Friday, 15 August 2014

तीन कवि : तीन कवितायेँ - 3

‘स्पर्श’ पर इस महीने के आरम्भ में शुरू की गयी तीन कवि तीन कविताओं की इस नई श्रृंखला में तमाम कवियों का सहयोग हमें लगातार मिल रहा है साथ ही इन पर पाठकों की काफी अच्छी प्रतिक्रियाएं भी मिल रही हैं | इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए इस बार प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा, युवा कवि राकेश रोहित और एकदम नया युवतर स्वर करीम पठान की नवीनतम कवितायेँ :
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गोली दागो पोस्टर / आलोक धन्वा 


यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या
किसी पेशेवर हत्यारे का दायाँ हाथ या किसी जासूस
का चमडे का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर
टिका हुआ धब्बा है
जो भी हो-इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता !

जहाँ मैं लिख रहा हूँ
यह बहुत पुरानी जगह है
जहाँ आज भी शब्दों से अधिक तम्बाकू का
इस्तेमाल होता है

आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है
यहाँ जीभ का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ आँख का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ कान का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ नाक का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है

यहाँ सिर्फ दाँत और पेट हैं
मिट्टी में धँसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज माँगता रहता है-

एक मूसलधार बारिश से
दूसरी मूसलाधार बारिश तक

यह औरत मेरी माँ है या
पाँच फ़ीट लोहे की एक छड़
जिस पर दो सूखी रोटियाँ लटक रही हैं-
मरी हुई चिड़ियों की तरह
अब मेरी बेटी और मेरी हड़ताल में
बाल भर भी फ़र्क़ नहीं रह गया है
जबकि संविधान अपनी शर्तों पर
मेरी हड़ताल और मेरी बेटी को
तोड़ता जा रहा है

क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद
मुझे बारूद के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए?
क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को
मैं अपने बच्चे के साथ
एक पिता की तरह रह सकता हूँ?
स्याही से भरी दवात की तरह-
एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ?

वे लोग अगर अपनी कविता में मुझे
कभी ले भी जाते हैं तो
मेरी आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर
मेरा इस्तेमाल करते हैं और फिर मुझे
सीमा से बाहर लाकर छोड़ देते हैं
वे मुझे राजधानी तक कभी नहीं पहुँचने देते हैं
मैं तो ज़िला-शहर तक आते-आते जकड़ लिया जाता हूँ !

सरकार ने नहीं-इस देश की सबसे
सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया

बहन के पैरों के आस-पास
पीले रेंड़ के पौधों की तरह
उगा था जो मेरा बचपन-
उसे दरोग़ा का भैंसा चर गया
आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर
एक दरोग़ा को गोली दागने का अधिकार है
तो मुझे क्यों नहीं ?

जिस ज़मीन पर
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूँ
जिस ज़मीन पर मैं चलता हूँ
जिस ज़मीन को मैं जोतता हूँ
जिस ज़मीन में बीज बोता हूँ और
जिस ज़मीन से अन्न निकालकर मैं
गोदामों तक ढोता हूँ
उस ज़मीन के लिए गोली दागने का अधिकार
मुझे है या उन दोग़ले ज़मींदारों को जो पूरे देश को
सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं

यह कविता नहीं है
यह गोली दागने की समझ है
जो तमाम क़लम चलानेवालों को
तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है।
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उन्माद भरे समय में कविता की हमसे है उम्मीद / राकेश रोहित 


बहुत कमजोर स्वर में पुकारती है कविता
उन्माद भरा समय नहीं सुनता उसकी आवाज
हिंसा के विरुद्ध हर बार हारता है मनुष्य
हर बार क्रूरता के ठहाकों से काला पड़ जाता है आकाश।

सभ्यता के हजार दावों के बावजूद
एक शैतान बचा रहता है हमारे अंदर, हमारे बीच
हमारी तरह हँसता-गाता
और समय के कठिन होने पर हमारी तरह चिंता में विलाप करता।

जब मनुष्य दिखता है
नहीं दिखती है उसके भीतर की क्रूरता
और हम उसी के कंधे पर रोते हैं, कह-
हाय यह कितना कठिन समय है!

