साथियों, शायद आपको पता हो कि हमारे बीच के वरिष्ठ कवि वीरेन दा पिछले कुछ समय से कैंसर जैसी कठिन बीमारी से जूझ रहे थे, अच्छी ख़बर यह है कि दिल्ली में पिछले हफ़्ते हुआ उनका ऑपरेशन सफ़ल रहा है | अब हम सब उनके शीघ्र पूर्णरूप से स्वस्थ होने
की कामना करते हैं | उनकी अदम्य जिजीविषा और कविता के प्रति उनके समर्पण को नमन
करते हुए ‘स्पर्श’ पर इस हफ्ते ‘तीन कवि : तीन कविताओं’ की श्रृंखला में प्रस्तुत
हैं वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल, युवा कवि
शिरीष कुमार मौर्य और युवतम कवि कमलजीत चौधरी की
कवितायेँ -
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कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,
क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!
छिपकली को ही ले लो,
कैसे पुरखों की बेटी
छत पर उल्टा
छत पर उल्टा
सरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को।
फिर वे पहाड़!
क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें?
और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो
नदियाँ, वो?
सूंड हाथी को भी दी और चींटी को भी
एक ही सी कर आमद अपनी-अपनी जगह
एक ही सी कर आमद अपनी-अपनी जगह
हाँ, हाथी की सूंड में दो छेद भी हैं
अलग से शायद शोभा के वास्ते
वर्ना सांस तो कहीं से भी ली जा सकती थी
जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से।
अरे, कुत्ते की उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
कैसी रसीली और चिकनी टपकदार, सृष्टि के हर
स्वाद की मर्मज्ञ और दुम की तो बात ही अलग
गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ
तुम्हारे ही मुखड़े पर झलती हुई।
आदमी बनाया, बनाया अंतड़ियों और रसायनों का क्या ही तंत्रजाल
और उसे दे दिया कैसा अलग सा दिमाग
ऊपर बताई हर चीज़ को आत्मसात करने वाला
पल-भर में ब्रह्माण्ड के आर-पार
और सोया तो बस सोया
सर्दी भर कीचड़ में मेढक सा
हाँ एक अंतहीन सूची है
भगवान तुम्हारे कारनामों की, जो बखानी न जाए
जैसा कि कहा ही जाता है।
यह ज़रूर समझ में नहीं
आता कि फिर क्यों बंद कर दिया
अपना इतना कामयाब
कारखाना? नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पांच सौ सालों से
जहाँ तक मैं जानता हूँ
न बना कोई पहाड़ या समुद्र
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार।
बाढ़ेँ तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप,
तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब
खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गई सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी
वर्दियां जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार!
प्रार्थनाग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?
अपना कारखाना बंद कर के
किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन - सा है वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान !!!
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मैं उसे
एक बूढ़ी विधवा पड़ोसन भी कह सकता था
लेकिन मैं उसे सत्तर साल पुरानी देह में बसा एक पुरातन विचार कहूंगा
जो व्यक्त होता रहता है
गाहे-बगाहे
एक साफ़-सुथरी, कोमल और शीरीं ज़बान में
जिसे मैं लखनउआ अवधी कहता हूं
इस तरह
मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस में रहता हूँ
मैं उसे देखता हूं पूरे लखनऊ की तरह और वो बरसों पहले खप चुकी अपनी माँ को विलापती
रक़ाबगंज से दुगउआँ चली जाती है
और अपनी घोषित पीड़ा से भरी
मोतियाबिंदित
धुंधली आँखों मे
एक गंदली झील का उजला अक्स बनाती है
अचानक
किंग्स इंग्लिश बोलने का फ़र्राटेदार अभ्यास करने लगता है बग़ल के मकान में
शेरवुड से छुट्टी पर आया बारहवीं का एक होनहार छात्र
तो मुझे
फोर्ट विलियम कालेज
जार्ज ग्रियर्सन
और वर्नाक्यूलर जैसे शब्द याद आने लगते हैं
और भला हो भी क्या सकता है
विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ानेवाले एक अध्यापक के लगातार सूखते दिमाग़ में?
पहाड़ी चौमासे के दौरान
रसोई में खड़ी रोटी पकाती वह लगातार गाती है
विरहगीत
तो उसका बेहद साँवला दाग़दार चेहरा मुझे जायसी की तरह लगता है
और मैं खुद को बैठा पाता हूं
लखनऊ से चली एक लद्धड़ ट्रेन की
खुली हवादार खिड़की पर
इलाहाबाद पहुंचने की उम्मीद में
पीछे छूटता जाता है एक छोटा-सा स्टेशन
... अमेठी
झरते पत्तों वाले पेड़ के साये में मूर्च्छित-सी पड़ी दीखती है एक उजड़ती मज़ार
उसके पड़ोस में होने से लगातार प्रभावित होता है मेरा देशकाल
हर मंगलवार
ज़माने भर को पुकारती
और कुछ अदेखे शत्रुओं को धिक्कारती हुई
वह पढ़ती है सुन्दरकांड
और मैं बिठाता हूं
बनारस में सताए गए तुलसी को
अपने घर की सबसे आरामदेह कुर्सी पर
पिलाता हूं नींबू की चाय
जैसे पिलाता था पन्द्रह बरस पहले नागार्जुन को
किसी और शहर में
जब तक ख़त्म हो पड़ोस में चलता
उनका कर्मकाण्ड
मैं गपियाता हूं तुलसी बाबा से
जिनकी आँखों में
दुनिया-जहान से ठुकराये जाने का ग़म है
और आवाज़ में
एक अजब-सी कड़क विनम्रता
ठीक वही त्रिलोचन वाली
चौंककर देखता हूं मैं
कहीं ये दाढ़ी-मूंछ मुँडाए त्रिलोचन ही तो नहीं !
