लेखक
की ओर से
“शहर में कर्फ्यू” लिखना मेर लिए एक त्रासदी से
गुजरने जैसा था। उन दिनों मैं इलाहाबाद में नियुक्त था और शहर का पुराना हिस्सा
दंगों की चपेट में था। हर दूसरे तीसरे साल होने वाले दंगों से यह दंगा मेरे लिए
कुछ भिन्न था। इस बार हिंसा और दरिंदगी अखबारी पन्नों से से निकलकर मेरे अनुभव
संसार का हिस्सा बनने जा रही थीं- एक ऐसा अनुभव जो अगले कई सालों तक दुःस्वप्न की
तरह मेरा पीछा नहीं छोड़ने वाला था। मुझे लगा कि इस दुःस्वप्न से मुक्ति का सिर्फ
एक ही उपाय है इन अनुभवों को लिख डाला जाए। लिखते समय लगातार मुझे लगता रहा है कि
भाषा मेरा साथ बीच-बीच में छोड़ देती थी। अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत है ‘लैंग्वेज इज अ पूअर सब्स्टीट्यूट फॉर थाट’। इस
उपन्यास को लिखते समय यह बात बड़ी शिद्दत से याद आई। दंगों में मानवीय त्रासदी के
जितने शेड्स जितने संघनित रूप मेरे अनुभव संसार में जुड़े उन सबको लिख पाना न संभव
था और न ही इस छोटे से उपन्यास को खत्म करने के बाद मुझे लगा कि मैं उस तरह से लिख
पाया जिस तरह से उपन्यास के पात्रों और घटनाओं से मेरा साक्षात हुआ था। यह एक
स्वीकारोक्ति है और मुझे इस पर कोई शर्म नहीं महसूस हो रही है।
“शहर में कर्फ्यू” को प्रकाशन के बाद मिश्रित
प्रतिक्रियाएँ मिलीं। एक छोटे से साहित्यिक समाज ने इसे साहित्यिक गुण-दोष के आधार
पर पसंद या नापसंद किया पर पाठकों के एक वर्ग ने धर्म की कसौटी पर इसे कसने का
प्रयास किया। हिंदुत्व के पुरोधाओं ने इसे हिंदू विरोधी और पूर्वाग्रह ग्रस्त
उपन्यास घोषित कर इस पर रोक लगाने की माँग की और कई स्थानों पर उपन्यास की
प्रतियाँ जलाईं। इसके विपरीत उर्दू के पचास से अधिक अखबारों और पत्रिकाओं ने “शहर में कर्फ्यू” के उर्दू अनुवाद को समग्र या आंशिक
रूप में छापा। पाकिस्तान की “इतरका” और
“आज” जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक
पत्रिकाओं ने भी पूरा उपन्यास अपने अंकों में छापा। उर्दू पत्र पत्रिकाओं ( यदि
अन्यथा न लिया जाए तो मुसलमानों) की प्रतिक्रियाएँ कुछ-कुछ ऐसी थीं गोया एक हिंदू
ने भारत के मुसलमानों पर होने वाले अत्याचारों का पर्दाफाश किया है। बुरी तरह से
विभक्त भारतीय समाज में यह कोई बहुत अस्वाभाविक भी नहीं था। पर इन दोनों एक दूसरे
से इतनी भिन्न प्रतिक्रियाओं ने मेरे मन में भारतीय समाज के इस विभाजन के कारणों
को समझने के लिए तीव्र उत्सुकता पैदा की। संयोग से भारतीय पुलिस अकादमी की एक
फेलोशिप मुझे मिल गई जिसके अंतर्गत मैंने 1994-95 के दौरान
इस विषय पर काम किया और इस अकादमिक अध्ययन के दौरान भारतीय समाज की कुछ दिलचस्प
जटिलताओं को समझने का मौका मुझे मिला।
भारत
में सांप्रदायिक दंगों को लेकर देश के दो प्रमुख समुदायों- हिंदुओं और मुसलमानों
के अपने-अपने पूर्वाग्रह हैं। एक औसत हिंदू दंगों के संबंध में मानकर चलता है कि
