युवा कवि विजय कुमार पिछले लगभग एक साल से झारखण्ड के “कोयलांचल क्षेत्र“ पर “कोयला“ सीरीज से चालीस कवितायें लिख चुके हैं जोकि उनकी दो वर्षो के अथक शोध का परिणाम है | इस कविता सीरीज में कोयलांचल क्षेत्र के भूभागों में जमीन के नीचे फैली आग, विस्थापन, पर्यावरण आदि समस्याओं से आमजन पर पड़ने वाले प्रभावों को रेखांकित किया गया है | ‘स्पर्श’ इस श्रृंखला की तेरह कवितायें आज आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा है:-
1. ।। भित्तिचित्र ।।
हम नून, तेल और पानी के
खोज में लगे रहे
दामोदर और बराकर
कलकल बहते रहे
हम हरी हरी जमीन की
खोज में जंगल जंगल विचरते रहे।
वह हरी-भरी जमीन
खोद कर आग-आग चिल्लाते रहे
और हमारी सभ्यताओं के
शैलचित्रों को तोड़कर
कोयला निकालते रहे ।
खोद कर आग-आग चिल्लाते रहे
और हमारी सभ्यताओं के
शैलचित्रों को तोड़कर
कोयला निकालते रहे ।
बोलो तो !!!
अबतक हमारे घरों को
कौन- कौन जलाते रहे
कौन उजाड़ते रहे ?
हे !! अमानुष क्यों तुम
हमारे दीवारों के
चटख भित्तिचित्रों को मिटाते रहे ।
हमारी जमीन संभवतः
मानव सभ्यताओं की
सबसे पुरानी जमीन है,
इस ज़मीन के नीचे की आग
संभवतः चकमक पत्थरों के
चटखनों से सुलगायी गयी है
जो बुतने का नाम नहीं लेती
दहक ही आती है ।
अबतक हमारे घरों को
कौन- कौन जलाते रहे
कौन उजाड़ते रहे ?
हे !! अमानुष क्यों तुम
हमारे दीवारों के
चटख भित्तिचित्रों को मिटाते रहे ।
हमारी जमीन संभवतः
मानव सभ्यताओं की
सबसे पुरानी जमीन है,
इस ज़मीन के नीचे की आग
संभवतः चकमक पत्थरों के
चटखनों से सुलगायी गयी है
जो बुतने का नाम नहीं लेती
दहक ही आती है ।
अब हमारे आंगन
कंदराओं में
तब्दील होने लगे है,
काली दिवारों को मात्र कुरेच देने से
श्वेत श्याम सैकड़ों अबशेष
भित्तिचित्रों में उभर आती है ।
कंदराओं में
तब्दील होने लगे है,
काली दिवारों को मात्र कुरेच देने से
श्वेत श्याम सैकड़ों अबशेष
भित्तिचित्रों में उभर आती है ।
2. ।। हमारे पहाड़ युगों से जल रहे थे ।।
हमने बहुत पहले ही
खोज ली थी आग
हमारे पहाड़ युगों से जल रहे थे
और वह आग की खोज में
यहाँ वहाँ
हवाई जहाजों पर
उड़ रहे थे सदियों से।
दरअसल उन्होनें अभी तक
हमारे नजदीक आने की
कोशिश ही नहीं की थी,
पूछ लेते तो जरा परिंदों से भी
और कितने कितने पहाड़ बच गए झुलसने से ।
हमारे नजदीक आने की
कोशिश ही नहीं की थी,
पूछ लेते तो जरा परिंदों से भी
और कितने कितने पहाड़ बच गए झुलसने से ।
वह हमारे सुलगते पहाड़ों को
आसमानों से देखकर
अभी तक अंधेरी रातों में
जगमगाते जुगनू ही समझ रहे थे ।
आसमानों से देखकर
अभी तक अंधेरी रातों में
जगमगाते जुगनू ही समझ रहे थे ।
इसलिए आग पर दावा
सबसे पहले हमारा ही था
अब हमारे घरों के चुल्हे भी
बुझते बुझते जा रहे थे, ठंडे होकर ।
