उस दिन व्यंग्य पर चर्चा हो
रही थी | अजातशत्रु बोले...
व्यंग्यकार अजातशत्रु पर कैलाश मण्डलेकर का संस्मरण
“व्यंग्य लिखता हूँ आज भी लिखता हूँ मगर एक छोटे से अखबार में | यह काम 15-20 वर्षों से एक साप्ताहिक व्यंग्य स्तभ के रूप में
जारी है |बड़ी पत्रिकाओं में व्यंग्य लिखने की कोशिश नहीं की |क्योंकि मेरे पास
आधुनिक शहरी भाषा नहीं है |लेखन के भीतर
तरतीब नहीं है | अक्सर व्यंग्य लेखन सनकों से भरा हुआ है |उसमे एक शख्स की अराजकता
है फिर ऐसा भी मानता हूँ कि व्यंग्य लेखन स्वाभाविक लेखन नहीं है | व्यंग्य गढ़ा
जाता है परसाई जी चौबीसों घंटे न व्यंग्य बोल सकते थे न व्यंग्य लिख सकते थे |
उन्होंने जो भी लिखा था किन्ही अंशों में साधा भी था | सीधे विचार प्रवाह से मोड़कर
उसे श्रम साध्य या संकल्प जन्य ट्विस्ट भी दी थी |इससे परसाई जी का गहरा सोच ,
स्वाभाविक विस्फोट कुछ हद तक प्रभावित भी हुआ होगा |इससे सूक्ष्म निजी नुक्सान तो
होता ही है भले ही आपकी बाहरी छवि या कीर्ति क्यों न बड़ी हो |व्यंग्य के मामले में मेरी एक
निजी दिक्कत यह भी है कि बार बार उसे एक निश्चित अंत की तरफ मोड़ना पड़ता है |याने
लड़ो , विद्रोह करो , मोर्चा सम्हालो की
स्थाई सीख |यह मुझे अपने प्रति झूठा सीमित और फरमाइशी लगता है |मै देखता हूँ कि
जीवन अपरिमित है वह किसी विधा में
नहीं अटता | वहां हमें अनेक प्रश्नों का
सामना करना पड़ता है जो राजनीती और व्यवस्था के प्रश्न नहीं है | तो जब जैसा बना
,जरूरी लगा वैसा लेखन हुआ व्यंग्य और अव्यन्ग्य सभी एक विराट लेखन के हिस्से हैं | रहा विरोधाभासों
का प्रश्न तो व्यंग्य लेखन का एक गहरा रूप यह भी हो सकता है कि वह और भी गहरी
विसंगतियां पकडे जो आदमी के आदमी होने की विसंगति है | आदमी की शाश्वत दार्शनिक
उलझने है |उसकी अपनी चारित्रिक दुर्बलताएं है |यानि की स्वयम व्यंग्यकार कितने
गहरे अज्ञान या लाचारी का शिकार है इसे भी
स्वयम व्यंग्यकार को खोजना होगा |और अपने साथ तथा प्रगट विश्व के साथ दार्शनिक की
तरह जूझना होगा |मेरी मान्यता है कि गुरु परसाई की तरह आचार्य शंकर और बुद्ध भी
व्यंग्यकार ही हैं | गो उनके वक्तव्य या उदगार में सीधा व्यंग्य नजर नहीं आता |
सीधे सीधे कहूँ तो जिस लेखक को जो सूझता है उससे
जो सधता है वह उसे ही करे | नकल फकल के चक्कर में क्यों जाए |देश में परसाई
और शरद जी का इतना नाम रहा कि अधिकांश नव व्यंग्यकारों ने जाने अनजाने उन्ही की तरह लिखना चाहा | वैसे
ही जुमले बनाने की कोशिश की और अपने स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध कर लिया | परसाई
एक जन्मना व्यंग्यकार थे उनका सोच प्रतिभा और दृष्टि राजनीति की और मुडी हुई थी |
उन्होंने सफल और सार्थक लेखन किया | लेकिन परसाई पर जाकर जीवन और इंसान की
