Sunday 27 July 2014

कृति चर्चा : सौरभ (काव्य-संग्रह)- श्रीप्रकाश



'सौरभ' का अनहद नाद



“आज इड़ा पर्वत के मध्य
वैचारिक शैल खण्डों से टकराकर
श्रद्धा के उत्स स्रोत से
बही भावधारा
कागज़ के पृष्ठों पर
विस्तृत हो गयी
कविता बन गयी”

कविता क्या होती है ? कैसे निर्मित होती है ? अर्थात कविता और उसकी रचनाप्रक्रिया पर श्रीप्रकाश जी की उक्त पंक्तियाँ नितांत सार्थक प्रतीत होती हैं | इड़ा और श्रद्धा के टकराव अथवा विचार और भाव के गुंजलक में निरंतर होते संघर्ष से मुक्ति का नाम ही कविता है | तात्पर्य यह कि अंतर्मन की यथार्थ अनुभूतियों से उपजी रागात्मक भावनाओं एवं परिवेशीय तनाव के मध्य वैचारिकता की पृष्ठभूमि में कविता जन्म लेती है जिसमें व्याप्त संस्कार से उत्पन्न दार्शनिक तत्व उसे नूतन ऊचाई देकर व्यापक बनाते हैं | इन विचारों से अभिभूत मुझे ‘सौरभ’ नामक काव्यकृति की प्रत्येक रचना में स्वस्तिक अनहद नाद की अव्यक्त गूँज भरी है जिसे सुनने के लिए वस्तुतः रचनाकार की उच्च मानसिक श्रेणी का ही व्यक्ति चाहिए, अन्यथा रचना ऊपर से निकल जायेगी | प्रस्तुत कृति की अधिकांश रचनाएँ कलेवर में लघुतम हैं किन्तु अर्थगाम्भीर्य से संघनित हैं जिनमें रचनाकार की गहन चिंतनधारा प्रवाहित होती है | श्रीप्रकाश जी केवल पृष्ठ भरने के लिए कविता नहीं नहीं लिखते बल्कि अशांत उद्वेलित अंतर्मन को मुक्त करने के लिए भावाभिव्यक्ति करते हैं | वर्तमान में ऐसे कवियों अथवा रचनाकारों की भरमार है जिनकी कई पृष्ठ की लम्बी-लम्बी रचनाओं में भी कहीं कविता का दर्शन नहीं होता है और वही लोग राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय सम्मान-पुरस्कार के लिए अधिकृत किये जाते हैं | साहित्य के क्षेत्र में बगुले ही हंसों के पंख लगाकर सृजन को अधोदिशा में ले जा रहे हैं | ऐसी स्थिति में श्रीप्रकाश जी की रचनाएँ आश्वस्ति प्रदान करतीं हैं | वे सूत्रवत रचनाओं में भी आदर्श दिशा देते हैं जिनमें भारतीय संस्कृति, दर्शन, मानवीय मूल्य और राष्ट्रवादी सोच रहती है |

यों तो छन्दमुक्त कविता को जब महाप्राण निराला ने नवता के लिए अपने काव्य में स्थान दिया तो उसमें सरसता के साथ लय विद्यमान थी किन्तु जब यही कविता वामपंथियों की मुट्ठी में कैद हुई तो वह गद्यकविता बन गयी और पूरी तरह विदेशी विचारधारा में ढल गयी | वामपंथी विचारकों की सोच का दायरा सीमित हो गया और गीतों को तो मृत मानकर उसके समाप्त हो जाने का फ़तवा भी जारी कर दिया | ऐसे विचारकों ने भारतीय संस्कृति, संस्कार, सभ्यता और इतिहास तक को असत्य तथा कल्पना करार कर दिया | ऐसी सोच में पली-बढ़ी गद्यकविता में देशी सोच से हटकर रचनाएँ लिखी जाने लगीं जिनमें 95% संवेदना शून्य है, जबकि साहित्य का प्राणतत्व संवेदना ही है | रचनाकार की कुंठाओं तथा उसके अकर्मण्य जीवन से जनित उसका अंतर्द्वंद् स्वयं को बड़ा दिखाने के प्रयास में अर्थहीन शब्दावली आदि कविता नहीं होती है | कविता तो सहज, सरल, प्रवाहपूर्ण भाषा में विचार एवं भाव के संतुलन के साथ संवेदना की अभिव्यक्ति को कहते हैं | संप्रेषणीय भाषा और स्पष्ट बिम्बयुक्त भाव व्यंजना पाठक पर अनुकूल प्रभाव छोड़ते हैं जबकि उसे गूढ़ और दुरूह बना देने से कविता का प्रयोजन ही नष्ट हो जाता है | पहले कविता अंतर्मन में गूंजती है तदुपरांत लिखित रूप में प्रकट होती है और उसके पश्चात विस्तार चाहती है | विस्तार पा जाने पर वह पूरे समाज की धरोहर हो जाती है | आखिर वह कौन सी बात है, कौन सा तत्व है जिसके परिणामस्वरुप कबीर, रहीम, तुलसी, सूर, बिहारी, पद्माकर, घनानंद मीरा आदि कई सदी पूर्व जो लिख गये, वह आम-आदमी की जबान पर है | वर्तमान में मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अज्ञेय, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि रचनाकार भी कविता लिखकर कालजयी हो गए | वस्तुतः आज का कवि जन्मते ही आकाश में छलांग लगाने लगता है और कुछ ही दिनों के उपरांत अज्ञात हो जाता है | ऐसी विषम स्थिति में श्रीप्रकाश जी की रचनाओं में कालजयी होने की सामर्थ्य लक्षित की जा सकती है | ऐसा नहीं है कि जिसकी दर्जनों कृतियाँ प्रकाशित हों, वही बड़ा कवि हो | वास्तव में देखा यह जाना चाहिए कि वह कितना महत्त्वपूर्ण और समाजोपयोगी है | श्यामलाल का केवल झंडा गीत- “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा” से ही अमर हो गये तो रसलीन भी अपने एक ही दोहा- “अमी, हलाहल, मद भरे, श्वेत, श्याम, रतनार/ जियत, मरत, झुंकि-झुंकि परत, जेहि चितवत इक बार” के फलस्वरूप आज भी साहित्य जगत में अमर हैं |