सबसे पहले हमारा ही था
अब हमारे घरों के चुल्हे भी
बुझते बुझते जा रहे थे, ठंडे होकर ।
3. ।। मुझे तो संदेह है कि इस शहर में
प्रेम का फूल भी कहीं खिलता है ।।
मुझे तो संदेह है
कि इस शहर में
प्रेम का फूल भी कहीं खिलता है ।
एक मजदूरिन के घर
एक अफसर जाता है
इस शहर के स्याह रातों में
वह लगभग गुम सा हो जाता है
वह धीरे-धीरे सिगरेट सुलगाता है
अधजला सुलगा
टोटा वहीं फेक आता है
ओर आधी
शराब की बोतलों को
छोड़ आता है
दूसरी रात के लिए ।
एक अफसर जाता है
इस शहर के स्याह रातों में
वह लगभग गुम सा हो जाता है
वह धीरे-धीरे सिगरेट सुलगाता है
अधजला सुलगा
टोटा वहीं फेक आता है
ओर आधी
शराब की बोतलों को
छोड़ आता है
दूसरी रात के लिए ।
मैं जानता हूँ
उस मजदूरिन के घर
सिर्फ चुल्हे की आग ही तो बुझी थी
उस मजदूरिन को इस बात की
थोड़ी भनक भी नहीं थी
कि उस बाबु साहेब को
अपनी देह की ताप बुझाने भर की ही सनक थी ।
उस मजदूरिन के घर
सिर्फ चुल्हे की आग ही तो बुझी थी
उस मजदूरिन को इस बात की
थोड़ी भनक भी नहीं थी
कि उस बाबु साहेब को
अपनी देह की ताप बुझाने भर की ही सनक थी ।
देखना एक दिन
वह मजदूरिन
अपनी खुरदरी और काले हाथों को
जब दमोदर के पानी में डुबोकर धो लेगी
जब वह अपने
काले वस्त्रों को उतार कर
सफेद उजास वस्त्रों को
धारण करेगी
वह चुप नहीं रहेगी
दहाड़ मार कर चिल्लायेगी
और कहेगी
“बाबु साहेब !! मैं भी करती हूँ तुमसे प्रेम“
वह मजदूरिन
अपनी खुरदरी और काले हाथों को
जब दमोदर के पानी में डुबोकर धो लेगी
जब वह अपने
काले वस्त्रों को उतार कर
सफेद उजास वस्त्रों को
धारण करेगी
वह चुप नहीं रहेगी
दहाड़ मार कर चिल्लायेगी
और कहेगी
“बाबु साहेब !! मैं भी करती हूँ तुमसे प्रेम“
देखना उसे प्रेम हो न हो
देखना वह भी
एक दिन कह देगा
मैं वहाँ उजालों में जाने से डरता हूँ
देखना वह भी
एक दिन कह देगा
मैं वहाँ उजालों में जाने से डरता हूँ
देखना तुम
वह न पल्ले झाडेगा
न ही कोई अभिनय करेगा
धोवनशालाओं से निकलकर
वह अपने उजले कपडों को बार बार झाडेगा ।
वह न पल्ले झाडेगा
न ही कोई अभिनय करेगा
धोवनशालाओं से निकलकर
वह अपने उजले कपडों को बार बार झाडेगा ।
देखना तुम्हारा प्रेम
खादानों के अवैध कोयलों की
तरह ही रह जायेगा ।
फट जायेगा हृदय तुम्हारा
और कोकिंग कोल की चिमनियों से
निकलने वाले राखों में घुल जायेगा तुम्हारा प्रेम ।
खादानों के अवैध कोयलों की
तरह ही रह जायेगा ।
फट जायेगा हृदय तुम्हारा
और कोकिंग कोल की चिमनियों से
निकलने वाले राखों में घुल जायेगा तुम्हारा प्रेम ।
4. ।। कूड़ेदानों में तैरते बच्चे ।।
इस शहर के कूड़ेदानों में
कई-कई दिन कालिखों
के बीच कूड़े ही कूड़े
उपले रहते है
इस शहर के कूड़ेदानों में
कुछ भुखे बच्चे
अपना भोजन कूड़े कूड़े में ही करते है
