(12 DEC 1950 - 04 MAY 2021)
ज्ञान चतुर्वेदी, भारतीय उपन्यास का कदाचित् एक ऐसा अन्यतम हस्ताक्षर है, जिसने विगत चार दशकों में, अपने रचनात्मक-पुरुषार्थ से, अपनी भाषा और अभिव्यक्ति की भंगिमा में, अपनी अग्रज पीढ़ी द्वारा निर्मित तमाम, पड़ावों, सोपानों और प्रभावों से निकल कर, अब स्वयम् की एक विशिष्ट सृजनात्मक पहचान बना ली है। बहरहाल, ‘राजकमल प्रकाशन गृह’ से आयी, यह सद्य प्रकाशित कृति, ‘पागलख़ाना’, उसका पांचवां उपन्यास है। कहना न होगा कि ‘भूमण्डलीकरण’ के साथ ही आये, ‘बाज़ारवाद’ की सांस्कृतिक-आर्थिक और सामाजिक चपेट में आ चुके, हमारे मौजूदा भारतीय समाज की, यह उपन्यास, एक ऐसी दारुण व्यथा-कथा कहता है कि जिसमें ‘समकाल के यथार्थ’ की अभिव्यक्ति को और अधिक अमोघ बनाने के लिए, इस कृति को उसने इरादतन, फैण्टेसी के शिल्प में प्रस्तुत किया है।
मुझे याद है, जब ज्ञान चतुर्वेदी, इस ‘भूमण्डलीकृत-बाज़ार’ के बढ़ते वर्चस्व को केंद्र बनाकर, उपन्यास लिखने की रचनात्मक-मनोभूमि
में था, तो उसने एक दिलचस्प बात कही थी- “प्रभु, हमारे चिकित्सा-विज्ञान की पुस्तकों
में, मधुमेह और
मधुमेह के रोगियों के बारे में एक दिलचस्प टिप्पणी है- ‘ नेम द आर्गन, देअर विल बी द डायबिटीज़।’ अर्थात् जब व्यक्ति को मधुमेह हो जाए
तो आप उसके किसी भी अंग का नाम लीजिये, वहाँ जो कुछ भी ‘क्षरण’ अथवा ‘नई-रुग्णता’ प्रकट हो रही है, वस्तुतः मधुमेह के ही हस्तक्षेप की वजह से है। और उस ‘क्षरण’ और ‘रुग्णता’ को, जब तक आप पहचानेंगे, तब तक देर हो चुकी होगी, क्योंकि, डायबिटीज इज़ अ साइलेण्ट किलर..।...।’
प्रसंगवश, यहां मैं यह याद दिलाना चाहूंगा, कि ख्यात उत्तर-आधुनिक दार्शनिक
फ्रेडेरिक जेमेसन ने ठीक यही बात ’भूमण्डलीकरण’ के सन्दर्भ कही है कि ‘ वह माईक्रो और मेक्रो दोनों ही स्तर पर ‘रेडिकल’ उलटफेर करता है और जब तक आप समझेंगे
कि ‘भूमण्डलीकरण’ वास्तव में क्या है, तब तक वह अपना काम पूरी तरह से निबटा
चुकेगा, क्योंकि वह तब तक सर्वस्व को अपने वर्चस्व में अधिग्रहित कर लेगा।’
ज्ञान का कहना है कि “इस सदी में अब हमें, यदि हमें किसी भी ‘राष्ट्र-राज्य’ में किसी भी तरह की राजनीतिक या सांस्कृतिक-रुग्णता
के लक्षण प्रकट होते दिखने लगे तो यह तय मान लीजिये कि वह ‘भूमण्डलीकृत बाज़ार’ का ही किया-धरा है, क्योंकि जिस तरह मधुमेह मीठे-मीठे ढंग
से नष्ट करता है, ‘भूमण़्डलीकरण’ की हिदायत है कि ‘टु बी किल्ड विथ काइण्डनेस।’ क्योंकि, अगर दयालु दिखने-दिखाने का यह एहतियात नहीं रखा गया तो समाज में उस
उलटफेर के प्रति प्रतिरोध पनप सकता है।
कहना न होगा कि इसलिए ही, ‘भूमण्डलीकरण’ के ‘इन्फो-वारियर्स’ कहने लगे- ‘तुम्हारे जीवन में अब एक नई सभ्यता और संस्कृति का उदय हो रहा है, अन्धत्व के शिकार लोग, इसके आगमन के विरुद्ध हाय-तौबा मचा
रहे हैं। यह परिवर्तन, जो बहुत तेज़ी से आ रहा है, वह जीवन और समकाल की सबसे बड़ी सामाजिक सच्चाई है।’ वे ‘स्मृति’ के विरुद्ध ‘विस्मृति’ को रेखांकित करने लगे। कहना चाहता हूं
कि ज्ञान चतुर्वेदी की, ‘बाज़ारवाद’ के साथ ही अचानक आ जाने वाले इस अप्रत्याशित परिवर्तन के पूरे कालखण्ड
पर, एक सजग नज़र थी
और वह अपने चिकित्सा-शास्त्र की पुस्तकों और पत्रिकाओं के साथ ही साथ, वह ‘भूमण्डलीकरण’ द्वारा किए जा रहे उथलधड़े को, एक बहुत गहन सम्वेदनशील लेखक की तरह
लगातार देखता चला आ रहा था। वह ‘भूमण्डलीकरण’ से सम्बन्धित, किताबें पढ़ रहा था, ताकि वह उसे ठीक से समझ सके, क्योंकि पूरे भारतीय राष्ट्र और समाज के बीच, कोई भी ऐसा क्षेत्र और अनुशासन अछूता