यद्यपि श्रीप्रकाश जी 30-35 वर्षों से किसी न किसी प्रकार हिंदी साहित्य की सेवा करते रहे किन्तु प्रस्तुत काव्य संग्रह ‘सौरभ’, उनका प्रथम काव्य संग्रह है | हिंदी कविता के समक्ष प्रकाशन की समस्या, प्रकाशकों ने जानबूझकर बना रखी है जिससे अनेक प्रतिभाशाली रचनाकार अप्रकाशित ही रह जाते हैं | संभवतः इसी कारण से यह प्रथम काव्य संग्रह विलम्ब से प्रकाशित हुआ है | रचनाओं में जहाँ विविधता है वहीँ सकारात्मक दृष्टिकोण भी पाठक को निराशा के गर्त में नहीं धकेलता है | संग्रह की रचनाओं में आशा के साथ ही दृढ़ विश्वास की भी झलक मिलती है | कल्पना से यथासंभव दूरी बनाकर चलते हुए वे यथार्थगत परिवेश का परिचय कराते हुए, बिना कहे ही भविष्य के प्रति आशा का संचार करा देते हैं-
“सत्य ज्योति के प्रीतम दीपक/ भारत भू पर
विस्तृत तम हर/ ऐसी रश्मि बिखेर तुरत
प्रिय मत तू/ कर अब देर/ सत्यम-शिवम्
सुन्दरम बनके/ जनजीवन का घनतम हर के
ऐसी किरण बिखेर/ दीप-प्रिय मत तू/ अब कर देर !”

कथ्य की स्पष्टता और सहजता, पाठक को सीधे-सीधे संप्रेषित हो जाती है और वह अन्तर्निहित सन्देश को भी ग्रहण कर पाता है | ऐसी रचनाओं का कोई महत्त्व नहीं होता जो केवल निजी अर्थात व्यक्तिगत राग-द्वेष को प्रकट करती हैं अथवा इतनी जटिल तथा असामान्य बिम्ब हों जिसका अर्थ करना ही संभव न हो | इस दृष्टि से श्रीप्रकाश जी की रचनाएँ स्वागतेय हैं | प्रस्तुत संग्रह में अधिकांश ऐसी ही रचनाएँ हैं जिनमें जीवन को, समाज को देश को और सम्पूर्ण विश्व को सत्यम, शिवम् सुन्दरम के माध्यम से मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा तथा सुख-शांति का सन्देश देने में सफलता मिली है |
श्रीप्रकाश जी ऐसी ही प्रेम, सद्भाव, एकता, समरसता की कामना लेकर लेखनी से भी निवेदन करते हैं कि-
“अमर लेखनी लिख दे/ तू ऐसा गान
गुंजन सौरभ-परिमल सा मधुरिम/ जगती अम्बर भर गूंजें
ऐसा गान लिख दे/ लिख दे तू प्रकाश की रेखा
आलोकित कर/ तमसावृत पथ पर
अगणित भावों की सरिता भान/ संगीत सुगम
जीवन लय भर दे/ लिख दे अमर लेखनी
जीवन सतत सुमंगल लिख दे/ कमल नील का मधुरिम संध्या परिणय लिख दे |”