और कुछ बच्चे तो
कभी-कभी कूड़े में ही धँसे रहते है
कुछ भुखे बच्चे
अपना भोजन कूड़े कूड़े में ही करते है
और कुछ बच्चे तो
कभी-कभी कूड़े में ही धँसे रहते है
इन कूड़ेदानों से
कुछ ही उजले बच्चे खोजे जा सकते है।
कूड़ेदानों में तैरते सारे काले बच्चे
गुमशुदा हो गये है
कुछ ही उजले बच्चे खोजे जा सकते है।
कूड़ेदानों में तैरते सारे काले बच्चे
गुमशुदा हो गये है
5. ।। दम लगा के हईस्सा।।
कोयले की बोरियों को लादे
सैकड़ों साईकिलों
को लिए
दम साधे
निकल चला है
कुछ लोगों का रैला
मानो कुछ लोगो के
जीवन को कोयले की
बोरियों ने ही अबतक है खेला ।
रामगढ की कोयला खादानों से लेकर
समूचे पतरातु घाटी में
एक ही स्वर में
कुछ आवाज़े गूंजती है।
समूचे पतरातु घाटी में
एक ही स्वर में
कुछ आवाज़े गूंजती है।
“दम लगा
के हईस्सा
कहो रे भाई
पहाड़ चढोगे कईस्सा “
एक ही स्वर में
फिर से प्रत्त्योत्तर
सुर तालो को मात देते हुए
किसी आठवें सुर में
शायद भूख की सुरो मे
कुछ और आवाज़े आती है
कहो रे भाई
पहाड़ चढोगे कईस्सा “
एक ही स्वर में
फिर से प्रत्त्योत्तर
सुर तालो को मात देते हुए
किसी आठवें सुर में
शायद भूख की सुरो मे
कुछ और आवाज़े आती है
बेशक इन आवाज़ों में
पंछियों की चहचहाने
निर्झरों की झर्रझर्राने
पत्तों की सर्रसर्राने
और भौरों की गुनगुनाने की आवाज़े भी शामिल हो
लेकिन वह आवाज़ जो अंतड़ियों में पैदा होती है
वह अक्सर गले तक रूकती नहीं
दबाने से भी अटकती नहीं
मुँह से भरसक फूट ही जाती है
और इन घुमावदार घाटियों में
पैदा होता है
एक संगीत
एक थिरकन
मजदूरों की साइकिले गोल गोल घुमती
आदिम युवती सी नाचती है
पंछियों की चहचहाने
निर्झरों की झर्रझर्राने
पत्तों की सर्रसर्राने
और भौरों की गुनगुनाने की आवाज़े भी शामिल हो
लेकिन वह आवाज़ जो अंतड़ियों में पैदा होती है
वह अक्सर गले तक रूकती नहीं
दबाने से भी अटकती नहीं
मुँह से भरसक फूट ही जाती है
और इन घुमावदार घाटियों में
पैदा होता है
एक संगीत
एक थिरकन
मजदूरों की साइकिले गोल गोल घुमती
आदिम युवती सी नाचती है
भूख का नहीं है कोई अपना राग
भुख तो कहता है बस आग ही आग
भूख गाता नहीं है फाग
भुख तो कहता है बस आग ही आग
भूख गाता नहीं है फाग
भुख की आवाज़े आग में ही पकती है
और बार बार यहीं कहती है
“दम लगा के हईस्सा
पहाड़ चढ़ों अईस्सा
पतरातु पहाड़ हिल जाये जैईस्सा “
और एक एक कर सभी
कोयले से लदी साईकिले
पार कर जाती है
घुमावदार घाटियाँ भी उन्हें
रोक नहीं पाती
इन कोयले की बोरियों को बेच कर
अपनी भूख को मिटाने से।
और बार बार यहीं कहती है
“दम लगा के हईस्सा
पहाड़ चढ़ों अईस्सा
पतरातु पहाड़ हिल जाये जैईस्सा “
और एक एक कर सभी
कोयले से लदी साईकिले
पार कर जाती है
घुमावदार घाटियाँ भी उन्हें
रोक नहीं पाती
इन कोयले की बोरियों को बेच कर