नहीं बचा रह सका था, जिसमें ‘पश्चिम-केन्द्रित बाजार’, अपने ढंग से अराजक उलटफेर नहीं कर रहा हो। ‘भूमण्डलीकरण’ के आगमन के साथ ही, यह एक दिलचस्प अन्तर्विरोध प्रकट होने
लगा कि ‘आर्थिक’ स्तर पर, हम जहाँ एक ओर ‘वैश्विक’ हो रहे थे, वहीं ‘चेतना’ के स्तर पर अधिक ‘क्षेत्रीय’। जबकि, ऐसा होना, पूरे समाज को, एक तीखे अन्तर्संघर्ष से भर रहा था। क्योंकि एक तरफ़ जिस ज़ुबान से ‘नेशन इज़ एन इमेजिण्ड कम्युनिटी’ की बात कही जा रही थी, वहीं यह भी हो रहा था कि अंचलों से
आवाज़ें उठ रही थीं कि हमें हमारा ‘झारखण्ड’ चाहिए, हमें हमारा ‘बघेलखण्ड’ या ‘बुन्देलखण्ड’ चाहिये। ज्ञान चतुर्वेदी, तब तक इस अर्न्तविरोध पर, ‘इण्डिया टुडे’ में एक बहुत तीख़ी और सशक्त फैण्टेसी लिख चुका था।
बहरहाल, बहुत ज़ल्द ही पूरे समाज में, मुक्त-व्यापार बनाम ‘बाज़ारवाद’ का एक सार्वदेशीय भय चतुर्दिक व्यापने लगा था, गालिबन, जो कुछ उनका ‘अपना’ है, वही उनसे छीन लिया जाने वाला है। जाल
बिछ रहे थे, और सबसे बड़ा जाल था-अन्तर्जाल। इण्टरनेट। वह घरों के भीतर कमरों में
फैलता जा रहा था- और छतों पर एक दूसरा जाल था, जिसमें सारी दुनिया की ख़बरें खौल रही
थीं- कहा जा रहा था, एक ‘सूचना सम्पन्न समाज’ की रचना हो रही है। किसी को कोई सम्पट नहीं बैठ पा रही थी कि ‘आख़िर ये क्या हो रहा है...?’ एक ईमानदार-सन्देह, सर्वस्व को ‘सन्दिग्ध’ बनाता हुआ, ‘बाज़ारवाद’ का ही एक विराट वलय रच रहा था।
राजनीति में अर्थशास्त्र, अर्थशास्त्र में भूगोल, भूगोल में भाषा, भाषा में भूख, भूख में भगवान् - और इस सभी में सर्वव्यापी की तरह घुस रहा था, ‘चरम मुक्त-बाज़ार’। लगने लगा कि कोई महा-मिक्सर है, जिसने पूरे समाज और उसकी संरचना के
तमाम घटकों को फेंट-फेंट कर गड्ड-मड्ड कर दिया गया है। उत्तर-आधुनिक फ्रेंच
दार्शनिक देरीदा ने इसी ‘गड्ड-मड्ड समय’ को ‘टाइम फ्रेक्चर्ड-टाइम एण्ड टाइम डिसजॉइण्टेड’ जैसी सामासिक-पदावली में परिभाषित
करने की दार्शनिक कोशिशें भी की।
लेकिन, ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन के लिए सबसे बड़ी चुनौती इस ‘बाज़ारवाद’ बनाम ‘भूमण्डलीय-यथार्थ’ के वैराट्î को अपनी रचना में, ‘अधिकतम ढंग से अधिकतम स्तर पर’ समेटने की थी, क्योंकि वह इतना हाइपर, इतना विस्तृत और विराट था कि उसे एक
कृति में समाहित करना, एक बड़ी लेखकीय द्विविधा का काम था। इसी दौर में उसके स्तंभों में भाषा
और शिल्प का एक नितान्त नया और आत्म-सजग मुहावरा प्रकट होने लगा था। उसे लगने लगा
था कि उसके पास एक लम्बे लेखकीय-जीवन के अनुभव से अर्जित व्यंग्य के शिल्प में, इस विराट और बहुत जटिल छद्म को
उद्घाटित करना आसान नहीं है। ‘परिवर्तन की निर्ममता’ से उपजे अवसाद से निबटने के लिए, टेलिविज़न चैनलों पर ‘यथार्थ को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल
करता हुआ, मसखरी का कारोबार’, जन-सामान्य के ज़रूरी और जायज़ गुस्से को ‘मनोरंजन की मीठी खुराक़’ से हत्या कर रहा था। अख़बारों के लिए
भी व्यंग्य के बजाय, हास्य-लेखन की उपभोक्ताई ज़रूरत हो गई थी। ख़बरों का भी खुल कर ‘मनोरंजनीकरण’ होने लगा था। समय और समाज के सत्य को, ‘कीलिंग विथ इण्टरटेंमेण्ट’, की धूर्त कूटनीति ने, सत्य को पहले से कहीं अधिक, सन्दिग्ध करते हुए, ‘विचारहीनता के विचार’ को फैलाना शुरू कर दिया था। तब निश्चय
ही एक जेनुईन लेखक में अभिव्यक्ति की चिन्ता, ‘रचना’ में, ‘फार्म’ को लेकर ही उठती है। कहने की ज़रूरत
नहीं कि किसी भी सच्चे लेखक के लिए अभिव्यक्ति से अधिक अभिव्यक्ति की भंगिमा के
निर्धारित करने का यह एक क़िस्म का बहुत कठिन संकट होता है। यह संकट अब और गहरा गया
