कलम
से कलाकार के जीवन का संबंध किसी फार्मूला, नियम
या सिद्धांत के अनुसार नहीं होता। कलम से उत्पन्न तथ्य, सत्य, विचार
और वेदना के आधार पर रचनाकार के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण मूल्यांकन कर लेना
मासूमियत भरी नादानी से भी ज्यादा घातक है। जीवन में रचनाकार हूबहू वही नहीं होता, जो
रचनाओं में प्रकट करता है। यह जरूर है कि जो शब्द-शिल्पी कलम और जीवन के बीच कठिन
फासले को पाटने का जितना ही-ईमानदार प्रयास करता है-वह उतना ही प्रामाणिक और
विश्वसनीय सर्जक बनता है। सृजन के मैदान में स्त्री-पक्षघरता का प्रबल योद्धा, बहुत
संभव है- व्यक्तिगत जीवन में स्त्री के प्रति असंवेदनशील और काफी हद तक स्त्री
विरोधी हो। दरसल साहित्य स्वप्न, आकांक्षा, उद्देश्य, और
कल्पना का मोहक मानचित्र है, जबकि यथार्थ के कठोर धरातल पर जीवन
चाहे लेखक का हो या आम व्यक्ति का सपनों के अनुसार नहीं जीया जा सकता। भरपूर उम्र
जीना संासारिक विसंगतियों से समझौता करने का दूसरा नाम है। कई बार लेखक अपने जीवन
को, अपनी कलम से कही गुना ऊपर उठा लेता है और कई
बार वह अपने जीवन को अपनी कलम की अपेक्षा कई गुना नीचे गिरा लेता है। दलित सत्ता
का पक्षधर अपने जीवन में दलित विरोधी. है। ब्राहमणवाद की बखिया उधेड़ने वाला
प्रगतिशील आलोचक बनियान के नीचे छः सूत वाला फंदा लटकाए हुए हैं।
सम्भव
है जीवन में संकीर्णता का गुलाम और आत्मग्रस्तता का रोगी रचनाकार श्रेष्ठ सिद्ध हो
जाय, कालजयी कहलाने लगे और युगप्रवर्तक का मुकुट
धारण कर ले, किन्तु इससे उसके व्यक्तित्व को बेमिसालियत साबित नहीं हो जाती। व्यक्तित्व
की महानता कलम की महानता की मोहताज नहीं। यह अवश्य है कि व्यक्तित्व की विलक्षणता
सृजन की अद्वितीयता में चमक भर देती है। पिछले 25-30
वर्षों के हिन्दी-साहित्य में ‘पापुलर’ रचनाओं
की भरमार है-किन्तु सर्वप्रिय व्यक्तित्व का घनधोर अकाल है आजकल। प्रगतिशील
दक्षिणपंथियों के साथ मुँह,में मँुह डाले गप्पें लड़ा रहे हैं। जन
पक्षधर लेखक जनता के दुश्मनों के साथ काॅकटेल पार्टियों का सुख लूटने में मग्न
हैं। इसमें क्या दो मत कि समय की चाल-ढाल को नये साँचे में ढाल देने वाला सर्जक
जीवन में अपनी कलम का मूर्तिमान व्यक्तित्व होता है- किन्तु ऐसा सभी रचनाकारों के
साथ लागू नहीं होता। टालस्टाॅय चरित्र-संयमी व्यक्ति न थे और न ही अपनी पत्नी की
कोमल आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील, किन्तु
‘अन्ना केरेनीना’ पढ़कर
आप टालस्टाय की कैसी मूर्ति गढ़ेंगे? राहुल
सांकृत्यायन महापंडित कहलाए, किन्तु देश- विदेश जहाँ गये वहीं एक
प्रेमिका। निराला वेदांती, भक्त हृदय के साथ गीतिका-अर्चना के गीत
रचने वाले- ओज पूर्ण उदात्तता की प्रतिमूर्ति किन्तु जीवन में मांस-मदिरा दोनों का
जमकर सेवन करते थे। लिखते समय तकलीफ हो रही है- मगर सच्चाई आज की यही है कि क्या
वरिष्ठ, क्या युवा दोनों पीढ़ियों में अधिकांश
प्रतिष्ठित, स्थापित और स्टार टाइप रचनाकारों ने
अपने जीवन में चारित्रिक पतन की सारी सीमाएॅ
तोड़ डाली हैं। नामवर जी श्रेष्ठ आलोचक हैं न ? मगर
जसवंत सिंह, आनन्दमोहन और पप्पू यादव की किताबों का
लोकार्पण एवं उनकी तारीफों का पहाड़ खड़ा कर देना उनके साथ जुड़े हुए अकाट्य तथ्य
हैं।
रचनात्मकता
दरअसल एहसासों में निरन्तर बहती रहने वाही- भाव धारा है, जो
कभी- कभार ही अपना अबाध, अप्रतिहत, प्रचंड