अपनी भूख को मिटाने से।
अगले दिन
फिर एक बार उन आवाज़ों से
सुरम्य घाटियाँ तार तार हो जाती है
जब वह आवाज़े बार बार आने लगती है
लगातार करताल करते हुए
फिर एक बार उन आवाज़ों से
सुरम्य घाटियाँ तार तार हो जाती है
जब वह आवाज़े बार बार आने लगती है
लगातार करताल करते हुए
“दम लगा
के हईस्सा
जिंदगानी कैसे कटेगा रे बाबु
जिंदगानी तो है पहाड़ों के जैईस्सा “ ।
जिंदगानी कैसे कटेगा रे बाबु
जिंदगानी तो है पहाड़ों के जैईस्सा “ ।
धुंध तो भ्रम है इन घाटियों में
तलहटी से तीक्ष्ण उँचाईयों तक श्रम का
पसीना बहता है ।
गर्म सड़कों में गिरकर
नमकीन भाप उड़ जाता है
कोहरा के भ्रम में उनके देहों को
थोड़ा ठंडक भी मिल जाता है ।
तलहटी से तीक्ष्ण उँचाईयों तक श्रम का
पसीना बहता है ।
गर्म सड़कों में गिरकर
नमकीन भाप उड़ जाता है
कोहरा के भ्रम में उनके देहों को
थोड़ा ठंडक भी मिल जाता है ।
क्या कहेगा पतरातु पहाड़
तो विशाल दिखता है
लेकिन खुद रही उसकी जमीन में
उसकी गहरी जड़ो से भी तो धुआँ धुआँ उठता है
तो विशाल दिखता है
लेकिन खुद रही उसकी जमीन में
उसकी गहरी जड़ो से भी तो धुआँ धुआँ उठता है
खदानों के मजदूरों की आवाज़
जब लौट आती चोटियों से टकराकर
उसका आवाज़ भी कहीं शामिल तो रहता है
नलकारी का विशाल बांध भी तो रिसता- रिसता रहता है ।
जब लौट आती चोटियों से टकराकर
उसका आवाज़ भी कहीं शामिल तो रहता है
नलकारी का विशाल बांध भी तो रिसता- रिसता रहता है ।
6. ।। आग के तितकियों मे लहलहाकर
जल जाते ये चट्टान भी ।।
हमारे यहाँ कोयले कम नहीं थे
आग के तितकियों में
लहलहाकर धु धु जल जाते ये चट्टान भी
उन्हें इन बातों पर पूरा यकीन था ।
पिघलना तो उन कठोर
और लम्बी-चौड़ी, चिकनी और सपाट सड़कों को था
आखिर वह भी इन्ही कोयलों में गलकर
इन खादानों तक पहुंचें थे।
और लम्बी-चौड़ी, चिकनी और सपाट सड़कों को था
आखिर वह भी इन्ही कोयलों में गलकर
इन खादानों तक पहुंचें थे।
यह तो पहले से ही तय था
कि वह इन खादानों को बीहड़ कहते
जितना निकालों उतना भी कम था ।
कि वह इन खादानों को बीहड़ कहते
जितना निकालों उतना भी कम था ।
हो न हो उन्हें अपने
इस विश्वास पर संदेह था
कि उनकी ठोस और
हमारी क्षणभंगुरता में भी कुछ तो फर्क शेष था
कि हमारा भुरभुरा जाना ही
उनकी अट्टहासों में दम भरता था ।
इस विश्वास पर संदेह था
कि उनकी ठोस और
हमारी क्षणभंगुरता में भी कुछ तो फर्क शेष था
कि हमारा भुरभुरा जाना ही
उनकी अट्टहासों में दम भरता था ।
7. ।। कोयलों की खदानों में उग आयी
घास सबसे अधिक जिद्दी थी ।।
कोयलों की खदानों में
अक्सर उग आयी घास सबसे अधिक
जिद्दी थी
वह सबसे अधिक हरी थी
काले और सफेद रंग में
बहुत पड़ जाता था फर्क
उन खदानों में रंग सभ्य और असभ्य के बीच
एक अदृश्य लकीर थी।