दंगे मुसलमान शुरू करते है और दंगों में हिंदू अधिक संख्या में मारे जाते है।
हिंदू इसलिए अधिक मारे जाते हैं क्यों कि उसके अनुसार मुसलमान स्वभाव से क्रूर,
हिंसक और धर्मोन्मादी होते हैं। इसके विपरीत, वह
मानता है कि हिंदू धर्मभीरु, उदार और सहिष्णु होते हैं।
दंगा
कौन शुरू करता है, इस पर बहस हो सकती है पर दंगों में मरता कौन है इस
पर सरकारी और गैरसरकारी आँकड़े इतनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं कि बिना किसी
संशय के निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार स्वतंत्रता के
बाद दंगों में मरने वालों में 70 % से भी अधिक मुसलमान
हैं। राँची-हटिया (1967), अहमदाबाद (1969), भिवंडी (1970), जलगाँव (1970) और
मुंबई (1992-93) या रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के
सिलसिले में हुए दंगों में तो यह संख्या- 90 % के भी
ऊपर चली गई है। यही स्थिति संपत्ति के मामलों में भी है। दंगों में न सिर्फ
मुसलमान अधिक मारे गए बल्कि उन्हीं की संपत्ति का अधिक नुकसान भी हुआ। दंगों मे
नुकसान उठाने के बावजूद जब राज्य मशीनरी की कार्यवाही झेलने की बारी आई तब वहाँ भी
मुसलमान जबर्दस्त घाटे की स्थिति में दिखाई देता है। दंगों में पुलिस का कहर भी
उन्हीं पर टूटता है। उन दंगों में भी जिनमें मुसलमान 70-80 प्रतिशत
से अधिक मरे थे पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया उनमें 70-80 प्रतिशत से अधिक मुसलमान थे, उन्हीं के घरों की
तलाशियाँ ली गईं, उन्हीं की औरतें बेइज्जत हुईं और उन्हीं के
मोहल्लों में सख्ती के साथ कर्फ्यू लगाया गया।
इस
विचित्र स्थिति के कारणों की तलाश बहुत मुश्किल नहीं है। यह धारणा कि हिंदू
स्व्भाव से ही अधिक उदार और सहिष्णु होता है, हिंदू
मन में इतने गहरे पैठी हुई है कि ऊपर वर्णित आँकड़े भी औसत हिंदू को यह स्वीकार
करने से रोकते हैं कि दंगों में हिंदुओं की कोई आक्रामक भूमिका भी हो सकती है।
बचपन से ही उसने सीखा है कि मुसलमान आनुवांशिक रूप से क्रूर होता है और किसी की
जान लेने में उसे कोई देर नहीं लगती जबकि इसके उलट हिंदू बहुत ही उदार हृदय होता
है और चींटी तक को आटा खिलाता है। अक्सर ऐसे हिंदू आपको मिलेंगे जो कहेंगे “अरे साहब हिंदू के घर में तो आप सब्जी काटने वाले छुरे के अतिरिक्त और कोई
हथियार नहीं पाएंगे।” इस वाक्य का निहितार्थ होता है कि
मुसलमानों के घरों में तो हथियारों के जखीरे भरे रहते हैं। इसलिए एक औसत हिंदू के
लिए सरकारी आँकड़ों को मानना भी आसान नहीं होता। वह सरकारी आँकड़ों की सत्यता पर
सवालिया निशान उठाता है बावजूद इस तथ्य के कि दुनिया की कोई भी सरकार ऐसे आँकड़े
जगजाहिर नहीं करेगी जिनसे यह साबित होता हो कि उसके यहाँ अल्पसंख्यकों का जान-माल
सुरक्षित नहीं है।
अब
हम आएं दूसरे पूर्वाग्रह पर कि दंगा शुरू कौन करता है?
