तालाबंदी समाप्त हो गयी है
कि चर्चा से दूर
रखा जाता है मज़दूर ?
राजनीति
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यह राजनीति है
जिसे तुम वेश्या कहते हो
पर जानते हो कि उसके साथ क्या-क्या हुआ है
कैसे-कैसे धोखे हुए हैं
वह कहाँ से कहाँ पहुँचायी गयी है
जिसने उसे धोखे दिये
यहाँ तक पहुंचाया
उसे तो बड़े प्रेम से कहते हो
महान राजनीतिज्ञ
महान नेता!
उसे ऐसा कहना
और इसे वेश्या कहना
ज़रा भी शोभा नहीं देता।
अपवाद
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क्या हमारा घर
हमारा घर है ?
क्या हमारा शहर
हमारा शहर है ?
क्या हमारा देश
हमारा देश है ?
क्या हमारी तक़दीर
हमारी तक़दीर है ?
हम जब ऐसे सवाल से गुज़रते हैं
तो ज़रूर किसी बवाल से गुज़रते हैं
अपवाद
सिर्फ़ कश्मीर है
अब क्या
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ज़ुल्म की इंतहा हो गयी
ग़म की सीमा
पार हो गयी
मूल्यों की
हार हो गयी
मानवता
शर्मसार हो गयी
अब क्या धरती फटेगी
अब क्या बिजली गिरेगी
अब क्या आकाश हिलेगा
या विजय जुलूस निकलेगा
गाजे-बाजे के साथ ?
बाबा रैदास जी
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मन चंगा तो
कठौती में गंगा
आप ठीक कहते हैं
बाबा रैदास जी !
लेकिन घर में कठौती भी हो
और मन भी चंगा
तो गंगा नहीं चंगा
बाबा रैदास जी !
क्या बताएँ
आज कैसी काशी चल रही है
एकदम-से कबीर दास की
उलटबाँसी चल रही है
चाँद पर यान है
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चाँद पर
हमारा यान है
मगर हमारा जहान
हमारी पृथ्वी ही है
सौन्दर्य और जीवन से भरी
हमें पालती-पोसती
इसमें चाँद का भी योगदान है
वह भी ख़ूबसूरत कितना
लेकिन उसकी सुन्दरता दूर की है
और वह भी रात की
पृथ्वी हमारी हर वक़्त की ज़रूरत
हमारी जान है
हमें इसी पर है चलना-फिरना
चाँद पर
केवल हमारा यान है
दिशा भ्रम
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मालूम न था
बस से उतरते ही
कड़ी धूप मिलेगी
कीचड़ से सना रास्ता मिलेगा
पानी से भरा मार्ग मिलेगा
कंकड़-पत्थरों से पटा पथ मिलेगा
ऊबड़-खाबड़ राह मिलेगी
और वह चौराहा मिलेगा
जहाँ विकास का बोर्ड पढ़ते ही
दिशा भ्रम हो जायेगा
और देखा हुआ गंतव्य
भटकने के बाद आयेगा
बम्बइया मिठाई
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बम्बइया...
मिठाई...
दोपहर दो और तीन के बीच
यह आवाज़ आती है
सब्ज़ी बेचने वालों की तरह कड़क नहीं
हर माल दस रुपए में बेचने वालों की तरह
बेधड़क नहीं
शहद और शिलाजीत बेचने वालों की तरह फड़क-फड़क नहीं
कपड़े और सजावटी सामान बेचने वालों की तरह
अकड़-अकड़ नहीं
बल्कि हड़क-हड़क
इन गलियों में
एक उदास आवाज़
बम्बइया..
मिठाई...
लाल-लाल
रुई के गोले जैसी
यह धुर गांवों के बच्चों की मिठाई है
यह पुराने शहर के बच्चों की मिठाई है
जो अभी चल रही है अतीतधारा
तो इसलिए
कि अभी इसे बेच रहा है
बांस के लट्ठे पर
गली-गली
घंटी बजाते हुए
एक सर्वहारा
लगाते हुए
एक उदास आवाज़
बम्बइया...
मिठाई...
सरकिट हाउस के परिसर में
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एक नहीं
कई माली
सजाते रहेंगे
सँवारते रहेंगे
उद्यान को
घास के मैदान को
बारहों मास
जनतांत्रिक राजनेताओं
और उच्चाधिकारियों के लिए
और एक दिन भी
जनता के किसी व्यक्ति को
घूमने नहीं देंगे इसमें
बैठने नहीं देंगे
इसमें घूमें-बैठें
जनतांत्रिक राजनेता और उच्चाधिकारी ही
तो यह भी नहीं,
उनके कार्यक्रम दूसरे हैं
उनके पास समय ही नहीं !
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केशव शरण
जन्म 23-08-1960 , वाराणसी में।
प्रकाशित कृतियां-
तालाब के पानी में लड़की (कविता संग्रह)
जिधर खुला व्योम होता है (कविता संग्रह)
दर्द के खेत में (ग़ज़ल संग्रह)
कड़ी धूप में (हाइकु संग्रह)
एक उत्तर-आधुनिक ऋचा (कवितासंग्रह)
दूरी मिट गयी (कविता संग्रह)
क़दम-क़दम ( चुनी हुई कविताएं )
न संगीत न फूल ( कविता संग्रह)
गगन नीला धरा धानी नहीं है ( ग़ज़ल संग्रह )
कहां अच्छे हमारे दिन ( ग़ज़ल संग्रह )
संपर्क- एस2/564 सिकरौल
वाराणसी 221002
मो. 9415295137
व्हाट्स एप 9415295137
वाह! बहुत बढ़िया बढ़वाने हेतु आभार।
ReplyDeleteसादर
वाह वाह वाह!बहुत ही सार्थक और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसामायिक विसंगतियों पर प्रहार करती सार्थक कविताएं।
ReplyDeleteसंवेदनशील रचनायें... कभी कभी ये लगता है कि हमारे अन्दर का बुद्धिजीवी विकास को मानने को तैयार नहीं...जबकि दुनिया हमेशा समय के साथ आगे ही बढ़ी है...पीछे लौटना या बार बार मुड़ के देखना शायद उचित नहीं है...👏👏👏👏
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