स्वरूप धारण करती है। अक्सर यह अन्तर्धारा चित्त में, बुद्धि-विवेक
में अन्तरात्मा और चेतना में बहती, सरकती, मचलती, घुमड़ती
प्रशांत किन्तु गहरी नदी की भाँति सक्रिय रहती है। यह रचनात्मक अनुभूति एक बिन्दु
की तरह है, सूत्र की भाँति या कहिए एक बीज जैसी, जो
किसी घटना, दृश्य, प्रसंग, दबाव
और परिस्थिति की प्रेरणा से बृृहद् रूप धारण करती है। मुक्तिबोध ने जिसे फैंटेसी
कहा वह तो प्रत्येक भाव साधक सर्जक में होती है। जहाँ सृजन है वहाँ फैंटेसी होगी
तय है यह। कलात्मक अनुभव खास क्षण में ही नहीं होता, बल्कि
चलते- फिरत, बतियाते, व्यस्त
रहते हुए भी होता रहता है। ऐसे न जाने कितने रचनात्मक एहसास यूँ ही साँस लेते हुए
बीत जाते हैं, जो कलात्मक शब्दों का ढाँचा हसिल न कर
पाने के कारण अभिव्यक्त नहीं हो पाते। हर रचनाकार दोहरा जीवन जीने के लिए अभिशप्त
है। एक उसका सांसारिक जीवन जिसमें उसकी घर- गृहस्थी है, परिवार
है, नात-रिश्तेदार हैं, सामाजिकता
है, उसके भारी-भरकम शिष्टाचार हैं और दूसरी ओर उसका
स्वयंभू, उन्मुक्त स्वचेत, सर्वगामी, अबाध
किन्तु दमित अन्तःव्यक्तित्व। जीवन की अन्तिम सांसों तक लेखक अपने इन्हीं दोनों
व्यक्तित्वों में पिसकर रह जाता है। अपने सांसारिक व्यक्तित्व की सफलता लेखक की
पराजय है और अन्तःव्यक्तित्व की सिद्धि उसकी जीत। अन्य मनुष्यों की तरह खाता-पीता, पहनता, व्यवहार
और बातचीत करता हुआ लेखक बिल्कुल साधारण मनुष्य की तरह नहीं होता। अर्थात् सामान्य
मानव की तरह वह जीवन बिता ही नहीं सकता। उसके हर कद्म में उसका रचनाकार अड़ंगा लगा
ही देता है। इसीलिए उसके द्वारा किया गया कोई भी कार्य लीक से, परम्परा
से, चलन और परिपाटी से हटकर होता है। आम व्यक्ति के
साधारण जीवन और एक रचनाकार के सामान्य जीवन में दिखाई पड़ता हुआ अन्तर भले न हो, किन्तु
अन्तर भारी पैमाने पर होता है।
रचनात्मकता
का व्याकरण अन्तिम रूप में अव्याख्येय, अपरिभाषेय
है। चूंकि यह प्रकृति प्रदत्त उर्जा है, अन्तर्दृष्टि
और अन्तः प्रज्ञा है इसीलिए प्रकृति की तरह यह रहस्यमय, शब्दातीत
और असीम है। लगभग क्या शत-प्रतिशत प्रत्येक श्रेष्ठ रचनाकार के सृजन का अन्तः
व्याकरण अलग- अलग होता है। यह अवश्य है-सृजन के स्तर का निर्धरण करने में सर्जक का
मानवीय संस्कार, जीवनमूल्य, संसार
के प्रति दृष्टिकोण, आत्म संघर्ष इत्यादि निर्णायक भूमिका
निभाते हैं। इसके अतिरिक्त सृजन की उम्र तय करने में कल्पना का बहुमुखीपन, अपराजेय
भावप्रवणता, निर्माणकारी चेतना और यथार्थ के
विश्लेषण की विलक्षण बाौद्धिकता केन्द्रीय महत्व की है। किन्तु ये सब मिलकर भी
रचना-प्रक्रिया को अन्तिम रूप से परिभाषित नहीं कर सकते। यदि पर्वत, समुद्र, वृक्ष, आकाश
और प्रातः काल पर दस श्रेष्ठ कवयित्रियों को कविता लिखने को कह दिया जाय, तो
आश्चर्यजनक रूप से दसों में दस प्रकार के मौलिक भावों की रश्मियाँ बिखरी हुई नजर
आएंगी। अर्थ निकला- एक ही विषय एक ही युग के असंख्य रचनाकारों में अनगिनत तरीके से अमिव्यक्त होने
की संभावना रखता है। ‘तीसरा क्षण’ निबंध
में मुक्तिबोध ने सृजन के तीन सोपानों की जो चर्चा की है- वह सभी कवियों पर कैसे
लाग् हो सकता है ? इसमें क्या दो मत कि हजारों रचनाकारों
की रचना प्रक्रिया की कुछ विशेषताएँ समान रूप से पायी जाती हैं- चाहे वे रूसी, जापानी, फ्रंसिसी, अमेरिकन, भारतीय
या किसी भी देश के क्यों न हों?