आभ्यंतरिक उलझने तथा अज्ञान ख़त्म हो जाते हैं ऐसा नहीं है | एक राजनैतिक विचारक जो परसाई थे, के आगे हमें ऐसा व्यंग्यकार भी
चाहिए जो जीवन को चेखव या बर्नाड शा की तरह बल्कि इनके भी आगे जाकर एक मेटाफिजीकल चिन्तक
की तरह पकडे | हमें परसाई के डरावने प्रेत से आगे जाकर व्यंग्य की नई जमीन तलाशनी
होगी जो आदमी की आत्मा और उसकी भीतरी जटिलताओं में है | भाषा को ही लीजिये देखिये
इससे बड़ा व्यंग्य धरती पर कहाँ है कि
अनुभव को व्यक्त करने के लिए हमारे पास कोई भाषा नहीं है | भाषा से अनुभव पैदा
नहीं किया जा सकता यहाँ से वहां तक आदमी अच्छे और बुरे अर्थ में शाश्वत अकेला है |
और शब्दों तथा इंसानों की भीड़ में उसे पुनः अपना अकेलापन तलाशना होगा |जहां वह अपराधी की तरह अकेला नहीं मुक्त आत्मा की तरह
तन्हा विश्वव्यापी आत्मा है |आप इसे आध्यात्म या मेटाफिजिक्स कहकर लाख रिडिक्युल कर लें मगर
आदमी की मूल चिंता यही है कि रोटी के साथ या रोटी के बिना वह अपने आप का क्या करे
|कैसे खुद को टैकल करे | व्यंग्य को मार्क्सवादी सीमा में काम करते हुए
मार्क्सवादी दुराग्रहों को फलांगना पडेगा
|उसे सबकुछ लिख कर बार बार इस स्वस्थ संदेह को साथी बनाना पड़ेगा कि भाषा में लिखा
पढ़ा गया अपने आप में कन्ट्राडिक्ट है मिथ्या है काम चलाऊ है |उसे अनुभव की दुनिया को अतीन्द्रीय स्तर तक
फैलाना होगा | यह स्वयम भाषा पर शक करने के कारण ही संभव होगा | एक बात और आज का
युवा व्यंग्यकार अपने आप को स्मार्ट पर्सन समझता है | तेवर साधता है |मुद्रा
अख्तियार करता है | सोचता है कि वह तीसमारखां हो गया है और व्यवस्था से उसका झगडा
ही झगडा है | नहीं व्यंग्यकार भी इसी जगत का प्राणी है और प्रकृति के रहस्यों का
शिकार है | वह मुक्त नहीं है अतः कोई भी बुद्ध दुसरे आदमी को मुक्त नही कर सकता | एक किस्म की विनम्रता स्वस्थ संदेह और
गहरी लम्बी व्याकुलता का उसमे प्रचंड अभाव
है | इसे भी देखना होगा | अभी व्यंग्यकार भी व्यंग्य का विषय ही है | हम फैश्नी क्रांतिकारिता के आगे जाएँ |” ( खलिहान में हुई बातचीत का एक अंश )
उपरोक्त बातचीत सन 2005 के आसपास किसी दिन अजात दा के खलिहान में हुई थी | अजातशत्रु जी से मै पहली
बार 1980 में मिला |जबकि इसके पहले वे धर्मयुग
जैसी अनेक पत्रिकाओं में व्यंग्य लिखकर पर्याप्त चर्चित हो चुके थे और इस इलाके
में एक लेखक या दार्शनिक की तरह पहचाने जाते थे | हलाकि इस बात का उन्हें तब भी
कोई गुमान नहीं था कि लोग उन्हें कैसे जानते हैं | वे तब उल्हासनगर के
चांदीबाई कॉलेज में अंगरेजी के व्याख्याता
थे और छुट्टियों में अपने पुश्तैनी गाँव पलासनेर आ जाया करते थे | पलासनेर
हरदा जिला मुख्यालय से 4-5 किलोमीटर दूर है | तब मेरी उम्र 24-25 बरस रही होगी उन दिनों मै नई दुनिया इंदौर में
