Saturday, 24 June 2017

दो ग़ज़लें / नज़्म सुभाष



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गजल-१
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दफ्तर की शैतानी है
हरदिन आनाकानी है

मुद्दा इतना बड़ा नही
जितनी गलतबयानी है

तेरा स्वेद लहू जैसा
खून हमारा पानी है

आग लगाकर कम्बल दे
धर्म- धुरन्धर दानी  है

नजर मीन के जिस्मों पर
बगुला बेहद ध्यानी है

दिन बहुरेंगे दंगों के
बस अफवाह उड़ानी है

सबके अपने अपने सच
सबकी अलग जुबानी है

कैसे लिखे हालिया कुछ
मेरी कलम पुरानी है


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गजल-२
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जैसे - तैसे पलता रिक्शा
अक्सर नहीं निकलता रिक्शा

आंतों की ताकत पांवों में
दिनभर रहा बदलता रिक्शा

नमक मिर्च रोटी के दमपर
भारी बोझ फिसलता रिक्शा

मोलभाव मे गयी सवारी
हाथ रह गया मलता रिक्शा

कंबल ओढ़े ठंड काटता
गर्मी मध्य उबलता रिक्शा

सड़कों पर रुतबे के आगे
गाली खाता चलता रिक्शा

थकन टांग देता खूंटी पर
बेटी संग मचलता रिक्शा

पिचके गाल धंसी हैं आंखें
भरी जवानी ढलता रिक्शा

देर रात को घर मे आए
गिरता और संभलता रिक्शा

गले फेफड़े हांफ रहे
बलगम खून उगलता रिक्शा

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नज्म सुभाष
३५६/ केसी २०८ कनकसिटी आलमनगर लखनऊ २२६०१७

मोबाइल नम्बर- ०९२३५७९२९०४

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