हिंदी कविता समय
में एक वरिष्ठ, युवा और युवतर स्वर...एक साथ...एक तरह से हिंदी कविता की तीन
पीढ़ियों व उनकी रचनाशीलता को काफी हद तक देखा-समझा जा सकता है...इन तीन कवियों की
तीन कविताओं के बहाने...बगैर किसी नाम, वाद व स्कूल से बंधे हुए देखें- कहें तो ’स्पर्श’
के पाठकों के लिए इस हफ्ते की विशिष्ट प्रस्तुति...
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तीन कवि : तीन
कविताओं की श्रृंखला में इस हफ्ते-
1- ज्ञानेंद्रपति
2- सुशांत
सुप्रिय
3- संजय
शेफर्ड
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आता है एक भूकम्प ऐसा, कभी-कभी
तरंगशाली, उच्च क्षमतावान
बढ़ा देता है जो धरती के अपनी धुरी पर
घूमने की गति
कि छोटा हो जाता है दिन, क्षणांश को
कभी आता है एक भूकम्प ऐसा भी, जैसा कि अभी
इंसानी ज़मीन पर
कि दशाब्दियों से जमी-पथराई हुई
तानाशाही की परतें दरकने लगती हैं
और अचानक छोटी हो आती है
बेअन्त लगने वाली तानाशाहियों की उम्र
एक के बाद एक
इन भूकम्पों में
ढहते हैं रहवास
लहूलुहान इंसानी ज़िंदगियाँ गुज़रती हैं बेवक़्त
अपने ही ख़ून का नमक चख़ते हैं हम
कभी सिर झुकाए
कहीं सिर उठाए ।
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सम्पर्क :
बी-3/12, पो-अन्नपूर्णानगर, विद्यापीठ मार्ग,
वाराणसी-221002
बौड़म दास / सुशांत सुप्रिय
(बौड़म दास का असली नाम कोई नहीं जानता)
किसी स्कूल के पाठ्य-पुस्तक में
नहीं पढ़ाई जाती है जीवनी बौड़म दास की
किसी नगर के चौराहे पर
नहीं लगाई गई है प्रतिमा बौड़म दास की
वे 'शाखा' में नहीं जाते थे
इसलिए प्रधानमंत्री उन्हें नहीं जानते हैं
वे वाद के खूँटे से नहीं बँधे थे
इसलिए किसी भी पंथ के समर्थक
उन्हें नहीं जानते हैं
उन्होंने मुंबइया फ़िल्मों में
कभी कोई भूमिका नहीं की
जिम में जा कर ' सिक्स-पैक ' नहीं बनाया
न वे औरकुट या फ़ेसबुक पर थे
न व्हाट्स-ऐप या ट्विटर पर
यहाँ तक कि ढूँढ़ने पर भी उनका
कोई ई-मेल अकाउंट नहीं मिलता
इसलिए आज का युवा वर्ग भी
उन्हें नहीं जानता है
किंतु जो उन्हें जानते थे
वे बताते हैं कि बौड़म दास ने
राशन-कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए
कभी रिश्वत नहीं दी
इसलिए न उनके पास लाइसेंस था न राशन कार्ड
बस या रेलगाड़ी में चढ़ने के लिए
उन्होंने कभी धक्का-मुक्की नहीं की
वे हमेशा क़तार में खड़े रहते थे
इसलिए सबसे पीछे छूट जाते थे
उन्होंने कभी किसी का हक़ नहीं मारा
कभी किसी की जड़ नहीं काटी
कभी किसी की चमचागिरी नहीं की
कभी किसी को ' गिफ़्ट्स ' नहीं दिए
उनका न कोई ' जुगाड़ ' था न ' जैक '
इसलिए वे कभी तरक़्क़ी नहीं कर सके
नौकरी में आजीवन उसी पोस्ट पर
सड़ते रहे बौड़म दास
उनके किसी राजनीतिक दल से
सम्बन्ध नहीं थे
उनकी किसी माफ़िया डाॅन से
वाकफ़ियत नहीं थी
चूँकि वे अनाथालय में पले-बढ़े थे
उन्हें न अपना धर्म पता था
न अपनी जाति
प्रगति की राह में
ये गम्भीर ख़ामियाँ थीं
जीवन में उन्होंने कभी
मुखौटा नहीं लगाया
इसलिए इस समाज में
आज के युग में
सदा ' मिसफ़िट ' बने रहे
बौड़म दास
उनके पास एक चश्मा था
वृद्धावस्था में उन्होंने
एक लाठी भी ले ली थी
वे बकरी के दूध को
स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम बताते थे
और अक्सर इलाक़े में
इधर-उधर पड़ा कूड़ा-कचरा बीन कर
कूड़ेदान में फेंकते हुए देखे जाते थे
इसलिए इक्कीसवीं सदी में
जानने वालों के लिये
उपहास का पात्र बन गए थे
बौड़म दास
उनके जन्म-तिथि की तरह ही
उनकी मृत्यु की तिथि भी
किसी को याद नहीं है
दरअसल इस युग के
अस्तित्व के राडार पर
एक ' ब्लिप ' भी नहीं थे
बौड़म दास
मोहल्ले वालों के अनुसार
बुढ़ापे में अकसर राजघाट पर
गाँधीजी की समाधि पर जा कर
घंटों रोया करते थे
बौड़म दास
क्या आप बता सकते हैं कि
ऐसा क्यों करते थे बौड़म दास ?