शौकिया तौर पर व्यंग्य लिखा करता था और व्यंग्य पढने की विकट लालसा रखता था | इसी के चलते दो तीन बार जबलपुर जाकर परसाई जी
से मिल चुका था तथा नईदुनिया में छपे
व्यंग्य की कटिंग्स भी उन्हें सौंप आया था
| अजातशत्रु जी तब नईदुनिया में लिखते थे
मैंने पहली बार उन्हें वहीं पढ़ा | उनके व्यंग्य में हरदा के इर्द गिर्द बोली जाने
वाली लोकभाषा भूआणी की टोन हुआ करती थी ,
अभी भी है |इसी भाषा संस्कार में मै भी
पला बड़ा था |अजातशत्रू के व्यंग्य यहाँ के
मजदूर किसान और रेलवे के दफाई वालों की दैनंदिन हताशा और अंतहीन विवशता पर केन्द्रित
होते थे जो सबका ध्यान खींचते थे | जबकि अजातशत्रु ध्यान खींचने के लिए हरगिज नहीं
लिखते दरअसल इस इलाके के लोगों से उनकी दिली मुहब्बत थी यहाँ की हवा में सांस लेना
उन्हें बहुत मुआफिक और निरापद लगता है |
वे मुंबई जाकर बीमार होने लगते , और गाँव आकर बिना डॉक्टर
के ठीक हो जाते | अभी परसों ही
उन्होंने मुझ से फोन पर कहा कैलाश मै पलासनेर में ठीक रहता हूँ यहाँ की हवा में
पता नहीं क्या है | यह वाक्य मै इसके पहले भी उनसे सैकड़ों बार सुन चुका
हूँ |
अजातशत्रु से पहली
मुलाक़ात खंडवा के रेलवे प्लेटफोर्म पर हुई
|वे मुंबई जा रहे थे | मै ट्रेन पर मिलने चला गया | अब तक पढ़े गए व्यंग्य लेखों से
मेरे मन में से उनकी छवि एक गुस्सैल और रूखे व्यक्ति की थी
पर मिलने पर इससे उलट पाया | वे बेहद
विनम्र और ममतालू लगे उन्होंने कहा देखो , सोचो और लिखते रहो | मैंने इस बात की
गांठ बांध ली | ट्रेन गुजर गई |बाद के वर्षों में हमारा मेलजोल बढ़ता गया जो पिछले
चालीस वर्षों से बदस्तूर जारी है | दूसरी मुलाकात में हमने उन्हें खंडवा आमंत्रित कर लिया था |यहाँ की नाट्य संस्था रंग
संवाद के संयोजन में वे बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए | और लगभग दो तीन घंटे से भी
ज्यादा ही गंभीर विमर्श हुआ |उन्होंने
पहले ही कह रखा था कि मै भाषण नहीं दूंगा | बातचीत करूंगा |अजातशत्रु खुद को भाषण
कर्ता के बजाये टॉकर या कन्वरसेश्निष्ठ मानते
हैं | वे बहस करने में आनंदित होते हैं
|बशर्ते सामने वाला बहस के लिए तैयार हो |उनकी बहस का मुख्य मुदा भाषा और भाषा की
निरर्थकता पर केन्द्रित होता है |वे सैकड़ों बार यह बात कह चुके हैं कि आदमी बिना कुछ किये धरे ही मुक्त है लेकिन
भाषा से कंडीशंड है | भाषा में रहते हुए
भी भाषा से मुक्ति संभव है | भाषा से मुक्ति को लेकर उन्होने मुझे और अनेक मित्रों
को सैकड़ों पत्र लिखे हैं | अब भी लिखते हैं |जो अजातशत्रु को नजदीक से जानते हैं
उनसे यदि पूछा जाये कि अजातशत्रु कैसे आदमी हैं तो वह छूटते ही कहेगा “ भैया बहुत