था। क्योंकि लेखक, जिस यथार्थ को अपनी कृति में व्यक्त करने का दावा कर रहा था, उससे अधिक यथार्थ तो अब ‘रियालिटी-टीवी’ के फुटेज देने के लिए आगे आ गये। जबकि, ‘बाज़ारवाद’ के खिलाफ, किस्सागोई और निरे बखान की, निरी इन्वेस्टिगेटिव-साहित्यिक पत्रकारिता
छाप बहुतेरी कहानियां, अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं में आ रहीें थीं, जिनमें बने-बनाये फामूलाओं वाले
प्लाटों के सहारे, ग्राहक के ठगे जाने या विज्ञापन के छद्म या एग्रेसिव-मार्केटिंग को
विषय बनाया गया था। जबकि, वह बाज़ार तो है लेकिन ‘बाज़ारवाद’ नहीं हैं।
कुल मिलाकर, ये सारे वे प्रश्न ही थे, जिन्हांेने ज्ञान चतुर्वेदी को, प्लाटवादी रास्ता छोड़ कर, कथा में घटनाओं और विवरणों के मोह को
छोड़कर, एक ‘अकल्पनीय अविश्वसनीयता’ के सीमान्तों पर पहुंचकर, ‘एक नई कलाजन्य विश्वसनीयता’ की गढ़न्त’ वाला,
‘पागलख़ाना’ जैसी अद्वितीय रचना लिखने के लिए
बाध्य कर दिया। एक दिन उसने कहा-‘ प्रभु...! मैंने एक ‘महा-खलनायक’ की कल्पना की और उसे एक ‘अमानवीय-सर्वसत्तावादी वर्चस्व’ के केंद्रीभूत किरदार की तरह गढ़ने की
योजना बनायी र्है, क्योंकि, ये जो नया ‘बाज़ारवाद’ आया है, वह एक कोई सामान्य-सा परम्परागत बाज़ार नहीं हैं, बल्कि यह तो गहरी मेधा वाले व्यक्ति की कल्पना से भी कहीं अधिक विराट
है। यह ‘लार्ज़र देन लाइफ नहीं, लार्ज़र देन ह्यूमन इमेजिनेशन’ है। क्योंकि, ये अब कमोबेश ‘ईश्वरावतार’ जैसा हो चुका है। वह सर्वव्यापी है।
मेरा सोचना है कि यह अब ‘रामदीन-श्यामदीन’ के इस नये चमकीले बाज़ार में ठगे जाने के इकहरे किस्सों से यह
एक्सपोज़्ा नहीं होगा।’
यह बहुत दिलचस्प है कि ज्ञान चतुर्वेदी के इस
उपन्यास में इसलिए मुख्यतः केवल सिर्फ दो पात्र ही हैं। एक है, ‘बाज़ार’ और दूसरा है, ‘नागरिक’, जो अलग-अलग अध्यायों में अलग-अलग
संस्करण में दिखता है, लेकिन बुनियादी रूप से वह एक ही पात्र है, एक ही किरदार है, जो अलग-अलग प्रतिनिधि परिस्थितियों
में त्रास और भय के प्रतिनिधि कुचक्र में फंसा लिया जा रहा है। कहीं पर उसके सपनों
की चोरी हो गई है, तो कहीं पर उसकी स्मृति का अपहरण हो गया है, वह खुद को पहचानना भूल गया है। वह
ताले की तलाश में है। बाज़ार उसकी तलाश में है। पागल बढ़ रहे हैं। वह पागल है। वह
पागल कतई नहीं है। वह दुनिया और दुनियादारी से भाग रहा है। वह भाग रहा है, आकाश से ऊपर और धरती के नीचे। वह छिप
रहा है। क्योंकि वह अपने उस ‘स्वत्व, सत्य और सातत्य’ को बचा लेने में लगा हुआ है, जो उसके पास संचित था। ‘बाज़ार’ तो उपन्यास के हर अध्याय में हर जगह और हर पृष्ठ पर है, नागरिक को अपने लिए अनुकूलित करता
हुआ। एक ‘डिज़ाइण्ड’ केन्द्रीय-आशावाद के पीछे वह विभिन्नताओं को लीलना चाहता है। उपन्यास
में आया, वह ऐसा बाज़ार है, जो ‘फ्री-विल’ को नष्ट करके ‘स्वतन्त्रता’ की बात करता है, जबकि वह केवल ‘चयन’ की स्वतन्त्रता देता है, जीवन जीने और उसके तरीके़ की नहीं।
सच बात तो यह है कि इस ‘बाज़ारवाद’ को, केवल, दुकानों, ़घरों, इमारतों और बहुमंजिला मॉल्स में ही
नहीं देखा जा सकता है बल्कि इन दिनों उसकी नज़र तो, मनुष्य के मस्तिष्क पर है। कहना चाहिए
कि कण-कण में रहने वाले भगवान् को अपदस्थ करके ‘बाज़ार’ ने वहाँ अपना वास बना लिया है। शायद, ईश्वर नहीं, मैं कहना चाहूँगा, नीत्शे की शब्दावली उधार लेकर- एक
करुणाहीन राक्षस, जो सर्वस्व को अपने अधीन करने के लिए न केवल संकल्पित है, बल्कि समर्थ भी है। प्रकारान्तर से वह
‘विराटावतार-बाज़ार’, उपन्यास के हर अध्याय में एक धूर्त और