क्यों?
क्यों इस तरह एक आदमी बदल जाता है दूसरे ‘आदमी’ में ?
एक काल बदल जाता है दूसरे ‘काल’ में?
एक लोक बदल जाता है दूसरे ‘लोक’ में?
यहाँ तक कि नैनीताल की इस ढलवाँ पहाड़ी पर बहुत तेज़ी से अपने अंत की तरफ़ बढ़ती
वह औरत भी बदल जाती है
एक
समूचे
सुन्दर
अनोखे
और अड़ियल अवध में
उसके इस कायान्तरण को जब-तब अपनी ठेठ कुमाऊँनी में दर्ज़ करती रहती है
मेरी पत्नी
और मैं भी पहचान ही जाता हूं जिसे
अपने मूल इलाक़े को जानने-समझने के
आधे-अधूरे
सद्यःविकसित
होशंगाबादी किंवा बुन्देली जोश में !
इसी को हिंदी पट्टी कहते हैं शायद
जिसमें रहते हुए हम इतनी आसानी से
नैनीताल में रहकर भी
रह सकते हैं
दूर किसी लखनऊ के पड़ोस में !
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संपर्क- दूसरा तल, ए-2 समर रेजीडेंसी, पालिका मैदान के पीछे, भवाली, जिला-नैनीताल (उत्तराखंड) पिन- 263132
ईमेल- shirish.mourya@rediffmail.com
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जिस भाषा में तुमने
पहला शब्द 'माँ ' कहा
जिसने तुम्हें गोद में भरा
जिस भाषा में तुमने
पूर्वजों को सपुर्दे ख़ाक किया
अस्थियों को
गंगा में प्रवाहित किया -
आज उसी मिट्टी पर बहती
गंगा को बोतलों में बंद कर
पानी पी पी कर
तुम उसी भाषा को
उसी भाषा में गालियां दे रहे हो
तुम आज उस भाषा में
राष्ट्रवादी गीत गा रहे हो
उस भाषा के आंगन में जा रहे हो
जहाँ कभी लिखा रहता था -
'भारतीयों और कुत्तों का प्रवेश निषेध'
उस भाषा की पीठ थपथपा रहे हो
जिसने सटाक सटाक
तुम्हारे पूर्वजों की पीठ पर कोड़े बरसाए
ऑर्डर ऑर्डर कह कर
कई बार 13 अप्रैल 1919
23 मार्च 1931 दोहराए
तुम भी ऑर्डर ऑर्डर सीख
अस्सी प्रतिशत जनता को
बॉर्डर पर रखना चाहते हो
जो आज भी 15 अगस्त 1947 का मुंह जोह रही है
तुम रोब झाड़ उस भाषा में
कह रहे हो -
मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, बैंक बैलेंस है
उस भाषा में
जो भाषा नहीं अंकल सैम की जेब है
खालिस जेब...
तुम पूछ रहे हो-
तुम्हारे पास क्या है?
मेरे पास ...
मेरे पास वही पुराना फ़िल्मी संवाद-
मेरे पास माँ है।
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सम्पर्क- काली बड़ी , साम्बा 184121, जम्मू व कश्मीर { भारत }
ईमेल- kamal.j.choudhary@gmail.com
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Rahul jee aapka dhanyavaad ki aapne mujhe hamaare samay ke do bade kaviyon ke saath chuna.... Dono kavitain kamaal ki hain! Aur haan bhai meri kavita mein 23 march 1931 padha jaye jo galti se 23 march 1929 likha gya hai...Dhanyavaad!
ReplyDeleteभाई कमलजीत जी, शुक्रिया आपका | आवश्यक संसोधन कर दिया गया है |
ReplyDeleteraahul aapka dhanyvaad teen shaandaar kavitayen ek sath padhwane ke liye......saathi kaviyon ko badhai aur subhkamnayen..
ReplyDeleteकाश !सब ऐसा सोचें अपनी भाषाओं को लेकर ... तीनों कविताएँ कमाल ! कमल भाई शुभकामनाएँ
ReplyDeleteप्रभु द्वारा की गई विभिन्न प्राणियों के संरचना के खूबियाँ बयाँ करती सुंदर रचना के लिए श्री विरेन डंगवाल जी को हार्दिक बधाई |
ReplyDeleteहिंदी भाषा में "माँ" शब्द में जो मिठास है, वह हिंदी भाषा की खूबी है | माँ शब्द पर सुंदर रचना के लिए श्री कमल जे चौधरी जी को अतिशय बधाई