यह
रचना प्रक्रिया अभाव के दर्द, न्याय के संकट, इच्छित
की आकांक्षा और ‘होना चाहिए’ की
पवित्र जिद से उपजती है। कल्पना प्रवणता प्राणतत्व है रचना प्रक्रिया का। सर्जक
विषय के सम्पूर्ण अन्तर्बाह्य से ज्यों-ज्यों एकाकार होता जाता है, त्यों-त्यों
रचना प्रक्रिया आकाशी बिजली की भाँति आलोकमय होकर कई दिशाओं में फैलने लगती है।
विषय के स्वरूप को अमिट बनाने के लिए सर्जक जिस ढंग के ताकतवर और सटीक शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों
और उपमाओं की खोज करता है, यदि वे सब मिल गये, तो
समझिए कवि की सृजन-साधना पूरी हुई। यह रचना प्रक्रिया झाड़ियों, पत्तियों
से ढंके हुए मार्गशून्य क्षेत्र में प्रशस्त्र और दिशापूर्ण मार्ग का निर्माण करना
है। आत्म सजग रचनाकार ही अपने सृजन के जटिल कारणों की बारीकी से पकड़ पाता है और
उसे सुचिन्तित वाक्यों के बल पर दक्षतापूर्वक विश्लेषित कर पाता है।
सृजन
की मनोदशा खुद को श्रमपूर्वक निचोड़ने, कसने, दुहने
और रगड़ने की पीड़ा ही है। सृजन की पीड़ा आत्मविभोर भी करती है और अवसाद् का तूफान भी
रच देती है। वह एक तरफ भावविह्वल और कमजोर कर देती है तो दूसरी ओर कवि को चट्टान
से कई गुना सशक्त मन वाला बना भी देती है। निश्चय ही सृजन के क्षणों में मन अपने
विलक्षणतम स्वरूप में होता है- अप्रत्याशित चमक के साथ, अनोखे
भावावेग के साथ, अलौकिक अनुभूतियों के उठते-गिरते
ज्वारभाटा के साथ। यह क्षण आभ्यान्तरिक
प्रज्ञा की परम सजगता का, विवेक के उर्जस्वित तनाव का और खुद कवि
द्वारा उठा लिए गए पृथ्वी, सृष्टि, जीवन
संरचना के अनंत दबाव का क्षण होता है। ऐसे क्षण में शब्द सप्राण, साकार, और
सक्रिय हो उठते हैं। अब तक अज्ञात शब्दों के अर्थों की ताकत ऐसे क्षण देखते ही
बनती है। सृजन का यह क्षण अपने चरम प्रकाश के साथ काँपती हुई लौ का रूपक समझिए, अत्यन्त
अस्थिर, क्षणिक, समाप्तशील
किन्तु अ़िद्वतीय मूल्यवत्ता से परिपूर्ण। नैसर्गिक विवेक, कल्पना
की मौलिकता, विलक्षण विश्लेषणत्मक बुद्धि और
भावावेग जब अपने श्रेष्ठ स्वरूप में एक साथ मिलते हैं तो सृजनात्मकता संभव होती
है। भाव प्रवणता सृजन की महागुरु है। उसके बग़ैर अविस्मरणीय सृजन अपना पाँव टिका ही
नहीं सकता। संतोष, आत्मतुष्टि और समबुद्धि की मानसिकता
में सृजन सम्भव नहीं। सृजन प्रश्न की पीड़ा है, दबाव
की प्रतिक्रिया है, चाहिए को हासिल करने की जिद और सघन
आलोचनात्मक बुद्धि का रचनात्मक प्रतिफल है। कविता सर्वाधिक नैसर्गिक विधा है जो
लिखी नहीं जाती, बस घटित हो जाती है, उतर
आती है, अचानक बरस जाती है- फट पड़ती है, न
जाने किस अप्रत्याशित मनोदशा में लक-लक
नाचती हुई कागज पर स्थिर हो जाती है। है तो यह कवि- व्यक्तित्व की चमक ही किन्तु
कुछ क्षणों के लिए कवि को अपने आगोश में समेट लेती है और कवि उस आभ्यान्तरिक चमक