दक्ष ‘ऑर्गनाइजेशन मैन’ है, जो सिर्फ संस्थागत रूप से सोचता है, व्यक्ति की सम्वेदना के सहारे नहीं।
वह उपन्यास में हर जगह है, सबकुछ को, यहाँ तक कि विश्व के हर नागरिक को उपभोक्ता में बदलता हुआ। सिर्फ एक
ही रूप में है, पृथ्वी का मनुष्य’, उस के लिए, मात्र उपभोक्ता। ‘एकता’ नहीं, एकरूपता उसके अभीष्ट की फेहरिस्त में प्राथमिक है। निस्सन्देह, वह पश्चिम के कूटनीतिक सांस्कृतिक
विस्तारवादी वर्चस्व का अपराजेय रूप है, जो अन्ततः पहली दुनिया की श्रेष्ठता और उसमें भी केवल अमरीकी
श्रेष्ठता को ही शेष संसार के अनुकरण के लिए ‘आईडियल-साँचे’ का काम कर रहा है। यहां, बाज़ार के कारण आये केऑस को समझने के
लिये कुछेक महत्वपूर्ण बातें।
मसलन, बेल-आउट डील पर हस्ताक्षर करने के बाद, भारत-सरकार के वित्तमंत्री की सारी
प्रतिबद्धताएँ, अब भारतीय ‘राष्ट्र-राज्य’ के बजाय, ‘अन्तर-राष्ट्रीय मुद्रा कोष’, ‘विश्व बैंक’ और ‘विश्व-व्यापार संगठन’ के तमाम कूटनीतिक कारिन्दों
की कृपा-साध्यता को पाने के प्रति हो गई थी। यह राष्ट्र की ‘सम्प्रभुता’ के धीरे-धीरे ‘स्वाहा’ करने का साबर-मन्त्र था, जिसके पार्श्व में ‘भूमण्डलीकरण’, और ‘उदारवादी जनतन्त्र’ का ‘सामगान’ चलना था। इसका, कुल अभिप्राय यह था कि ‘राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था’ को, ‘अन्तरराष्ट्रीय-अर्थव्यवस्था’ के महामत्स्य से नाथना था ताकि
पश्चिम-केन्द्रित ‘चरम मुक्त बाज़ार व्यवस्था’ के हित में, आवारा-पंूजी के प्रवाह का निर्विघ्न मार्ग खोला जा सके। अर्थात् अब ‘शिक्षा’,‘स्वास्थ्य’,‘संचार’, से लेकर तमाम वे दायित्व, जो ‘राज्य’ की प्रथम शर्त थी, उन्हें ‘निजीकरण’ की झोली में डाल कर, जन-प्रतिबद्धता से हाथ झाड़ कर, राज्य के पास अब केवल ढांचागत-समायोजन’ के स्वागत में तालियाँ कूटने भर का काम रह गया था। यही ‘मनमोहनामिक्स’ कहा जा रहा था, जो कि असल में भारत का ‘दोहनामिक्स’ था।
यह निर्णय समझदार देशवासियों के लिए ‘बाज़ारवाद’ उर्फ ‘मनमोहनामिक्स’ सचमुच ही हतप्रभ कर देने वाला था
क्योंकि भारतीय जनतंत्र में, इतना बड़ा परिवर्तन आज़ादी के बाद पहली बार, अचानक लाद दिया गया था, जिसके लिए अभी भारतीय राष्ट्र-राज्य
और समाज कतई तैयार नहीं था, क्योंकि आने वाला यह परिवर्तन, एक तरह से बड़ा अप्रत्याशित ‘विनष्टीकरण’ था, जिससे नेहरू-युगीन ‘वैकासिक आधुकिता’, जमींदोज़ हो गई, और ये सचाई भारतीयों को, अपनी ‘राजनीतिक रतौंध’ के चलते समझ मंे ही ही नहीं आ रही थी। यह कैसा ‘परिवर्तन’ था ? जिसमें हमारा अभी तक का सारा का सारा, संचित ही भीतर से, जगह जगह से टूट रहा था।
मार्क्स ने एक जगह लिखा था, जब किसी परम्परागत गढ़न्त वाले समाज
में, भीतर से
परिवर्तन के लक्षण प्रकट होने के पूर्व ही, यदि उस पर बाहर से ‘बलात् परिवर्तन’ लाद दिया जाये तो वह पूरा का पूरा
समाज, एक गहरे सामाजिक और सांस्कृतिक-अवसाद में जीने को अभिशप्त हो जाता है।
स्पष्टतः भारत में ‘भूमण्डलीकरण’ के शुरू होते ही, ठीक यही होने लगा, क्योंकि परिवर्तन त्वरित और उसका आघात इतना निष्करुण था कि वह
परम्परागत का, चुन-चुन कर ध्वंस करता चला जा रहा था।
यहाँ यह प्रासंगिक है कि क्योंकि सबसे पहले हमारे
यहाँ ही नहीं बल्कि सब जगह, ‘बाज़ारवाद’ मीडिया की पीठ पर सवार होकर आया और मीडिया का धड़ाधड़ ‘भूमण्डलीकरण’ हुआ और पश्चिम की ‘कल्चर इण्डस्ट्री’ के उत्पाद या कहें कि ‘उनके’ माल के विक्रय के लिए, उसने हवाई हमले कर-कर के, सारे ‘परम्परागत’ और उससे जुड़ी आसक्ति को भी नष्ट करना
शुरू करना शुरू कर दिया, ताकि उस माल के क्रय और उपभोग की आदतों के ज़रिये, यथेष्ट जगह बनाई जा सके।