सवेंदनशील और विद्वान आदमी हैं इस इलाके में इतना पढ़ा लिखा आदमी ओर कोई नहीं है ”
दरअसल अजात दा इस अंचल से
बेहद प्यार करते हैं सिर्फ प्यार ही नहीं यहाँ के कच्चे रास्तों ,पगडंडियों और किसान मजदूरों की समस्यों के लिए समय समय पर
वे एक एक्टिविस्ट की तरह आवाज भी उठाते हैं | अपने गाँव से रेलवे स्टेशन या फिर बाजू के
गाँव मसंगाँव तक सडक बनाने केलिए उन्होंने जनांदोलन की मुहीम शुरू की और सडक बनाकर ही दम लिया |
पलासनेर छोटा सा स्टेशन है यहाँ सिर्फ पेसेंजर ट्रेन रुकती है | इस ट्रेन के प्रति
रेल प्रशासन का रवैया प्रायः उपेक्षापूर्ण रहता है | अजातशत्रु का आनाजाना ज्यादातर इसी ट्रेन से होता है
|उन्होंने इस ट्रेन की अव्यवस्था और लेट लतीफी को लेकर अनेक बार लेख लिखे तथा
चिठ्ठियाँ लिखकर रेल प्रशसन को हडकाया | एक वाकिया याद आता है अजात दा के बेटे की
शादी थी और बारात इसी ट्रेन से जबलपुर जा रही थी |बारात में मै भी था |ट्रेन के
टायलेट में पानी नहीं था |अजातशत्रु ने इस ट्रेन को इटारसी स्टेशन पर रोक दिया
|इधर ड्राइवर ट्रेन शरू करे उधर अजातशत्रु जंजीर खींच दे |काफी हंगामा हुआ | रेलवे
पुलिस और स्टेशन प्रबंधक को हस्तक्षेप करना पड़ा | अजात दा के साथ ट्रेन के सारे यात्री भी हो लिए | घटना की गंभीरता को देखते
हुए , अंततः संभागीय रेलवे मेनेजर ने ट्रेन में पानी मुहैया करवाने के आदेश दिए |
इस दौरान अजात दा काफी गुस्से में थे वे यह भी भूल चुके थे कि ट्रेन में सवार उनके पुत्र की बारात लेट हो रही है | पेसेंजर
ट्रेन की द्दुर्व्य्वस्था पर अजातशत्रु का एक महत्वपूर्ण व्यंग्य है “ मंगरू भगत
की रेल यात्रा ” यह रेल प्रशासन की लापरवाही पर लिखा गया महत्वपूर्ण और बहुत
उल्लेखनीय व्यंग्य है | इस फैंटसी में मंगरू भगत की सीधी और ईमानदार जिद को रेलवे
के अधिकारी भद्दे कुतर्कों से ख़ारिज करने का प्रयास करते हैं | इस व्यंग्य में
प्रखर संवाद शैली का इस्तेमाल हुआ है | मंगरू भगत ट्रेन में शौच के उपरांत टायलेट में पानी के अभाव के कारण धोती लपेटे संसद भवन
चला जाता है | समूचे व्यंग्य में अतिरंजना आक्रोश और प्रहार है | व्यंग्यकार का
मंतव्य है कि बिना दादागिरी और हेकड़ी के जड़ नौकरशाही को रास्ते पर नहीं लाया जा सकता |
बहरहाल उस दिन बारात तो जबलपुर पहुँच गई लेकिन अजातशत्रु और मै शादी से ज्यादा परसाई जी
से मिलने को उत्सुक थे सो
हमने बरात को होटल के हवाले किया और
नेपियर टाउन के लिए रिक्शा पड़ा लिया |
हमने दरअसल पलासनेर में ही तय कर लिया था
कि परसाई जी से मिलेंगे | परसाई जी कमरे लेटे हुए
कुछ पढ़ रहे थे | मै उनसे पहले भी मिल चुका था |अजातशत्रु उनके पांवों की
तरफ जाकर बैठ गए | उन्होंने हलके से चरण स्पर्श किया तथा देर तक उनके पांवों को