के व्यामोह में डूबा हुआ देशकाल के एहसास को खो देता है।
मुक्तिबोध
ने पहली बार फैंटेसी शिल्प को हिन्दी कविता में सम्भव किया, किन्तु
वे इस शिल्प की आधारभूमि का मुकम्मल निर्माण न कर सके। इसे ‘अनुभव
की कन्या’ मात्र कह देने से बात पूरी नहीं हो
जाती। दरसल यह समकालीन हिन्दी का भावी शिल्प है, कवि
का चुनौतीपूर्ण शिल्प, जो कि किसी-किसी कवि के हाथों ही सध
पाता है। मुक्तिबोध अब तक के सफलतम फैंटेसीकार। जटिलतर समय की दर भयावहता और
रहस्यमयता से सफलतापूर्वक टकराने वाला ऐसा बेजोड़ शिल्पी हिन्दी में आज तक खड़ा नहीं
हुआ। अद्वितीय कल्पना शक्ति, बेजोड़ व्याकुलता और असाधारण बौद्धिकता
के विलक्षण संतुलन से फैंटेसी सम्भव होती है। अतिशयोक्ति, चमत्कार
या अतिरेक के रूप में दिखती हुई यह शैली दरअसल यथार्थ के ही चरम विस्तार की आहट
है। वह विस्तार चाहे विकृत रूप में हो या सुगठित रूप में। फैंटेसी यथार्थ के
भविष्य पर फोकस है। लगभग प्रत्येक कवि इच्छाओं के स्तर पर फैंटेसीधर्मी होता है
किन्तु अभिव्यक्ति वह उस दक्षता के साथ नहीं कर पाता, जो
सघे हुए फैंटेसी कार के लिए जरूरी है।
बिम्ब, मिथक
और प्रतीक सदियों से काव्यकला के मौलिक तत्व रहे हैं, किन्तु
इसकी भी सीमाएं हैं। कविता में वे ही बिम्ब और मिथक टिक पाए हैं, जो
समय के अनुसार प्रासंगिक रहे हों, या फिर अपने पुरानेपन को झाड़कर नये, सामयिक
अर्थों से लैस हो गये हों। इसमें क्या दो मत कि अर्थग्रहण के लिए बिम्बग्रहण आवश्यक
है। कविता में बिम्बग्रहण कभी भावों के आकार में, कभी
विचारों के आकार में, कभी अपने पूर्वानुभवों तो कभी
व्यक्तिगत अनुभूतियों के रूप में ग्रहण होता है। समझ लिया गया बिम्ब जब हमारे
अनुभवों के ‘सम’ पर
बैठता है-तो मौलिक अर्थों का विस्फोट करता है, नये, मौलिक
अर्थों की रश्मियाँ पैदा करता है। इतना ही नहीं, बिम्ब
हृदय में कविता के जीवित व्यक्तित्व की स्थापना करता है। एक प्रकार से सार्थक
कविता का अनिवार्य गुण है बिम्ब। कविता में बिम्ब स्वाभाविक, बोधगम्य
और मौलिक होना चाहिए, बिल्कुल अछूता, जिसका
इस्तेमाल कवि की जानकारी के दायरे में फिलहाल किसी भी कवि ने न किया हो।
रवीन्द्रनाथ, जयशंकर प्रसाद या मुक्तिबोध इसलिए भी
समय प्रवर्तक सर्जक सिद्ध हुए- क्योंकि उनके बिम्ब सिर्फ उन्हीं के बने रहे। न तो
उनका प्रयोग पहले कभी हुआ था, न ही बाद में कभी हुआ।
अलक्षित, अव्यक्त
और मौलिक सत्यों से भरे पड़े विषयों का चुनाव करना मेरी सृजन- प्रक्रिया की
केन्द्रीय प्रवृति है। ऐसा सत्य या अर्थ जो साहित्य की
किसी विधा में व्यक्त कर दिया गया हो और जिसे हमने पढ़ लिया हो, जान
लिया हो उसे अपनी कलम द्वारा शब्दबद्ध करने से बचता हूँ। यदि किसी दबाव में आकर
बार-बार दुहराए गये विषयों पर लिखना ही पड़ जाय तो भीतर एक विनम्र जिद घुमड़ती रहती
है कि कैसे इस ‘रिपिटेड’ विषय