परिणाम-स्वरूप, उस चक्रव्यूह ने ऐसी संरचना बनाई कि जीवन-शैली का उलटफेर करने में, उसने बहुत कम समय लिया- इलेक्ट्रोनिक
मीडिया ने विज्ञापन के ज़रिये ‘कामना के अर्थशास्त्र’ के भीतर, अल्प-उपभोगवादी भारतीय समाज को उलटकर ध्वस्त कर दिया। ‘विचार’ की जगह ‘वस्तु’ ने ले ली और यही वह सबसे कागर-सा, अचूक ब्रह्मास्त्र ही था, जिसने मिल्टन फ्रीडमैन के, उस ‘मुक्त-बाज़ार’ को ज़ल्द ही विकराल बना डाला। उसने
गाँव के विरुद्ध ‘शहर’ और नागरिक के विरुद्ध ‘उपभोक्ता’ को बनाया और पश्चिम के महानगरीय-अभिजन की जीवन-शैली के अनुकरण को ही
समूची मानव-सभ्यता का आख़िरी अभीष्ट बना डाला है।
बुनियादी रूप से ‘बाज़ारवाद’, उपन्यास में नागरिक के विवेक को उखाड़
कर फेंकने के लिए राजी करता नज़र आता है। वह स्वतं़त्र सोच को ‘कॉमनसेन्स’ से बाहर बताकर, उस सोच को ही ‘पागलपन’ सिध्द कर कर डालता है। अर्थात्, जो असहमत है, वह निर्विवाद रूप से ‘प्रमाणित-पागल’ है। उसे एक क़िस्म का ‘डि-नेचर्ड ह्यूमन बीइंग’ चाहिए, जो अपनी मानवीय नैसर्गिकता को छोड़ कर
केवल उसके ‘उत्पादों’ का भोक्ता भर हो। एक निरा ‘कल्चरल-कंज्यूमर’ यह पहली दुनिया की मेटा-थियरी है, जो दूसरे देशों के सामाजिक-सांस्कृतिक
विवेक का अपहरण बाज़ार के हाथों करने लगी थी।
मैं, ज्ञान चतुर्वेदी के घर में, उसकी माँ और छोटे भाइयों के साथ, कोई पौने दो साल रहा हूं, नतीज़त़न, उसे मित्र के साथ ही साथ एक रचनाकार
की तरह भी जानने का कुछ-कुछ दावा कर सकता हूँ। ज्ञान, जब इस विषय को उठा रहा था तो निश्चय
ही विषय की ‘अतिव्याप्ति’ को देख कर लिखते हुए वह शनैः शनैः इरादतन विषय का काफ़ी कुछ खारिज भी
करता चला आया होगा। पूछा जा सकता है कि जिसे वह निरस्त करता है, किसके आग्रह पर ? बाहर के सच के आग्रह पर या भीतर के
सर्जक की हिदायत के पालन में। मुझे कृति
पढ़ते हुए लगा। उसने दोनों के आदेशों पर विचार करके अपने लेखक के नैसर्गिक
रचना-विवेक से ‘कुछ निरस्त’ किया, ‘कुछ चुना’ होगा, क्योंकि ‘रचना करना’ और ‘खारिज़’’ करना, उसका अवश्यंभावी अंग है। टु क्रियेट एण्ड टु रिज़ेक्ट। एक तरह से कहना
चाहिए, ज्ञान के भीतर शुरू से ही एक ‘प्रति-रचनाकार’ की उपस्थिति काफी मुखर है। उस ‘प्रति-रचनाकार’ को, उसके अन्तरंग में छुपे ‘आलोचक’ की तरह पहचाना जाना चाहिए। वह ठीक ही कहता है कि ‘साहित्य के ज़रिये’, इस भूमण्डलीकृत समय के इस सम्पूर्ण
यथार्थ और सत्य को एक कृति में खोज लेने का दावा, एक अतिकथन कहा जाएगा, लेकिन ‘मानव-कल्पना’ में अपूर्व क्षमता है। और यह उपन्यास
मेरे लिये, इस सम्भावना के दोहन का एक छोटा-सा, लेकिन सर्वथा ईमानदार लेखकीय यत्न है।’
कहने की ज़रूरत नहीं कि मनुष्य के लिये कल्पना जीवेषणा
है। पेरिस में, जो छात्र-आन्दोलन हुआ था, जिसमें ज्यां पाल सा़र्त्र शामिल थे, उसमें युवाओं का नारा था-‘ कल्पना शक्ति है, कल्पना को अपार शक्ति मिले।’ बहरहाल, ज्ञान चतुर्वेदी के पास निस्सन्देह
बहुत ही सशक्त कल्पना है। जब एक लेखक की रचनात्मक-कल्पना, प्रकट और गोचर यथार्थ का हाथ छोड़कर, एक उन्मुक्त अराजक कल्पना से भिड़न्त
का निर्णय करती है, तो वह कथ्य को ‘वामन और विराट’ के द्वन्द्व में खड़ा करते हुए, स्वयं को एक स्वैर-कल्पना के
कायान्तरण में पाती है। तब प्रत्यक्ष-यथार्थ से उसका सम्बन्ध सीधा-सरल न हो कर
काफी जटिल हो उठता है। क्योंकि ‘फार्म’ के स्तर पर वह दुरूह हो जाता है। लेकिन जैसा कि हर्बर्ट मार्क्यूस ने
कहा है- ‘ओनली द फॉर्म एक्सप्लोड्स। दरअसल, यहीं से ‘सामान्य-सत्य’ का एक ‘उत्कृष्टतम-विशेष’, कृति में विशिष्टता के साथ व्यक्त