हाथ में थामे रहे | परसाई जी ने अपनी बहन से अजातशत्रु का परिचय कराते हुए
कहा ये बहुत बड़े लेखक हैं | फिर देर तक बातें चलती रही |उन्होंने मेरी तरफ मुखातिब
होते हुए कहा इस बार कटिंग्स नहीं भेजी |वहां साहित्य पर ज्यादा बात नहीं हुई |
परसाई जी अजातशत्रु से बेटे की शादी और बारात आदि पर बातें करते रहे |हम करीब एक घंटे बैठे |बाहर निकले तो लगा कि भीतर बहुत उथल पुथल सी है |
जैसे बहुत कुछ बदल रहा है |सडक पर चलते चलते अजातशत्रु परसाई जी की व्यंग्य चेतना पर देर तक बतियाते रहे | आखिर व्यंग्य चेतना क्या है , वह कह्नीकार और कवि की चेतना से अलग कैसे है ?
क्यों है ? उसका मूलभूत गुणधर्म क्या है ? अजातशत्रु कह रहे थे “ मै आश्चर्य से देखता हूँ कि सतह से लेकर
तल तक सृष्टि विरोधाभासों से भरी पडी है | इस पैराड़ोक्स की प्रखर चेतना
व्यंग्यकार में होती है |पाजीटिव और नेगेटिव ,मैटर और एंटी मैटर
के विरोध को आइन्स्टीन जैसी उच्च
वैज्ञानिक प्रतिभा भी खोज लेती है , मगर
व्यंग्यकार उनसे भी एक मायने में अलग होता है | इस मायने ,में कि वह सिर्फ
विरोधाभासों के प्रति ही नहीं बल्कि विश्व के मायावी स्वभाव के प्रति भी अनजाने सचेत रहता है | वह
मानता है कि निराशा इसलिए है कि कहीं गहरे में उम्मीद भी है |यही कारण है कि वह
हंसने , व्यंग्य करने के बाद भीतर भीतर तटस्थ रहने में समर्थ रहता है | व्यंग्यकार
दरअसल एक बौद्धिक सन्यासी है ” मैंने कहा
भैया परसाई के व्यंग्य का मूल क्या है | उन्होंने कहा परसाई जी मूलतः विचारक हैं
और उन्होंने सामाजिक तथा राजनीतिक विरोधभासों से आहत होकर व्यंग्य की शुरुआत की है
जो दरअसल कोई भी व्यंग्यकार करता है , लेकिन पारसी तर्क से सोचते हैं और तर्कातीत
होकर फैंटसी लाते हैं | मेरी नजर में परसाई एक उच्चकोटि के व्यंग्यकार हैं जो चिंतन से फैंटसी
में पहुँचते हैं जैसे साइन्स फिक्शन लिखने वाले करते हैं |
जबलपुर की ऊमस
भरी गर्मी में हम उस दिन परसाई जी के घर से होटल तक लगभग पांच किलोमीटर पैदल चलते
रहे | इधर बिनाकी की तैयारी हो रही थी | दूल्हा घोड़े पर बैठ रहा
था बराती सडक पर नाचने को उतावले थे |मुझे अजातशत्रु और परसाई के रचनात्मक संसार से जनवासे की दुनिया में आने
के लिए एक कठिन मानसिक जम्प लेनी पडी |
अजातशत्रु के संग साथ इन तवील
मुलाकातों के चलते मैंने यह भी महसूस किया कि
लिखने के प्रति वे जितने संजीदा और
स्फूर्त हैं उसे सहेजने के मामले में बेहद उदासीन | लिखने के बाद वे उसे शायद पढना
भी पसंद नहीं करते | 15-20 वर्षों से हरदा के
व्हाइस ऑफ़ हरदा नामक अखबार में हफ्तावार
कालम में लिखे गए उनके लेखों को यदि संकलित किया जाए तो गिनती में हजार से ऊपर ही होंगे | मै अनुमान