कविता फर्क नहीं कर पाती इनमें
इतने समभाव से मिलती है वह सबसे
इतनी उम्मीद बचाये रखती है कविता
मनुष्य के मनुष्य होने की!

आँखों में पानी बचाने की बात हम करते रहे
और आँसुओं में भींगती रही आधी आबादी की देह
धरती कभी इतना तेज नहीं घूम पाती कि
अँधेरे में ना डूबा रहे इसका आधा हिस्सा!

रोज शैतानी इच्छाएं नोच रही हैं धरती की देह
रोज हमारे बीच का आदमी कुटिल हँसी हँसता है
कविता कितना बचा सकती है यह प्रलयोन्मुख सृष्टि
जब तक हम रोज लड़ते न रहें अपने अंदर के दानव से!

समाज में अकेले पड़ते मनुष्य को ही
खड़ा होना होगा
अपने अकेलेपन के विरुद्ध
एक युद्ध रोज लड़ने को होना होगा तत्पर
अपने ही बीच छिपे राक्षसों से
इस सचमुच के कठिन समय में
कविता की यही हमसे आखिरी उम्मीद है।
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संपर्क- एफ़०एफ़०, क्वार्टर नं 366,7 गरचा फर्स्ट लेन, गरिया हाट, कोलकाता 700019 (प. बंगाल)
ईमेल- rkshrohit@gmail.com
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जेहाद / करीम पठान अनमोल 


क़ुरआन कहता है
लड़ो
लड़ो उनसे...जो अन्याय करते हैं
लड़ो उनसे...जो मज़लूमों पर अत्याचार करते हैं
लड़ो उनसे...जो दीन की मुख़ालफ़त करते हैं

लेकिन तुमने पढ़ा
सिर्फ़ 'लड़ो'
क्यों...कैसे...किससे
ये नहीं
और चल पड़े
जेहाद करने

अरे! क़ुरआन को अगर समझने की कोशिश करते
तो कुछ यूँ पढ़ते-
कि बिला वजह किसी चींटी तक को तक़लीफ न दो
तुम्हारा ख़ुदा तुमसे नाराज़ होगा
कि दो लोगों में सुलह कराओ
तुम्हारा ख़ुदा तुमसे राज़ी होगा
कि अपने पड़ौसी का हक़ अदा करो,
देखो तुम्हारे पड़ौस में कोई भूखा, परेशान हाल तो नहीं
वरना तुम्हें चैन से सोने का कोई हक़ नहीं

कितनी मोहब्बत और शफ़क़त है इस मज़हब में
ख़ुदाया!
ये मज़हब तुम्हें
अपने दुश्मन के लिये भी बद्दुआ करने की इज़ाज़त नहीं देता
फिर हथियार उठाने, ख़ून बहाने की इज़ाज़त क्या देगा?
मगर अफ़सोस
सद अफ़सोस
तुमने मज़हब और ज़ेहाद के नाम पर
सिर्फ़ ज़हर बोया...।
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संपर्क- बहलिमों का वास, सांचोर, (जालोर) राज. 343041
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6 comments:

  1. आलोक धन्वा जी की कविता ने भीतर तक झकझोर कर रख दिया..राकेश जी और अनमोल जी को भी एक सफल कविता के लिये बहुत बधाई...बेहतरीन कवितायें पढ़वाने के लिये बहुत आभार राहुल जी....सराहनीय है आपका कदम...!

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  2. बेहतरीन कवितायें पढ़वाने के लिये बहुत आभार....!

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  3. तीनों कविताएँ एक से एक बेहतरीन, बहुत बधाई और शुभकामनाएँ ।

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  4. अति उत्तम। बहुत ही उच्च कोटि के विचारों को कविताबद्ध किया गया है। राकेशजी आपका बहुत धन्यवाद

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  5. वास्तविकता को छूती और संवेदनाओं को टटोलती, कविता की गंभीरता किन्तु उसकी शालीनता को दर्शाती ये कविताएँ....बहुत ही सुंदर हैं. लेखक बधाई के पात्र हैं.

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  6. हौसला अफज़ाई के लिए सभी का बहुत बहुत धन्यवाद

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