होता है। यही फैण्टेसी के जन्म का तर्क है। इसलिये, यह बाज़ार-समय के यथार्थ की, एक संश्लिष्ट पुनर्रचना ही है, जिसने ‘पागलखाना’ के समूचे वातावरण को, एक ‘सार्वदेशीय पैरानोइया’ में शब्दायित किया गया है। हम जब, ज्ञान के लेखक की एक अपूर्व दक्षता को
देखते हैं,, तो लगता है कि यही वह उसके लेखन की विशिष्टता है, जो उसे सैम्युअल बैकेट के ‘स्ट्रेंग्थ टू इम्प्रोवाइज’ के ही बहुत निकट ले जाकर खड़ा कर देती
है। क्योंकि उसने उपन्यास के समूचे आभ्यन्तर में एक ‘कलैक्टिव’ पैरानोइया’ रचा है, जो उसके चिकित्सा-विज्ञान में होने से
सम्वादों में इतना सहजता से प्रकट होता है कि वह अपने ‘इम्प्रोवाइजशन’ के कौशल से, ‘यथार्थ से परे के यथार्थ’ की विचक्षण’ प्रतीति कराता है। उपन्यास का नागरिक
पात्र, एक अनश्वर और अजर-अमर से भय में है। कभी वह भाषा के मुहावरे के सच को
और सच के मुहावरे को एक दूसरे से भिड़ा देता है। वह बताता है कि डर सर्वाधिक विराट
और शक्तिशाली है, वह किसी भी ताले से नहीं रुकता। वह एक ऐसे ताले की तलाश में है, जिसे ‘सरकार’ और ‘बाज़ार’़ दोनों ही नहीं तोड़ सके। वह बेतरह
घबराया हुआ है। उसे लगता है, बाज़ार इतना क्रूर है कि वह पेण्ट उतरवाकर उसकी जिप में ताला लगवा दे।
ताले से बुलडोज़र थोड़े ही रोके जा सकते हैं। ‘समय’ को ऐसे समय में यही पता नहीं चल पा
रहा है कि असल में पागल कौन है..? और ये भी फैसला ‘समय’ ही करेगा, लेकिन एक ‘समय’ के बाद। जीनियस को पागल और पागल को जीनियस घोषित कर दिया जा सकता है।
बाज़ार ने सपनों और सामान को ऐसा मिला दिया है कि अब वह सामान का ही सपना देखता है।
सपनों के क्लोन बनाये जाने लगे हैं। हालांकि, घरों की दीवारें उनकी ही हैं, लेकिन कान बाज़ार के हैं। कानून, बस एक चुटकला हो गया है। बाज़ार
हज़ारों-हज़ार आँखों और हाथों वाला है, वह उन पर निगाह रखता है, जो उनके ‘पक्ष’ में हैं और वह उन पर भी, जो उसके ‘विरुद्ध’ हैं। उपन्यास में वर्णित जीवन ऐसा होता जा रहा है कि जीवन को ‘अपनी पराजय का पता’ ही नहीं चल रहा। वह पराजय में ही अपनी
जय देखता है।
उपन्यास के देशकाल के भीतर, पाठक को एक ऐसी दुनिया बन गई दिखती है, जहाँ सूरज चाँद सितारे सब का
बाज़ारीकरण हो गया है। कुछेक ने धूप का प्री-पेड कार्ड बनवा लिया है। मुस्कुराने
वाला पागल हो चुका है या जो पागल है, वही निर्दोष और निर्विकार मुस्कान फेंक सकता है। घरों की हालत यह है
कि घर में, घर के लिए जगह नहीं बच पाई है। बाज़ार अपने हित में सबसे पहले सरकार को
बेदखल किए दे रहा है क्योंकि संसद के बारे में भ्रम है। और भ्रम डिस्काउण्ट पर
मिलने लगा है, कोई भी उसे ‘पोस्टपेड’ और ‘प्रीपेड’ से ऑनलाइन ख़रीद बेच सकता है। बच्चे बेकार हो चुके ‘मत-कमाऊ’ माता-पिता को ऑनलाइन बेच सकने की
हैसियत में हैं। उन्हें सोये-सोये बेचा जा सकता है। ‘समय’ केवल घड़ी के डायल में है, बाक़ी बाज़ार-समय है। धर्म की नई
पैकेजिंग हो गई है। देवता डरे हुए हैं, बाज़ार से। उनका पूजा-पाठ उसी बाज़ार के हाथ में ही है। देवताओं ने अब
बोलना स्थगित कर दिया है। बाज़ार, राजनीति से नियन्त्रित नहीं है बल्कि राजनीति ही बाज़ार से नियन्त्रित
हो रही है। लोग हतप्रभ हैं कि उनकी हथेलियों से हस्तरेखाएं गायब होने लगी हैं।
आदमी के कन्धे से सिर हट जाने पर, चीज़ें आसान हो सकतीं हैं, ऐसा सोचा जा रहा है। विचारों की डेड-बाडी है। कोई पोस्ट-मार्टम नहीं, पोस्ट-माडर्न है। डॉक्टर की प्रोफेशल
आवाज़ इतनी मीठी हो चुकी है कि क़ायनात की सारी चींटियां चौंक कर, सिर उठाकर उधर देखने लगीं हैं। बाज़ार