लगता हूँ कि इन लेखों से लगभग १० -१५ व्यंग्य संग्रह तैयार किये जा सकते हैं | यह
कोई अतिरंजना से नहीं कह रहा हूँ मकसद यह
है कि इन लेखों में इस अंचल का समूचा इतिवृत्त समाहित है , वह ठीक ठीक प्रकाशित हो जाये तो भूआणा के लोक
व्यवहार को आद्योपांत समझने में बहुत मददगार साबित हो | अपने लिखे के प्रति ऐसी
निर्ममता अजात दा में क्यों है इस रहस्य को आज तक नहीं जान सका | ऐसी उदासीनता अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिली | यह विडंबना
ही कही जा सकती है कि अब तक अजातशत्रु के व्यंग्य की सिर्फ दो किताबें ही सीन पर
मौजूद हैं | “ आधी वैतरणी ” और “ शर्म कीजिये श्रीमान ” | आधी वैतरणी प्रभात
प्रकाशन से आई है उसके प्रकाशन के पीछे भी अजात दा के प्रयास तो नगण्य ही थे उनके
कतिपय विद्यर्थियों ने लेखों को संकलित कर
पुस्तक का आकर दिया बताते हैं |इस कृति
में रेलवे गेट पर एशियाड की ह्त्या जैसे बेहद मार्मिक एवं तीखी राजनीतिक प्रतिक्रिया वाले व्यंग्य हैं जो
पाठक को गहराई तक आंदोलित करते हैं | शर्म
कीजिए श्रीमान विदिशा के रामकृष्ण प्रकाशन से आई | इस संग्रह में ज्यादातर वे लेख हैं जो नईदुनिया के हस्तक्षेप कालम के तहत लिखे गए | इस पुस्तक को तैयार करने में अजात दा के मित्र और पुलिस
अधिकारी अरुण खेमरिया एवं हरदा के युवा कवि, कथाकार डॉक्टर धर्मेन्द्र पारे की महत्वपूर्ण
भूमिका है |डॉ पारे ने चुस्त सम्पादकीय
द्रष्टि से इनके चयन को सुनिश्चित किया
|मुझे याद आता है इस कृति का हरदा में बहुत भव्य लोकार्पण समारोह हुआ था जिसे हरदा
के ही मित्रों ने आयोजित किया था | लोकार्पण के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध कवि और फिलम अभिनेता शैल चतुर्वेदी थे | कार्यक्रम में हरदा
और भोपाल तथा आसपास के तमाम बुद्धीजीवी तथा रचनाकार उपस्थित थे | अजातशत्रु खुद इस
कार्यक्रम को लेकर उत्साहित नजर आये |शैल चतुर्वेदी बहु अच्छा और विश्लेष्ण परक बोले इस समारोह में मुझे भी अजात दा के व्यंग्य
पर बोलने का अवसर प्राप्त हुआ था |
अजातशत्रु के व्यंग्य में एक दार्शनिक गहराई और
फैंटसी का विरल समावेश परिलक्षित होता है | यह सायास नहीं होता बल्कि यह उनके लेखन
का मूल ही है | वे आदमी की दृश्यमान परेशानियों के हल ढूंढते हुए अक्सर अमूर्तता और मानवेतर
स्थितियों की तह तक चलेजाते हैं और आदमी को भाषा से मुक्त करने का उपक्रम करते हैं
| उनकी मान्यता है कि भाषा से मुक्ति ही
वस्तुतः गहरे सुख का स्त्रोत है | भाषा से
मुक्ति के इस अनुभव को हिन्दी का पाठक या आलोचक किस कसौटी पर रख कर देखेगा
इसे जानने के लिए अजातशत्रु से और भी बातचीत करने की जरूरत
है | यों देखें तो भाषा पर अजातशत्रु का अदभुत कमांड है तर्क की सूक्ष्म बुनावटें