हिंदुओं की बहुसंख्या यह मानती है कि दंगे आमतौर पर मुसलमानों
द्वारा शुरू किए जाते हैं। एक हिंदू नौकरशाह, शिक्षाशास्त्री,
पत्रकार, न्यायविद या पुलिसकर्मी के मन में
इसे लेकर कोई शंका नहीं होती है कि दंगा शुरू कौन करता है? मुसलमान
चूँकि स्वभाव से ही हिंसक होता है इसलिए यह बहुत स्वाभाविक है कि दंगा वही शुरू
करता है। इस तथ्य का भी उल्लेख होता है कि दंगे उन्हीं इलाकों में होते हैं जहाँ
मुसलमान बहुसंख्या में होते है।
अपनी
फेलोशिप के दौरान मैंने “दंगा कौन शुरू कराता है” के
पहले “दंगे में मरता कौन है” की पड़ताल
की। एक हिंदू के रूप में मुझे बहुत ही तकलीफदेह तथ्यों से होकर गुजरना पड़ा। मेरा
हिंदू मन यह मानता था कि दंगों में उदार, सहिष्णु और अहिंसक
हिंदुओं का नुकसान क्रूर और हिंसक मुसलमानों के मुकाबले अधिक होता होगा। मैं यह
जानकर चकित रह गया कि 1960 के बाद के एक भी दंगे में ऐसा
नहीं हुआ कि मरने वालों में 70-80 प्रतिशत से कम मुसलमान रहे
हों। उनकी संपत्ति का भी इस अनुपात में नुकसान हुआ; और यह
तथ्य कोई रहस्य भी नहीं है। खासतौर से मुसलमानों और उर्दू प्रेस को पता ही है कि
जब भी दंगा होगा वे ही मारे जाएँगे। पुलिस उन्हें गिरफ्तार करेगी, उन्हीं के घरों की तलाशियाँ ली जाएँगी। गरज यह है कि दंगे का पूरा कहर
उन्हीं पर टूटेगा। फिर क्यों वे दंगा शुरू करना चाहेंगे? इसके
दो ही कारण हो सकते हैं कि या तो एक समुदाय के रूप में वे मूर्ख हैं या उन्होंने
सामूहिक रूप से आत्महत्या का इरादा कर रखा है।
आमतौर
से दंगा कौन शुरू करता है का फैसला इस बात से किया जाता है कि उत्तेजना के क्षण
में पहला पत्थर किसने फेंका। यह फैसला गलत हो सकता है। जिन्होंने सांप्रदायिक
दंगों का निकट से और समाजशास्त्रीय औजारों से अध्ययन किया है वे जानते है कि हर
फेंका हुआ पत्थर दंगा शुरू करने में समर्थ नहीं होता। दरअसल सांप्रदायिक हिंसा
भड़कने के लिए जरूरी तनाव की निर्मिति एक पिरामिड की शक्ल में होती है। वास्तविक
दंगे शुरू होने के काफी पहले से, कई बार तो महीनों
पहले से अफवाहों, आरोपों और नकारात्मक प्रचार की चक्की चलाई
जाती है। तनाव धीरे-धीरे बढ़ता है और अंततः एक ऐसा प्रस्थान बिंदु आ जाता है जब
सिर्फ एक पत्थर या एक उत्तेजक नारा दंगा शुरू कराने में समर्थ हो जाता है। इस
प्रस्थान बिंदु पर इस बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि पहला पत्थर किसने फेंका!
दंगो
की शुरूआत के मिथ को बेहतर समझने के लिए एक उदाहरण काफी होगा। भिवंडी में 1970
में भीषण दंगे हुए। 7 मई को दंगा तब शुरू हुआ
जब शिवाजी की जयंती पर निकलने वाले जुलूस पर मुसलमानों द्वारा पथराव किया गया।
पहली नजर में दंगे की शुरूआत का कारण बड़ा स्पष्ट नजर आता है। आसानी से कहा जा
सकता है कि मुसलमानों ने दंगे शुरू किए। लेकिन यदि घटनाओं की तह में जाएँ तो साफ
हो जाएगा कि मामला इतना आसान नहीं हैं। 7 मई 1970 से पहले भिवंडी में इतना कुछ घटा था कि जब पहला पत्थर फेंका गया तब माहौल इतना
गर्म था कि एक ही पत्थर बड़े दंगे की शुरूआत के लिए काफी था। पिछले कई महीनों से
हिंदुत्ववादी शक्तियाँ भड़काऊ और उकसाने वाली कार्यवाहियों में लिप्त थीं। जस्टिस
मदान कमीशन ने विस्तार से इन गतिविधियों को रेखांकित किया है। जुलूस के मार्ग पर
भी दोनों पक्षों में विवाद हुआ। मुसलमान चाहते थे कि जुलूस उस रास्ते से न ले जाएा
जाए जहाँ उनकी मस्जिदें पड़ती थीं। हिंदू उसी रास्ते से जुलूस निकालने पर अड़े
रहे। जब जुलूस मस्जिदों के बगल से गुजरा तो उसमें शरीक लोगों ने न सिर्फ भड़काऊ
नारे लगाए और मस्जिद की दीवारों पर गुलाल फेंका बल्कि जुलूस को थोड़ी देर के लिए
वहीं पर रोक दिया। इसी बीच मुसलमानों की तरफ से पथराव शुरू हो गया और दंगा शुरू हो
गया। दंगे की शुरूआत का फैसला करते समय हमें पथराव के पहले के घटनाक्रम को भी
ध्यान में रखना होगा।
बहस
के लिए हम पहले पत्थर फेंके जाने के पीछे के घटनाक्रम को भुला भी दें तब भी हमें
उस मुस्लिम मानसिकता को ध्यान में रखना ही पड़ेगा जिसके तहत पहला पत्थर फेंका जाता
है। सबसे पहले इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि मुसलमान जानते हैं कि अगर दंगा
होगा तो वे ही पिटेंगे। फिर क्यों बार-बार वे पहला पत्थर फेंकते हैं?