की नयी व्याख्या की जाय ? कैसे तमाम व्याख्याओं की कतार से अलग
निकाल लिया जाय ? इस मंशा का एक कारण यह भी है कि दुनिया
भर के सैकड़ों विलक्षण रचनाकार मिलकर भी किसी एक विषय की सम्पूर्ण व्याख्या, मूल्यांकन
और दार्शनीकरण नहीं कर सकते। मेरे सृजन का दूसरा पहलू वे सर्वसामान्या, चिर-परिचित, सर्वज्ञात
मुद्दे भी हैं जो लगभग प्रतिदिन हमारे मानस को छूते हैं, उद्वेलित, प्रेरित
और प्रभावित करते हैं। लगातार बदलते हुए अत्याधुनिक मनुष्य का अलक्षित मन हमारे
सृजन का रूचिकर विषय रहा है। जटिल, गूढ़
और उलझे-पुलझे विषय के मर्म को नये, ओजपूर्ण
और व्यवहारपूर्ण अन्दाज में पेश कर देना मेरी कलम का लक्ष्य है। जटिल भाषा-शैली और
गांठदार वाक्य संरचना में रचना को प्रस्तुत करना हमें पाठकों पर साथ ज्यादादती
लगती है। अनुछुई अनुभूतियों को बेलीक मौलिकता के साथ रचनाबद्ध करना मेरे रचनाकार
का शौक है- प्रथम और अन्तिम शौक।
कवि
एक साथ सैकड़ों, बल्कि कहिए हजारों प्रेरणाओं से
संचालित, नियंत्रित और सक्रिय होता है। समर्थन
और विरोध, स्वीकार और इंकार, सम्मान
और अपमान, प्रेम और घृणा, प्रसिद्धि
और गुमनामी सभी से वह सृजन की ओर प्रेरित होता है। कई बार उसके प्रशंसक, समर्थक
और हितैषी उसकी कलम में वह उर्जा नहीं भर पाते जितना कि उसके निन्दक, घोर
विरोधी और खिल्ली उड़ाने वाले भर देते हैं। सर्जन की क्षमता पर उठी हुई अंगुलियाँ
एक न एक दिन उसे ऊँचाई देने का सबसे बड़ा कारण सिद्ध होती हैं। क्योंकि अपनी क्षमता
के खिलाफ उठा हुआ तूफान अनिवार्यतः उसे चट्टान बनने की जिद भरता है। प्रशंसा जहाँ
कवि को आत्ममुग्धता की नींद में सुला देती है, निर्मम
आलोचना वहीं सचेत करती हुई आगे बढ़ने की जागृति से भर देती है।
एक
दूसरे स्तर पर अब तक मिले हुए संस्कार सृजन की प्रेरणा बनते हैं। जिस अतीते, जिस
समाज, जमीन, आकाश, राग-रंग, दुख-सुख, जय-पराजय
को कवि ने जीया है- उसे ही कविता के बहाने दुबारा जी लेना, उसमें
नहा लेना, चिŸा
को मल-मलकर धो लेना चाहता है। अपने ही शब्दों के मंत्र फूंक-फूंक कर कवि अपने आपको
जीवित करना चाहता है। जिस जमीन पर, जिस
समाज में और जिस वातावरण में वह पला-बढ़ा है- वे सैकड़ों प्रकार से अभिव्यक्त होने
के लिए कवि को बार-बार पुकारते हैं।
जिस
तरह सोचना अनैच्छिक क्रिया है, उसी तरफ कल्पना करना। संवेदनशील
मस्तिष्कधारी प्रत्येक मानव किसी न किसी रूप में कल्पना करता है। किन्तु रचनाकार विधायक कल्पना का मालिक होता है। इसे
हम निर्माणक, सर्जनात्मक या कलात्मक कल्पना भी कह
सकते हैं। प्रत्येक भाषा के आलोचक और कवि ने सृजन में कल्पना की भूमिका को
अनिवार्य माना है। मुक्तिबोध ने तो इसे ‘जीवन
की पुर्नरचना’ (कामायनी: एक पुनर्विचार) के अर्थ में
परिभाषित किया। दरअसल यह कल्पना कुछ और नहीं, नये