,मूल्यों की सीधी और बुनियादी समझ ,अभिव्यक्ति का तूफानी फ़ोर्स ,उनके व्यंग्य की
पहचान है |पूंजीवाद की कुप्रवृत्ति से जन्मा सांस्क्रतिक अवमूल्यन और राजनीतिक
छिछोरापन उन्हें आहत करता है | बतौर उदाहरण “ अधनंगे नौनिहालों का दोपहर भोजन ”
नामक उनके एक निबंध में इस विसंगति को
देखा जा सकता है | यह एक बड़े फलक का
व्यंग्य है | यों भोजन जीवन के लिए अनिवार्य है | दूसरों को भोजन कराना सर्वोत्तम
कार्य है |गरीब बच्चों को भोजन कराना तो स्तुत्य है | लेकिन स्कूल में बच्चों को
भोजन कराने के पीछे जो नीयत अथवा चरित्र काम कर रहा है वह गलत है | कहा जाता है कि
शिक्षण संस्थाएं संस्कार मूल्य नैतिकता और चरित्र निर्माण की प्रयोग शालाएं है
|लेकिन जहां शिक्षक और छात्र दोनों की चिंताएं भूख और भोजन के इर्द गिर्द
जन्म ले रही हों वह शर्मनाक है |स्कूल में मध्यान्ह भोजन वाली रचना इसी विकृत
यथार्थ के बेस पर जन्मी है |चरित्र
निर्माताओं का चक्की पर आटा पिसाने का
दृश्य निंदनीय है |यह एक गंभीर व्यंग्य रचना है जिसमे इस दौर की राजनीति के
विद्रूप को उघाडा गया है |
ऊपर की पंक्तियों में नई दुनिया के
हस्तक्षेप कालम का जिक्र आया है |उन दिनों
अजात दा का यह कालम बहुत लोकप्रिय हुआ करता था | इसे पढ़कर नई दुनिया के पाठक आपस
में चर्चा किया करते थे |इस स्तम्भ में मालवा निमाड़ की आंचलिकता से लेकर राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के अनेक विषयों पर व्यंग्य को केन्द्रित किया जाता था |इस
कालम का संपादन प्रारंभ में प्रसिद्द कलाविद और कथाकार प्रभु जोशी तथा बाद में
सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार यशवंत व्यास ने किया |
फिर किसी दिन अचानक यह कालम बंद हो गया |नईदुनिया के विचारवान पाठकों के
लिए इसका बंद होना एक बड़ी घटना थी |अजातशत्रु
भी इसे लेकर संभवतः नाराज रहे होंगे लेकिन उनकी नाराजी कभी प्रगट नहीं हुई | मै आज तक नहीं समझ
पाया कि इतनी लोकप्रियता के बाद कोई कालम
बंद कैसे कर दिया जाता है | अजातशत्रु इस बाबत कुछ नहीं कहते | बाद के
वर्षों में हरदा का अखबार भी बंद हो गया | और अजातशत्रु का व्यंग्य लेखन धीरे धीरे
कम होते चला गया | अलबत्ता फिल्मी गीतों पर अजात दा आज भी नई दुनिया में कालम लिख रहे हैं
| पहले यह गीत गंगा के नाम से छपता
था अब इसका नाम अतीतगंधा है | इसमें दुर्लभ फिल्म संगीत और गीतों की बहुत सूक्ष्म
और विश्लेष्ण परक मीमांसा होती है | नई
दुनिया का वृहद पाठक समुदाय इस स्तम्भ को बहुत रूचि से पढता है | फिल्मो की तरफ
अजातशत्रु का रुझान आरम्भ से ही रहा है | उन्होंने निर्माता निर्देशक बी के आदर्श
की दो फिल्मों के लिए संवाद लेखन तथा सतना के ऋषिकेश मिश्रा की फिल्म नागफनी का स्क्रीन प्ले और संवाद लेखन