-------------------------------
संपर्क : 5174, श्यामलाल बिल्डिंग ,
बसंत रोड, ( निकट पहाड़गंज ) ,
नई दिल्ली - 110055
ई-मेल: sushant1968@gmail.com
टुकड़ा- टुकड़ा धूप/ संजय शेफर्ड
टुकड़ा- टुकड़ा धूप
आसमान से टूट- टूट कर गिरती
इकट्ठा होती रहती है
घुरहू की काली पीठ पर
और बन जाती है
कभी- कभी उसके माथे का दर्द
महज टुकड़ों- टुकड़ों में ही
यही कतरा- कतरा दर्द
रघ्घू की निरीह आंखों में भी है
इस महिने भी बारिश नहीं हुई
फिर भी वह बहा देना चाहता है
परिस्थियों के सारे कचरे को
अपनी मेहनत और जांगर के जोर पर
आंसूओं के साथ दूर कहीं
धनिया जानती है
आंसुओं के टूटने से बारिश नहीं होगी
ना ही बच्चों के काल कलिया खेलने से
निर्मोही बादलों की आंख रिसेगी
फिर भी इकट्ठा कर लाई है
गांव के दर्जन भर बच्चों को
अपने ही दुयारे पर तपती धरती में
अंजुरी भर पानी डाल बना रही है
कलई बच्चे लोट- पोट हो रहे हैं
उसी अंजुरी भर पानी
उसी अंजुरी भर सूखी धरती
उसी अंजुरी भर आंसूओं
उसी अंजुरी भर जलती पीठ की खातिर
शाम के निवाले से बेखबर
खेल रहे हैं काल कलिया
अपने आंसूओं से सनी गीली मिट्टी में
महज नन्ही- नन्ही बारिश की बूंदों की खातिर।
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सम्प्रति – बीबीसी गैलेरी इंडिया में शोधकर्ता एवं लिंक राइटर
ईमेल- sanjayshepherd@outlook.com
दूरभाष संख्या : 8 3 7 3 9 3 7 3 8 8 / 88826 11166
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बौड़म दास / सुशांत सुप्रिय
(बौड़म दास का असली नाम कोई नहीं जानता)
किसी स्कूल के पाठ्य-पुस्तक में
नहीं पढ़ाई जाती है जीवनी बौड़म दास की
किसी नगर के चौराहे पर
नहीं लगाई गई है प्रतिमा बौड़म दास की
वे 'शाखा' में नहीं जाते थे
इसलिए प्रधानमंत्री उन्हें नहीं जानते हैं
वे वाद के खूँटे से नहीं बँधे थे
इसलिए किसी भी पंथ के समर्थक
उन्हें नहीं जानते हैं
उन्होंने मुंबइया फ़िल्मों में
कभी कोई भूमिका नहीं की
जिम में जा कर ' सिक्स-पैक ' नहीं बनाया
न वे औरकुट या फ़ेसबुक पर थे
न व्हाट्स-ऐप या ट्विटर पर
यहाँ तक कि ढूँढ़ने पर भी उनका
कोई ई-मेल अकाउंट नहीं मिलता
इसलिए आज का युवा वर्ग भी
उन्हें नहीं जानता है
किंतु जो उन्हें जानते थे
वे बताते हैं कि बौड़म दास ने
राशन-कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए
कभी रिश्वत नहीं दी
इसलिए न उनके पास लाइसेंस था न राशन कार्ड
बस या रेलगाड़ी में चढ़ने के लिए
उन्होंने कभी धक्का-मुक्की नहीं की
वे हमेशा क़तार में खड़े रहते थे
इसलिए सबसे पीछे छूट जाते थे
उन्होंने कभी किसी का हक़ नहीं मारा
कभी किसी की जड़ नहीं काटी
कभी किसी की चमचागिरी नहीं की
कभी किसी को ' गिफ़्ट्स ' नहीं दिए
उनका न कोई ' जुगाड़ ' था न ' जैक '