इस प्रकार सरस-सुमंगली जग-जीवन की सुसंस्कृत भावना का लक्ष्य सिद्ध करता है कि श्रीप्रकाश जी भारतीय दर्शन, भारतीय वैचारिक प्रवृत्ति और भारतीय संस्कारों के रचनाकार हैं जिसमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ तथा ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” के उपासक हैं | निश्चय ही रचनाओं के अनुरूप ही उनका व्यक्तित्व भी होगा | उसी तरह से शिष्ट, शीलवान, धर्मज्ञ, धैर्यशाली और भारतीय अनुपम परम्पराओं की पोषक | ‘मैं चलता’ नामक कविता भी कुछ ऐसा ही संज्ञान कराती है- “मैं बढ़ता/गिर-गिर पड़ता/ उठता-चलता/ कुछ दूर अचानक/ आ जाता संसार/ उलझता-फंसता/ चढ़ता-रुकता/ कुछ दूर अचानक आ जाता संसार/ उलझता/ फंसता/ चढ़ता-रुकता/ चिंतन की सरिता में डूब सहज ही जाता |” यद्यपि उनकी यह पवित्र- स्वस्तिक कामनाएं, भावनाएं-आस्थाएं वामपंथी विचारकों को कदापि अच्छी नहीं लगेंगीं और इसे महत्त्वहीन समझकर साहित्य से खारिज कर देंगें कि इसमें मार्क्स और माओ की विचारधारा नहीं है, नग्न नारी देह नहीं है, दो चार गालियाँ नहीं हैं और वीभत्स इतिवृतात्मकता भी नहीं है | यह मन्त्रवत सुमंगली सूक्तियां हैं | उक्त पंक्तियों में किसी निर्झर से अपने जीवन की गतिशीलता से सामी दर्शाते हुए उन्होंने रूपक प्रस्तुत किया है जिसमें निर्झर शब्द नहीं आता किन्तु सकारात्मक समीक्षकों की दृष्टि रचना की प्रत्येक बारीकी उसी प्रकार पहचान लेती है जिस प्रकार दर्पण चेहरे की प्रत्येक रूपरेखा |

कवि श्रीप्रकाश जी भारतीय दर्शन के साथ ही एक सामाजिक प्राणी हैं और समाज की प्रत्येक गतिविधि में मानसिक रूप से संलिप्त भी हैं | दिन प्रतिदिन आँखों के सामने घटित घटनाएँ भी उन्हें प्रभावित करती हैं | इसी क्रम में जब वे एक भिखारिन की दीन दशा को देखते हैं तो उनका करुणाशील मन संवेदित हो उठता है एवं लेखनी गतिशील हो जाती है- “न जाने छिटक कर कैसे/ बिथर वे सब गए/ चावल !/ भिखारिन के/ मांगकर निज पोटली में बांध/ जो रखा;/ भिखारिन क्या करे अब/ धूल में वैसे मिले जैसे कि/ दुःख में व्यंग्य करता व्यक्ति कोई/ हँस रहा हो,/ यह नियति का खेल या फिर/ कर्म की हठखेलियाँ हैं;/ xxx कवि खड़ा कुछ देखता क्या-/ सामने अट्टालिका में रौशनी ही रौशनी थी जोर/ जैसे हो गया हो भोर,/ किन्तु उसकी जिंदगी का/ तम मिटाने की कहाँ क्षमता”

श्रीप्रकाश जी की अधिकांश रचनाओं में छायावाद का उत्तरार्ध दिखाई पड़ता है | जिसमें नवता की छटपटाहट है और अनेक रचनाओं में प्रगतिशीलता के तत्व भी दिखाई पड़ते हैं लेकिन पूरी तरह से परम्परा से मुक्त नहीं हैं | फिर भी स्पष्ट अभिव्यक्ति जो साधारणीकरण में सक्षम है और सम्प्रेषणीयता दोनों ऐसे गुणात्मक तत्व हैं जो उन्हें अग्रगामी बनाएंगी | कम शब्दों में कथ्य के प्रस्तुतीकरण में भी वह हर प्रकार से सिद्धहस्त हैं जिससे रचनाओं में अनावश्यक दीर्घता नहीं है और पठनीयता को आमंत्रित करती है | प्रयोगों की विविधता भी रचनाओं को नए-नए आयाम देती है |

