११ मार्च १९९२ में बीकानेर, राजस्थान में जन्मे युवा कवि आशीष बिहानी हिंदी साहित्य से गहरा लगाव रखते हैं. उन्होंने "अन्धकार के धागे" नाम से एक कविता संकलन लिखा है जोकि हिन्द-युग्म प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. उनकी कविताएँ यात्रा, गर्भनाल, समालोचन, अनुनाद, स्रावंती, पहलीबार, पूर्वाभास इत्यादि पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित हुई हैं. उन्होंने बिट्स पिलानी से B.E. और M.Sc. की है. वे रचनारत रहते हुए वर्तमान में कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र, हैदराबाद में शोधार्थी के तौर पर कार्यरत हैं.
आशीष की प्रस्तुत कविताएँ एक महानगर में अपने
छोटे और नाज़ुक अस्तित्व से विचलित इंसान के बारे में हैं. ‘स्पर्श’ पर पहली बार.
कविता के इस नए स्वर का स्वागत और शुभकामनायें !
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मोज़ेइक
(1)
अपने छोटे से कमरे में
वो घूमता हुआ
हर चीज़ को छूता है
उलटता-पलटता है
साफ़ करता है
जमाता है
तरक़ीब बदलता है
फिर जमाता है
और हर दिन
कुछ नीचे गिर जाता है
कुछ टेढ़ा हो जाता है
बिखर जाता है
धूल और खंख से सन जाता है
नंगी औरतों के पोस्टर जालों से आच्छादित
आईने पर बूंदों के निशान
चिकनी सतहों पर घिसटने के रग्गे
प्लास्टिक रेप्पर्स के उतरते हुए छिलके
तेल देने पर भी चीं-चीं करते दरवाज़े-खिड़कियाँ
वो हार नहीं मानता पर
इधर से उधर जाता
बाज़ार को और वापस
कोशिश करता है प्रकृति से वापस पाने की
छिना हुआ साम्राज्य
कम होती ऊर्जा के साथ
उथल-पुथल और अनुक्रमणिकरण की बारी-बारी से आती लहरों में
इस जगह का एक चेहरा बन गया है
जहाँ व्यवस्था की दरारों से छलछला पड़ती है अव्यवस्था
और अव्यवस्था के
ढेरों में बड़े विचारपूर्ण ढंग से घुसे हुए हैं
व्यवस्था के डंडे
ये शक्ल है
मृत्यु की
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(2)
फ़र्श पर नज़र झुकाए
वो देखता रहा कुछ देर
कोई परिवर्तन नहीं हुआ परिदृश्य में
एकाकी
सतत
रेखीय
फट पड़ा उसके मष्तिष्क में कहीं कुछ
हज़ारों ज्वालामुखियों की प्रचंडता से
क्षण भर पहले उसने अपने विचार व्यवस्थित किये थे
जहाँ रोष भरा है
उफनता
डगमगाता अपने कटोरे को
अद्वितीय हिंसा से
प्रभाव
जिससे भागा नहीं जा सकता
सुलझाया नहीं जा सकता
रुका नहीं जा सकता
और अचानक विश्व डूबा है
काँटों में
समुद्रों में से बाहें निकलतीं हैं किसी
विडरूप विद्रूप सी चरमरातीं
ये कमरा है उनका बंधन
जैसे लाईसा के किले में वेल के खुले कारागार
जिनमें रहना है मृत्यु, जिनसे निकलना है मृत्यु
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(3)
तुम खिड़की से बाहर झांकोगे
तो पाओगे कि दुनिया बदल गई है
कि ये सब वो नहीं है
जो सब अन्दर था
जिसका विस्तार ही होना था सब कुछ बाहर भी
और परिवर्तन का कारण है बाहर झांकना
धोखा देना स्वयं की सत्ता को
सच बोलकर
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(4)
कमरे की बालकनी से
मुँह लगा कर
जून महीने के ड्रैगन सोते हैं
बेफ़िक्र
लिपलिपी जीभ फैलाए
एंटी-सूरज
चमकता है, सोख लेता है कवित्व
मनुष्यत्व
तुम लार के फव्वारों में नहाये
अस्तित्व छितरा हुआ, शिथिल, विरल
जर्मन पेपर के बीच कुटी चांदी के वर्क की तरह
आग जला देती है तुम्हारे
ज्वलनशील पसीने से भीगे बाल
जो ऐंठ कर कोंचते हैं तुम्हारी गर्दन में
जैसे साही लोटती हो वहाँ
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(5)
तुम्हें ऐसा लगता है
कि तुम्हें लड़ना है
धोती को घुटनों तक उठाकर, कस कमर पर लांग
किसी फिल्म के दुसरे सोपान के अंत पर
जमा हुई नाटकीयता के साथ
और बाहर आ जाएगा सब कुछ
कामोन्माद की अंतिम चीख की तरह
सब कुछ बंध जाएगा
बराबर दूरी पर लगी गांठों में
किसी ढके नाले की खुदाई पर ढेर सा निकलेगा
पॉलिथीन्स कंडोम्स पिचके डिब्बे
तार-तार टी-शर्ट
सड़ी गुठलियाँ
एक दिन समर्थ होगे तुम
फेफड़ों की टंकियां पूरी ख़ाली करके पूरी भरने में
वापस
पर संतोष सिर्फ़ डिकेन्स के उपन्यासों में होता है
तुम लड़ोगे अपने कमरे से
टेबल-कुर्सी-कलम
बिस्तर-तकिया-पर्दा
तुम्हारी अपनी टाँगे
चप्पल-मोजा-कंघा
खड़बड़ाओगे सब डब्बे दिल के
भूख सदैव जीने वाली
मृत्युपर्यंत
कब्र तुम्हारी, उस ढेर में जो तुम हो
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(6)
कमरे के बाहर
सफेदे का पेड़
सरसराता है अनंत संवेग से
एक फूंकनी की तरह साँस लेता हुआ
उठता गिरता
फुहार में कांपता
चरमराते हुए बुलाता है
किसी पुरानी इमारत सा
खींचता तुम्हे अपनी ओर
रात में किसी स्वप्न के मध्य में
तुम उसके आग़ोश में तैरते हुए जाओगे
उसके पैरों में
तुम्हारी तितर-बितर लाश पर नाचेगा
बेख़ुदी से, बेहयाई से
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ashishbihani1992@gmail.com
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