इसलिए वे कभी तरक़्क़ी नहीं कर सके
नौकरी में आजीवन उसी पोस्ट पर
सड़ते रहे बौड़म दास
उनके किसी राजनीतिक दल से
सम्बन्ध नहीं थे
उनकी किसी माफ़िया डाॅन से
वाकफ़ियत नहीं थी
चूँकि वे अनाथालय में पले-बढ़े थे
उन्हें न अपना धर्म पता था
न अपनी जाति
प्रगति की राह में
ये गम्भीर ख़ामियाँ थीं
जीवन में उन्होंने कभी
मुखौटा नहीं लगाया
इसलिए इस समाज में
आज के युग में
सदा ' मिसफ़िट ' बने रहे
बौड़म दास
उनके पास एक चश्मा था
वृद्धावस्था में उन्होंने
एक लाठी भी ले ली थी
वे बकरी के दूध को
स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम बताते थे
और अक्सर इलाक़े में
इधर-उधर पड़ा कूड़ा-कचरा बीन कर
कूड़ेदान में फेंकते हुए देखे जाते थे
इसलिए इक्कीसवीं सदी में
जानने वालों के लिये
उपहास का पात्र बन गए थे
बौड़म दास
उनके जन्म-तिथि की तरह ही
उनकी मृत्यु की तिथि भी
किसी को याद नहीं है
दरअसल इस युग के
अस्तित्व के राडार पर
एक ' ब्लिप ' भी नहीं थे
बौड़म दास
मोहल्ले वालों के अनुसार
बुढ़ापे में अकसर राजघाट पर
गाँधीजी की समाधि पर जा कर
घंटों रोया करते थे
बौड़म दास
क्या आप बता सकते हैं कि
ऐसा क्यों करते थे बौड़म दास ?
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संपर्क : 5174, श्यामलाल बिल्डिंग ,
बसंत रोड, ( निकट पहाड़गंज ) ,
नई दिल्ली - 110055
ई-मेल: sushant1968@gmail.com
टुकड़ा- टुकड़ा धूप/ संजय शेफर्ड
टुकड़ा- टुकड़ा धूप
आसमान से टूट- टूट कर गिरती
इकट्ठा होती रहती है
घुरहू की काली पीठ पर
और बन जाती है
कभी- कभी उसके माथे का दर्द
महज टुकड़ों- टुकड़ों में ही
यही कतरा- कतरा दर्द
रघ्घू की निरीह आंखों में भी है
इस महिने भी बारिश नहीं हुई
फिर भी वह बहा देना चाहता है
परिस्थियों के सारे कचरे को
अपनी मेहनत और जांगर के जोर पर
आंसूओं के साथ दूर कहीं
धनिया जानती है
आंसुओं के टूटने से बारिश नहीं होगी
ना ही बच्चों के काल कलिया खेलने से
निर्मोही बादलों की आंख रिसेगी
फिर भी इकट्ठा कर लाई है
गांव के दर्जन भर बच्चों को
अपने ही दुयारे पर तपती धरती में
अंजुरी भर पानी डाल बना रही है
कलई बच्चे लोट- पोट हो रहे हैं
उसी अंजुरी भर पानी
उसी अंजुरी भर सूखी धरती
उसी अंजुरी भर आंसूओं
उसी अंजुरी भर जलती पीठ की खातिर
शाम के निवाले से बेखबर
खेल रहे हैं काल कलिया
अपने आंसूओं से सनी गीली मिट्टी में
महज नन्ही- नन्ही बारिश की बूंदों की खातिर।
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सम्प्रति – बीबीसी गैलेरी इंडिया में शोधकर्ता एवं लिंक राइटर
ईमेल- sanjayshepherd@outlook.com
दूरभाष संख्या : 8 3 7 3 9 3 7 3 8 8 / 88826 11166
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