उनकी आँखों में
सबसे हेय मजदूरों की चमड़ीयाँ थी
उनके सभ्यता की चिमनियों को सुलगाने में
मजदूरों के घरों के नीचे से उभर आयी
दरारों में आग बेहद जरूरी थी ।
सबसे हेय मजदूरों की चमड़ीयाँ थी
उनके सभ्यता की चिमनियों को सुलगाने में
मजदूरों के घरों के नीचे से उभर आयी
दरारों में आग बेहद जरूरी थी ।
भुमीगत खादानों में
दबकर मरने वाले
सैकड़ों मजदूर की जानें
उनके लिए गैरजरूरी थी।
दबकर मरने वाले
सैकड़ों मजदूर की जानें
उनके लिए गैरजरूरी थी।
संभवत: जरूरी और गैरजरूरी के बीच का फर्क वह अभी नहीं जान पाये थे
।
कि उन मजदूरों की हड्डियाँ
फिर से किसी विकसित सभ्यता की
बुझ गयी चिमनियों को दहकाने में काम आयेगी ।
फिर से किसी विकसित सभ्यता की
बुझ गयी चिमनियों को दहकाने में काम आयेगी ।
संभवत: जब भूमीगत खदानों में दब गये
सैकड़ों मजदूरों की हड्डियाँ करोड़ों सालों में
एक बार फिर से जिवाश्म बन जायेगी
उगकी नर्म हँसी भी अट्टहासों में तब्दील हो जायेगी ।
सैकड़ों मजदूरों की हड्डियाँ करोड़ों सालों में
एक बार फिर से जिवाश्म बन जायेगी
उगकी नर्म हँसी भी अट्टहासों में तब्दील हो जायेगी ।
8. ।। इंसान हाड़ – माँस का पुतला भर।।
जब कभी धुआँ
सफेद, लकीर बन उठता है,
एक भ्रम जन्म लेता है
एक बुढ़िया ताप रही है आग
एक बच्चा किलक उठता है
एक चूल्हा
कुछ भूख मिटाता रहता है ।
एक किसान बिलख उठता है
फट जाती है ऊर्वर धरती
और एक घर दह… दह….कर जलता है ।
फट जाती है ऊर्वर धरती
और एक घर दह… दह….कर जलता है ।
इंसान हाड़ – माँस का
पुतला भर
शमशानों में
एक तिल्ली भर
बारुद में जल जाता है ।
शमशानों में
एक तिल्ली भर
बारुद में जल जाता है ।
इन काले पत्थरों के तह- दर- तह
काला हीरा
कभी मद्धिम नहीं होता
जब खाक हो चुका
राख उड़ने लगता है
वह बुझ चुकी आँखों में
जलता ही रहता है ।
काला हीरा
कभी मद्धिम नहीं होता
जब खाक हो चुका
राख उड़ने लगता है
वह बुझ चुकी आँखों में
जलता ही रहता है ।
यहाँ बाज़ों का झुँड भी
दूर कहीं
आकाश में उड़ता
आँखों से लहू
बूँद ...बूँद .....टपकाता है ।
दूर कहीं
आकाश में उड़ता
आँखों से लहू
बूँद ...बूँद .....टपकाता है ।
9. गगनचुंबी अट्टालिकायें
1 .खदानों के चारो तरफ
गगनचुंबी अट्टलिकाओं के बीच
आप सैकड़ों किलोमीटर फर्राटे लगा सकते है
क्या आप सोच सकते है
आप दौड़ते है हांफते है
झुग्गी और झोपड़ीयों के बीच
आप भारी भरकम मशीनें और मालवाहक
वाहनों को ही देख सकते है
आप आधुनिकता का दम भरते है
लेकिन आप थके है हारे है
आप भारी भरकम मशीनें और मालवाहक
वाहनों को ही देख सकते है
आप आधुनिकता का दम भरते है
लेकिन आप थके है हारे है
क्या आप यह नहीं देखते
उन्नत मशीनों और बुलडोज़रो के खुलते
कितने कितने दैत्याकार दाँत
कितने भयानक अठ्ठहास लगाते है
उन्नत मशीनों और बुलडोज़रो के खुलते