अन्धेरे के ख़िलाफ़ है और बिना बत्ती की मोमबत्ती जला कर अन्धेरा भगा रहा है। सबसे
ख़तरनाक बाज़ार के लिये यही है कि आदमी सोच सकता है। उसके पास दिमाग़ है। वह सोच कर भागता
है। यानी कि वो दिशा जानता है। आदमी को देखकर बिजली के खम्भे हंसतें हैं। बाज़ार
सपने देखने वालों को मारने की योजना लिये घूम रहा है। दिक्कत ये कि अपने जीवन की
निजता को बचाने के लिये, जीवन को ही दांव पर लगाने की जोख़िम से भरा हुआ है, वह नागरिक। इसलिए, बाज़ार उसे तकनीकी-नियतिवाद से
धीरे-धीरे मैनेज़, मैन्युपलेट और म्युटिलेट कर रहा है। ज्ञान ने बाज़ार को समूची पृथ्वी
के सर्वसत्तावादी प्रबन्धक के रूप में, ऐसा अपराजेय चित्रित किया है, जो भविष्य में ईश्वर को अपदस्थ कर
देने वाला है।
याद कीजिये, पश्चिम में जो व्यक्ति बाज़ार की जकड़
से मुक्त होने में नाक़ामियाब रहा, वह धर्म में स्थानान्तरित हो गया। उपन्यास में नागरिक का एक संस्करण
ऐसा भी है, जो छुपकर सुरंग खोदकर भागता हुआ, एक दिन एक दिन धर्मस्थल में प्रकट हो
जाता है। वहां से वह ‘अध्यात्म से मुक्त धर्म’ और ‘पावनता से मुक्त संस्कृति’ का पूजनीय बन जाता है। ज्ञान पूरे उपन्यास में ‘विस्मयों की एक नितान्त अकल्पित
दुनिया’ को बखूबी रचते हुए, केऑस का भयभीत कर देने वाला स्थापत्य खड़ा करता है। कुल मिला कर, रोनल्ड रैंग के शब्दों में कहा जाये
तो ‘बाज़ार पागलों की
निर्मिति का मसीहा है।’ कितनी विडम्बना है कि ‘मनोव्याधि’ की शब्दावलि में ‘पैरानोइया’ तो है, जिसके चलते व्यक्ति में यह भ्रम गहरे तक उसके रिफ्लैक्सेज़ में उतर
जाता है, कि कोई उसका पीछा कर रहा है, कोई उसे फॉलो कर रहा है, जबकि बाज़ार जानता है कि पूरा संसार उसका अभीष्ट है और सब उसको फॉलो करें।
लेकिन साइकियेट्री में उसके लिये कोई शब्द नहीं है कि कोई ‘मनुष्य को सम्वेदनहीन और विवेकहीन बना
रहा है’।
उपन्यास की समीक्षा के तौर-तरीक़े में अमूमन यह
होता है कि उसमें उसके कथानक को बताया जाये लेकिन के ज्ञान के इस उपन्यास में ख़ास
तरीक़े से गढ़ा गया कोई मानीखेज़-सा कथानक नहीं है। सिर्फ ‘बाज़ारवाद’ के त्रासद केऑस का ‘भाषा से भाषा में उत्कीर्ण’ एक क़िस्म का ‘हाण्टेड-आर्किटेक्चर’ है, जिसका अदभुत-इण्टीरियर, कथा-कथन के ज़रिये विचक्षण कौशल से, कहें कि ऐसी प्रवीणता के साथ किया है, जो हिन्दी में ज्ञान के अलावा केवल ज्ञान
से ही सम्भव हो सकता था। उसमें यह ऐसी दुर्लभ मेधा है, जो उसको निर्विवाद रूप से, विश्व-साहित्य के कुछ बड़े समकालीन
लेखकों के समान्तर खड़ा कर देती है। वह बाकायदा, अपनी कृति की अन्तिम अन्विति में
अन्ततः ओव्हर-कम करता है।
प्रश्न यह उठता है कि उपन्यास में उत्कीर्ण, जो भयावह ‘महात्रास’ लेखक ने प्रस्तुत किया है, उसमें सारे जो ‘इज्म’ थे, वे ‘वाज्म’ में बदल गए हैं तथा सारे ‘यूटोपिया’, अब ‘डिसटोपिया’ में। ‘धर्म’ भी अपनी सनातन शुचिता हमेंशा के लिये
खो चुका है और:अध्यात्म’ अब शिविरों की शक़्ल में दूकान में ंबदल गया है। दूसरी तरफ, विचारधारा की मृतदेह को रखकर, चिन्तक महाविलाप मे ंरुदन की समवेत
प्रस्तुतियां ंदे रहे हैं। तब, क्या अभी भी कहीं कोई उम्मीद शेष है कि एक दिन कोई मसीहा आएगा या कोई
दैवीय-अवतार प्रकट होगा और इस महात्रास से
मुक्ति के द्वार को खोल देगा..?। या माना जाये कि फिर भी दुनिया के भीतर कोई ऐसी अमिट क़िस्म की आस्था
जमी हुई है कि ‘पावनयुग’ अर्थात् ‘एक्वेरियन-एज़’ आयेगी...? कहीं ऐसा तो नहीं कि सेम्युअल बैकेट के पात्र, ‘गोदो’ की शैली में, ‘कल के विरुद्ध बिना किसी कल’ के अन्तहीन सी मिथ्या प्रतीक्षा की अन्ध-नियति में ही सारी मनुष्यता
विसर्जित हो जाएगी...?