अर्थ को कलात्मक ढंग से पेश करने के लिए उध्र्वगामी चेतना की उड़ान है। विषयों में
मौजूद, किन्तु अदृश्य तथ्यों और सत्यों की खेाज है और
दृश्य को दर्शन में तब्दील करने की तरकीब है। कोरी बुद्धि से प्रेरित कल्पना सृजन
की किसी भी विधा को गहरी क्षति पहुँचाती है, जबकि
भावोद्वेलित कल्पना विषय के अर्थ में अद्वितीय आकर्षण का रस भर देती है। यही
कल्पना अभिव्यक्ति के स्तर को दिशा देती है, अनुभूति
को प्रामाणिक बनाने वाला शब्दों का चयन करती है और मृत पड़े हुए हजारों-लाखों
विषयों को पुनर्जीवित करती है।
यह
कल्पना ही है जो दुहराव के बासीपन से कवि को बचाती है और ऐसे-ऐसे वाक्यों को पेश
करती है, जो अपने निहितार्थ में मौलिक न होते
हुए भी प्रस्तुति के स्तर पर नयापन लिए होते हैं।
काव्य
सृजन न तो आवेश-शून्य होता है, न ही आवेग पूर्ण ; बल्कि
यह नवोन्मेषशाली अन्तःविवेक से नियंत्रित एक धीमा किन्तु सतत भाव-प्रवाह है। यह
अवश्य है कि सृजन की प्रक्रिया में यह प्रवाह कभी तरंग की तरह उछाल भरता है तो कभी
बर्तन में लबालव ठहरे हुए पानी जैसा हो जाता है। श्ेचवदजंपदपवने वअमतसिवूश् की
अवस्था सृजन में बड़ी मुश्किल से, एकाध बार ही घटित होती है। आवेगमयता
सहज साध्य नहीं, बल्कि परिश्रमपूर्वक हासिल की जाने
वाली चुनौती है। कई बार विषयों के भीतर भरे हुए असाधारण मर्म सर्जना में आवेग भर
देते हैं, और कई बार स्वयं कवि में ही इतना रस, इतनी
भावुकता, इतनी बेचैनी भरी रहती है कि मामूली से
मामूली विषय में भी तरंगित अर्थों का वह नजारा खड़ा कर देता है। आवेग का निकष है, चरम
है- अर्थों की मौलिकता, विलक्षणता। विषय की तहों में
घुसते-उतरते हुए कवि जितनी ही ईमानदारी, प्रखर
दृष्टि और सूक्ष्म बौद्धिकता का इस्तेमाल करता है, उसमें
भावावेग उतना ही लहरदार होता चला जाता है। सच्ची आवेगमयता सृजन में चुम्बकत्व लाने
के साथ-साथ नायाब अर्थों की गरिमा से रचना को भर देती है। यह एक दुर्लभ भावदशा है, जो
कि लहर के शिखर की भाँति अत्यन्त क्षणिक, अस्थायी
किन्तु बहुमूल्य होती है। ज्ञान, अनुभूति, संस्कार
और आत्मप्रकृति एक साथ मिलकर सर्जनात्मक भावावेग को जन्म देते हैं। खािलस
आवेगपूर्ण कविता सृजन के आकर्षण का खोखला भ्रम है और आवेगशून्य कविता भी सृजन का
रेगिस्तान है। आवेग का स्तर कैसा और कितना हो- यह कवि के सिवा और कोई नहीं तय कर
सकता।
सृजन
ही नहीं, कला के किसी भी क्षेत्र में प्रतिभा का
कोई जोड़, कोई विकल्प नहीं है। अभ्यास प्रतिभा
की चमक को, उसकी ताजगी को बरकरार रखता है। प्रतिभा को असाधारण स्तर की पूर्णता अभ्यास से ही
मिलती है। आचार्य भामह ने तो मात्र ‘प्रतिभा’ को
ही काव्य हेतु के रूप में स्वीकार किया। किन्तु दण्डी के अनुसार प्रतिभा के
साथ-साथ व्युत्पŸिा (शास्त्र ज्ञान) और अभ्यास भी काव्य
सृजन के मौलिक कारण हैं। न सिर्फ संस्कृत के वैयाकरणों, बल्कि