कितने कितने दैत्याकार दाँत
कितने भयानक अठ्ठहास लगाते है
आप यह कतई नहीं
देख सकते
आप अंधे गुंगे और बहरे है
देख सकते
आप अंधे गुंगे और बहरे है
देखो यहीं पर
महज कदम भर फासले है
खंडहरो से खरपच्चे है
सैकड़ों ऊबड़खाबड़ रास्ते है
महज कदम भर फासले है
खंडहरो से खरपच्चे है
सैकड़ों ऊबड़खाबड़ रास्ते है
इसी काली जमीन पर
पुरातन कदमों के कई कई अमिट छाप
अभी अभी उभरे है
पुरातन कदमों के कई कई अमिट छाप
अभी अभी उभरे है
मैने देखा है
चट्टानों के बीच रिसते पानी को
छप्प छप्प छप्पाक करते
परित्यक्त खदानों के मुहानों पर
कुछ बच्चे है
कीचड़ों पर नाचते है
बादलों जैसे उड़ते काले धूल को देखकर
वह हंसते है गाते है
चट्टानों के बीच रिसते पानी को
छप्प छप्प छप्पाक करते
परित्यक्त खदानों के मुहानों पर
कुछ बच्चे है
कीचड़ों पर नाचते है
बादलों जैसे उड़ते काले धूल को देखकर
वह हंसते है गाते है
वहाँ दीवारों पर सृजन के कई कई चिन्ह है
तमाम नाउम्मीदों के बावजूद
बुत बने पत्थरों पर
हरेक जगह
कुछ हरे पनीले पौधे भी उग आते है
तमाम नाउम्मीदों के बावजूद
बुत बने पत्थरों पर
हरेक जगह
कुछ हरे पनीले पौधे भी उग आते है
2.
गगनचुंबी अट्टलिकाओं और खदानों से
जो लोग बेदखल कर दिये गए है
जो लोग चिकने संगमरमरों पर
चलने से फिसलकर गिर गये है
जो लोग लम्बे- चौड़े डग भरने के
अभ्यस्त नहीं है
उन्होनें बीहड़ो के बीच खोज लिया है
एक समतल जमीन का टुकड़ा
ताकि बची रहे कुछ दाने
बची रहे भूख
बचा रहे थोड़ा सुख
10. ।। समय के साथ-साथ औज़ारो के रुप बदले है ।।
समय के साथ-साथ औज़ारो के रुप बदले है
कुछ औज़ारों ने
जमीन खोदे है
और असंख्य खेत बने है
कुछ औज़ारो ने गढ्ढे किये है
और कई कई उन्नत सभ्यतायें खड़े हुए है
कुछ औज़ारों ने लोगो के पांव उखाडे है
और कुछ लोगो के पांवों में जुते डाल रखे है
और कई कई उन्नत सभ्यतायें खड़े हुए है
कुछ औज़ारों ने लोगो के पांव उखाडे है
और कुछ लोगो के पांवों में जुते डाल रखे है
कुछ औज़ारों ने धरती पर ही
बना डाला है ब्लेक होल
देखों उसके आकर्षण में
कितने लोग खिंचे चले जा रहे है
और कुछ कुछ औज़ारो ने इस्पातों के
लचीले सैकड़ों मीनारे खड़े किये है
बना डाला है ब्लेक होल
देखों उसके आकर्षण में
कितने लोग खिंचे चले जा रहे है
और कुछ कुछ औज़ारो ने इस्पातों के
लचीले सैकड़ों मीनारे खड़े किये है
देखों कुछ औज़ारे तो
अब हस्तकुठार नहीं
चकमक पत्थरो से विकराल दानव बन गए है ।
अब हस्तकुठार नहीं
चकमक पत्थरो से विकराल दानव बन गए है ।
11. ।। ज्वालामुखीयों के राख उगलने से पहले ।।
किसने कहा कि
यह जमीन कभी बंजर थी
किसने कहा कि
इस मिट्टी में नमी नहीं थी
किसने कहा कि
हमारी समतल और हरी जमीन
कभी बीहड़ भी थी ।
ज्वालामुखियों के
फ्यूमारॅाल उगलने से पहले
इस जमीन के नीचे ही
