पिछले दिनों फेसबुक पर
एक लेखक ने लिखा
कि हिंदी के साहित्यकार दावा करते हैं कि वे जनता के लिए लिखते हैं, जबकि जनता उन्हें
नहीं पढ़ती। सचाई यह है कि वे अपने लिए लिखते हैं लेकिन इस बात को स्वीकार नहीं
करते। इस तरह की बातें अकसर हिंदी के प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकारों
का मजाक उड़ाने के भाव से कही जाती है। लेकिन कई बार खुद कई प्रगतिशील-जनवादी लेखक
भी इस तरह के द्वंद्व में पड़ जाते हैं और वे अपने ही बीच के लेखकों को लेकर यह
कहने लगते हैं कि जनता उन्हें नहीं पढ़ती।
एक बार राजेंद्र यादव ने मुझसे कहा था कि हिंदी के साहित्यकार
हमेशा एक Guilt (ग्लानि) का शिकार रहते हैं। वे इस बात का रोना रहते हैं कि कोई
उन्हें नहीं पढ़ता या दूसरी भाषाओं में उनसे बहुत अच्छा लिखा जा रहा है या वे अपने
पहले के लेखकों जैसा नहीं लिख पा रहे।
आइए सबसे पहले ‘जनता’ पर विचार करें। जनता की परिभाषा को लेकर लेखकों के बीच एक रूढ़
विचार कायम है। बहुतों की नज़र में जनता का मतलब है-गरीब जनता। भूखा-नंगा आदमी ही
जनता है। इसी नज़रिए से इस तरह की प्रतिक्रिया जन्म लेती है कि ‘किसान कहीं जींस
पहनता है’ या ‘किसान कहीं पिज्जा खाता है’। जनता आधुनिक काल का और जनतांत्रिक युग
का शब्द है। इसने प्रजा की जगह ली है। यह कोई समरूप (Homogenous) इकाई
नहीं है। इसमें कई समुदाय शामिल हैं। लेखक अपने आप में जनता का हिस्सा हैं। एक
प्रोफेसर भी जनता है और छात्र भी। एक डॉक्टर भी जनता है और इंजीनियर भी। फिर यह
गलतफहमी भी दूर कर लेनी चाहिए कि मेहनतकश जनता साहित्य (खासकर लिखित साहित्य)
पढ़ती है। हां, गीतों, नाटकों और सिनेमा आदि माध्यमों के जरिए वह साहित्य से जुड़ी
जरूर रहती है। मेहनतकश जनता के पास इतना अवकाश नहीं होता कि वह साहित्य पढ़
सके। प्रमुखतया शिक्षित मध्यवर्ग ही साहित्य पढ़ता-लिखता है। दुनिया के हर
हिस्से में और अपने देश की हर भाषा में साहित्य पढ़ने वाला तबका शिक्षित मध्यवर्ग
ही है।
तब यह कहा जाएगा कि जब साहित्य मिडल क्लास को ही पढ़ना है तो
क्या जरूरत है गरीब पर, किसान, मज़दूरों पर लिखने की?
वे तो पढ़ेंगे नहीं। यह बात भले ही सही
हो, फिर भी उन पर लिखने की जरूरत है। मध्यवर्गीय पाठक को यह बताना
है कि वह किस समाज में जी रहा है। उसके अलावा किन वर्गों के लोग समाज में हैं और
वे किन हालात में जी रहे हैं। उस वर्ग के प्रति मध्यवर्ग में संवेदना जगाने का काम
साहित्य करता है। दुनिया भर में सर्वहारा वर्ग के लिए लड़ाई मध्यवर्ग ने ही लड़ी
है। क्या प्रेमचंद और उनके समकालीनों ने छुआछूत पर या अछूतों के जीवन पर जो लिखा
क्या उसका असर स्वाधीनता संग्राम और उस दौर में चल रहे सामाजिक आंदोलनों पर नहीं
पड़ा होगा? निश्चित पड़ा होगा। उन दिनों कांग्रेस के प्रस्तावों में
दलितों में पक्ष में जो बातें समय के साथ जुड़ती चली गईं, क्या उनमें साहित्य
का योग नहीं होगा? यह योगदान सीधा नहीं होता है। यह परोक्ष होता है। मुक्तिबोध की
कविता अंधेरे में के मध्यवर्गीय नायक का संघर्ष ही यही है कि कैसे वह सर्वहारा
वर्ग के साथ जुड़ जाए।
यह भी कहा जाता है कि साहित्य तो ज्यादा लोग पढ़ नहीं रहे, कुछ ही लोग
घुमा-फिराकर पढ़ते हैं तो उसका समाज पर थोड़े ही कोई असर पड़ता होगा। कई गंभीर
लेखक भी यह सोचकर अपने लेखन से उदासीन होने लगते हैं। यह भी एक गलत सोच है। किसी
चीज का महत्व उसकी अति उपलब्धता से नहीं आंका जा सकता। पाब्लो नेरूदा ने कहा था कि
कवि को आलू की तरह लोकप्रिय नहीं होना चाहिए। चलिए,
मान लिया कि साहित्य बहुत कम लोग पढ़ते
हैं। तो क्या इसलिए न लिखा जाए? सवाल है कि दर्शनशास्त्र कितने लोग पढ़ते हैं? बहुत कम लोग पढ़ते
हैं तो क्या दार्शनिक होने बंद हो गए? दर्शन पर किताबें
नहीं आ रहीं? अर्थशास्त्र ही कितने लोग पढ़ते हैं? तो क्या अर्थशास्त्र
पर काम बंद हो गया? अमर्त्य सेन को नोबेल मिलने से पहले कितने लोग जानते और पढ़ते
थे? पाठक कम होने के कारण उनको अपना काम बंद कर देना चाहिए था? यह
बात विज्ञान पर भी लागू होती है।
दरअसल साहित्य की उपयोगिता और औचित्य पर सवाल वही उठाते हैं, जो कहीं न कहीं इसे
दोयम दर्जे का काम मानते हैं। वे सोचते हैं कहानी-कविता से क्या होने वाला है? जबकि
एक साहित्यकार का महत्व वैज्ञानिक,
दार्शनिक,
अर्थशास्त्री और इतिहासकार से जरा भी कम
नहीं है। साहित्य का काम अपने समय को दर्ज करना है। साहित्य मनुष्यता की स्मृति को
सुरक्षित रखती है और यह काम वह इतिहास से एक कदम आगे बढ़कर करती है। आखिर क्यों
साहित्य को इतिहास का एक प्रमुख स्रोत माना गया है?