श्रीप्रकाश जी मुक्त छन्द हो या छन्दबद्ध दोनों प्रकार की रचनाओं में सिद्धहस्त हैं और जब ऐसे मनोभाव आते हैं, उसके अनुकूल विधा का चयन कर लेते हैं | इस कृति में 30 रचनाएँ छन्दबद्ध हैं | एक शीर्षक से कई मुक्तक भी संजोये गये हैं | मुक्तक समय-समय पर विभिन्न विषयों पर लिखे गये हैं जो समयोपयोगी और सम्प्रेषणीय हैं | मुक्तछन्द रचनाओं की भांति ही ये मुक्तक सहज-सरल- प्रवाहपूर्ण हैं जिनका साधारणीकरण व्यवधान रहित है | यथा-
'अत्याचारों के शिखर बिंदु से सहसा
जलती ज्वाला सी क्रांति निकलने वाली है,
युग की वाणी आमंत्रण देकर कहती है
शासक संप्रभु की जान निकलने वाली है |

कल्पना भाव की कविता मुझसे कह बैठी
मैं लोक क्रांति की लौ पर जलने वाली हूँ,
निज स्वाभिमान पर यदि धक्का देगा शासन
उसकी धज्जी-धज्जी से लड़ने वाली हूँ |'

मुक्तकों में कहीं आक्रोश है तो कहीं पर वर्तमान युग में मूल्यों में हो रहे क्षरण को दर्शाया गया है और समाज में व्याप्त कुव्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें समाज को सन्मार्ग पर लाने की चिंता स्पष्ट झलकती है | इसी आनंदछन्द जिसमें प्रसाद जी ने ‘आंसू’ का प्रणयन किया है, श्रीप्रकाश जी ने भी एक लम्बी कविता की रचना की है जिसका शीर्षक ‘स्मृति’ है, की कुछ पंक्तियाँ निम्नांकित हैं-
‘लोचन में आंसू भरकर
                                                                        भटका फिरता अनजानी
                                                                        जीवन के व्यथित क्षणों से
                                                                        कहता निज करुण कहानी |
ह्रद नीड़ मध्य चुप बैठे
अनुपम निज रूप छिपाये
देखि प्रीतम की प्रतिमा
शालीन हुए मुस्काये |
                                                                        मन मानसरोवर सा बन
                                                                        मानस में मानस उमड़ा
                                                                        देखा स्तब्ध रहा था-
                                                                        प्रिय का अनुपम शशि मुखड़ा |
निज मन वसंत में खिलके
बन आम्रमंजरी आये
मैं चल समीर का झोंका
सुस्पर्श किये सुख पाये |’

इस प्रकार की ही एक लम्बी रचना ‘मेरे स्वप्न’ भी है | तदुपरान्त कुछ सुन्दर गीत उन्होंने इस खंड में संग्रहीत किये हैं जो बेहद प्रभावशाली बन पड़े हैं और जिनके शीर्षक क्रमशः ‘मत सुनो प्रिय मीत, मेरे गीत !’, ‘वेदना अश्रु से आज कहने लगी’, ‘विवर्तन’, ‘मैं शलभ हूँ’, ‘अंत में’, ‘आओ मेरे राम’, ‘निशा गीत’, ‘अर्चना’, ‘छल गया जीवन फिर-फिर बार, ‘यह संसृति अपना साथी है’, ‘मेरे साथी सो मत जाना’, ‘साथी जीवन तो बस श्रम है’, ‘अव्यक्त होते हुए’, ‘मेरे दीपक’, ‘सजनि यह कैसा सवेरा’, ‘निजगीत’ आदि अनेक गीत हैं जो हिंदी काव्य परम्परा को समृद्ध करते हुए यथोचित दिशा का भी भान कराते हैं | छायावाद के उपरांत इसी प्रकार के गीतों का दौर चला था जिसकी अंतिम कड़ी के रूप में पद्मश्री गोपाल दास ‘नीरज’ हैं |

कुल मिलाकर कहूँ तो श्रीप्रकाश जी की कृतिरुपी इस कविता यात्रा से गुजरना मेरे लिए एक लोक जीवनानुभावों को आत्मसात करने जैसा रहा | उनकी साहित्य यात्रा यही तक नहीं है बल्कि वह तो चरैवेति-चरैवेति जैसी भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र को लेकर चलने वाली एक अनथक यात्रा है | मेरी सद्भावना और शुभकामना कवि की गति को उद्दीप्त करे | समाज में इस सौ’रभ’ की गमक दूर तक प्रसारित होकर सभी को रसानंद प्रदान करेगी, इसी विश्वास के साथ|

समीक्षक- मधुकर अष्ठाना
संपर्क- ‘विद्यायन’ एस.एस.108-9, सेक्टर-ई, एल.डी.ए. कालोनी,
कानपुर रोड, लखनऊ-12

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