हिन्दी के मर्मज्ञ आलोचकों ने भी काव्य सृजन में इन तीनों की महŸाा
को स्वीकार किया है। जबकि इनके अलावा काव्य-सृजन में एक अन्य तत्व का भी केन्द्रीय
महत्व है- वह है- कवि-व्यक्तित्व। कवि में प्रतिभा है, वह
प्रचुर अभ्यास का मालिक है, साथ ही शास्त्रों का, काव्य-सिद्धान्तों
का ज्ञाता भी है, किन्तु वह व्यक्तित्वहीन शून्य है-
शर्तिया बड़ा रचनाकार नहीं हो सकता। इनमें मात्र ‘प्रतिभा’ ही
वह अद्वितीय गुण है, जो अर्जित नहीं किया जा सकता। बाकी
तीनों अर्थात् व्यक्तित्व, शास्त्र ज्ञान और अभ्यास कर्म साध्य
हैं। कवि के जीवन की कोई दिशा नहीं है, वह
रीढ़ का लुजलुज है, उसकी मुट्ठियाँ, बंधने
की कला भूल चुकी हैं, वह मौका देखकर किधर भी लुढ़क जाता है, उसकी
अपनी कोई प्रतिबद्धता, पक्षधरता और स्टैंडर्ड नहीं है- समझिए
प्रतिभा का अवतार होते हुए भी दो क्या, एक
कौड़ी का भी लेखक नहीं है। इसलिए व्यक्तिगत तौर पर मैं प्रतिभा, व्युत्पŸिा
और अभ्यास की कीमत को स्वीकार करते हुए भी सर्वाधिक, बल्कि
असीम महत्व ‘व्यक्तित्व’ को
देता हूँ। हजारों दिशाओं में अपनी चेतना की तरंगों को फेंकने वाले सर्वगामी
व्यक्तित्व को।
सृजन
कोई तनाव, पीड़ा या दबाव नहीं है - यदि कुछ हद तक
है भी तो सृजन के प्रारंभिक चरण के रूप में। सृजन अपनी असली ऊँचाई में एक प्रवाह, विस्फोट
और प्रस्फुटन है। सृजन में भाषा की केन्द्रीय भूमिका को कौन अस्वीकार कर सकता है ? किन्तु
बड़े से बड़ा कवि भी अपनी रचनात्मक अनुभूतियों को भाषा के द्वारा पूर्णतः प्रकट नहीं
कर सकता। समुद्र से भी अधिक प्रचण्ड भावावेगों को पूर्णतः प्रकट करने वाली आज तक
कोई भाषा बनी ही नहीं। प्रत्येक विषय अपनी प्रकृति के अनुसार, कवि
से समर्थ भाषा की मांग करता है। या यों कहें- योग्य शब्दों का पाना विषय का हक है।
जो कवि अपने विषयों को सर्वाधिक योग्य भाषा दे दिया- वह अपने युग का सर्वाधिक सफल
कवि बनता है। कविताएं रचने के दौरान मेरी भाषा का तनाव, समसामयिक
बने रहने की तीव्र आकांक्षा है। अर्थात् अपने समय की प्रचलित, व्यावहारिक
और सर्वमुखी भाषा ही हमारी रचनात्मकता की प्रिय भाषा है। जो अपनी सहजता के बावजूद
कलात्मकता के टटकेपन से लबरेज हो, और कलात्मक होने के बावजूद पाठक की
अपनी भाष लगे। इसी कलात्मक सहजता को साधने की कशमकश ही तथाकथित शब्देां में हमारी
रचनात्मकता का तनाव है। दुहराना जरूरी है कि सृजन के क्षणों में तनाव को जीने वाला
कवि पहलवान हो सकता है- उस्ताद नहीं।
यहाँ बार-बार याद हो उठता है- एमर्सन
का यह वाक्य - ‘‘केवल प्रतिभा ही लेखक नहीं बना सकती, कृति
के पीछे एक व्यक्तित्व भी होना चाहिए।’ यह
व्यक्तित्व न तो पूर्णतः अभ्यास साध्य है, न
ही संस्कारगत- बल्कि संस्कार और अभ्यास दोनों मिलकर व्यक्तित्व का निर्माण करते
हैं । काव्य-रचना में कवि का व्यक्तित्व
रस की भूमिका निभाता है।