आखिर क्यों मौर्यकाल को समझने के लिए
हमें विशाखदत्त के नाटक मुद्राराक्षस की भी जरूरत पड़ती है? आखिर
क्यों अमेरिका में गुलामी प्रथा को समझने के लिए अंकल टॉम्स केबिन को पढ़ना पड़ता
है। गुलामी के विरुद्ध सिविल वॉर के लिए इसी उपन्यास ने कई योद्धा तैयार किए थे।
जब इतिहासकार गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह पर लिखने लगते हैं तो नील की खेती करने
वाले किसानों की दर्दनाक गाथा का बयान करने के लिए उन्हें दीनबंधु मित्र के
बांग्ला नाटक ‘नील दर्पण’ का हवाला देना पड़ता है। जब यह नाटक लिखा गया, तो कितने लोगों ने
पढ़ा होगा या देखा होगा, कहा नहीं जा सकता। इसी तरह लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा भारत में
शुरू की गई राजस्व व्यवस्था ‘परमानेंट सेट्लमेंट’
को समझने के लिए प्रेमचंद के ‘गोदान’ से बेहतर और क्या हो
सकता है? आज जब कोरोना जैसी महामारी फैली है तो हमें कामू के प्लेग की
याद आ रही है। लव इन दि टाइम ऑफ कॉलरा की याद आ रही है। हमें राजेंद्र सिंह बेदी
की कहानी क्वारंटीन और रेणु की पहलवान की ढोलक याद आ रही है। हरिशंकर परसाई का
व्यंग्य तो खूब पढ़ा गया लेकिन अब उनकी आत्मकथा पढ़ी जा रही है जिसमें प्लेग की
चर्चा है। आज इन रचनाओं को खोज-खोजकर पढ़ा जा रहा है ताकि हमें आज की समस्या को
समझने का सूत्र और उससे लड़ने का संबल मिल सके। यह साहित्य का एक बड़ा काम है। आज
की कोई रचना जिसे बहुत कम लोगों ने पढ़ा हो,
हो सकता है, दशकों बाद किसी कारण
से बेहद महत्वपूर्ण मानी जाए और उसे खोजकर पढ़ा जाए।
हर समय महान रचनाएं नहीं लिखी जा रही होती। लेकिन बहुत सारी साधारण रचनाएं
कई बार कुछ बड़ी रचनाओं की ज़मीन तैयार
करती हैं। इसलिए हर तरह के लेखन की अपनी भूमिका है।
कुछ लोग इस बात को नकारात्मक रूप में कहते हैं कि लेखक ही लेखक
को पढ़ते हैं। दरअसल हर लेखक पहले एक पाठक भी होता है। ऐसा थोड़े ही है कि जो लेखक
हो गया वह दूसरों को पढ़ना बंद कर दे। लेखक पाठक भी होता है और पाठक लेखक भी होता
है। साहित्य पढ़ने वाले ज्यादातर पाठक कुछ न कुछ खुद भी लिखते हैं। हां, वे बहुत नियमित और
व्यवस्थित नहीं हो पाते। विशुद्ध पाठक विरल ही होते हैं। दूसरी बात है कि पाठक भी
कई समूहों का समुच्चय होता है। इसमें खुद लेखक आते हैं, चित्रकार, रंगकर्मी और पत्रकार
आते हैं। साहित्य के शोधकर्ता और शिक्षक अपनी जरूरतों के चलते भी साहित्य पढ़ते
हैं। कुछ लोग छात्र जीवन में साहित्य पढ़ते हैं,
तो कुछ लोग सेवानिवृत्ति के बाद। हर
साहित्य प्रेमी के परिवार की नई पीढ़ी में एक न एक साहित्यानुरागी पैदा होते रहते
हैं। इसलिए साहित्य के पाठकों का सिलसिला बना रहता है। हिंदी में वह थोड़ा अदृश्य
है जरूर, पर यह कहना कि कोई पाठक ही नहीं है,गलत है।
साहित्य असल में एक विशिष्ट कार्य है। लिखना भी और पढ़ना भी।
एक समाज की सांस्कृतिक अभिरुचि इतनी उन्नत हो जाए कि एक बहुत बड़ा हिस्सा इस
विशिष्टता को हासिल कर ले, यह एक आदर्श स्थिति है। और इस स्थिति को लाने का दायित्व
साहित्यकारों का भी है, लेकिन सिर्फ उन्हीं का नहीं। यह कई चीजों पर निर्भर करता है।
अगर किसी समाज में यह स्थिति नहीं आई है,
तो इससे साहित्य और साहित्यकारों का
महत्व कम नहीं हो जाता।
- संजय कुंदन
23.5.21
अत्यंत सारगर्भित आलेख।
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