कहीं ऐसा तो नहीं है कि पहला पत्थर एक ऐसे डरे हुए समुदाय की
प्रतिक्रिया है जिसे लगातार अपनी पहचान और अस्तित्व संकट में नजर आता है। गरीबी,
शिक्षा का अभाव और मुसलमानों का अवसरवादी नेतृत्व भी इस डर को मजबूत
बनाता है। सरकारी नौकरी में भर्ती के समय किया जाने वाला भेदभाव और हर दंगे में
उनकी सुरक्षा में राज्य की विफलता से भारतीय राज्य में उनकी हिस्सेदारी नहीं बन पा
रही है। बहुत सारे कारण है, स्थानाभाव के कारण जिन पर यहाँ
विस्तृत चर्चा संभव नहीं है, जो एक समुदाय को निरंतर भय और
असुरक्षा के माहौल में जीने के लिए मजबूर रखते हैं और अक्सर उन्हें पहला पत्थर
फेंकने पर मजबूर करते है।
ऊपर
मैंने जानबूझकर बहुसंख्यक समुदाय के मनोविज्ञान की बात की है क्योंकि मेरा मानना
है कि बिना इसे बदले हम देश में सांप्रदायिक दंगे नहीं रोक सकते। बहुसंख्यक समुदाय
के समझदार लोगों को यह मानना ही पड़ेगा कि उनकी धार्मिक बर्बरता के शिकार
अल्पसंख्यक समुदायों के लोग ही रहे हैं और इस देश की धरती तथा संसाधनों पर जितना
उनका अधिकार है उतना ही अल्पसंख्यक समुदायों का भी है। इसके साथ ही हमें यह भी
मानना होगा कि सांप्रदायिक दंगों के दौरान पुलिस और फौज का काम देश के सभी
नागरिकों की हिफाजत करना है, हिंदुत्व के औजार
की तरह काम करना नहीं।
मुझे
लगता है दंगों के साथ-साथ भारतीय मुसलमानों को भी दूसरे बड़े मुद्दों पर भी सोचना
होगा। सबसे पहले तो यह मानना होगा कि दो राष्ट्रों के सिद्धांत के आधार पर हुआ देश
का विभाजन सर्वथा गलत था। न तो धर्म के आधार पर राष्ट्रों का निर्माण हो सका है और
न ही हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं। भारत के हिंदू और मुसलमान जिनकी समान
सामाजिक, आर्थिक, भाषिक पृष्ठभूमि है,
एक दूसरे के ज्यादा करीब हैं बनिस्बत उन लोगों के जिनका सिर्फ धर्म
समान है पर संस्कृतियाँ भिन्न हैं।
इस
सवाल में उलझने का अब समय नहीं है कि देश का विभाजन किसने कराया। विभाजन एक बड़ी
गलती थी और उसका बहुत बड़ा खामियाजा हमने भुगता है। समय आ गया है जब इस उपमहाद्वीप
के लोग बैठें और इससे जुड़े प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करें।
इसी
के साथ-साथ मुसलमानों को उस मनोविज्ञान का भी संज्ञान लेना होगा जिसके तहत
निजामें- मुस्तफा या शरिया आधारित समाज व्यवस्था की चर्चा बनी रहती है। धर्म
निरपेक्षता एक विश्वास की तरह स्वीकार की जानी चाहिए। किसी फौरी नीति की तरह नहीं।
लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई खानों में बँटकर नहीं बल्कि मिलकर लड़ी जा
सकती है।
- विभूति नारायण राय
इस प्रस्तुति के लिए बधाई के पात्र हैं. जो बाते उन्होंने इस में कही हैं वो कल के सुप्रीम कोर्ट जजमेंट में आ गेन . मेरे कहने का अर्थ मात्र इतना है की राय जे भविष्यदृस्ता की तरह सोंचते थे.
ReplyDeleteआ० विभूति नारायण राय से मुझे बातचीत का अवसर वर्धा में सेमिनार के दौरान दो तीन बार मिला.उस समय वो कुलपति थे. काफी खुला व्यक्तित्व और कृतित्व ने मुझे विषेश आकर्षित किया था.