यहां यह याद करना ज़रूरी है कि बीसवीं सदी के
चिन्तकों का दावा था कि इक्कासवीं सदी में ‘पूंजीवादी-सर्वसत्तावाद’ और ‘जनतंत्र’ के मध्य निर्णायक संघर्ष होगा। लेकिन
हुआ यह कि जनतंत्र तो चुपचाप, ‘उदारवाद’ का मुखौटा पहने, बाज़ावादी-व्यवस्था का अंगरक्षक नियुक्त हो गया। उसने ‘पूर्वाधुनिकता’ और ‘उत्तराधुनिकता’ के तत्वों के मिश्रण से की ढाल बना
ली। तब सोचिये कि कहीं से भी किसी तरह विरोध के उठने की आवाज़ कैसे से आयेगी..?
ज्ञान चतुर्वेदी ने, उपन्यास के अन्तिम अध्याय में इसके
लिए नगर के पुराने घण्टाघर की घड़ी से एक अनहद नाद की तरह प्रतिरोध की ध्वनि का
सहारा लेकर ‘काल’ के विकराल होते जाने की एक रौद्र-ध्वनि का अद्भुत प्रतीक रखा है, जो एक अपराजेय ‘आशावाद’ का एक ‘कलात्मक-सत्य’ है। क्योंकि यही दुनिया और यही मनुष्य, दो-दो विश्वयुद्धों, नागासाकी, हिरोशिमा, ऑशवित्ज़ के नर-संहारों कंसंट्रेशन
कैम्पों और कई प्राकृतिक-विनाश और आसन्न-आदाओं से बचकर अन्ततः बाहर आया ही है और
ये एक युग-सत्य भी है। बहरहाल, ज्ञान भी अपने उपन्यास में, त्रासद-परिवेश से इस तरह ंओवर कम करता है कि कोई अतीत का ही एक ‘विचार’, अन्त में फीनिक्स की तरह उठकर आता है।
बेशक हिन्दी में बाज़ार को लेकर लिखी गई इतने बड़़े
‘आभ्यन्तर’ वाली यह पहली कृति है, जो निर्विवाद रूप से लगभग एक ‘आधुनिक-क्लासिक’ का दर्ज़ा रखती है और इसको बिना किसी
संकोच के विश्व-साहित्य की कुछ सर्वाधिक चर्चित कृतियों के समकक्ष रखा जा सकता है।
मसलन आर्वेल, जोसेफ हेलर या अल्डुअस हक्सले की फैण्टेसियों के बराबर। कहना चाहूंगा
कि उन कृतियों से रत्ती भर भी कम नहीं। लेकिन हिन्दी में अपने संकीर्ण अहम् से
सुलगते लोगों के लिये यह थोड़ा मुश्किल हो जायेगा कि वे इस कृति को अपने विगलित दुुुराग्रहों
से बाहर आकर साहस के साथ सराह सकें। क्योंकि, उन लोगों के घरों की घड़ियां बन्द पड़ी
हैं। और चल भी रहीं हैं, तो उसमें तभी से लगातार एक ही समय टिक-टिक कर रहा है, यह वह समय है, जब उसमें उनके किसी प्रीति-भाजन की
कोई कृति छपकर आयी थी। बहरहाल, ज्ञान चतुर्वेदी ने इस कृति के ज़रिये अपनी मेधा से प्रमाणित कर दिखाया
है कि भारतीय भाषा में भी विश्व-भाषा स्तरीय ‘आधुनिक क्लासिक्स’ लिखे जा सकते हैं।
अन्त में, कहना चाहूंगा कि ज्ञान चतुर्वेदी अपने लेखन में ‘प्रोलिफिक’ भी हैं और सर्वोत्कृष्ट भी। एक ही लेखक में इन दो गुणों की युति सर्वथा अलभ्य है। उत्कृष्टता के जो गुण, विश्व-स्तरीय साहित्य के लेखन में बरामद होते हैं, वे सभी गुण ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन में हैं और वे विपुलता के साथ ही हैं। स्त्राविन्स्की ने कहा था, ‘जैसे ही हमें किसी प्रतिभा में महानता के गुण दिखाई देने लगें, हमें उसे तुरन्त ही महान् घोषित करने में विलम्ब नहीं करना चाहिये।’ लेकिन हिन्दी में तो हम अपने महानों के पीछे-पीछ,े कन्धों पर कुदाल लिये फिरते हैं। ऐसे में यदि उसे कोई टंगड़ी मार के गिरा दे तो हम तुरन्त वहीं उसे दफना कर अपने इस अभियान में आगे बढ़ जायें। अंग्रेज़ी, अपने गोबर को भी मोतीचूर के मूल्य पर बेचना जानती है। लेकिन, हिन्दी में, अपने ‘उत्कृष्ट’ को ‘उच्छिष्ट’ घोषित करने की, मालवी बोली के एक शब्द इस्तेमाल कर के कहूं में तो ये कि अपनी उसी ‘कोढ़िया-कुचरई’ में ही लगे हैं। बहरहाल, ज्ञान चतुर्वेदी ने अपनी इस बहुत सूझबूझ से लिखे गये उपन्यास के ज़रिये, स्वयम् को उस स्तर की मेधा का रचनाकार साबित कर दिया है, जो एक कालजयी रचना के सर्जक का स्पष्ट दावेदार है।
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