प्रसुप्त ठंडी लावा की एक नदी भी बहती थी ।
और हमारे खेतों की मृदुल
उपजाऊ मिट्टी में ही
हमारी भूख घुली हुई थी ।
फ्यूमारॅाल उगलने से पहले
इस जमीन के नीचे ही
प्रसुप्त ठंडी लावा की एक नदी भी बहती थी ।
और हमारे खेतों की मृदुल
उपजाऊ मिट्टी में ही
हमारी भूख घुली हुई थी ।
12. ।। हाँ सिर्फ इसी शहर में आधुनिकता एक मिशाल है ।।
हाँ सिर्फ इसी शहर में
एक तरफ सैकड़ों शॅापिंग मॅाल है
एक तरह हज़ारों मजदूर
कंधों में गैती और कुदाल है
हाँ सिर्फ इसी शहर में
आधुनिकता एक मिसाल है
एक तरफ सिक्स लेन है तो
एक तरफ मल्टीफ्लैक्स है
दुसरी तरफ पीवीआर में सिल्वर स्क्रीन गुलज़ार है
आधुनिकता एक मिसाल है
एक तरफ सिक्स लेन है तो
एक तरफ मल्टीफ्लैक्स है
दुसरी तरफ पीवीआर में सिल्वर स्क्रीन गुलज़ार है
सबसे अलग हमारी जमीन
खोदी गई भूचाल है
खोदी गई भूचाल है
हाँ इसी शहर में
दुर्लभ इंजीनीयरिंग
तकनीक का कमाल है
एक तरफ वातानुकूलित आलीशान है
तो दुसरी तरफ
कुछ मलीन बस्तियों में ही
हज़ारों मेहनतकश मजदूरों के
तंग मकान है
जहाँ सैकड़ों हज़ारों खुली खदान है ।
दुर्लभ इंजीनीयरिंग
तकनीक का कमाल है
एक तरफ वातानुकूलित आलीशान है
तो दुसरी तरफ
कुछ मलीन बस्तियों में ही
हज़ारों मेहनतकश मजदूरों के
तंग मकान है
जहाँ सैकड़ों हज़ारों खुली खदान है ।
13. ।। वह निराला की “पत्थर तोड़ती“ औरतों से थोड़ी भिन्न थी ।।
उनकी महीन मुस्कुराहटें
मोनालिसा जैसी टेढ़ी नहीं थी
वह अद्धोवस्त्र में सुत काट रही थी
वह खिलखिलाती कैसै
वह कैसे किसी की खिल्ली उड़ाती
उनकी दांत वक्र लिए हुए थी
और भौंहे टेढ़ी थी
वह जंगल के बीचों बीच
सड़क पर महुआ चुन रही थी
वह अपनी बालों में सरगुंजे का फूल बांध कर
घुठने भर पानी में खेतो में धान रोप रही थी
सुन्दर लगना रहस्य था उनका
शायद ही उन युवतीयों पर
किसी चित्रकार की नजर पडी हो
उनकी उंगलीयाँ पानी से लबालब भरे खेतों में एक नग्न नर्तकी की तरह नाच रही थी ।
शायद ही उन युवतीयों पर
किसी चित्रकार की नजर पडी हो
उनकी उंगलीयाँ पानी से लबालब भरे खेतों में एक नग्न नर्तकी की तरह नाच रही थी ।
वह तमाम युवतीयाँ
जो रेड कारपेट पर चलने से फिसल गयी थी
अब धूल धूसरित रास्तों में
चलने को अभ्यस्त हो गयी थी
वह अपनी पैरों की फटी ऐड़ीयाँ सिल रही थी
जो रेड कारपेट पर चलने से फिसल गयी थी
अब धूल धूसरित रास्तों में
चलने को अभ्यस्त हो गयी थी
वह अपनी पैरों की फटी ऐड़ीयाँ सिल रही थी
वह युवतीयाँ
जो पगडंडीयों में बलखाती चल रही थी
वह युवतीयाँ जो अपनी आँखों में कोयले झोंक रही थी
उनके कपड़े सदियों से मैली और कुचैली थी
वह वैश्विक संस्थाओं की बड़ी बड़ी होर्डिंग्स में
किसी मुहिम में शामिल
कोई पोस्टर गर्ल भी नहीं थी
जो पगडंडीयों में बलखाती चल रही थी