जिस प्रकार गन्ने में रस, पेड़
में पानी और शरीर में रक्त बाहर से न दिखाई पड़ते हुए भी अपनी संजीवनी भूमिका
निभाते हैं- ठीक उसी प्रकार कविता की शरीर में प्राण फूंकने का कार्य कवि का
व्यक्तित्व करता है। सांसारिक जीवन में कवि जहाँ नहीं दिखता- वहाँ अपनी रचनाओं के
बहाने मौजूद होता है। सच्चाई यहाँ तक है कि दुनियावी सोच-विचार, प्रवृŸिा, आकांक्षा
और सपनों वाला कवि साधारण काव्यात्मकता से ऊपर नहीं उठ सकता। व्यक्तित्व की कसौटी
वाणी, व्यवहार और जीवनशैली तो हैं, किन्तु
अन्तिम कसौटी नहीं। व्यक्तित्व की प्रामाणिक कसौटी हैं- प्रवृŸिायाँ, आदतें, हुनर, कौशल, सोच, विवेक, अन्तर्दृष्टि, चेतना
और संवेदनशीलता। स्वाभाविक रूप से ये सबकी सब आन्तरिक होती हैं। इसीलिए वाह्य
व्यक्तित्व के आधार पर किसी के स्थायी व्यक्तित्व का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
कविता के अर्थ में विलक्षणता इस रहस्य से तय होती है कि कवि अपनी सोच में कितना
पारदर्शी, वैज्ञानिक और तर्कप्रेमी है। उसका
अन्तःविवेक कितने व्यापक स्तर पर जाग्रत है। उसकी बहुआयामी चेतना सृष्टि की असीमता
में कितना घुसपैठ लगा सकती है।
तात्विक
दृष्टि से गद्य और पद्य में कोई अन्तर नहीं है। यह अवश्य है कि गद्य अपने शिखरत्व
की दशा में पद्य बन जाता है- चाहे वह कहानी हो, उपन्यास
हो, आत्मकथा हो या..............। इसके बावजूद
दोनों को एक तराजू पर तौल देना न्यायसंगत नहीं। पद्य में अर्थ का अन्तराल व्यंजना, ध्वनि
या गूंज में होता है जबकि गद्य में अर्थ का अंतराल न दिखने वाले महीन तार के रूप
में। गद्य, विषय में निहित अर्थ की पुनव्र्याख्या
या अभिनव प्रस्तुति है, जबकि पद्य विषय के अलक्षित अर्थ की
झंकार, प्रतिध्वनि या विस्फोट। इसीलिए पद्य में
उक्ति-वैचित्र्य जहाँ अमृत की तरह है- वही गद्य में महा घातक। गद्य और पद्य दोनों
का लक्ष्य सृष्टि के अनंत सत्यों का उद्घाटन करके मनुष्य को सजग, ज्ञानपूर्ण
और संवेदनशील बनाना। पद्य यह काम बहुत कम वक्त में बेहद गहराई के साथ सम्पन्न करता
है, जबकि गद्य यही काम भरपूर वक्त लेकर सम्पन्न
करता है। पद्य विषय के खास मर्मस्थलों का चुनाव है- जबकि गद्य विषय के एक-एक पक्ष
पर गिरने वाली रोशनी है। यदि विषय के व्यक्तित्व को सम्पूर्णता में समझना हो तो
गद्य का कोई विकल्प नहीं, किन्तु विषयार्थ की गहनतम तासीर का
एहसास करना हो तो पद्य का कोई जोड़ नहीं। इस प्रकार पद्य की ताकत अर्थ प्रकट करने
की भंगिमा है और गद्य की ताकत चुम्बकीय चित्रात्मकता। अपनी प्रकृति में भिन्न होने
के कारण दोनों विधाएँ रचनाकार से अलग-अलग मनोदशाओं की मांग भी करती है।
भरत
प्रसाद
एसोसिएट
प्रोफेसर
हिन्दी
विभाग,
पूर्वोत्तर
पर्वतीय विश्वविद्यालय
शिलांग
- 793022 मेघालय
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