भी किया | फिल्म अभिनेता अशोककुमार (दादा मुनि) की बायोग्राफी अशोककुमार एक
अध्ययन भी इसी दरमियान लिखी गई इस कृति का विमोचन उस दौर के मुख्यमंत्री श्री
सुन्दर लाल पटवा (अब स्वर्गीय) तथा फिल्म अभिनेता नाना पाटेकर ने किया था | भोपाल
के जहाँनुमा पेलेस में यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ | इस आयोजन में मैंने नाना पाटेकर
से देर तक बातें की और उनकी अभिनय की समझ
को करीब से जानने का अवसर मिला | समारोह म प्र फिल्म विकास निगम द्वारा आयोजित
किया गया था | अलावा इसके कोकिलकंठी लता
मंगेशकर पर केन्द्रित “बाबा तेरी सोन चिरैया” एवं आशा भोसले पर एकाग्र “सदियों
में एक आशा ” जैसे वृहद ग्रन्थ अजातशत्रु के लेखन की अप्रतिम उपलब्धियां हैं | इनके
सृजन में अजात दा के अभिन्न मित्र और फ़िल्मी गीतों के संग्रह कर्ता इंदौर के सुमन
चौरसिया का भी महत्व पूर्ण योगदान रहा है
|
पिछले दिनों जब
अजातशत्रु को एक बड़े और राष्ट्रीय स्तर के
व्यंग्य पुरस्कार के लिए फोन किया गया तो उन्होंने पुरस्कार लेने से यह
कहकर मना कर दिया कि मै खुद को इस योग्य नहीं मानता चूँकि यह सम्मान व्यंग्य पर केन्द्रित है और आजकल मै व्यंग्य
नहीं लिख रहा हूँ | उनकी इस शालीनता पर देश के प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ ज्ञान
चतुर्वेदी ने कहा कि ”अजातशत्रु यकीनन बड़े
लेखक हैंऔर हम गौरवान्वित हैं कि वे हमारे समय के व्यंग्यकार हैं” | इस वाकिये का
जिक्र व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ ने भी फेसबुक पर किया है | अभी जब यह संस्मरण
लिखा जा रहा है मै पक्के से कहता हूँ कि अजात दा अपने खलिहान में बैठकर गाँव वालों
से बतिया रहे होंगे | वे इस दुर्लभ बतकही के लिए हर बार मुम्बई से पलासनेर आ जाते
हैं |
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कैलाश मंडलेकर, 38 जसवाडी रोड, बैंक ऑफ़ इण्डिया के पीछे, खंडवा, म.प्र.
मोबाइल 9425085085
ईमेल-
kailash.mandlekar@gmail.com
इस आलेख से अजातशत्रु जी के रचनासंसार और कृतित्व को और करीब से जानने की जिज्ञासा होती है। बहुत महत्वपूर्ण आलेख। मंडलेकर जी को साधुवाद।
ReplyDeleteनमस्कार सर! मेरा नाम संदीप वर्मा है और मैं भी पलासनेर से ही संबंध रखता हूं फिलहाल इंदौर में हूँ।आपके इस आलेख को पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है और श्री दादा जी से मैं भी ज्यादा तो नहीं हाँ लेकिन तीन से चार दफ़ा मिल चुका हूं, उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगता है और वो (श्री दादाजी ) हमारे गाँव के गौरव है।
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत धन्यवाद आपके इस लेख के माध्यम से हमे आपसे और श्री दादाजी से रूबरू होने का मौका मिला।