वह युवतीयाँ जो अपनी आँखों में कोयले झोंक रही थी
उनके कपड़े सदियों से मैली और कुचैली थी
वह वैश्विक संस्थाओं की बड़ी बड़ी होर्डिंग्स में
किसी मुहिम में शामिल
कोई पोस्टर गर्ल भी नहीं थी
मेरी कविताओं की औरते
जो खदानों में कोयले चुन रही थी
वह निराला की “ पत्थर तोड़ती “ औरतों से थोड़ी भिन्न थी
उनकी हथौडे से आ रही आवाज़े
पत्थरों से कर्कश आवाज़े नहीं थी
वह मद्धिम सी गुनगुना रही थी
वह आवाज़ थोड़ी दबी दबी सी थी
जो खदानों में कोयले चुन रही थी
वह निराला की “ पत्थर तोड़ती “ औरतों से थोड़ी भिन्न थी
उनकी हथौडे से आ रही आवाज़े
पत्थरों से कर्कश आवाज़े नहीं थी
वह मद्धिम सी गुनगुना रही थी
वह आवाज़ थोड़ी दबी दबी सी थी
मेरी कविताओं की नायिकाये
आलोक धन्वा की “ घर से भागी हुई लड़कीयाँ “ हो सकती है
वह युवतीयां/ लड़कीयां जो घर से भागी हुई थी
या भगा कर लायी गई थी
वह माया नगरी की सिल्वर स्क्रीन के टेस्ट में कास्टिगं काऊच की शिकार हो गई थी
दो- चार "सी" ग्रेड फिल्मों में भूमिकाओं के बाद
वह सोनागाछी, खिदि्दरपुर
और चिरकुंडा की गलियों में सीतारामपुर
और लच्छीपुर में अपनी सुदंरता की
जलवे बिखेर रही थी ।
आलोक धन्वा की “ घर से भागी हुई लड़कीयाँ “ हो सकती है
वह युवतीयां/ लड़कीयां जो घर से भागी हुई थी
या भगा कर लायी गई थी
वह माया नगरी की सिल्वर स्क्रीन के टेस्ट में कास्टिगं काऊच की शिकार हो गई थी
दो- चार "सी" ग्रेड फिल्मों में भूमिकाओं के बाद
वह सोनागाछी, खिदि्दरपुर
और चिरकुंडा की गलियों में सीतारामपुर
और लच्छीपुर में अपनी सुदंरता की
जलवे बिखेर रही थी ।
कुछ युवतीयां जो उन गुनाहों से बच गयी थी
जिनकी कीमत उनकी सुंदर चमड़ीयों की वजह से लगायी जा रही थी
वह युवतीयाँ काली दीवारों पर चुनवा दी गयी थी
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जिनकी कीमत उनकी सुंदर चमड़ीयों की वजह से लगायी जा रही थी
वह युवतीयाँ काली दीवारों पर चुनवा दी गयी थी
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विजय कुमार
पेशा - सामाजिक कार्यकर्ता, सचिव- जीवनधारा (सामाजिक संस्थान)
लेखन कार्य
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दो वर्षो
से स्वतंत्र लेखन
सम्पर्क न- 9097217563
स्थायी पता: द्वारा- मिलन चन्द महतो, कृषि बाज़ार प्रांगण के नजदीक, भवानीपुर साईट, चास, बोकारो- 827013
अद्भुद कवितायेँ हैं। इन सभी चित्रों से परिचित होने के कारण कवि के दर्द को समझ पा रहा हूँ। शुभकामनाएं। संग्रह लायक कवितायेँ हो जाए तो संपर्क कीजियेगा विजय जी।
ReplyDeleteजी बहुत शुक्रिया
DeletePoora sach
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ।
ReplyDeleteआप सभी दोस्तों का बहुत बहुत आभार
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